शाम के छहः बज रहे हैं । पार्क में एक लड़का बैठा है सीट पर तभी पीछे से एक लड़की आकर उस लड़के के बगल में बैठ जाती हैं ।लडके का नाम अर्पित हैं और लडकी का शबाना ।ये दोनों अलग अलग मजहब के हैं जो इनके पहनावे से छलक रहा है लड़का हिदूं हैं और लड़की मुस्लिम
"ये जाड़े की तड़तड़ाती शाम और उस पर तुम्हारा इंतजार हाये जान निकाल देता है मेरी।" अर्पित ने कहा ।
" अच्छा इतना मसका क्यों लगाया जा रहा है मुझे? " शबाना मुंह बनाते हुए बोली
"समझदार हो समझ जाओ!"अर्पित ने शबाना के कंधे पर हाथ रखते हुए कहा ।
"समझ गई जनाब ।मेरे हाथों से बने उत्पम के लिए न" ।शबाना अर्पित की ओर देखकर मुस्कुराते हुए कहती है।
"हां यार तुम्हारे हाथो का उत्पम मिल जाए तो ये सरदी भी भाग जाए।" अर्पित हल्की सी मुस्कान के साथ बोला ।
"हां पर कैसे ? घर पर तो अम्मा अब्बू सब हैं। मैं तो यहां सहेली के घर का बहाना बनाकर आई हूँ ।"।शबाना डरते हुए बोली .
" यार कितनी डरपोक हो तुम जा के कह देना अपने शौहर के लिए उत्पम बना रही हूँ। अर्पित हसते हुए कहता हैं"।
"हां हां बिल्कुल क्यूँ नहीं तुम खुद क्यूँ नहीं चले जाते । कह देना आपकी बेटी के हाथ का खाने आए हैं। हम्म " ! शबाना मुँह बना के सीट से उठने लगती हैं।
"अरे रे मेरी जान ! गुस्सा हो गई"।अर्पित शबाना का हाथ पकड़ते हुए कहता है।
"छोड़ो मेरा हाथ । वरना!"शबाना अकड़ कर कहती हैं ।
"वरना क्या ?"अर्पित हसते हुए बोलता हैं।
"वरना ,वरना मैं चिल्ला दूँगी" ।
"हां तो चिल्लाओ" ।अर्पित भी मजाक के मूड में बोला
"बचाओं.............। "शबाना चिल्लाने लगती हैं
इतने मे अर्पित शबाना के मुँह पर हाथ रखते उसे अपनी ओर खींच लेता हैं और उसे अपनी बाहों में भर लेता है।
"इतना ही प्यार करते हो तो फिर इतना परेशान क्यों करते हो?"शबाना आखों मे आँसू लिए कहती हैं।
"अरे पगली तेरे अलावा और कौन हैं मेरे पास ? जिसे मैं परेशान करुं।प्यार भी तो तुझसे ही करता हूँ"।
इतने मै शबाना का फोन बजने लगता है ।
"कहाँ हैं तू जल्दी घर आ " फोन पर शबाना की अम्मी सरगम बोली
" हां अभी आई अम्मी " । शबाना फोन पर बोलतीं हैं। "छोड़ो अब अम्मी बुला रहीं ।बेफालतू मे शक हो जाएगा वरना उन्हें"। शबाना अर्पित के हाथ से अपना हाथ छुडा़ते हुए कहती हैं
"अच्छा बाबा लो छोड़ दिया जाओ"
शबाना जैसे ही उठकर जाने के लिए अपने पैर बढ़ातीं हैं।
"सुनो!"अर्पित चेहरे पर मुस्कान लिए कहता है।
" इबादत इतनी जुल्म न करना सनम
तड़प कर मर जाए कि ये आशिक तुम्हारा" ।
" हां शायर साहब मुझे याद हैं कल 10 बजे मजहार के पीछे वाले मंदिर में तुमसे मिलने आना है"। शबाना एक आ़ख बंद करते हुए कहती हैं ।
"अरे वाह तो तुम्हें याद है।ठीक है जाओ अब।" अर्पित भी अपने घर के रास्ते मुड़ जाता हैं ।
शबाना अपने घर पहुंचती ।
(शबाना का घर पुराने जमाने के हिसाब का हैं पर घर पक्का सीमेंट का है)
" क्या कर रही थीं तू सहेली के घर पर इतनी देर तक? " शबाना की अम्मी गुस्से में उसकी तरफ देखते हुए पूछंती हैं।(शबाना की अम्मी( सरगम) किचन में बर्तन धो रही हैं)
"कुछ नहीं अम्मी वो किताबो को ढूंढने मे वक्त लग गया उसके घर पर"। शबाना मुस्करातें हुए बोलीं ।
" मिल गई किताबें तो चल जा अब्बू के बिस्तर लगा दे उनके सोने का वक्त हो गया"।शबाना की अम्मी सरगम गुस्से में उसकी तरफ देखते हुए बोली।
