man ke mausam in Hindi Love Stories by Dr. Vandana Gupta books and stories PDF | मन के मौसम

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मन के मौसम

चैतन्य
अभी बसंती बयार की आहट थमी नहीं थी, कि पतझर की सुगबुगाहट शुरू हो गई थी। ऋतु परिवर्तन सिर्फ बाहरी वातावरण में नहीं होता, एक मौसम मन के भीतर भी होता है... कभी बसन्त तो कभी पतझर.... बसंत आता नहीं, लाया जाता है…जो चाहे, जब चाहे, जैसे चाहे... बसन्त का स्वागत कर सकता है।

चैतन्य जब चाहता था उसका मन बसंती हो जाता था। वह सिर्फ अपनी आँखें बंद करता था और..... बसंती फूलों की महक सी गौरैया की यादें उसके नथुनों से होकर दिमाग तक पहुँच जातीं। प्रकृति में चारों और रंग बिरंगे फूल खिल जाते... बिल्कुल वही दृश्य उसे दिखाई देता जो गौरैया ने तूलिका से कैनवास पर उतारा था...
"ये हमारे सपनों का शहर है..." सुंदर लैंड्सकैप बनाने के बाद उसने कहा था।
"ह्म्म्म... और इस शहर के इस पेड़ के नीचे हमारा सपनों का आशियाना हम बनाएंगे..." चैतन्य ने कूची से एक बिंदु सा बना दिया था।
"और उस आशियाने में हम दोनों अपनी छोटी सी दुनिया बसाएंगे.."
"हाँ छोटी सी.... हम दो...हमारे दो.." चैतन्य की आँखों में शरारत थी।
"धत....." कहकर गौरैया शर्माकर जो पलटी... उसका संतुलन गड़बड़ाया... "आउच...!" गौरैया की आवाज़ सुन उसने चौंककर उसे देखा.. पीछे की तरफ गिरते हुए उसका एक हाथ रंगों की ट्रे पर था और दूसरा हवा में... उसने तुरंत हवा में लहराते उसके हाथ को पकड़ा और दूसरे हाथ से उसकी कमर को सहारा दिया, ताकि उसे गिरने से बचा सके... रंग बिखरकर फैल गए थे... तन के साथ मन भी रंग गए थे। प्रियतम का पहला स्पर्श... प्यार का पहला संस्पर्श... मन के साथ तन को भी सहला गया था। गौरैया ने उसकी बाँहों के दायरे में महफूज समझ खुद को निढाल छोड़ दिया था। चैतन्य ने उसे गिरने से पहले ही सम्भाल लिया था, लेकिन खुद के भावनात्मक आवेगों को नहीं सम्भाल पाया। चैतन्य के शब्द और गौरैया के चित्र प्रेम का जो खाका तसव्वुर में खींचते थे, वह इस तरह हकीकत बनेगा, सोचा न था। प्यार के पहले चुम्बन ने एक पल में समूची दुनिया बदल दी थी। एक दूसरे की आगोश में समाए हुए वे सुध बुध खोते, उसके पहले ही गौरैया की बहन कोयल अचानक वहाँ पहुँची.... "ये क्या अभी से फाग शुरू... वह भी इन कीमती रंगों से... तनिक सब्र करो... अभी होली आने में पन्द्रह दिन बाकी हैं.."
दोनों झेंप गए और एक दूसरे से छिटक कर खड़े हो गए थे। उस पल चैतन्य ने देखा था कि किनारे खड़े पलाश के पेड़ों के सारे फूल गौरैया के गालों पर शर्म की लाली बन बिखर गए थे और दूसरी तरफ कोयल के गालों पर गुस्से में लाल हो दहक रहे थे। पानी उछलकर पेंटिंग को बदरंग कर गया था।
सिर्फ पेंटिंग ही नहीं, उसकी जिंदगी भी बदरंग हो चली थी... वक़्त के निर्मम थपेड़ों ने बसन्त को ज्यादा ठहरने ही कहाँ दिया था। पतझर का आना तय होता है.... और एक अंतराल के बाद बसन्त का पुनरागमन भी होता ही है, किन्तु चैतन्य के जीवन में बसन्त का इंतज़ार कुछ ज्यादा ही लम्बा हो चला था।
उसकी गलती क्या थी? वह समझ ही नहीं पाया था। उसने तो गिरती हुई गौरैया को सहारा ही दिया था। उसे तब तक पता ही नहीं था कि उम्र के साथ भावनाएँ भी जवान हो जाती हैं। दोनों बचपन से साथ खेले, साथ पढ़े और साथ ही बड़े हुए। बचपन के साथी में जिंदगी के हमसफ़र का अक्स दिखा और उनका प्यार भी परवान चढ़ा। गौरैया रंगों की दीवानी और चैतन्य कलम का पुजारी.... एक कल्पना को रंग देकर कैनवास पर सजाती और दूसरा उन्हें शब्दों से सजाकर पन्नों पर उतारता... उनके सपने आकार लेने लगे थे और मौका तलाश रहे थे हकीकत में बदलने का।

