Ek-Apreshit-Patra - 3 in Hindi Letter by Mahendra Bhishma books and stories PDF | एक अप्रेषित-पत्र - 3

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एक अप्रेषित-पत्र - 3

एक अप्रेषित-पत्र

महेन्द्र भीष्म

रंजना

रंजना मेरे ऑफिस की नेत्री है। चपरासी से लेकर बॉस तक सभी से वह एक ही अन्दाज में मिलती। सभी के साथ उसका व्यवहार निरपेक्ष रहता। ऑफिस में ऐसा कोई नहीं था, जो उसे पसन्द न करता हो। चाहे वह पोपले मुँह वाले बड़े बाबू राधेश्याम हों या खिजाब लगाकर आने वाले ऑफिस सुपरिटेण्डेण्ट मौलाना बदरुद्‌दीन हों, जिनकी मेंहदी लगी दाढ़ी की सुन्दरता में ग्रहण लगाते पान से गन्दे हो चुके दाँत और लटकते मसूड़ों के हरे रंग जैसी थैलियाँ, जो उनके हँसने पर सामने वाले को अपनी आँखें फेरने पर मजबूर कर देती थीं। इन दोनों ऑफिस के किरदारों से भी वह पूरी गर्मजोशी से बातचीत करती। उसे बड़े बाबू का पोपला चेहरा और ऑफिस सुपरिटेण्डेण्ट का गँधीला मुँह खराब नहीं लगता। सभी उससे बात करने के लिए हर वक्त लालायित रहते। एक अनार सौ बीमार जैसी हालत थी, ऑफिस में। एक दिन भी यदि वह किसी कारणवश ऑफिस न आये, तो उस दिन चपरासी बुधई से लेकर बॉस मि0 भटनागर तक का मूड बिगड़ा रहता। सभी के चेहरे पर अजीब—सी मनहूसियत छा जाती।

रंजना है भी इतनी सुन्दर, लावण्यमयी मानो राजा रवि वर्मा के द्वारा बनाई गई अप्रतिम कलाकृतियों में से किसी एक की सजीव नायिका हमारे ऑफिस में आ गयी हो। ओज से दमकता उसका चेहरा, आकर्षक शारीरिक बनावट, उस पर श्वेत दंत पंक्तियों से बिखरती हुई फूलों जैसी खिलती हँसी और बेबाक बातचीत करने का ढंग किसी को भी अपने प्रति सहज आकर्षित करने के लिए पर्याप्त था।

मेरा ऑफिस रंगमंच के समान है, जहाँ हम सब ऑफिसियल अपने—अपने किरदार को दिन के पूरे छः—सात घण्टे व्यस्त रखते है। इसमें रंजना सभी की इकलौती नायिका के रूप में रहती। सभी उसे मन ही मन चाहते, उसे अपनी प्रेमिका के रूप में देखते। वह किसी की भी बहन या बेटी नहीं थी, जबकि अधिकांशतः अधिक उम्र वाले ‘बेटी रंजना' और बराबर उम्र वाले ‘बहन रंजना' कहकर उसे सम्बोधित करते जो मात्र ढोंग होता। सभी उससे बात करने के बहाने ढूँढ़ा करते। जब तक रंजना से बात नहीं हो जाती थी, तब तक वे अपने आपको अधूरा—अधूरा—सा महसूस करते रहते।

सभी के दायरे में मैं भी आता था। मैं स्वयं रंजना की स्त्री सुलभ छवि के आगे अधिक दिन टिक न सका। उसे देखने की मेरे मन में इच्छा सदैव बनी रहती। यद्यपि वह उम्र में मुझसे चार—पाँच वर्ष बड़ी थी, फिर भी वह मुझे भली लगती। मैंने अपने शर्मीले— संकोची स्वभाव के कारण उससे कभी बात करने की पहल नहीं की। वही यदा—कदा बोलकर मुझे कृतार्थ कर देती थी। मेरे मन मस्तिष्क में अपने जीवन साथी की जो छवि बनती—बिगड़ती रहती थी, वह रंजना से काफी कुछ मिलती—जुलती थी।

विद्यार्थी—जीवन समाप्त भी नहीं हुआ था कि नौकरी के लुभावने फल की लालसा ने मेरे स्वतन्त्र—जीवन को नौकरी के पिंजरे में कैद कर लिया। प्रारम्भ के दिनों में बॉस के सामने खड़ा रहना विद्यार्थी—मन को अटपटा लगता था। बॉस के सही—गलत निर्णय को स्वीकारना नियति बनती गयी और कुछ माह में प्रतिदिन के एक जैसे अभ्यास ने मुझे कार्यालयी—जिन्दगी के ढर्रे में बाँधकर उसका अभ्यस्त बना दिया।

दूसरे सहकर्मियों की तरह मैं भी ‘भोजन के बाद मीठा' की तरह रोज की बेस्वाद होती जिन्दगी में रंजना को जोड़ उसे स्वादमय बनाने लग गया।

एक दिन जब मैं कुछ देर से ऑफिस पहुँचा, तब वहाँ सभी लड्‌डू खा रहे थे। पता चला रंजना अपना सर्विस केस जीत गयी है। अब वह बड़े बाबू राधेश्याम के वेतनमान के बराबर में आ गयी थी। मेरे पूछने पर दफ्तरी रामदीन ने बताया कि रंजना इस ऑफिस में ‘डाइंग हारनेस' में अपने पिता की जगह पर आज से दस बारह वर्ष पहले नौकरी में आयी थी। मेरा माथा चकराया यानि रंंजना को इस ऑफिस मै आये दस—बारह साल हो चुके हैं। मेरे शंकित मन को रामदीन ने शंकाहीन करते हुए कहा, ‘‘छोटे बाबू रंजना बिटिया की उम्र उनतीस—तीस साल की हो रही है। हमने तो उसे अपनी गोद में खिलाया है।

रंजना को मैं अभी तक अपनी उम्र के हिसाब से नौकरी में भी चार—पाँच साल सीनियर समझता था। उस हिसाब से उसकी उम्र ज्यादा से ज्यादा पच्चीस छब्बीस वर्ष मानता था। मेरा कौतूहल बढ़ता चला गया।

रंजना शादी शुदा थी, परन्तु सुहागन नहीं, क्योंकि मैंने उसकी माँग में कभी सिन्दूर नहीं देखा। पैरों में बिछिया, माथे पर लगी बिन्दी उसे विधवा भी मानने नहीं देती थी। अपने इस मूक—प्रश्न के उत्तर को मैं कहीं से पा नहीं सका था। मुुझे आश्चर्य होता था कि रंजना की तमाम चर्चाओं में यह ज्वलन्त और ठोस प्रश्न कोई क्यों नहीं उठाता। मेरा यह कौतूहल रंजना को देखते ही जाग उठता था।