"जी अम्मी"। शबाना कहते हुए अपने अब्बू के बिस्तर लगाने चली जाती हैं और एक कमरे में जाकर उनके बिस्तर लगाती हैं। शबाना एक बड़े बाप की बेटी थी और वहीं दूसरी तरफ अर्पित जिसके लिए एक- एक पैसे की कीमत लाखों के बराबर है ।पर इसके बाबजूद भी शबाना उसे बहुत प्यार करती क्योंकि उसके लिए प्यार पाने का मतलब सिर्फ अर्पित का साथ पाना है न कि धन-दौलत।
(शबाना अपने कमरे में जाती हैं जहां वो अपनी छोटी बहन के साथ रहती हैं)
" क्यों छुप छुप कर पार्क मे किससे मिल रही थी?"शबाना की छोटी बहन अफसाना बोली ।
"आज फिर अर्पित से मिली न तुम ।अप्पी तुम क्यों नहीं समझती अगर अम्मी ,अब्बू मे से किसी को भी पता चल गया न तो तुझे और उसे दोनों को मार डालेंगे।" शबाना की छोटी बहन अफसाना हैरानी के स्वर मे कहतीं हैं।
"तो मै कौनसा कोई जुल्म कर रही हूं ! प्यार करते हैं मैं और अर्पित एक दूसरे से।" शबाना इकराते हुए बोली ।
"हां तो तुम्हें ये भी पता हैं न कि वो हिन्दू हैं और हम मुस्लिम ! अम्मा अब्बू तुम लोग की मुहबबत कभी कुबूल नहीं करेंगे।" अफसाना चिल्लाकर कहती हैं
"मुझे फर्क नहीं पड़ता । मैं अर्पित से प्यार करती हूं तो करती हूं बस ।मैं उसे नहीं छोड़ सकती" ।शबाना घबराहट के भाव मे कहती हैं ।
"तुमको समझखना ही बेकार है अप्पी ।" अफसाना कहते हुए बिस्तर पर लेट जाती हैं
"हां तो मत समझा रात बहुत हो गई हैं ,चुप चाप सो जा। शबाना भी लेट जाती हैं
अगले दिन सुबह10 बजे शबाना छुप छुपकर अर्पित से मिलने मजहार के पीछे वाले मंदिर जाती हैं। मदिंर शिव जी का हैं ।(शबाना ने बुर्खा पहन रखा है)
"ये क्या ! मुझे बुला लिया और खुद नहीं आये अभी तक"।शबाना खुद मे बडबडाती हैं
" तभी पीछे से आकर कोई उसकी आखें अपने हाथों से मूंदता है"।
"हाय अललाह कौन है ये? "शबाना चिल्लाती हैं।
"पहचानों कौन हूँ मैं ?"
"हाँ ,हाँ पहचान लिया तुम्हारे अलावा और कौन हो सकता हैं"। शबाना हँस कर जबाब देतीं हैं।
" देखो मैं तुम्हारे लिए क्या लेके आया हूँ" । अर्पित पीछे से अपना हाथ आगे करते हुए कहता है ।
"गजरा ... तुम्हें पता है कि मुझे गजरा पंसद हैं।" शबाना खुश होकर कहती हैं ।
"हां जान हो तुम मेरी ।तुम्हारी पंसद नपंसद के बारे में मुझे नहीं पता होगा तो किसे पता होगा? अर्पित ने प्यार की नजर से शबाना को देखते हुए कहा ।
"अच्छा तो ये बताओ आज इतनी जल्दी मिलने क्यों बुलाया?" शबाना अर्पित से पूछती हैं।
" मंदिर के अंदर चलो पहले फिर बताऊंगा"। अर्पित शबाना का हाथ पकड़ते हुए कहत हैं ।
"अच्छा ठीक है! चलतीं हूँ " । शबाना अर्पित का हाथ पकड कर सीढियां चढ़ती हैं।
दोनों मंदिर के अंदर प्रवेश करते हैं।
" अब बताओ क्या हुआ। जनाब अब तो हम मंदिर भी आ गए।" शबाना अर्पित की ओर देखकर बोलती हैं ।
" मैं तुम्हें अपनी दुल्हन बनाना चाहता हूँ।इससे पहले कि तुम किसी और की दुनिया बनो मैं तुम्हें अपनी जिंदगी बनाना चाहता हूँ"।अर्पित ने बड़े ही भावपूर्ण स्वर में कहां।
"ये सुनकर शबाना के पैरों तले जैसे जमीन खिसक गई हो।"
"ये तुम क्या कह रहे हो? तुम्हें जरा भी अंदाजा हैं इसका नतीजा कितना खतरनाक हो सकता हैं।तुम्हें पता है न मेरे अब्बू कितने तेज हैं और उन्हें पता चला तो उनके गुंडे हमें जिन्दा जला देंगे"। शबाना रोते हुए बोली .