अचानक आए हवा के झोंके से चैतन्य की चेतना लौटी... पतझर में गिरे पत्तों की तरह से पुरानी यादें उसके आसपास आकर ठहर सी गईं...
"सुनो! आज मैं तुम्हारे शब्दों को आकार दूँगी" गौरैया ने कहा था।
"वो कैसे...?" चैतन्य के प्रश्न पर वह खिलखिलाकर हँसी तो यूँ लगा मानो हरसिंगार के ढेरों फूल झर गए हों।
"वो ऐसे कि तुम बोल बोल कर लिखो और मैं तुम्हारे शब्दों को रेखाओं में उकेरती जाऊँगी.." उसने एक डायरी देते हुए कहा।
"क्या लिखूँ? तुम्हीं बता दो, वरना चित्र अच्छा नहीं बना तो मुझे कोसोगी।"
"अपनी स्वप्नसुंदरी पर लिखो कुछ.."
"अरे! अपना पोर्ट्रेट बनाना है तुम्हें तो सीधे ही बोल दो..."
"खुद को तुम्हारी नज़र से देखना चाहती हूँ।"
"उसके लिए इतनी मशक्कत क्यों? इस कैनवास की जगह आईना रखलो और साथ में देखते हैं... सिंपल...." चैतन्य ने टालने के अंदाज़ में कहा।
"अब ज्यादा बातें मत बनाओ... शुरू करो जल्दी से......" गौरैया ने बनावटी गुस्से से कहा।
"हम्म्म्म.... एक पेड़ है, खूब सारी शाखों वाला... उस पर एक गौरैया रहती है...."
"ओफ्फो... फिर मेरे नाम का मज़ाक बना रहे हो... "
"अच्छा बाबा... कान पकड़े... बी सीरियस... ओके....?" चैतन्य ने एक पल को आँखें बंद की और 'बिहारी' की नायिका को याद कर बोलना और लिखना शुरू किया...
"मेरे सपनों की रानी बहुत सुंदर है... उसका चेहरा गोल... नहीं, अंडाकार है... वह मीनाक्षी है... एकदम मछली जैसी आँखों वाली, तोते की चोंच जैसी सुतवां नाक है, गुलाब की पंखुरियों जैसे लाल लाल रसीले अधर हैं, सुराही जैसी गर्दन, नागिन जैसी लहराती जुल्फें हैं, जिसमें मेरा मन बांध लिया है और....... " चैतन्य थोड़ा रुककर फिर शरारत से मुस्कुराया...
"और... गर्दन पर एक काला तिल, थोड़ा नीचे मटके जैसे......."
"छि..... कितनी गन्दी कल्पना है तुम्हारी.... ये देखो तुम्हारी कल्पना की भूतनी बन गयी....." गौरैया गुस्से से पैर पटकती चली गई और वह देर तक कैनवास पर नज़र गड़ाए सोचता रहा कि साहित्यकारों की कल्पना, चित्रकार की तूलिका पर खरी क्यों नहीं उतरती?"

फिर पतझर का एक झोंका आया और यादों के पत्ते तितर बितर हो गए। उसे जब भी गौरैया याद आती है तो वह कितने ही मौसम पलों में जी लेता है। बसंती बयार और पतझर के बाद स्वर्ग की अप्सराएं जब आसमानी गागर से रस बरसातीं... गर्मी से तप्त वृक्षों को भी नवजीवन मिल जाता, नया लिबास पहन वे मंद मंद मुस्कुरा कर सुगन्धित प्राणवायु वातावरण में बिखेर कर चैतन्य को भी मीठी यादों से गमका देते। शीत ऋतु में ठण्डी हवा जैसे यादों को भी सिकोड़कर मन के तहखाने में दफन कर देती, किंतु अलाव में सुलगती लकड़ियों की आँच उन्हें पिघलाकर अनवरत बहा देती।

समय गुजरता रहा और चैतन्य अपने सपनों की गठरी बांधकर फागुन का इंतज़ार करता रहा कि कब उसकी प्रियतमा हथेलियों में गुलाल लेकर आएगी और चुपके से उसके गालों पर मल देगी और उनके सपने बंधन से आज़ाद होकर उनकी ज़िंदगी को प्यार के खुशनुमा रंगों से लहका देंगे। प्यार के रंग से भीगा मन फागुन की फुहार के इंतज़ार में आज भी धड़क रहा है किंतु उसकी सारी चेतना तो जैसे गौरैया अपने पंखों में समेट सुदूर उड़ गई है। उसका पता ढूँढते हुए वह खुद को भूलने लगा है।