और फिर एक दिन रंजना ऑफिस नहीं आयी। दूसरे दिन शुक्रवार को भी वह नहीं आयी। अगले दो दिनोें में द्वितीय शनिवार और रविवार का अवकाश था। सभी को पूरी—पूरी आशा थी कि रंजना सोमवार को ऑफिस जरूर आयेगी, परन्तु सोमवार को उसकी छुट्‌टी का आवेदन पत्र आ गया। वह अपरिहार्य कारणोंवश दो दिन और अवकाश में रहेगी। दो दिन भी बीत गये और जब वह सप्ताह के आखिरी दिन भी नहीं आयी, तब बॉस ने मुझे अपने चैम्बर में बुलाया और रंजना के घर का पता देकर कहा कि मैं कल रविवार को अवकाश में रंजना के घर जाऊँ और रंजना के ऑफिस न आने का कारण सोमवार को उन्हें बताऊँ। पिछले एक सप्ताह से बॉस के बढ़ते गर्म मूड की गर्मी को सभी महसूस कर रहे थे। बॉस ही क्या रंजना की अनुपस्थिति से सभी का मूड आज—कल खराब चल रहा था।

मैं सप्ताह की इकलौती छुट्‌टी बरबाद नहीं करना चाहता था और शाम को ऑफिस की ड्‌यूटी के बाद, मैं रंजना के वी पार्क रोड स्थित मकान में जा पहुँचा।

रंजना का मकान आसानी से मिल गया। मैंने दरवाजे के बाहर लगी बेल दबायी, अंदर कालबेल से कर्णप्रिय ध्वनि निकली। कुछ लमहों बाद एक प्रौढ़ महिला ने दरवाजा खोला, वह रंजना की माँ थीं, जो प्रारम्भिक औपचारिकताओं के बाद मुझे बड़े से ड्राइंग रूम में रखे सोफे पर बैठने को कह अंदर चली गयीं।

दीवार पर रंजना के फ्रेम जडे़ आकर्षक हँसते—मुस्कराते विभिन्न मुद्राओं में खींचे गये फोटो मुझे उसके सुखद अतीत का आभास करा रहे थे। दिन भर की थकान के कारण अपने पैर पसार कर मैंने अपनी आँखें कुछ समय के लिए बन्द कर लीं।

‘‘शैलेन्द्र! तुम!'' रंजना के शान्त सम्बोधन ने मेरी आँखें खोल दीं। वह सामने वाले सोफे पर बैठ रही थी। इस समय उसने सफेद साड़ी पहन रखी थी।

‘‘जी.... नमस्ते!....... कैसी हैं आप.......?'' वाक्य पूरा करते—करते मैं आवाक्‌ रह गया। माथे से बिन्दी और कलाइयों में चूड़ियों की अनुपस्थिति से मैं सोच में पड़ गया। तत्काल मेरी दृष्टि उसके पैरों की ओर गयी जहाँ से बिछिया भी नदारत थी। सफेद साड़ी ने पहले ही मुझे हल्का—सा चौंकाया था।

..ये.... आपने क्या.......

मेरा वाक्य पूरा भी न हो पाया था कि रंजना ने बीच में कहा— ‘‘शैलेन्द्र! मैं विधवा हो गयी हूँ। पिछले शुक्रवार को मेरा तथाकथित पति एक सड़क दुर्घटना में मर चुका है।'' शान्त और सरल शब्दों में रंजना ने स्थिति स्पष्ट कर दी। जिसे रंजना जैसी स्त्री ही कर सकती थी।

‘‘ओह! वेरी सैड......

‘‘नथिंग सैड, ...... एवरी थिंग इज राइट...... यू नो''

..... रंजना के सीधे—सपाट उत्तर ने मेरी बोलती बन्द कर दी। मैं भौंचक्का रह गया। कुछ पल के लिए ड्राईंग रूम में निःस्तब्धता छा गयी। रंजना की माँ इस बीच चाय बिस्किट व नमकीन टेबिल पर रख अन्दर चली गयीं।

‘‘शैलेन्द्र! चाय लो!'' रंजना के मीठे स्वर में अनुशासन प्रिय शिक्षक का आदेश झलक रहा था। मैं आज्ञाकारी छात्र की भाँति चाय सिप करने लगा। रंजना भी अपनी प्याली उठाकर चाय सिप करने लगी। कुछ देर के लिए ड्राईंग—रूम में पुनः शांति छा गयी। मैंने नमकीन व बिस्किट में से कुछ नहीं लिया। रंजना ने औपचारिकतावश बिस्किट या नमकीन चाय के साथ लेने के लिए कहा भी नहीं।

वह अपनी चाय जल्दी समाप्त कर पास रखी बुक शेल्फ के पास गयी। उसे खोलकर उसने उसमें से एक नीले रंग की डायरी निकाली।

मैं कनखियों से रंजना को देख रहा था। झक सफेद साड़ी के ऊपर कमर के पास तक उसके बिखरे लम्बें काले बालों में वह विधवा के स्थान पर इंद्रलोक से आई कोई अप्सरा या परीलोक से आई कोई श्वेत—धवल परी लग रही थी। मैंने रंजना के मुड़ते ही अपनी दृष्टि हटा ली।

‘‘शैलेन्द्र मुझे पता है कि तुम कल्पित नाम से कहानियाँ लिखते हो।''

मैं कुछ देर सोच में पड़ गया मेरा यह अतिगोपनीय कर्म रंजना ने कैसे अन्वेषित कर लिया।

सोफे पर बैठते हुए रंजना ने शान्त स्वर में एक और प्रश्न दागा, ‘‘तुम

धीरेन्द्र के अनुज हो न ?''

‘‘जी.... इस बार मैं बुरी तरह चौंक पड़ा। रंजना मेरे बारे में और क्या—क्या जानती है ? मेरे मन में एक साथ कई प्रश्न उठ खड़े हुए।

‘‘....तब तुुम अभिषेक को भी जानते होगे...... तुम्हारे अग्रज धीरेन्द्र का मित्र।''

मैंने सहमति में अपना सिर हिलाया। अभिषेक धीरेन्द्र भाई साहब के कोई मित्र थे। यह मुझे मालूम था, किन्तु मैंने उन्हें कभी देखा नहीं था।

‘‘वही मेरा पति था, पिछले बुधवार अपने किये कर्मों के फलस्वरूप वह एक सड़क एक्सीडेण्ट में मारा गया।''

‘अपने किये गये कर्मोें के फलस्वरूप' मैंने मन ही मन रंजना के कहे गये शब्द दुहराये; किन्तु अपने मन में पनपी जिज्ञासा को मैं दबाये रहा। मैंने रंजना के चेहरे की ओर पहली बार गौर से देखा। भरा पूरा लावण्यमय चमकते चेहरे पर बड़ी—बड़ी चमकदार स्वच्छ कत्थई आँखें.....लालिमा लिए तनी हुई नासिका और गुलाब की पंखुड़ियों जैसे तराशे गए होठ उसके व्यक्तित्व में चार चाँद लगा रहे थे। मैं अपलक उसे देखे जा रहा था।