"अगर तुम मेरे साथ हो तो मुझे किसी की परवाह नहीं।तुम मुझसे प्यार करती हो न?"अर्पित ने कहां
"खुद से भी ज्यादा ,मैं तुम्हारे बिना एक पल नहीं रह सकती ।अल्लाह गवाह हैं मेरी मुहबबत का।"शबाना बोली
"पगली । मुझे पता है कि तूं मुझे कितना प्यार करती हैं।तो बताओ कब आऊ तुम्हारे अब्बू जान से अपनी जान मांगने अरे ! मतलब तुम्हारा हाथ मांगने।" अर्पित हसकर कहता है ।
"अभी तो अब्बू को प्यार से समझाना पड़ेगा।मैं उनसें खुद बात करुगी पहले ।फिर जब वो मान जाएंगे तो तुम आ जाना शादी की बात करने" । शबाना बोली
"जो हुक्म मेरी जान" ।कहते हुएअर्पितशबाना को जोरों से अपनी ओर खींच लेता हैं और बाहोँ मे भर लेता हैं ।दोनों मदहोशी के उस सफर मे डूबे थे कि उन्हें अंदाजा भी नहीं था कि सामने खड़े शबाना के अब्बू (असलम)उन्हें देख रहें है।
"शबाना.............।।। तो तूं कालेज के बहाने यहां गुलछर्रे उड़ाने आती हैं " ।शबाना के अब्बू असलम जोर से चिल्लाते हैं।
"असलम की चीख सुन कर दोनों होश में आते है।
"चल घर " । शबाना के अब्बू शबाना के बाल पकड़ के उसे घसीटते हैं ।
" शबाना ! अर्पित जोर से चिल्लाता हैं"।
"सुन तूं आज से दूर रहना मेरी बेटी से वरना तूं जिंदा नही बचेगा । शबाना के अब्बू अर्पित को धमकी देते और शबाना को पकड़ कर घर ले जाते है।
"बंद करदो इसे काल कोटरी मे ।आज से इसका घर से बाहर निकलना बंद।न कोई कॉलेज और नकोई पढाई कुछ नहीं होगा अब। शबाना के अब्बू शबाना की आम्मी सरगम को गुस्से में देखते हुए कहते हैं।
"क्या किया है इसने ऐसा ? ये तो बताईये " । शबाना की अम्मी सरगम असलम से पूछती है।
"बगल वाले शर्मा जी के बेटे के साथ मजहार के पीछे वाले मंदिर मे गुलछर्रे उड़ा रही थीं।तुम्हारी बेटी।" असलम चिल्लाते हुए कहते है
" शबाना की अम्मी गुस्से में उसे देखती हैं और उसे ले जाकर एक कमरे में बंद कर देती हैं और उससे उसका मोबाइल छुडा लेती हैं।"
दूसरी तरफ पूरे मुहल्ले में ये बात फैल चुकी थीं और अर्पित के पिता शर्मा जी के कानों तक भी पहुंच चुकी थीं।
(शर्मा की का घर बहुत ही छोटा है दो कमरो का मात्र)
शर्मा जी अर्पित को समझाने की बहुत कोशिश करते हैं पर अर्पित उनकी एक न सुनता।
अगले दिन शबाना के अब्बू अर्पित के पिता शर्मा जी से मिलने आते है।
"उन्हें देख कर पहले तो शर्मा जी डर जाते है ,लेकिन फिर उन्हें अंदर आकर बैठने को कहते है।"
"अर्पित कहां हैं?" शबाना के अब्बू पूछते है।
"जी खान साहब वो किसी काम से बाहर गया है।"शर्मा जी जबाब देतें हैं।
"शर्मा जी खबर तो आप तक भी पहुंच ही गई हैं। मैं नहीं चाहता कि बच्चों की नासमझी के पीछे हम हमारी समाजों मे बदनाम हो। मैंने सुना है आपके बेटे अर्पित को कलेक्टर की पढाई करना है पर पैसों की तंगी के कारण नहीं कर पा रहा है।"