उस बरस उसे होली का इंतज़ार शिद्दत से था। भूल से ही सही, प्रेयसी के अधरों के रसपान ने उसे सपनों का कैदी बना दिया था। वह भँवरा नहीं था जो कलियों का रसपान कर उड़ जाया करता है, उसने तो प्यार किया था। यह बात कोयल नहीं समझ सकती थी, किन्तु गौरैया को तो समझना था। उस दिन होलिका दहन नौ बजे हुआ था। पूर्णिमा का चाँद बादलों में से झाँक रहा था। अचानक ही घटा घिर आई थी। चाँद की शीतलता, बदली से बरसती नन्हीं बूंदे और होलिका दहन की लपटों की आँच का दुर्लभ संयोग था, जो उसके दिमाग में शब्दों का खाका खींच रहा था। दिमाग में कविता आकार ले रही थी और दिल उसे गौरैया की छबि में उतारना चाहता था... इसी जद्दोजहद में काफी वक़्त गुजर गया.. न कविता बनी और न ही गौरैया आयी...
"सुनो! बहुत रात हो गई है, मौसम भी ठण्डा हो रहा है, तुम अब घर जाओ, गौरैया के इंतज़ार में बैठे रहना व्यर्थ है।" कोयल की बात सुन वह पसोपेश में था.... "गौरैया क्यों नहीं आयी?"
"गौरैया तुमसे नाराज़ है, वह तुमसे मिलना नहीं चाहती... इसीलिए होलिका-दहन के कार्यक्रम में नहीं आयी।" कोयल दो टूक कहकर उसे विचारों के भँवर जाल में डूबता उतराता छोड़ चली गयी।
'मुझसे नाराज़ क्यों... मैंने कुछ गलत तो नहीं किया... हम दोनों एक दूसरे से प्यार करते हैं, उस दिन जो भी हुआ था वह सप्रयास नहीं था और मैंने कोई सीमा भी नहीं लांघी, आजकल तो प्रेमी जोड़ों में चुम्बन एक आम सी बात है, मेरे लिए जरूर वह लम्हा खास था और गौरैया के लिए भी... फिर क्यों....?' इन प्रश्नों का कोई उत्तर नहीं मिला उसे... परत दर परत जमी राख के नीचे एक चिंगारी आज भी सुलग रही है। किस्मत ने उसके साथ छल किया था, वरना तो वे दोनों एक दूसरे के पूरक थे हमेशा से ही...

वह कहीं भी रहे किन्तु हर बरस बसन्त पंचमी से रंग पंचमी तक अपने सपनों के शहर को ढूँढता हुआ यहीं आ जाता है। उसे विश्वास है कि जब गौरैया उड़ते हुए थक जाएगी तो यहीं आकर उसे मिलेगी और इन्हीं दिनों में...

गौरैया
वक़्त का मिजाज ही होता है बदलना... कोई भी आज तक न तो वक़्त को रोक पाया है न ही अपने हिसाब से चला पाया है। कभी कभी वक़्त नहीं बदले तो खुद को बदलना अनिवार्य हो जाता है। वक़्त की एक करवट के साथ जिंदगी इतनी बदल जाएगी, ऐसा गौरैया ने कभी सपने में भी नहीं सोचा था। सपने, आशा और प्रेम.... जिंदगी को भरपूर जीने के लिए जरूरी है। सपने सभी देखते हैं... गुजरा हुआ कल आज की स्मृति है और आने वाला कल आज का सपना है। गौरैया ने चैतन्य के साथ जिंदगी का एक सपना देखा था। दोनों ने अपने प्रेम से उस सपने को सींचकर इतना बड़ा कर लिया था कि वह आँखों में न समाकर पलकों में उतरने लगा था। कभी कभी हया की लाली बन गौरैया के गालों पर छितर जाता। उस पल चैतन्य का मन होता था कि उसे अपने होठों से दिल में उतार ले और यह बात वह गौरैया को बता भी चुका था। कभी कभी गौरैया का भी मन होता था कि वह अपनी जिंदगी के सारे रंग चेहरे पर बिखरी शर्म की लाली में लपेट कर चैतन्य को पी लेने दे। दोनों साथ चलते चलते ज़िंदगी के कैनवास में प्रेम की कूची से सपनों के रंग भरते रहे, एक दूसरे के अहसास को जीते रहे... किन्तु मर्यादा की रेखा को लाँघने का साहस कभी न कर पाए।