‘‘शैलेन्द्र!'' मैं एकाएक चौंका, जैसे कि मेेरी चोरी पकड़ी गयी हो। ‘‘शैलेन्द्र! तुम मेरी इस डायरी को पढ़ना और फिर लिखना एक कहानी.... सच.....मेरे द्वारा लिखे मेरे अतीत से तुम्हें कहानी का बहुत उम्दा प्लाट मिलेगा।''

आगे हम दोनों में कोई बात—चीत नहीं हुई। मैंने प्याली में रखी, ठंडी हो चुकी शेष चाय एक बार में ही गले के नीचे उतारकर प्याली सेण्टरटेबिल पर रख दी और रंजना से अनुमति लेकर डायरी सहित बाहर सड़क पर आ गया।

अपने एक कमरे के छोटे से फ्लैट में आने से पूर्व मैं होटल में खाना खा चुका था। फ्रेश होने के बाद मैंने कपड़े बदले और रंजना के द्वारा दी गयी डायरी को पढ़ने में तल्लीन हो गया —

‘‘मैं अपने माता—पिता की इकलौती लाड़ली बेटी थी। माँ बाबूजी मेरी प्रत्येक फरमाइश पूरी करते थे। मेरे बाबूजी मुझे बहुत चाहते थे। इतना कि शायद ही किसी बेटी को उसके माता—पिता द्वारा चाहा गया हो। मुझे ठीक से याद नहीं पड़ता कि कभी माँ या बाबूजी ने मुझे डाँटा तक हो.....पीटना तो बहुत दूर रहा। इस लाड़—प्यार ने मुझे किशोरवय में हठीला बना दिया था, जिसका परिणाम मुझे बाद में भुगतना पड़ा।

तब मैंने हाईस्कूल पास करने के बाद इण्टरमीडियट में प्रवेश लिया था, जब अभिषेक से मेरी पहली भेंट अपनी सहेली दीप्ती के घर में हुई थी। अभिषेक दीप्ति का बड़ा भाई था, जो इसी शहर के किसी कालेज से ग्रेजुएशन कर रहा था। अभिषेक मुझे पहली मुलाकात में भा गया। मैं अक्सर दीप्ति के घर अभिषेक को देखने जाने लगी। उसे देखते रहना, उससे बातें करना मुझे अच्छा लगता था। मैं सुन्दर और आकर्षक तो थी ही फलस्वरूप अभिषेक भी मुझ में धीरे— धीरे रुचि लेने लगा और कब हम दोनों बात—चीत की हद पार कर एक दूसरे को प्रेम—पत्र लिखने लगे कुछ पता ही नहीं चला।

रात—दिन अभिषेक मेरे मन—मस्तिष्क में छाया रहता। उसे देखे बिना चैन नहीं मिलता था। उसकी एक फोटो चौबीसों घण्टे मेरे पास रहती।

अभिषेक मुझसे उम्र में पाँच—छः वर्ष बड़ा था। मैं उन दिनों यद्यपि उम्र के सोलहवें वर्ष में चल रही थी, परन्तु लाड़—प्यार से पली बढ़ी और अच्छी खिलाई—पिलाई के कारण मैं अपनी उम्र से बड़ी लगती थी।

हम दोनों का प्यार दीप्ती से अधिक दिन छिप न सका। वह हम दोनों के बीच पनप चुके प्रेम को जान चुकी थी। धीरे—धीरे वह भी हम दोनों के प्यार में सहयोग करने लगी। मैं उसे बेहद पसन्द थी। वह मुझे बहुत चाहती थी। उसने अकेले में मुुझे ‘भाभी' कहना भी शुरू कर दिया था। मैं भी उसे अपनी ननद मान चुकी थी। दीप्ति मुझसे उम्र में कुछ महीने ही बड़ी थी। मैं उससे मिलने के बहाने उसके घर पहुँच जाती; जहाँ पर दीप्ति हम दोनों को अपने कमरे में मिलने देती और स्वयं चौकसी में रहती। मैं और अभिषेक एकान्त में एक दूसरे से प्यार भरी बातें करते। अभिषेक की बाँहो में आलिंगनबद्ध रहना, जितना सुखद लगता था उसका वर्णन नहीं किया जा सकता। मैं अभिषेक के बिना जी पाऊँगी तब मेरे लिए कल्पना से परे था। हम दोनों ने साथ जीने—मरने की कसमें खाई थीं। मैं अपनी मर्यादा समझती थी और अभिषेक के उन प्रयासोंं को मैंने हमेशा रोका, जो हमारे प्यार में वासना के द्योतक थे। मुझे अब समझ में आ रहा है कि मेरा वह प्यार कितना इकतरफा था, जिसमें आत्मिक प्रेम का नितान्त अभाव था।

हम दोनों ने विवाह करने का पक्का मन बना लिया था; परन्तु हम दोनों के विवाह में सबसे बड़ी दो दिक्कतें थी। पहली मैं ब्राह्मण जाति से थी और वह कायस्थ, दूसरी मैं नाबालिग थी। मैंने एक दिन अपनी माँ को अपना निश्चय अन्ततः सुना ही दिया। वह दिन मेरे लिए बहुत महत्वपूर्ण और मेरे जीवन का अहम्‌ दिन था।

बाबूजी मेरे इस विचार के विरुद्ध थे। उनके द्वारा दी गयी अनेक नसीहतें, आशंकाएँ मुझे मेरे निश्चय से डिगा नहीं पायीं। वह दिन अब याद करती हूँ, तो रोना आ जाता है। बाबूजी ने कहा था, ‘‘बेटा तुम दोनों का प्यार महज युवावस्था का शारीरिक आकर्षण मात्र है... हमारी बात मान जाओ...... अपनी सन्तान का भला माँ—बाप से अधिक और कहाँ कोई सोच सकता है।'' इत्यादि, परन्तु, हाय रे! हत्‌—भाग्य तब प्यार के ज्वार ने मुझे इस तरह अन्धा कर रखा था कि सिवाय अभिषेक के मुझे अपनी आँखाें में कुछ भी नहीं दिखायी देता था। मेरे सिर पर अभिषेक के प्यार का भूत बुरी तरह से सवार था।

बाबूजी ने मेरी पढ़ाई छुड़ा दी और मुझे माँ की निगरानी में घर में रहने का हुक्म दे दिया।

मैं अभिषेक की दो दिन की जुदाई झेल नहीं पायी और तीसरे दिन बाबूजी के ऑफिस चले जाने के बाद दोपहर में माँ को सोता छोड़, अपने जन्मदाता माँ—बाबूजी के प्यार—स्नेह—ममता का त्याग कर, मैं कुछ माह पूर्व पनपे अपने प्यार के वशीभूत अभिषेक के पास आ गयी।