"हां खान साहब मेरी पेंशन मे घर का खर्च ही मुश्किल से चलता है तो ऐसे में उसे कलेक्टर की पढ़ाई क्या करवाऊं"? शर्मा जी चिंता के स्वर में बोले ।
"शर्मा जी !आप फिक्र न कीजिए मैं दूगाँ आपको अर्पित की पढाई के लिए पैसा बस आप अपने बेटे अर्पित को यहां से कहीं दूर भेज दीजिए ताकि वो शबाना के आस-पास न घूम पाये जब तक मैं अच्छा सा लड़का ढूंढ कर उसका निकाह कर दूंगा " ।असलम साहब एक हाथ को दूसरे हाथ मे लपेटकर बोले
"मेरा प्यार चंद दौलत का मोहताज नहीं ।ये मुहबबत रुह से रुह की हैं आपकी सारी दौलत भी मेरे प्यार को नहीं खरीद सकती । मैं अपनी मुहबबत नही बेच रहा तो ये मुझे मंजूर नहीं।" सामने के गेट से आकर अर्पित जबाब देता है।
"ये क्या कह रहे हो तुम बेटा । हम मुहबबत थोड़ी ही बेच रहे।तेरी पढाई के लिए मदद ले रहे हैं। जब तूं कलेक्टर बन जाएगा तो हम ये पैसे लौटा देंगे।"शर्मा जी उठकर अर्पित के कंधे पर हाथ रखकर बोले।
"नहीं पिता जी मुझे किसी की कोई दौलत नहीं चाहिए"।
"माफ करना खान साहब बच्चा हैं ।आप फिक्र मत कीजिए मैं इसे सम्भाल लूगाँ। आप शबाना के निकाह की तैयारियां कीजिए"।शर्मा जी अर्पित की ओर गुस्से में देखते हुए खान साहब से कहते हैं।
" ठीक है शर्मा जी " ।इतना जबाब देकर खान साहब वहां से चले जाते हैं ।और शर्मा जी भी शबाना के अब्बू की तरह अर्पित को एक कमरे में बंद कर देते हैं।
"ये क्या कर रहे हो पापा दरवाजा खोलो" । अर्पित चिल्लाता हैं।
"नहीं अब ये दरवाजा जब खुलेगा जब असलम खान साहब की बेटी शबाना का निकाह हो जाएगा"। शर्मा जी गुस्से में जबाब देते है।
"नहीं पापा ऐसा मत करिए ,वो मेरे बिना मर जाएगी और मैं उसके बिना जी नहीं पाऊगां। आपको तो मेरा साथ देंना चाहिए और आप खान साहब का साथ दे रहा है "।अर्पित रोकर कहता है
"मैं किसी का साथ नहीं दे रहा मैं बस. अपनी इज्ज़त अपना रुतबा और तेरी जान की फिक्र कर रहा हूँ " । शर्मा जी जबाब देते हैं ।
वक्त निकलता जाता हैं शर्मा जी अर्पित को घर से बाहर नहीं निकलने देते और दूसरी ओर खान साहब ने शबाना का निकाह तय कर दिया ।शबाना दिन-राम कमरे में बंद पड़ी रोती रहती ओर इंतजार करती कि अर्पित किसी रोज आ के उसे इस निकाह से बचा लें।
"अप्पी, अप्पी । ये ले कागज और कलम ।तूं जल्दी से चिट्ठी लिख दे अर्पित तक मैं पहुंचा दूगीं"।शबाना की छोटी बहन अफसाना उससे कहती हैं ।
"पर तूं कैसे अगर अब्बू को शक हो गया ।तो तेरी जान को खतरा है"। शबाना ज्लदी से बोलती हैं।
"अप्पी तूं मेरी फिक्र न कर जितना कहाँ है उतना कर जल्दी "। किसी ने देख लिया तो आफत हो जाएगी।