गौरैया आज चैतन्य की ज़िंदगी से काफी दूर चली आई है, फिर भी गाहे बगाहे उसके कदमों की आहट महसूस करती है। प्रकृति में बसन्त ऋतु तय समय पर आती है और वातावरण खुशनुमा हो जाता है। हर फूल, हर कली और हर पत्ती तक उसके आने का संदेश देती हुई चहकती और महकती है। वक़्त गुजरता है, किन्तु कोई लम्हा ठहर जाता है। गौरैया की जिंदगी के हर पन्ने पर एक लम्हा रुका हुआ है।
"देखो! कितना सुंदर मौसम है, चलो न कहीं घूमकर आते हैं।" गौरैया की बात सुनकर चैतन्य ने कितनी सहजता से कहा था.... "तुम प्रकृति में बसन्त का इंतज़ार करती हो गोरु... मेरे लिए तो तुम्हारी उपस्थिति ही बसन्त है.... जब चाहूँ, तुम्हें याद कर बसन्त को बुला लेता हूँ और हर लम्हा बसंती झोंके सा खुशगवार हो जाता है।"
उसने एकदम सच कहा था। इतने समय बाद अब गौरैया भी चैतन्य को याद कर बसंती पलों को जी लिया करती है। दोनों ने सपने भी खूब देखे थे, प्रेम भी खूब किया था... एकदम मन से... आज भी उसे आशा है कि जिंदगी में कम से कम एम बार चैतन्य से मुलाकात जरूर होगी। उम्मीद पर दुनिया कायम है और चैतन्य और गौरैया भी इसी दुनिया के बाशिंदे हैं।

चैतन्य के शब्द और गौरैया के चित्र एक दूजे बिन कुछ अधूरे से हैं। उनके सपनों के शहर की वह पैंटिंग आज भी गौरैया ने सहेज रखी है। पानी गिरने से बदरंग हुई पैंटिंग आज भी इंतज़ार में है कि गौरैया की कूची उसे नये रंगों से सँवार दे। उसके कैनवास पर कुछ शब्द बिखरे हैं, जो यकीनन कभी चैतन्य की डायरी की अमानत थे... ठीक वैसे ही, जैसे चैतन्य की डायरी के पन्नो पर गौरैया के कुछ रंग बिखरे हैं।

गौरैया अक्सर सोचती है कि सपनों के शहर में वह चैतन्य के साथ खोना चाहती थी, किन्तु चैतन्य भी खो गया और शहर भी कहीं गुम गया। कैसे ढूँढे वह.... कहाँ चला गया है चैतन्य उसकी सारी चेतना समेट कर। अब उसकी भावनाएँ ठूँठ सी होने लगी हैं। वह खुद से ही नाराज़ है कि उस दिन यकायक ही वह क्यों चली आयी थी, होलिका दहन से पहले ही....

उस पल को याद कर गौरैया आज भी रोमांचित हो जाती है। दूसरे ही पल चैतन्य से दूरी का एहसास उसे उदास कर देता है। उदासी और इंतज़ार की चादर ओढ़े वह जिंदगी की एक डाल से दूसरी डाल पर फुदक तो रही है, किन्तु उसके अपने घरौंदे की तलाश आज भी अधूरी है। उसके सपनों का वह घरौंदा जो उसने चैतन्य के साथ मिलकर बनाया था। सपना हकीकत में बदलने से पहले ही वक़्त बदल गया। वह पहली छुअन का अहसास आज भी जिंदा है और..... और ज़िंदा है उसका इंतजार, भले ही वक़्त की गर्दिश से धुँधला गया है।

"चेतू! होली पर सबसे पहले मुझे तुम ही रंग लगाना..." गौरैया की बात सुन चैतन्य ने मुस्कुराते हुए ढेर सारा काला रंग खरीद लिया था।
"मुझे लाल अबीर पसन्द है.... फिर तुम ये काला रंग किसके लिए ले रहे हो..?" गौरैया के चेहरे पर प्रश्नों की कई आड़ी टेड़ी रेखाएं खिंच गईं थीं।
"मैं तो तुम्हें काला रंग ही लगाऊंगा, क्योंकि काले पर दूसरा रंग नहीं चढ़ता है और......"
"और क्या...?"
"और फिर तुम्हें किसी की नज़र भी नहीं लगेगी..."
"मुझ पर तो तुम्हारे प्यार का रंग चढ़ गया है और तुम्हारी नज़रों के दायरे में ही कैद रहना चाहती हूँ, हमेशा हमेशा के लिए....."