अभिषेक की माँ नहीं थी, उसके पिता की मौन स्वीकृति हम दोनों को मिल चुकी थी। उस दिन अभिषेक के पिता भी कहीं गये हुए थे। दीप्ति और अभिषेक मुझे अपने घर में मिले। मैं दीप्ति के सामने ही लिहाज शर्म छोड़ अभिषेक से लिपट गयी। मैं दो दिन की जुदाई की पूरी कसर निकाल लेना चाहती थी। मेरी आँखों से अविरल अश्रुधारा बह निकली।

आनन—फानन में हम तीनों ने निश्चय किया कि कानपुर में अभिषेक के मित्र के यहाँ जाकर वहीं हम दोनों आर्य समाज मन्दिर में शादी कर लें।

उसी दिन हम तीनों बस द्वारा अभिषेक के मित्र धीरेन्द्र के यहाँ कानपुर आ गये और अगले ही दिन आर्य समाज मन्दिर में धीरेन्द्र की मदद से मेरा विवाह वैदिक रीति से अभिषेक के साथ हो गया। धीरेन्द्र ने हमारे विवाह के समय के फोटो भी खींचे।

रात धीरेन्द्र के कमरे में ही मैंने अभिषेक के साथ अपनी पहली सुहागरात मनायी। महीनोें से चले आ रहे प्यार की हद को हम दोनों ने पार कर लिया था। प्यार की इस नवीन अनुभूति के बीच चार दिन कब निकल गये कुछ पता नहीं चला।

पाँचवें दिन, जब पुलिस अभिषेक और मुझे पकड़कर ले गयी, तब प्यार का ज्वार जीवन के यथार्थ से पहली बार टकराया था। बीते चार—पाँच दिनों में मेेरे माँ—बाबूजी की क्या हालत रही होगी तब मुझे इसकी न कोई चिन्ता थी, न ही कोई आभास ही था। मेरे माँ—बाबूजी बिना कुछ खाये—पिये मेेरी तलाश में लगे रहे थे। थकहार कर बाबूजी को अपनी सत्रह वर्षीय नाबालिग लड़की के अपहरण की नामजद रिपोर्ट थाने में दर्ज करानी पड़ी।

मजिस्ट्रेट ने अभिषेक को रिमाण्ड पर पुलिस के साथ जेल भेज दिया और मुझे बाबूजी के साथ घर जाने दिया। मैं अभिषेेक की दुर्गति पर बिलख—बिलख कर रोती रही। पुलिस वालों ने उसकी पिटाई जानवरों की तरह की थी। मैं अपने बाबूजी को हजारों—हजार बार कोसती रही। मैंंनेे खाना—पीना त्याग दिया था। आत्महत्या इसलिए नहीं कर सकती थी कि मेरे बिना अभिषेक कैसे जीवित रह पायेगा।

कुछ दिनों बाद पता चला कि अभिषेक को पुलिस ने कोर्ट के जमानती आदेश पर रिहा कर दिया है।

माँ बाबूजी ने मेरे ऊपर कड़े पहरे लगा दिये। लगभग एक माह बाद बाबूजी को हाईकोर्ट से एक नोटिस प्राप्त हुआ। नोटिस में बाबूजी को मुझे न्यायालय के समक्ष उपस्थित करने का सख्त निर्देश दिया गया था। नोटिस पाकर मेरे बाबूजी घबड़ा उठे; जबकि मैं उस दिन बहुत प्रसन्न हुई थी।

अभिषेक ने हाईकोर्ट में ‘हैबियस कार्पस' की याचिका दायर कर के अपनी व्याहता पत्नी अर्थात्‌ मुझे अपने माँ—बाप की कैद से मुक्त कर उसे प्रदान करने की प्रार्थना की थी। निर्धारित तारीख तक मेरे माँ—बाबूजी ने मुझे बहुत समझाया; किन्तु तब मेरे कानों में जूँ तक नहीं रेंगी। मेरे मन में एक धुन थी कि अब मैं अभिषेक की व्याहता पत्नी और वह मेरा प्रेमी, मेरा पति है। मेरे माँ—बाबूजी मुझे समझा—समझाकर हार गये उन्होंने एक वकील भी कर लिया था। अभिषेक से मिलने की चाह ने मेरे विवेक को हर लिया था। मेरे अन्दर सोचने—समझने की शक्ति समाप्त हो चुकी थी, सिवाय अभिषेक के पास जाने के। मेरे मन में दूसरी बात नहीं थी।

निर्धारित तारीख को मेरे माँ—बाबूजी मुझे लेकर हाईकोर्ट पहुँचे। मुझे कोर्ट रूम में अपनी माँ के साथ बैठा दिया गया था। जहाँ पर अभिषेक पहले से था। दीप्ति मेरे पास आ गयी। मैं उसके गले लगकर रोने लगी। न्यायालय के कर्मियों ने मुझे रोने—मिलने से मना किया। न्यायाधीश महोदय ने मुझे दूसरे कक्ष में अपने माँ—बाबूजी के पास समझाने—बुझाने के लिए भेज दिया; परन्तु मैं अपने निश्चय से डिगी नहीं। दीप्ति पुनः कुछ देर के लिए मुझसे मिलने आयी। उसने भरे गले से मुझसे कहा, ‘‘भाभी, भइया ने तुम्हारे पीछे अपना जीवन दाँव पर लगा दिया है। वह तुम्हारे लिए जेल गये। पुलिस के द्वारा उत्पीड़ित किये गये। मेरे पापा के बुरे बने...... भाभी, जब जज साहब तुमसे पूछें कि तुम किसके साथ रहना चाहती हो, तब तुम्हारे कहने मात्र से न्यायालय वही आदेश करेगा, जो तुम कहोगी। तुम्हें जज साहब से केवल यह कहना है कि तुम्हारी शादी भइया के साथ कानपुर मै आर्यसमाज मन्दिर में वैदिक रीति से हो चुकी है और तुम अपने पति के पास जाना चाहती हो।''

फिर कोर्ट में मैंने जज साहब के पूछने पर दीप्ति के द्वारा बताये गये शब्द ज्यों के त्यों दुहरा दिये। फलस्वरूप न्यायालय ने मुझे अभिषेक के साथ जाने की अनुमति दे दी। यद्यपि बाबूजी के वकील के द्वारा न्यायालय में मेरे नाबालिग होने का प्रमाण भी प्रस्तुत किया गया था; परन्तु मैं न्यायालय की दृष्टि में शारीरिक रूप से देखने में बालिग प्रतीत हुई और बाबूजी के वकील की यह दलील असफल रही।

कोर्ट के आदेश पर अभिषेक के साथ उसके घर जाने के बाद पहली बार मैं अपने माँ—बाबूजी को याद कर रोई थी। उस समय मुझे यह विश्वास था कि कुछ दिनों में सब कुछ सामान्य हो जायेगा, तब माँ—बाबूजी मेरे प्यार को स्वीकार कर मुझे व अभिषेक को अपना आशीर्वाद दे देंगे।

अभिषेक के घर में हमारी पहली रात की तैयारी मेरी प्रिय ननद दीप्ति ने बड़े चाव से की थी।

