Tere Shahar Ke Mere Log - 5 in Hindi Biography by Prabodh Kumar Govil books and stories PDF | तेरे शहर के मेरे लोग - 5

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तेरे शहर के मेरे लोग - 5

( पांच )

ये छः महीने का समय बहुत उथल - पुथल भरा बीता। मैंने अपने बैंक के केंद्रीय कार्यालय को एक वर्ष की अवैतनिक छुट्टी का आवेदन दिया, किन्तु ये आवेदन अस्वीकार हो गया।
मुझे बताया गया कि अवैतनिक छुट्टी केवल कुछ निर्धारित कारणों के लिए ही दी जाती है, जिनमें ये कारण नहीं आता कि आपको कहीं और नौकरी करनी है। बैंक ऐसा अवकाश केवल तभी देता है जब आप उच्च अध्ययन करना चाहें, जिससे भविष्य में बैंक को भी आपकी योग्यता का कुछ लाभ हो। या फ़िर असाधारण स्वास्थ्य संबंधी समस्याएं इस दायरे में आती हैं।
लेकिन जीवन में मुश्किल से मिले राजस्थान में नौकरी के इस अवसर को मैं खोना नहीं चाहता था। मैंने जोख़िम उठाने के लिए अपने आप को तैयार किया और सब की सलाह की चिंता न करते हुए बैंक को अपना त्यागपत्र भेज दिया।
ये एक कठिन निर्णय था जो धारा के विपरीत तो था ही, कैरियर पर प्रश्नचिन्ह लगा देने वाला भी था।
पर मैं भी तो मैं था।
इधर एक सूचना और मिली। मुझे आगामी विश्व हिंदी सम्मेलन में पढ़ने के लिए भेजे गए अपने पर्चे के वहां स्वीकृत हो जाने की जानकारी मिली। इसके लिए ये ज़रूरी था कि बैंक मुझे विदेश जाने के लिए प्रायोजित करे। मेरे एक वरिष्ठ अधिकारी ने कहा कि यदि मैं त्रिनिदाद और टोबैगो जाना चाहता हूं तो मुझे इसके लिए आवेदन देते हुए अपना त्यागपत्र भी वापस लेना होगा, क्योंकि त्यागपत्र दे देने के बाद बैंक मुझे विदेश के लिए प्रायोजित नहीं करेगा। ज़ाहिर है क्यों करेगा?
पर मैं राजस्थान के अपने उस संस्थान को ये लिख चुका था कि मैंने त्यागपत्र दे दिया है और मैं नोटिस पीरियड के समाप्त होने के बाद वहां कार्यग्रहण करूंगा। अतः अब त्यागपत्र वापस लेना नैतिक और प्रशासनिक दृष्टि से ग़लत ही होता। मैंने विश्व हिंदी सम्मेलन में जाने का ख़्याल छोड़ दिया।
अगले कुछ महीने मेरे लिए विचित्र आनंद के थे। एक ओर अपने यायावरी भरे जीवन के समाप्त होने के बाद परिवार के साथ स्थिर होकर रहने का सुख था तो दूसरी ओर राजस्थान के प्रतिष्ठित शिक्षण संस्थान से जुड़ जाने का गर्व भी।
इससे पहले राजस्थान में ही कार्य का कोई अवसर पाने के अपने प्रयासों के चलते "लोक जुंबिश" में भी मेरा चयन हो चुका था, किन्तु साक्षात्कार के दौरान ही मेरी पूर्व शिक्षक रही एक वरिष्ठ शिक्षाविद् जो उस समय वाइस चांसलर थीं, उन्होंने मुझे निजी तौर पर वहां कार्यग्रहण न करने की सलाह दी।
मैंने अपनी नई ज़िम्मेदारी के लिए अपने को बदलने और गांभीर्य के एक नए खांचे में ढालने का प्रयास शुरू कर दिया।
ये देश का एक सुविख्यात महिला विश्वविद्यालय था। ये गांधीवादी मूल्यों के प्रकाश में संचालित होने वाला आवासीय संस्थान था। अब उसी के परिसर में जाकर रहना था। अपने परिवार के साथ रहना था।
इस बात की संभावना नहीं थी कि अब लेखन और पत्रकारिता के लिए समय व मानसिक अवस्था मिलेगी और न ही इसके लिए कोई खास रुझान मन में शेष ही रहा था।