नज़र ही लग गयी थी शायद... रंग तो किसी और का नहीं चढ़ पाया, परन्तु... वह उसे दुर्घटना नहीं मानती... प्यार में दुर्घटना नहीं होती, घटना भी नहीं थी... पर कुछ तो था और वह कुछ एकदम अप्रत्याशित था, किन्तु सुखद भी था एक नए रंग से सराबोर... उस दिन वह खोयी खोयी सी थी... चेतन के सपनों में डूबती उतराती सी... चेहरे पर खिलने वाले इंद्रधनुषी रंग होली के रंगों को मात दे रहे थे। सबके साथ होते हुए भी खुद में गुम थी। चेहरे पर अभी तक शर्मोहया की लाली छाई थी। चैतन्य को दूर से आता देख दिल जोर से धड़कने लगा था... कोयल से आँखे चुरा रही थी, आखिर वही तो थी उसकी राज़दार... अचानक से पता नहीं क्या हुआ कि दौड़कर घर के अंदर चली गई। दरवाज़े की ओट से चैतन्य को निहार रही थी। आज सब कुछ कितना बदला बदला सा लग रहा था। प्रत्यक्ष में तो सब कुछ पहले जैसा ही था किंतु मन के भीतर बहुत कुछ बदल गया था। चैतन्य को देख अनजानी तरंगे हिलोर ले रही थीं। खूब कोशिश की, किन्तु कदम जैसे जड़ हो गए थे। चाहते हुए भी समारोह में शामिल न हो पाई थी। उसे ढूँढते हुए जब कोयल घर आई तो वह सकुचा गई, मानो दूसरी बार चोरी पकड़ी गई हो।
"यहाँ छुप कर क्यों खड़ी हो? बाहर सब इंतज़ार कर रहे हैं.."
"........................." वह पैर के अंगूठे से जमीन कुरेदती, नज़रें नीची किए खड़ी रही।
"अब चुप क्यों हो...?"
"वह... चैतन्य..?
"तुमने गलती तो की है, क्यों उसे इतने नज़दीक आने दिया? अब वह पूछेगा भी नहीं... इन लड़कों को तुम नहीं जानती... भँवरे होते हैं भँवरे... देख लेना अब वह दूसरी कली का रस पीने उड़ जाएगा... जो लड़की इतनी खुले विचारों की होती है न, उसे ये चरित्रहीन समझ लेते हैं।"
"हमने कोई जानबूझकर गलती नहीं की, और वह गलती थी भी नहीं, हम प्यार करते हैं, तुम जानती तो हो... बस अब उसके सामने जाने की हिम्मत नहीं हो रही... अजीब सा लग रहा है..." गौरैया यह कहते हुए भी उस गुदगुदाते अहसास को जी रही थी।
"ओह! तो ठीक है तुम यहीं रुको, हम कुछ करते हैं।"
"आप क्या करने वाली हो..." गौरैया सशंकित हो बोली।
"हम कुछ खास नहीं... बस चैतन्य का मन टटोलेंगे कि अब वह तुम्हारे बारे में क्या सोचता है... यदि तुम्हें हम पर भरोसा हो तो... वरना तो तुमने अपने मन की ही करी है अब तक... आगे भी वही करना।"
गौरैया ने भरोसा कर लिया था और भरोसा तो उसका आज भी जिंदा है... वह समझ ही नहीं पाती है कि इस स्थिति के लिए कौन जिम्मेदार है? किसे दोष दे वह... कोयल ने उसे कहा था कि कुछ वक्त दो खुद को सम्भलने के लिए... चैतन्य भी शर्मिंदा है। होली के दिन वह इंतज़ार करती रही कि चैतन्य आकर उसे रंग लगाएगा, वैसे तो वह उसके रंग में पूरी तरह सराबोर थी और अब उसकी गन्ध में भी डूबती उतराती रही थी। कभी कभी उसे लगता है कि होली की अग्नि में उसके सारे सपने स्वाहा हो गए... उसके बाद उसने कभी होली नहीं खेली। उसे आज भी इंतज़ार है कि चैतन्य ही उसे सबसे पहले रंग लगाएगा। कभी लगता है कि उसकी जिंदगी में किसी और ने रंग न भर दिए हों... किन्तु अपने प्यार पर आज भी भरोसा है, नहीं है तो अपनी किस्मत पर... वरना क्या वजह है कि इतने फागुन बीतने के बाद भी उसकी मुलाकात हो ही नहीं पाई चैतन्य से... पर दिल में मिलन की आस भी है और प्यार का अहसास भी....!