रात जब अभिषेक मेरे पास आया तो मैं सकुचायी—शर्मायी—सी उसकी ओर से होने वाली पहल को सोच—सोचकर मन ही मन गद्‌गद्‌ हो रही थी..., किन्तु सोचे गये मीठे पलों के स्थान पर अभिषेक मुझ पर किसी वहशी दरिन्दे की भाँति टूट पड़ा, जैसे कई दिनों से भूखे भेड़िये के सामने माँस का टुकड़ा डाल देने पर वह उस पर टूट पड़ता है। मैं अभिषेक के इस अप्रत्याशित व्यवहार के लिए कतई तैयार नहीं थी।

हमारे बीच प्यार की कुछ परिकल्पनाएँ और उसके कुछ आदर्श थे। शारीरिक सम्बन्धों को हमने प्यार में कभी प्रमुखता नहीं दी थी; किन्तु अभिषेक के इस परिवर्तित व्यवहार ने मुझे परेशानी में डाल दिया। उसने किसी बलात्कारी की भाँति रोशनी में मुझे जबरन निर्वस्त्र कर दिया, मेरे विरोध न करने पर भी वह मुझे बेरहमी से नोचते—खसोटते हुए एक तरह से मेरे साथ बलात्कार करने लगा।

मैं अभिषेक की दरिंदगी झेलती रही। जब उसका उन्माद ठंडा हुआ तब वह बिना मुझसे बोले एक ओर करवट लेकर सो गया। मैं सारी रात अपने विभिन्न अंगों में उठ रहे दर्द और मानसिक परेशानी के कारण ठीक से सो न सकी।

अगले दिन, बीती रात में अभिषेक के द्वारा किये गये पाशविक व्यवहार को मैं यह सोचकर भूल गयी कि काफी दिनों बाद मुझे पाकर एकाएक उसकी शारीरिक भूख जाग उठी होगी। जिस कारण वह अपना विवेेक खो बैठा था; परन्तु मेरा यह सोचना निरर्थक रहा; क्योंकि दूसरी, तीसरी, चौथी और फिर आगे आने वाली प्रत्येक रात को वह मुझसे किसी दरिन्दे की भाँति मिलता। अपने दाँतों, नाखूनों से मुझे इस बेरहमी के साथ नोचता—खसोटता कि मैं दर्द से चीख पड़ती। मेरे चीखने से उसकी हैवानियत और बढ़ जाती थी। अन्ततः मैने दीप्ति को एक दिन अपने शरीर पर पड़े तमाम घावों को दिखाकर अभिषेक की हिंसक प्रवृत्ति के बारे में बताया। दीप्ति ने मेरे साथ किए जा रहे दुर्व्यवहार को लेकर अभिषेक को बुरा भला कहा, तब पहली बार अभिषेक ने मुझे बहुत बुरी तरह पीटा था।

एक बार जो अभिषेक ने मुझ पर हाथ उठाना शुरू किया, तो फिर आये दिन वह छोटी—छोटी बातों को लेकर अकारण मुझपर हाथ उठाने लगा। वह मुझे व मेरे बाबूजी को बुरी—बुरी गालियाँ देते हुए बाबूजी को देख लेने की धमकी देता। बाबूजी के द्वारा पुलिस रिपोर्ट करने के बाद, जब अभिषेक हवालात में बन्द कर दिया गया था, तब पुलिस वालों ने उसे बेरहमी से पीटा और उसके साथ अमानवीय दुर्व्यवहार किया था, जिसका बदला वह मेरे ऊपर अत्याचार करके ले रहा था।

अभिषेक ने मुझे मानसिक एवं शारीरिक प्रताड़ना देने के नये—नये तरीके खोज लिए थे। दिन में वह मुझे मानसिक वेदना पहुँचाता और रात में शारीरिक यंत्रणा। अब उसको मुझ में कमियाँ ही कमियाँ दिखायी देने लगी थीं।

मैं स्वाभिमानी लड़की थी। इस रूप में अपने माँ—बाबूजी के घर जाने की सोच भी नहीं सकती थी। मैं अपने कर्तव्यों के साथ उस पल की प्रतीक्षा करने लगी, जब अभिषेक का सारा गुस्सा समाप्त हो जायेगा और वह मुझे पहले की तरह प्यार करने लगेगा; परन्तु वह दिन कभी नहीं आया; बल्कि अभिषेक के अन्दर बदले की भावना और अधिक गहराती चली गयी। फलस्वरूप मेरे ऊपर उसकी यातनाएँ और अधिक बढ़ती चली गयीं। अब वह अक्सर शराब पीकर आने लगा था। नशे की हालत में वह और अधिक हिंसक हो उठता। दीप्ति या पापाजी के डाँटने या समझाने से वह बौखलाकर मेरे साथ और अधिक दुर्व्यवहार करता। मैंने अपने दुःख—दर्द को किसी से कहने के स्थान पर अपने तक ही सीमित रखना शुरू कर दिया। मैं हर प्रकार से उसकी होकर रहना चाहती थी। किसी प्रकार से अपने आप को ‘एडजस्ट' करना चाहती थी। मुझे विश्वास था कि मेरे दुःख के बादल कभी तो छटेंगे; परन्तु ऐसा नहीं हुआ। मेरी तमाम कोशिशें बेकार साबित हुईं।

अभिषेक के घर में एक—एक पल बिताना मेरे लिए कभी स्वर्ग की भाँति रहा था। वही स्वर्ग आज मेरे लिए नरक से भी बदतर हो गया था। जहाँ पर एक—एक पल रहना घुट—घुट कर जीना था।

अपने माँ—बाबूजी से बिछुड़े हुए मुझे लगभग छः माह से अधिक गुजर चुके थे। मुझे हर पल उनकी याद आती; उन्हें याद कर मैं रोती रहती। आँखों के सामने माँ—बाबूजी के द्वारा मुझे समझाने के वह पल याद आ जाते। माँ—बाबूजी भी इसी शहर में लगभग दस कि.मी. के फासले पर रहते थे; किन्तु बाबूजी अपने स्वाभिमानी स्वभाव के कारण एक भी बार मुझसे मिलने नहीं आये। मैं उनके लिए मर चुकी थी और अभिषेक से माँ बाबूजी के यहाँ मुझे लेकर चलने की बात करना ही बेकार था।

........... और फिर उस रात तो मेरी सारी सहन शक्ति ही जवाब दे गयी जब अभिषेक अपने मित्र धीरेन्द्र को लेकर देर रात घर लौटा। दोनों शराब के नशे में डूबे थे। उस रात दीप्ति व मेरे ससुर शहर से बाहर गये हुए थे। मैं नशे में लड़खड़ाते अभिषेक को सँभालकर अन्दर लायी। धीरेन्द्र भी पीछे—पीछे आकर सोफे पर बैठ गया। अभिषेक अपने मित्र के सामने मुझे बुरा—भला कहते हुए थप्पड़ मारने लगा। मैं उसकी मार सहते हुए उसके जूते—मोजे उतारने लगी। धीरेन्द्र सोफे पर बैठा यह दृश्य असमंजस की स्थिति में देख रहा था।