शबाना जल्दी से चिट्ठी लिखती हैं और अपनी बहन अफसाना को देते हुए पूछती है।" तूं तो हमारे प्यार के खिलाफ थी फिर हमारा साथ क्यूँ दे रही हैं " ।
"अप्पी मेरे लिए तेजी खुशी से बढकर कुछ नहीं हैं।और मैं जानती हूं कि तुम अर्पित के बिना मर जाओगी" ।अफसाना शबाना के आसूं पोंछते हुए बोली।
शबाना चिठ्ठी लिखकर अफसाना को देती हैं ।अफसाना चिट्ठी लेकर कमरे से बाहर निकल जाती हैं।
अगले दिन अफसाना शबाना के निकाह का कार्ड देने के बहाने अर्पित के घर जाती हैं। अर्पित के घर उस वक्त कोई न था अफसाना धीरे से जाकर अर्पित कमरे मे कार्ड रखकर जल्दी वहां से भाग आती हैं। जिस वक्त अफसाना आई उस वक्त अर्पित सो रहा था , उसे जरा भी खबर न थी कि क्या हुआ और कौन उसके कमरे में आया।
थोड़ी देर बाद जब वो जागता है तो अपनी आँखों के सामने उस कार्ड को पाता है अर्पित जल्दी से उठाकर उस कार्ड को पढ़ने लगता हैं। जैसे ही वो कार्ड को पढ़ता है उसके पैरों तले जमीन खिसक जाती हैं ।शबाना के निकाह की खबर पढ़कर उसकी आंखें खून से लाल हो जाती हैं।अर्पित जैसे ही कार्ड को पढ़कर वापिस रखता है उसमें से एक चिट्ठी निकलती हैं ये वहीं चिठ्ठी हैं जो शबाना ने उसके लिए लिखी थी और अफसाना कार्ड में छिपाकर अर्पित तक पहुंचा गई थी।चिठ्ठी पढ़कर अर्पित के चेहरे पर एक नई चमक आ जाती हैं।जैसे उसे उसका प्यार वापिस मिल गया हो।
वक्त बितता गया और आज शबाना के निकाह का दिन आ चुका था ।लाल गुलाबी लहँगा मे शबाना नूर की परी लग रही थीं।
"अप्पी तूने सारी तैयारी कर ली न ये ले रस्सी जल्दी से खिडक़ी से कूदकर भाग जा ।" अफसाना आखों में आसूं लिए शबाना को बोलती हैं।
"पर यहां कौन किसी को पता चल गया तो ? " शबाना शिकन के भाव मे बोलती हैं।
"किसी को कुछ पता नहीं चलेगा । जल्दी करो तुम अप्पी।इसके पहले कि कोई यहां आ जाए तूं भाग जा जल्दी से ।"
शबाना खिडक़ी रस्सी फेंक कर नीचे कूद जाती हैं और वहां से भाग जाती हैं सीधे मस्जिद के रास्ते पर जहाँ उसने अर्पित को बुलाया था। पर उनकी बदकिस्मती कि खान साहब का नौकर शबाना को भागते हुए देख लेता हैं। वो दौड लगाकर अंदर जाकर खान साहब को सारी बात बताता है शबाना के भाग जाने की । ये खबर सुनकर खान साहब गुस्से से लाल हो जाते है और अपने गुडो़ को लेकर निकलते हैं।
खान साहब पहले शर्मा जी के घर जाते है।
अर्पित कहा है तू ? मै तुझे छोडूंगा नहीं। खान साहब अर्पित के घर जाकर उसे आवाज देते है।
अरे ! खान साहब आईये बैठिए ।क्या बात है ? आप इतने गुस्से में क्यों? शर्मा जी पूछते हैं।
अर्पित कहा है?
अर्पित तो आज अपने दोस्त के घर गया है।उसके दोस्त की बहन की शादी में।
"किसी दोस्त की बहन की शादी में नहीं गया है आपका बेटा " शर्मा जी वो मेरी बेटी को लेकर भाग गया।
"क्या?????????????"