कोयल
कभी-कभी हम सोचते कुछ हैं, चाहते कुछ और हैं, किन्तु हो कुछ और ही जाता है। कोयल भी ऐसे ही दौर से गुजर रही थी। कितने ही मौसम आए और गए किन्तु उसके मन का आँगन बियाबान ही रहा। वह प्यार के खिलाफ नहीं है और न ही कभी थी। उसने भी तो प्यार किया था और आज भी करती है अपने पल्लव से ढेर सारा प्यार। जिस तरह बसन्त के आगमन के साथ ही घने पेड़ की शाखों पर पत्तों में छिपी कोयल कूकती है, वैसे ही वह अपने पल्लव की बाँहों में खुद को छुपाकर प्यार की तानें छेड़ती थी... मधुर तानें... उसके दिल का हर तार झँकृत हो जाता था। उसने टूटकर प्यार किया था और पल्लव ने भी जी खोल कर प्यार लुटाया था उस पर... वह उसके प्यार के सागर में इतनी गहरी डूब गई थी कि सुध बुध खो बैठी थी... और उस दिन.......
वह एक खूबसूरत किन्तु उदास सी शाम थी। बारिश होकर थम चुकी थी। प्रकृति एक सद्यस्नातः षोडशी के समान निखरी हुई थी। कोयल भी प्रकृति के इंद्रधनुषी रंग में रंगी हुई अपने पल्लव का इंतज़ार कर रही थी। आकाश में बादलों की बनती बिगड़ती आकृतियों में छुपे नक्श तलाशना कोयल का पुराना शौक था। सूर्यास्त नहीं हुआ था, सूरज बादलों की ओट से झाँक रहा था। बादलों में कोयल एक प्रेमी जोड़े का चित्र देख रही थी जिनका चेहरा एकदूसरे के बिल्कुल पास था। तभी पल्लव ने पीछे से आकर उसकी आँखे बंद कर दीं। पल्लव का चेहरा उसके चेहरे के इतना निकट था कि वह उसकी गर्म सांसों को अपनी गर्दन पर महसूस कर रही थी। यकायक ही उसने पल्लव का हाथ हटाते हुए कहा... "क्या है इतना सुंदर दृश्य देख रही थी, और तुमने.... देखो न अब वह चित्र मिट गया..."
"कौन सा चित्र था, जो हमसे ज्यादा महत्वपूर्ण हो गया.." पल्लव ने उसकी हथेलियों को अपने हाथों में लेते हुए शरारत से उसकी ओर देखा।
"उस चित्र में एक युगल था... बिल्कुल पास और सूरज भी मानो बादलों की ओट से झाँक रहा था छुप छुप कर कि प्रेमी युगल अपने अधरों की प्यास बुझा लें तब तक बाहर न निकले... और तुमने एकदम से आकर...."
"ओह मेरी जान! तो तुम आकाश में कल्पना कर रही थीं, उसे मैं जमीन पर हकीकत में बदल देता हूँ, देखो सूरज अब बादलों के पीछे बिल्कुल ही छिप गया है... और मैं और तुम एकदम पास....." कहते हुए पल्लव ने उसे अपनी बाँहों में भींचते हुए उसके अधरों पर अपने तप्त अधर रख दिए। कोयल ने विरोध जरूर किया किन्तु शायद वह भी उस स्वप्न को हकीकत में बदलते देख खुद पर नियंत्रण न रख पाई। उस दिन जो हुआ वह सिर्फ उन दोनों के बीच था किन्तु समूची प्रकृति प्रफुल्लित होकर उसके प्रेमिल समर्पण की साक्षी थी। मंद मंद चलती बयार, फूलों की खुशबू और प्रेम का रंग सब एकाकार होकर कोयल को एक नया ही अहसास करवा रहे थे। उस दिन के बाद कोयल की जिंदगी ही बदल गई।

उसने कभी सपने में भी नहीं सोचा था कि उसकी जिंदगी में इतनी जल्दी प्यार के महकते चहकते बसंती फूल खिल जाएंगे। कोयल जिस अनछुए अहसास की कल्पना से रोमांचित हो उठती थी, वह उसे प्यार का एक नया ही रंग दिखा गया था। इस रंग की महक में डूबती उतराती कोयल की सुरीली तान कुछ और मुखर हो उठी थी। ज़िंदगी के साज़ पर उसने नई धुन छेड़ दी थी। वह बसंत के उन्माद में ही खोयी हुई थी। प्रकृति में पतझड़ की आहट शुरू हो गई थी, किन्तु उसका तन मन बसंती बयार को महसूस कर रहा था। कल्पनाओं में बसन्त की खूबसूरती के रंग उसके सपनों को रंगीन बना रहे थे, वह प्रतीक्षारत थी कि कब ये रंग सपनों से हकीकत की ज़मीन पर उतरकर उसकी जिंदगी को हसीन बना देंगे। वह आज भी शिद्दत से इंतज़ार कर रही है कि उसके ख्वाब, उसकी ख्वाहिशें कब पूरे होंगे। उसने प्यार किया था और पल्लव ने भी तो उसे जी और जान से चाहा था... फिर...? पल्लव के प्यार में वह तो दिन ब दिन निखरती गई किन्तु उसके सपने बिखर गए....