एकाएक अभिषेक हिंसक हो उठा उसने अपने मित्र के सामने ही मुझसे अभद्रता शुरू कर दी। मैं एकान्त में तो यह सब बर्दाशत करती ही चली आ रही थी; किन्तु आज अपने मित्र के सामने की जा रही उसकी शैतानी चेष्टा का मैंने विरोध करना शुरू कर दिया। मैंने अभिषेक की कलाई मेंं अपने दाँत जोर से गड़ा दिये। वह दर्द से बिलबिला उठा। उसकी पकड़ कमजोर होते ही मैं अपने अर्द्ध नग्न शरीर को अपने हाथों से छुपाते बेडरूम की ओर भागी। अभिषेक भी तेजी से मेरे पीछे आया। मैं बेडरूम का दरवाजा बन्द न कर सकी। वह दरवाजा ठेल कर अन्दर आ गया। अभिषेक ने मुझे जोरों से अपनी बाँहों में जकड़ लिया और अपने मित्र को आवाज दी। धीरेन्द्र नशे की हालत में लड़खड़ाता हमारे बेडरूम में आ गया। मैं हिलडुल भी नहीं सकती थी। फिर उसने मेरा बायाँ हाथ बेरहमी से मोड़ना शुरू कर दिया। मैं दर्द से तड़प उठी, वह मेरे माँ—बाबूजी को और मुझे अश्लील गालियाँ देते हुए मेरे कपड़े फाड़ने लगा। मैं उसके द्वारा अपने मोड़े जा रहे हाथ से निःसहाय सी हो गयी। अभिषेक जो मेरा पति था इस समय किसी बलात्कारी, मवाली की भूमिका मेरे साथ निभा रहा था। मेरे चिल्लाने, रोने, गिड़गिड़ाने से भी उसके पाषाण हृदय पर कोई असर नहीं पड़ा। नशे की हालत में वासना और बदले की भावना ने उसे अन्धा कर दिया था। वह मुझे अपने मित्र की उपस्थिति में निर्वस्त्र करने पर तुला हुआ था। कोई भी स्त्री अपने पति के सामने तो निर्वस्त्र होती ही है; परन्तु वह यह कदापि सहन नहीं कर सकती कि उसका पति उसे खुले आम किसी दूसरे के सामने निर्वस्त्र करना तो दूर, उसे अश्लील संकेत तक करे। अभिषेक की धीरेन्द्र के सामने बढ़ती जा रही कुचेष्टा से मैं स्वयं को बचा नहीं सकी।

अभिषेक राक्षसी हँसी—हँसता हुआ बोला, ‘‘साली आज मेरे यार को भी खुश करेगी... आओ! धीरेन्द्र!'' वह मेरे निर्वस्त्र शरीर को धीरेन्द्र की ओर करते हुए बोला। एकाएक मेरे शरीर पर हजारों बिजलियाँ एक साथ गिरीं। अभिषेक की पैशाचिक मंशा जानकर मैं नर्वस हुई जा रही थी। घबराहट के कारण मेरे मुँह से एकाएक आवाज निकलना बन्द हो गयी। धीरेन्द्र मेरी ओर बढ़ा... मैं निरीह आँखों से अपनी ओर बढ़ रहे शराब के नशे में चूर धीरेन्द्र की ओर देखने लगी, फिर हाथ के इशारे से उसे अपनी ओर न आने के लिए मना करने लगी। धीरेन्द्र मेरे काफी निकट आ चुका था। मैंने अपनी आँखें बन्द कर लीं और ईश्वर का स्मरण करने लगी, तभी एकाएक आशा के विपरीत मैंने अपने शरीर को बेड कवर से ढका पाया। मैंने अपनी आँखें खोली, तो देखा धीरेन्द्र ने एक जोरदार मुक्का अभिषेक के चेहरे पर जड़ दिया; जिससे वह लड़खड़ा कर वहीं फर्श पर ढेर हो गया। अभिषेक की पकड़ से छूटते ही मैं बेड कवर ओढ़े दूसरे कमरे की ओर भागी। धीरेन्द्र अभिषेक को उसके कुकृत्य पर उसे धिक्कारते हुए उसकी पिटाई करने लगा।

दूसरे कमरे में मैंने जल्दी—जल्दी अपने कपड़े बदले और किसी भी सूरत में अपने माँ—बाबूजी के घर जाने का निश्चय कर लिया। मध्य रात्रि का समय हो रहा था। किसी भी बात की परवाह किये बिना मैं अभिषेक के घर से निकल पड़ी। ..... कुछ देर बाद ही मुझे ऑटो रिक्शा मिल गया और दस—बारह कि.मी. दूर स्थित मैं अपने बाबूजी के घर पहुँच गयी। महीनों बाद मैंने अपने बाबूजी का घर देखा; जहाँ पर मैंने अपने जीवन के सत्रह वर्ष बिताये थे। मेरी आँखाें से अश्रुधारा बह निकली। मैं बदहवास—सी कालबेल के पुश बटन को दबाने लगी, जैसे दरवाजा जल्दी न खुला तो पीछे से अभिषेक मुझे घसीट कर अपने साथ वापस ले जायेगा।

दरवाजा बाबूजी ने खोला। वह मुझे ठीक से पहचानने की कोशिश करने लगे। मुझे इस हालत में इतनी रात आया देख बाबूजी को एकाएक अपनी आँखाें पर विश्वास नहीं हुआ..... मैं उनसे लिपट कर रो पड़ी। इसी बीच माँ भी आ गयीं। मैं माँ को देख जोर से विलख कर रोते हुए उनसे जा लगी। मेरे करुण क्रन्दन से मेरी माँ बिना कुछ जाने समझे रोने लगीं। बाबूजी मेरे सिर पर हाथ फेरते हुए पूछते जा रहे थे— ‘‘क्या हुआ...... बेटा...... क्या हुआ?......'', जबकि वह मेरी हालत देख कर सब समझ चुके थे।

एकाएक बाबूजी को अपने सीने में तेज जलन महसूस हुई और वह लड़खड़ाये ...... मम्मी और मैंने उन्हें सँभालना चाहा; किन्तु हमारे सँभालते—सँभालते वह वहीं फर्श पर गिर पड़े। वह अपने बायें सीने को हाथों से दबाये मूर्छित हो गये। उन्हें मेरी इस हालत से गहरा सदमा पहुँचा था। आनन—फानन में मम्मी पड़ोस में ही रह रहे डॉक्टर अंकल को बुला लायीं। इस बीच मैं बाबूजी के सीने को मलती रही। डॉक्टर अंकल ने हार्टअटैक बताया और तुरन्त मेडिकल कालेेज ले चलने के लिए कहा। डॉक्टर अंकल की कार में किसी तरह बाबूजी को लेकर हम सब मेडिकल कालेज आ गये और उन्हें आई. सी. यू. में एडमिट करा दिया। समय पर पहुँच जाने से बाबूजी की हालत में तेजी से सुधार होना शुरू हो गया। खतरा टल चुका था। एक दिन बाद ही अस्पताल से हिदायतों के साथ बाबूजी को डिस्चार्ज कर दिया गया।