मुझे ये कहने के लिए क्षमा किया जाए कि साहित्य के क्षेत्र में मुझे अधिकांश चेहरे ऐसे ही दिखे जिनकी कलम कुछ कहती तथा आचरण कुछ और। ऐसे में मुझे ये अहसास कभी नहीं हुआ कि मैं कोई बहुत महत्वपूर्ण दुनिया छोड़ कर जा रहा हूं।
और जा भी तो एक नामी- गिरामी शिक्षण संस्थान में ही रहा था, जो सोचता, वो तो वहां भी लिख ही सकता था।
मैंने अपना तेवर - कलेवर बदलने के साथ लिबास भी बदलने की तैयारी कर ली थी।
इस संस्थान में आरंभ से ही खादी के कपड़े पहनने, सादा शाकाहारी भोजन करने, धूम्रपान आदि से दूर रहने की अनिवार्यता रही थी। ये राज्य के पहले मुख्यमंत्री का आज़ादी के पूर्व से ही स्थापित किया जा चुका संस्थान था।
बैंक में त्यागपत्र दे देने के बाद भी मुझे कई ऐसे कार्यों से जुड़ने का मौका मिला जो रायपुर में नए कार्यालय के गठन को लेकर किए जा रहे थे। मैं काफ़ी दिन रायपुर शहर में रहा। शाखाओं में आना- जाना भी रहा।
घर पर इतने वर्षों में एकत्र किए गए सामान की व्यवस्था भी करनी थी। परिवार के आते रहने के कारण मेरे पास ज़रूरत का छोटा- बड़ा सभी सामान था। और इस बार आसमान से गिर कर खजूर में अटकना नहीं, बल्कि अपने घर की देहरी पर उतरना था। इसलिए कुछ भी वापस लेकर जाने की ज़रूरत नहीं थी। यहां तक कि अपने कपड़े भी वहां जाकर काम नहीं आने वाले थे।
मैंने ज़ोर - शोर से अपने सामान को इधर - उधर करने का अभियान छेड़ दिया।
संयोग से मेरे एक रिश्तेदार सपरिवार उन्हीं दिनों रहने के लिए जबलपुर आए। मेरा सोफ़ा, फ्रिज, डायनिंग टेबल, बेड आदि जैसा सामान बाकायदा राशि चुका कर उन्होंने ख़रीदा।
बहुत सा सामान मैंने मित्रों के बीच भी बांट दिया। मेरे मित्रों में बड़ी संख्या विद्यार्थियों की भी थी, अतः कई चीज़ें उनकी ज़रूरत की पूर्ति बन कर चली गईं जिसका संतोष मुझे हमेशा रहा।
मेरे कपड़े तक उन लोगों के तन की शोभा बने जो यहां मेरे अकेलेपन के साथी थे और तरह - तरह से मेरी सेवा करते रहे थे। बर्तन, क्रॉकरी उन सहायकों के काम आए जो यहां मेरे छोटे मोटे काम साधते रहे थे। इनमें मेरे अखबार वाले से लेकर दूध वाले और दफ़्तर के सहायक कर्मचारी तक शामिल थे।
बड़ी संख्या में किताबें मैंने पुस्तकालय, महाविद्यालयों तथा मित्रों के बीच भेंट कीं।
इन बेकार की बातों के बीच एक दिलचस्प किस्सा भी आपको सुना दूं।
मेरे जाने की सुगबुगाहट के बीच एक दिन एक महिला मेरे पास अाई और उसने अपना परिचय पड़ोस की काम वाली बाई के रूप में देते हुए कहा कि उसका परिवार बहुत बड़ा है, वो बहुत गरीब भी है, अतः मैं अपने बिस्तर, जिनमें चार- पांच डनलप के गद्दे, तकिए, चादरें, रजाइयां आदि थीं, उसे दे जाऊं।
उसने कहा कि वो इनके पैसे चुकाएगी, मैं उसे मूल्य बता दूं।
कुछ संकोच के साथ मैंने सभी चीज़ों का नाममात्र का मूल्य बता दिया, वो भी इसलिए, कि वो मुफ़्त में भीख की तरह कुछ नहीं लेना चाहती थी। उसके आत्मसम्मान का आदर बनाए रखने के लिए मैंने सारे सामान का बहुत ही कम मूल्य बता दिया। मैंने सोचा, चलो गरीब परिवार आराम से सोएगा तो मुझे भी शांति मिलेगी।
वो मुझे दो दिन बाद आने के लिए कह गई।