"पल्लव मैं तुम्हें हर पल अपने पास महसूस करती हूँ। जब तुम पास नहीं होते तब भी... शायद इसलिए कि जब प्रेम रूह से देह तक उतर जाता है तब हम प्रेम के चरमोत्कर्ष को महसूस कर पाते हैं। प्रेम में एकाकार होना इसे ही कहते हैं शायद... दो जिस्म और एक जान... पल्लव हम शादी कब कर रहे हैं..?" ऐसा कहते हुए भावातिरेक में वह पल्लव की बाँहों में सिमटने को व्याकुल हो उठी थी। उसे विश्वास था... खुद पर, पल्लव पर और अपने प्यार पर भी...! उम्मीद से परे पल्लव ने उसकी बाँहों को झटक दिया था... "कोयल! प्यार को महसूस करना अलग बात है किन्तु यूँ मुखर हो जाना... क्या ऐसी लड़कियों पर भरोसा किया जा सकता है? मैंने हमेशा अपनी कल्पना में एक छुई मुई सी लड़की को ही अपनी जीवनसंगिनी के रूप में चाहा है और तुम...." उसकी बात पूरी होने के पहले ही कोयल समझ गई थी कि गलती उसी की है। उसने क्यों सागर के किनारे घरौंदा बनाया, एक लहर आई और सब कुछ खत्म... अब क्या करे वह...? उसके बाद उसके मन में पतझर ठहर गया था... हमेशा के लिए... कभी कभी सूखे पत्तों की चरमराहट सी कोई याद हौले से आती तो दिल में कोई उमंग जाग जाती, लेकिन उसके मन की कूक खामोश हो गई थी। उसे पता था कि उसके जीवन से जो बसन्त गुजर गया वो अब कभी लौटकर नहीं आएगा। उसने बस यही तो चाहा था कि उसने जो गलती की है, वह गौरैया न करे। वह गौरैया को हमेशा खुश देखना चाहती थी। उसे नहीं पता था कि जिस तरह पृथ्वी के अलग अलग हिस्सों में मौसम एक सा नहीं रहता, उसी तरह से हर मानव के मन का मौसम भी अलग अलग होता है। उससे बड़ी चूक हो गई थी। वह जब भी गौरैया को उदास देखती, खुद को कसूरवार मानती। उसने चैतन्य की नज़रों में गौरैया को गिरने नहीं देना चाहा था, इसीलिए झूठ बोला था। अब वह पछता रही है... किन्तु जो हो चुका है उसे कैसे बदले... उसे यदि पता होता कि पल्लव और चैतन्य दोनों की सोच अलग है तो शायद.... बस इस शायद के आगे वह कुछ सोच ही नहीं पाती... सोचती भी है तो सिर्फ एक ही शब्द बार बार सामने आ जाता है, और वह शब्द है.... काश...!

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चैतन्य, पल्लव, गौरैया और कोयल सभी तो प्रेम के पँछी हैं, जो अपनी अपनी दिशा में अपने हौसलों से उड़ान भरते हैं। पल्लव ही एक प्रवासी पक्षी था जो समय बीतने के साथ अपने नीड़ की और लौट गया था। वह कोयल की ज़िंदगी में कुछ वक़्त ठहरा और फिर नया घरौंदा बनाने चला गया। कोयल ने उसे रोकने की कोशिश नहीं की और न ही उसके जाने के बाद अपना घरौंदा पुनः बसाने का प्रयास किया। जब उसे महसूस हुआ कि गौरैया भी उसके नक्शे कदम पर चल रही है, तो वह सिहर उठी। चैतन्य और गोरैया के प्यार की गहराई को जाने समझे बिना ही उसने जो कदम उठाया, वही उनके अलगाव की वजह बन गया। विलग तो पल्लव भी हुआ था उससे, किन्तु दोनों में बहुत फर्क था। अब कोयल पछता रही है और सोच रही है कि अपनी गलती को कैसे सुधारे? उसके पास चैतन्य का पता नहीं है और उसके जाने के बाद वे भी अपना शहर छोड़ चुके हैं। अब उन गलियों में झाँकने का भी मन नहीं होता, वैसे उनसे बहुत सी मधुर यादें जुड़ी हैं, किन्तु सबसे अनमोल चीज खोयी भी तो वहीं है। बस उन जख्मों को कुरेदने से बचने का यही उपाय है कि उन गलियों से तौबा कर ली जाए।

इस बार उनके शहर में होलिकोत्सव का आयोजन था। एक अभिनव प्रयोग के तहत एक प्रदर्शनी लगाने का निमंत्रण मिला था। गौरैया के चित्रों की प्रदर्शनी... आईडिया कोयल का था... कि हर चित्र पर चैतन्य की कविता की दो पंक्तियाँ लिख दी जाएं। गौरैया की चाहत तो सर्द होकर जमने सी लगी थी। सोचा शायद इसी बहाने गुजरे दिनों की राख में दबी छिपी कुछ चिंगारियाँ मिल जाएंगी, जिनकी ऊष्मा से ये दर्द पिघल कर बहने लगे और यह बोझ कुछ हल्का हो जाए। मन में दबी हुई आस भी है कि यह फागुन शायद उसे चैतन्य से मिला दे। चैतन्य तो हर बरस उम्मीद का दामन थामकर आता है और निराश होकर लौट जाया करता है। दोनों निराशा में भी एक आशा से जी रहे हैं और अपने अंदर के मौसम को बाहर के मौसम से एकाकार होने का इंतज़ार कर रहे हैं।