मेरे दुःखों के बादल अभी छटे नहीं थे। बाबूजी के सामने मैं सामान्य बने रहने की भरसक कोशिश करती। उन्हें कुछ भी पता न चल पाये इसका ध्यान रखती, फिर भी माता—पिता के सामने संतान के दुःख—दर्द भला कैसे छिपे रह सकते हैं।

अभिषेक के यहाँ मेरी हुई दुर्गति और आगे के मेरे जीवन को लेकर बाबूजी बेहद चिन्तित और दुःखी रहने लगे थे।

इन्हीं संकट के दिनों में एक दिन अभिषेक ने आकर स्वस्थ हो रहे बाबूजी को पुनः अस्पताल पहुँचा दिया।

अभिषेक मुझे बल पूर्वक लेने आया था। जिसके साथ न जाने का फैसला मैं कर चुकी थी। अपनी इकलौती बेटी का जीवन तबाह करने वाले अभिषेक से बाबूजी वैसे भी खार खाये हुए बैठे थे। उसे अपने सामने देखकर वह गुस्से से उत्तेजित हो उठे, फलस्वरूप उनका ब्लडप्रेशर बहुत बढ़ गया और उनके मुँह से झाग निकलने लगा। अभिषेक मेरे बदले तेवर और बाबूजी की हालत देख— ‘देख लेने' की धमकी देकर चला गया।

एक सप्ताह बाद ही हाईकोर्ट से बाबूजी के नाम ‘‘हैबियस कारपस'' की एक नोटिस मिली जिसमें मुझे दो दिन के बाद ही कोर्ट में उपस्थित कराने का बाबूजी को निर्देश दिया गया था।

मैंने मम्मी को समझा लिया कि वह इस नोटिस के बारे में बाबूजी को कुछ न बतायें, मैंने नोटिस फाड़कर फेंक दी और नोटिस में निर्धारित तारीख को कोर्ट नहीं गयी। दूसरी और तीसरी नोटिस की अवहेलना करने के बाद जब कोर्ट का सख्त आदेश अगली बार बाबूजी के नाम आया तब मैं बाबूजी को गंगा मौसी की निगरानी में छोड़कर अपनी मम्मी के साथ निर्धारित तारीख को कोर्ट पहुँची। मम्मी ने बाबूजी के पूर्व परिचित वकील से बात की, जो पहले भी हमारा केस लड़ चुके थे।

निर्धारित समय पर वकीलों और मुवक्किलों से खचाखच भरी कोर्ट में जज साहब के पूछने पर मैंने अभिषेक के द्वारा अपने ऊपर किये गये अत्याचारों का खुलासा किया। साथ ही मैंने उस रात की घटना का भी जिक्र किया जिस रात मैंने अभिषेक का घर छोड़ा था।

जिसे सुनकर जज साहब तक की आँखें नम हो गयी थीं। मैंने अपने ऊपर हुए अत्याचारों के कुछ निशान भी जज साहब को दिखाये और अपने बाबूजी की वर्तमान हालत से उन्हें अवगत कराते हुए विनती की कि मेरी ऐसे राक्षस पति से रक्षा की जाये और मुझे अपने माता—पिता के पास ही रहने दिया जाये। जज साहब ने मुझे सुनने के बाद मेरे पक्ष में निर्णय दिया और मेरे वकील की प्रार्थना पर मुझे पुलिस संरक्षण में अपने माता—पिता के यहाँ भेजे जाने का निर्देश दिया।

कोर्ट आफीसर कक्ष में मुझे मम्मी के साथ काफी देर पुलिस की प्रतीक्षा में बैठना पड़ा। अभिषेक कोर्ट के रुख को देखकर पहले ही वहाँ से रफ्फूचक्कर हो चुका था। मुझे व मम्मी को रह—रहकर बाबूजी का ध्यान आ रहा था। शाम बीतती जा रही थी। कोर्ट आफीसर भी हमारी बेचैनी समझ रहे थे; परन्तु वह भी कोर्ट के आदेश के विरुद्ध पुलिस संरक्षण दिये बिना हमें भेज नहीं सकते थे। कोर्ट आफीसर सारी घटना जान चुके थे। उनकी सहानुभूति हमारे साथ थी; फलस्वरूप हम दोनों माँ बेटी के मन में व्याप्त घबड़ाहट काफी कम हो चुकी थी। कोर्ट के दमघोटू माहौल और लोगों की घूरती आँखों नें हमें परेशान कर रखा था। मुझे आठ माह पूर्व की स्थिति की पुनरावृत्ति जैसी लग रही थी। वही कोर्ट, वही जज, वही वर्दीधारी कोर्ट के अर्दली, वही कोर्ट आफीसर का कक्ष, वही दमघोटू माहौल और वही घूरती आँखें। अन्तर केवल इतना था कि उस दिन आभिषेक और दीप्ति मेरे पास थे, आज मम्मी मेरे साथ हैं। काफी प्रतीक्षा करने के बाद हम लोग पुलिस जीप पर बैठकर सकुशल घर आ गये। बाबूजी को निद्रा—मग्न देख हम दोनों ने राहत की साँस ली। गंगा मौसी ने बताया कि कोई खास परेशानी नहीं हुई। मैंने आप के कहे अनुसार बता दिया था कि आप दोनों खरीददारी करने बाजार गयी हुई हैं।

अगले दिन दैनिक पत्रों में मेरे केस के बारे में विस्तृत खबर छपी हुई थी। पता नहीं ये पत्रकार इतनी ढे़र सारी जानकारी कैसे जुटा लेते हैं। हमारे प्रयासों के बावजूद बाबूजी ने कल कोर्ट में हुई सारी जानकारी हमारे यहाँ आने वाले दैनिक पत्र से जान ली। खबर पढ़कर बाबूजी को पुनः गहरा आघात पहुँचा। उन्हें अपनी सामाजिक मृत्यु जैसी प्रतीत हुई। ‘सोच' और ‘तनाव' ने उनका ब्लडप्रेशर बढ़ा दिया। फलस्वरूप देर रात गये उन्हें फिर दिल का दौरा पड़ा। यह उन्हें दूसरा अटैक हुआ था। भगवान की महती कृपा हम माँ—बेटी के ऊपर रही। बाबूजी इस जानलेवा अटैक से भी बच गये थे।

दो बार दिल का दौरा पड़ जाने से बाबूजी ने अपने आगे के जीवन का भरोसा त्याग दिया था। वह अपने जीते—जी मुझे स्वावलम्बी बना देना चाहते थे। उन्होंने मेरी आगे की छूटी पढ़ाई फिर से शुरू करा दी। अभिषेक के ऊपर अत्याचार व उत्पीड़न का केस दायर करवा दिया और वकील से अपनी वसीयत भी तैयार करवा ली।