लेकिन अगले ही दिन उस कामवाली बाई की जगह उसकी मालकिन स्वयं आईं और मुझसे बोलीं- मैंने सुना है कि आप "इतने" रुपए में अपना सामान बेच रहे हैं, ये लीजिए... कह कर उन्होंने मुझे रुपए पकड़ाए और साथ में लाए दो लड़कों को सामान उठा लेने का आदेश सा दिया।
जिस तरह उन्होंने "बेच" रहे हैं शब्द पर ज़ोर दिया, उससे मैंने अपने आप को भीतर से अपमानित महसूस किया किन्तु अब क्या किया जा सकता था।
मैं लोगों को पढ़ाता था तो कभी कोई मुझे भी तो पढ़ाने वाला मिले? दुनियादारी मैंने भी सीखी।
अभी मेरे जाने में समय था, किन्तु कार्यालय में मिठाई और पार्टी मांगने वालों का तकाज़ा शुरू हो गया था।
प्रायः स्थानांतरण या छोड़ कर जाने वाले लोगों को ऑफिस स्टाफ की ओर से विदाई पार्टी भी दी जाती थी।
इन पार्टियों के बड़े दिलचस्प अनुभव अलग - अलग स्थानों पर मुझे होते रहे थे।
कहा जाता था कि ये विदाई पार्टी ही अंततः सिद्ध करती है कि आपके लिए स्टाफ के मन में मान सम्मान या आत्मीयता कितनी है।
ये पार्टी होती तो सबके लिए थी किन्तु इनका स्वरूप आपको अपने व्यक्तित्व का फीडबैक दे देता था। आप चुपचाप अनुमान लगा सकते थे कि आपके कार्यकाल में आपकी उपस्थिति किस तरह महसूस की गई है।
एक बेहद सख़्त व क्रोधी स्वभाव के अधिकारी जब जा रहे थे तो उनके सामान का ट्रक चला जाने के बाद हुई पार्टी में उन्हें आठ फिट लंबी एक तस्वीर भेंट की गई, जिसे किसी भी तरह हवाई यात्रा में साथ लेे जाना संभव न था। हार कर वो भेंट उन्हें वहीं छोड़ कर जानी पड़ी।
इतना ही नहीं, जब पार्टी शुरू हुई तो उनके हॉल में प्रवेश करते ही वहां बज रहे गानों का टेप बार - बार ख़राब हुआ जिसे कार्यालय का ही एक अधीनस्थ कर्मचारी संचालित कर रहा था। केवल थोड़े से लोग ही उसकी इस शरारत को भांप पाए कि गीत का रिकॉर्ड बार- बार क्यों रुक रहा है... आवाज़ आ रही थी- कोयल क्यों गाए, बाग़ से जब पतझड़ जाए तो बहार चली आए...जब पतझड़ जाए तो बहार चली आए... पतझड़ जाए तो बहार चली अाए।
रिकॉर्ड ख़राब होने का आनंद केवल चंद लोग ही लेे पाए। बाक़ी ने इसे तकनीकी फाल्ट ही समझा।
इन सब खट्टी- मीठी यादों को लेकर ही अब मुझे भी यहां से जाना था।
एक घटना आपको और बतानी होगी जो मेरे लिए तो संकोच और भय से उपजी, किन्तु आपके लिए दिलचस्प हो सकती है।
कुछ दिन पहले शहर में एक धर्मशाला में एक ज्योतिषी आकर ठहरा। और लोगों की तरह मैं भी उससे मिलने चला गया।
अपने विधि - विधान के तहत उसने कहा कि जल्दी ही मेरे अपने परिवार के पास जाकर उनके साथ रहने के योग बन रहे हैं, किन्तु मुझे कोई ऐसी बात पूरी करनी चाहिए जो मन्नत के रूप में मैं किसी देवस्थान पर व्यक्त कर आया हूं। संभवतः मैं उसे अनदेखा कर रहा हूं।
ये मेरे लिए विचलित होने वाली बात थी जबकि मैं ऐसी बातों पर विश्वास नहीं करता था। पर क्यों कि अब मेरा मनचाहा होने जा ही रहा था, तो मैंने सोचा कि भविष्य में किसी संदेह की गुंजाइश क्यों छोड़ूं।
दरअसल एक स्थानीय युवक के साथ एक वीरान निर्जन मंदिर में खड़े होकर, नर्मदा नदी के किनारे मैं कभी कह आया था कि यदि मेरी इच्छा पूरी हुई तो मैं यहां आकर निर्वस्त्र दर्शन करूंगा।