फागुन के आते ही प्रकृति नए रंगों से सज सँवर गई। सुनहरी पीली धूप भी मानो नहाकर आयी और उसपर पलाश और कनेर के फूलों के लाल गुलाबी रंगों की छाया बिल्कुल ऐसी लग रही है जैसे लाल गुलाबी फूलों के कशीदे वाली पीली चूनर ओढ़ कर प्रकृति अपने प्रियतम का इंतज़ार कर रही है। एक मादक और भीनी भीनी सुंगन्ध चारों ओर फैलती सी... उस सुगंध के नशे में मदहोश सी गौरैया... तालियों की गूँज से एकदम जागी... प्रदर्शनी का उद्घाटन हो चुका था... एक बहुत बड़ी पेंटिंग... होलिका दहन... फागुन के खिलते रंग... फाग का उत्साह... एक प्रेमिल जोड़ा... प्रेम के रंग से सराबोर किन्तु प्रकृति के रंगमयी और उल्लासमयी उत्सव में डूबकर एक दूसरे को रंग लगाने को आतुर... और बहुत सारा उड़ता गुलाल... पेंटिंग पर लिखी चैतन्य की कविता की पंक्तियाँ...
फागुन पहने चूनरी धानी पीली लाल!
रंग भीगे मन-पांखुरी आँगन उड़े गुलाल!!
उसे देखकर गौरैया खो सी गई... उस होली की याद में जब उन दोनों के सपनों की पेंटिंग अधूरी रह गई थी। आज कोयल के इसरार पर वह भी पूरी हुई थी। उस पेंटिंग को देखकर फिर से चैतन्य की याद में खो गई गौरैया... तभी कोयल उसे कल से आज में खींच लायी...
"सुनो! हम तुम्हारे गुनहगार हैं, हमने तुम्हारे प्यार को गलत समझ लिया था, हमें माफ करोगी न..?"
"आप ऐसा क्यों कह रही हैं..? आपने कुछ नहीं किया, वह तो हमारी किस्मत ही..." कोयल ने उसके मुँह पर ऊँगली रख उसे चुप कर दिया और बोली...
"किस्मत तो तुम्हारी अच्छी है वह तो...." उसने प्यार से उसकी ओर देखते हुए एक ओर इशारा करते हुए कहा... "उधर देखो...."
गौरैया की आँखें चुंधियाँ गईं... उसने आँखों को मलकर फिर से देखा... चैतन्य उसके एकदम पास आ चुका था... दोनों की आँखें तरस रहीं थीं... दर्द भी बह रहा था और खुशी भी बरस रही थी... "देखो चेतू! यह हमारी सपनों की पेंटिंग पूरी हो गई आज... देखो यह हमारे सपनों का शहर है और इसमें यह हमारा आशियाना... तुम इसे अधूरा छोड़कर कहाँ खो गए थे...." बोलते बोलते उसकी आवाज़ लरजने लगी थी।
"गोरु! मैं तो कहीं नहीं गया था, तुम ही उड़ गईं थी अपने सपनों के आसमान में खो गई थीं। कितना ढूँढा तुमको... हर बरस होली पर यहाँ आता था सिर्फ तुमसे मिलने के इंतज़ार में... आज मेरा इंतज़ार खत्म हो गया.." कहते हुए उसने गौरैया के गालों पर गुलाल लगा दिया। उनके मिलन को देख प्रकृति भी मुस्कुरा उठी। हर तरफ बसंती और फागुनी रंग छा गया, गौरैया और चैतन्य के जीवन में प्रेम का मौसम आया और उसी पल कुदरत भी कुछ ज्यादा ही सँवर गई। कोयल भी खुश है... ऐसा नहीं कि उसे पल्लव की याद नहीं आती, परन्तु उसने समझ लिया है कि हर पतझर के बाद बसन्त आता है, और नई कोंपल भी उगती है, बशर्ते कि हमारी जड़ें अपनी जमीन न छोड़े... वह खुश है... बहुत खुश है और हॉल में उसकी सुरमयी आवाज़ बहुत दिनों के बाद गूँज रही है....
जैसा दर्द हो वैसा मंजर होता है...
मौसम तो इंसान के अंदर होता है...!

©डॉ वन्दना गुप्ता
मौलिक
(18/03/2020)