बाबूजी के द्वारा मुकदमा दायर करने से अभिषेक ने भी विवाह—विच्छेद की अर्जी पारिवारिक न्यायालय में दाखिल कर दी थी। तलाक हुए बिना वह दूसरा विवाह नहीं कर सकता था। बाबूजी व हमारे वकील की राय थी कि विवाह—विच्छेद प्रकरण खिंचता रहे जिससे अभिषेक दूसरा विवाह न कर सके।

मुझे अभिषेक के घर से आये अभी एक वर्ष भी व्यतीत नहीं हुआ था कि एक दिन भोर जब मैं और मम्मी सोकर जागे तब देखा कि बाबूजी चिर निद्रा में सो चुके थे। उन्हें तीसरा हार्टअटैक पड़ा था, जो उनके प्राण हर ले गया। एकमात्र सहारे के रूप में विद्यमान बाबूजी की आकस्मिक मृत्यु ने हम माँ—बेटी को हिलाकर रख दिया।

बाबूजी की मृत्यु का समाचार सुन दीप्ति अभिषेक के साथ हमारे घर आयी थी। उसने बातों ही बातों में हम दोनों को पुनः एक हो जाने की बात कही; परन्तु मैं स्वर्गीय बाबूजी की इच्छा के विरुद्ध अब कोई कदम उठाकर उनकी आत्मा को दुःख नहीं पहुँचाना चाहती थी।

बाबूजी के स्वर्गवास के दो माह बाद ही डाईंग हारनेस के अन्तर्गत उनके उत्तराधिकारी के रूप में एवं उन पर आश्रित होने के कारण मुझे उनके विभाग में नौकरी मिल गयी। बाबूजी के जीते जी तो मैं स्वावलम्बी नहीं बन सकी थी; किन्तु मरणोपरान्त वह मुझे स्वावलम्बी बना गये थे।

अपने बाल्यकाल में, मैं बाबूजी के दफ्तर तीन—चार बार ही आयी थी। तब मैंने यह कल्पना भी नहीं की थी कि मुझे कभी यहाँ नौकरी करनी पड़ेगी।

प्रारम्भ में मिलने वाली सहानुभूति के बाद मैं अपने कार्यालय में पुरुष सहकर्मियों की सहानुभूति के पीछे छिपी मंशा को भली—भाँति जानने और समझने लगी। जिस दफ्तर में पुरुषों की अपेक्षा स्त्रियों की संख्या नगण्य होती है, वास्तव में वहाँ पर पुरुषों के साथ कार्य करने वाली स्त्री को कितनी बड़ी चुनौती का सामना करना पड़ता है, मुँह में ‘बेटी' और ‘बहन' का सम्बोधन और आँखों में तैर रही कामुकता भरे इरादों को मैं धीरे—धीरे पहचानने लगी। कुछ पुरुष सहकर्मी जो मेरे निकट आने की कोशिश में सफल नहीं हो सके, उन्होंने पीठ पीछे मेरे बारे में भ्रामक प्रचार करना शुरू कर दिया। अन्य लोग भी चटकारे ले लेकर उन्हें सुनते थे। पता नहीं, इन पुरुषों के अन्दर यह धारणा क्यों बन जाती है कि ‘जो किसी एक की नहीं हुई, वह सबकी होती है।'

मेरी उम्र से लेकर बाबूजी की उम्र तक के अधिकांश पुरुष सहकर्िर्मयों की मंशा उनकी स्वार्थपूर्ण कुत्सित इच्छा और द्वयर्थी संवादों के साथ दफ्तर में कार्य करना मेरे लिए कठिन होता जा रहा था। शुरू में, मैं दफ्तर से अक्सर अवकाश ले लिया करती थी, परन्तु यह समस्या का समाधान नहीं था। अवकाश भी सीमित होते हैं। इस बीच एक अन्य ऑफिस में पुरुषों के साथ कार्य करने वाली मेरी बचपन की वाचाल सहेली ने मुझे मिलने पर कुछ ऐसी तरकीबें बतायीं; जिससे न केवल दफ्तर के पुरुष सहकर्िर्मयों के बीच काम करने में मुझे कोई मुश्किल होगी; बल्कि उल्टे वह मेरी उँगलियों में नाचने लगेंगे। मैंने अपनी बचपन की सहेली के बताये तरीकों को अपने दफ्तर में आजमाना शुरू कर दिया।

परिणाम अप्रत्याशित था। कल तक जिनसे मैं भय खाती थी, जिनके कारण मुझे मानसिक परेशानी झेलनी पड़ती थी, वही मेरे आज्ञापालक बन गये। यहाँ तक कि वे मेरे तलवे तक चाटने को तैयार थे। थोड़ा—सा हँस—बोलकर पुरुष वर्ग को कितना मूर्ख बनाया जा सकता है, यह मैंने अच्छी तरह जान लिया था। मुझे ऐसे बेवकूफों पर दया भी आती और आनन्द भी। वाकई पुरुष कितने ढीले—ढाले और कमजोर चरित्र के होते हैं; जो गिरगिट की तरह रंग बदलने और अपनी खीसें निपोरनें में निपुण होते हैं।

इसी वर्ष धीरेन्द्र के भाई शैलेन्द्र ने हमारे विभाग में कार्यालय सहायक के पद पर नियुक्ति पायी है। एकदम धीरेन्द्र भाई साहब जैसा चेहरा—मोहरा और कद—काठी। पहले दिन उसको देखा तो लगा धीरेन्द्र भाई साहब ही हैं..... फिर एक दिन उसके किसी मित्र के पत्र से ज्ञात हुआ कि वह एक अच्छा कहानीकार भी है...... जब कभी मैं उससे बातें करती हूँ, तो वह अपने आपको नर्वस—सा महसूस करने लगता है। उसकी घबराहट बढ़ जाती है, उसकी तेज होती हृदय गति को मैं महसूसकर लेती हूँ। वह बेहद शर्मीला है। मैने मन बनाया है कि मैं उससे कभी कहूँगी कि वह मेरे जीवन पर आधारित एक कहानी लिखे। मेरी इच्छा उसे अपना मित्र बनाने की है। यद्यपि वह मुझसे उम्र में छोटा है, फिर भी पता नहीं क्यों वह मुझे प्रभावित करता है........।

शैलेन्द्र ने अपने सीने पर हाथ रखा वाकई डायरी की अन्तिम पंक्तियाँ पढ़ने के बाद उसकी हृदय गति में बढ़ोत्तरी हो चुकी थी।

उसने टेबिल पर रखी रिस्टवाच में देखा, रात्रि के ग्यारह बजने को थे। वह उठकर बाथरूम गया, पानी पिया, कमरे की लाइट ऑफ की और अपने बिस्तर पर लेट गया। नींद आने से पहले उसके मन—मस्तिष्क में रंजना के भूत, वर्तमान और भविष्य के कई चित्र बनते बिगड़ते रहे......।

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