अपने संकल्प को मैंने पूरा किया। इसमें उस युवक ने मेरी बहुत सहायता की। एक सुबह हम रिक्शे से वहां पहुंचे और ढेर सारी अगरबत्तियों के धुएं के बीच युवक ने मुझ से ये परिक्रमा पूरी करवाई।
शहर में रहते हुए मेरा परिचय किसी समय की अत्यंत प्रतिष्ठित कवयित्री सुभद्रा कुमारी चौहान की पुत्रवधू से भी हुआ था जो मेरे मकान के नज़दीक ही रहती भी थीं और बैंक में भी उनका आना- जाना था। वे वहां एक साहित्य प्रकाशन का संचालन करती थीं। जिज्ञासा प्रकाशन के नाम से किताबों की बिक्री की उनकी दुकान बिल्कुल मेरे आवास के नज़दीक थी।
प्रकाशकों के प्रति अपने स्वाभाविक रुझान के कारण ही मैं कभी- कभी उनकी दुकान पर चला जाता था और उनसे व वहां कार्यरत कर्मचारी से मेरी अक़्सर बात हुआ करती थी।
एक बार तो उन्होंने मेरी रुचि और रुझान देख कर उनके प्रकाशन को मुझे दे देने का प्रस्ताव भी दिया था। वे काफ़ी समय तक मुझे इसके लिए मनाती भी रही थीं। मैं उनके प्रति आदर और सुभद्रा कुमारी चौहान के प्रति श्रद्धा के कारण कभी उनसे साफ़ इनकार नहीं कर पाता था पर भीतर ही भीतर मैं जानता था कि ये मेरे लिए संभव न था। इसके कई कारण थे।
एक तो मैं इस शहर में स्थाई नहीं था, कभी भी एक ट्रांसफर आदेश के आने से मुझे शहर छोड़ कर जाना ही पड़ता। दूसरे यदि मैं व्यवसाय में संलग्न होना भी चाहूं तो मुझे अपने घर के आसपास इसके लिए कोशिश करनी चाहिए थी, घर से इतनी दूर बसने की मैं क्यों सोचता? फ़िर यदि केवल उनकी मदद करने के ख़्याल से उनकी दुकान ये सोचकर ख़रीद भी लूं कि जाते समय इसे फ़िर से किसी को विक्रय कर सकूं, तो इस लिहाज़ से दुकान की व्यावसायिक स्थिति भी कोई विशेष अनुकूल नहीं थी।
दुकान के साथ देश के एक बड़े नाम की गुडविल ज़रूर थी।
मेरे एक मित्र तो यही कह कर मुझे उकसाया करते थे कि यदि किसी भी तरह ऐसा हो गया तो जबलपुर के अख़बार जगत में ज़रूर जलजला अा जाएगा। लोग चटखारे लेकर छापेंगे कि सुभद्रा कुमारी चौहान के प्रकाशन की ऐतिहासिक विरासत प्रबोध कुमार गोविल ने संभाली।
मैं उनकी इस काल्पनिक उड़ान का पटाक्षेप उनकी मेज पर चाय पीकर किया करता था। वो एक अख़बार के ही वरिष्ठ मुलाजिम थे।
असल में श्रीमती चौहान के इस आग्रह का कारण ये था कि उनका सुपुत्र विदेश में बस गया था, और चाहता था कि मां भी अपना व्यापार समेट कर उसके पास चली आएं। मुझे इसका प्रस्ताव देने का उनका मकसद यही था कि यदि विदेश में उनका मन न लगा तो पुनः भारत लौटने पर मैं उनकी मिल्कियत बदस्तूर उनके हवाले कर दूंगा क्योंकि यहां स्थाई रूप से रहने की मेरी कोई संभावना नहीं है।
कुछ दिन के लिए पुत्र के पास जाने की स्थिति में भी उन्होंने मुझसे आग्रह किया था कि मैं उनके किरायेदार के रूप में उनकी कोठी में रहने लगूं।
ये सब वैसे भी अब इतिहास में दर्ज़ रह जाने वाली बातें ही हो जाने वाली थीं क्योंकि मेरे डैने भी अब नगर छोड़ जाने के लिए फड़फड़ाने लगे थे।
मैं भी इस दुनिया का, वो भी इसी दुनिया की... मेरा हवा पानी लिखने वाला भी वही, जो लिखे उनका दाना पानी!
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