"जल्दी करों ।वो अभी ज्यादा दूर नहीं पहुंचे होगें ।हम उन्हें पकड़ते हैं।"शर्मा जी खान साहब से कहते हैं।और वो सब अर्पित और शबाना को पकड़ने निकल जाते हैं।
दूसरी तरफ यहां शबाना भाग कर मस्जिद पहुंचती हैं ।अर्पित वहीं खड़ा उसका इंतजार कर रहा था।अर्पित को देखकर शबाना जाके उससे ऐसे लिपट जाती हैं जैसे वर्षों बाद उससे मिल रही हो ।अर्पित भी शबाना को ऐसे बाहों मे भर लेता है जैसे उसने तड़प-तड़प कर हर दिन इसी पल का इंतजार किया हो।
"हम भागकर सही तो कर रहे हैं न ?"शबाना रोते हुए अर्पित से पूछती है।
"हां बिल्कुल सही कर रहे हैं ।जब वो हमारे प्यार की परवाह नहीं कररहे तो हम उनकी इज्ज़त की फिक्र क्यों करें। अच्छा जल्दीचलों पहले यहां से अगर पकड़ गए तो मुश्किल हो जाएगी ।"
दोनों वहां से भाग जाते है।
पर आधे रास्ते मे खान साहब
उन्हें देख लेते है और उनके पीछे भागने लगते हैं।
"रुक जाओ अर्पित ! "असलम साहब चिल्लाते हैं।
" अभी भी वक्त हैं मेरी बेटी शबाना को छोड़ दो और अपनी जान बचा लो ।"असलम साहब फिर से चिल्लाते हैं
" हां अर्पित बेटा खान साहब सही कह रहे हैं ।छोड़ दे शबाना को" ।शर्मा जी भी चिल्लाते हैं।
पर वो दोनों किसी की बात पर कोई ध्यान नहीं देते हैं और एक दूसरे का हाथ पकड़ कर भागते रहतें हैं।
"आहहहहह ,ये क्या इन्होंने तो हमें घेर लिया अब हम कैसे भागेंगे"। शबाना जोर से चिल्लाती हैं और रोने लगती हैं ।
"तुम फिक्र मत करों।मैं हूँ न ।तुम बस मेरा हाथ पकडे रहना और चाहे कुछ हो जाए बस मेरा हाथ मत छोड़ना ।" अर्पित शबाना को समझाते हुए कहता है।
खान साहब और शर्मा जी चारों तरफ से घेर लेते हैं।
"अब कहा भागोंगे तुम दोनों? " खान साहब अर्पित के सिर पर बंदूक रखते हुए कहते हैं।
"नहीं अब्बू अर्पित को कुछ मत करो ।आपकी इज्ज़त मैंने बरबाद की हैं ।मरना हैं तो पहले मुझे मारो"। शबाना चिल्लाती हैं।
"नहीं खान साहब मुझे मारो पहले ।मैं आपकी इज्जत के साथ खेला। आप दोनों के लिए अपने बच्चों की खुशी से ज्यादा अपनी इज्जत प्यारी हैं। हमें मारने के लिए आप दोनों ने हाथ मिला लिया तो काश ऐसे ही हमारे प्यार के लिए मिला लिया होता तो आज ये दिन ही न आता।"अर्पित बोलता है।
"मुझे तुम्हारी नसीहतें नहीं चाहिए तुम बस मेरी बेटी को छोड़ दो।"असलम साहब कहते हैं
"नहीं अब्बू अब नहीं आज तक मैंने आपकी सारी बात मानी पर अब नहीं ।मैं अर्पित के बिना नहीं जी सकती। आप हमें साथ जीने नहीं दे सकते तो मरने तो दे सकते है न लो मार डालों हमें ।" शबाना गुस्से मे अपने अब्बू खान साहब से कहती हैं ।
खान साहब पिस्तौल से अर्पित पर निशाना लगाते हैं और गोली चला देते हैं पर शबाना आगे आजाती हैं और गोली शबाना के सीने मे जाकर लगती हैं।
"शबाना ,,,,,,,,,,,,,, अर्पित जोर से चिल्लाता हैं "।
असलम खान साहब के हाथ से बंदूक गिर जाती हैं और वो अपनी बेटी के पास जाकर चिल्लाकर रोने लगते हैं ।
अर्पित जाकर बंदूक उठा लेता है और खुद की खोपड़ी पर रखकर बोलता हैं -" मैं शबाना के बिना नहीं जी सकता वो मेरी जान थी और मैं उठतीं जिंदगी " । कहकर खुद को गोली मार लेता है और वहीं गिर जाता हैं।
असलम साहब और शर्मा जी वहीं अपने बच्चों की लाश के पास बैठकर आसूं बहा रहे हैं।
एक बार फिर सच्ची मुहबबत जीत गई।
कोई मजहब कोई धर्म कोई धन कोई दौलत सच्ची मुहबबत को नहीं खरीद सकता।
2-