kuchh achhandas rchnaen in Hindi Poems by Pranava Bharti books and stories PDF | कुछ अछांदस रचनाएं

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कुछ अछांदस रचनाएं

(कुछ अछांदस रचनाएं)

1-हाँडी
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सिर पर धरे खदबदाती हाँडी

तमाम उम्र महसूसती रही

युगों की पुकार

दीवानी बयार

सम्मोहित करते लम्हों के कुछ टुकड़े

पेड़ के नीचे दाना कुतरती गिलहरियों के मनभावन मुखड़े

टहनियों से थिरकती नन्ही सी छाँह की लकीर

मन को तसल्ली की गाँठ में कसती अनछुई पीर

जिसके सहारे उसने धरी थी वो खदबदाती हाँडी

ढोया था सिर पर एक गर्म ख़्वाब

क्यारी में बोने के लिए झोली में भरे थे कुछ रंग-बिरंगे बीज

जगाने चली थी बिटिया की सोई तक़दीर सोचा था ,

ढोना कुछ मायने नहीं रखता अगर --

पलकों पर उगे देखेगी सुनहरे सपने

लग जाएंगे पँख राजदुलारी के

फूल खिलखिलाएंगे ,गीत गुनगुनाएंगे

सब मिलकर खुशियों का करेंगे स्वागत

नहीं जानती थी ,हाँडी बदल लेगी अपना सिर

सलोनी बिटिया का झुलस जाएगा चेहरा

ख्वाबों के परकोटे उधड़ जाएंगे

वो ---तन्हा ,सपने को धुंध में समाते

बस झुलसकर ,देखती रह जाएगी

सपनों की दुनियाँ भरभराकर यूँ ही ढह जाएगी ------

क्या इसी दिन के लिए उसने सिर पर ढोई थी ---वो खदबदाती हाँडी !!

2-घर
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घर बहुत पुराना था ये ---लंबा -चौड़ा

बहुत से कमरों वाला

कमरों के नाम भी थे

बड़े सुन्दर ,बड़े प्यारे प्रेम,स्नेह,लाड़ ,दुलार मुस्कान ,

खिलखिलाहट मेजबानी ,कुर्बानी

हाँ,इनसे दूरी पर कुछ और भी कमरे थे

जिनमें शायद ही कोई झाँकता था

उनके भी नाम थे ---लिप्सा,माया तृष्णा ,घृणा,ईर्ष्या

उनमें जाने पर झुलस जाने का भय पालती मारे बैठा रहता ---

सो ताले लगा दिए गए थे उनमें ---

किन्तु चुराने के लिए घुस ही तो आए कुछ लोग

देखकर मोटे ताले बीज उगा लालच का --

तोड़ लिया गया मोटे तालों को

अब कमरों की क़तार में न जाने कैसे ---

दूर वाले कमरे उड़कर चिपक गए आगे पुराने मकान के

आँगन में घर का थरथराता बूढा मालिक

सोच में था !क्या कमरों के भी पँख होते हैं ?

कमरों में पसरती दुर्गंध से आकुल-व्याकुल हो

उसने छोड़ दिया अपना

वो --पुराना घर

अगले दिन सुबह सड़क पर

लैंप-पोस्ट के नीचे उसकी झिंगली खाट पड़ी थी ---||

3-क्या मिला?

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तुम ! अपने तेवर ही पुचकारती रहीं ताउम्र ---

घटाटोप सन्नाटे में बुनती रहीं नरम स्वेटर

उजाले का कोई प्रयत्न न कर

अँधेरे में खड़ी घूरती रहीं उजले सपनों को

बिना प्रयास करती रहीं जद्दोजहद

अपेक्षा के द्वार खोल

करती रहीं उपेक्षा जैसे--

सारी दुनिया का बोझ ढो रही हो

कुछ इस अंदाज़ में --

संबंधों की नरम हथेली पर बोतीं रहीं स्वार्थों के बीज

बेशक ! बेशक ! तुमने पा लिए हैं पँख

उड़ रही हो लेकिन --देखो,सोचो,गुनो

क्या भीतर की दीवार लाँघ भीषण युद्ध को

विराम दे पाईं ?

सूरज जला देता है तो

ज़रुरत से ज़्यादा बारिश भी गला देती है पौधों को ---

नहीं पहचान पाईं तुम उस संतुलन को ----

जो ज़रूरी था संबंधों की हथेली पर बोए

बीजों के अंकुरण के ,पुष्पित -पल्ल्वित होने के लिए ---!!

4 --चुभन

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संबंधों की नुकीली चुभन से बचते हुए गुज़ार लिए

न जाने कितने आज-कल-और न जाने कितने परसों ----

जमुहाई लेती आँखों के सपनों को बचाने के लिए

तोड़ीं न जाने कितनी नीदें -----

रिसते हुए लम्हों के बीच से गुज़र जाने का किया अनुभव

ज़िंदगी को खड़े पाया अपने दाएँ-बाएँ

कभी साबुत तो कभी टूटी-फूटी ----

पर मन की ये टूटी हुई शाखें हमेशा करती रहीं शिक़ायत

अपनी -अपनी उलझनों की !

जोड़ने की उन्हें कोशिश --कीबेहिसाब ----लगती रही तदबीर

बेवकूफ़ी की सीमा तक----

समझ ही तो नहीं पाई नुकीले रिश्तों की हाथापाई ----

अब जब ,दम निकलने की हो चुकी है पूरी तैयारी

कुछ-कुछ समझ आने लगा है

कैसा है ज़िंदगी का नुकीला रिश्ता

मन ,समझाने लगा है -----

नुकीले रिश्ते ,बहा देते हैं पूरा रक्त

ज़िंदगी के वृक्ष का

टूटी हुई शाखों की शिकायतें

मन के द्वीप के किनारे बैठी

सिसकती रहती हैं अपने बेसमय.बेमौसम टूटने पर---

बात दूर ---बहुत दूर जा चुकी होती हैं टूटी हुई टहनियाँ ---

कहाँ खबर पड़ती है मन के बहाव में

कहाँ सीप कहाँ मोती है ?

नुकीले संबंधों पर लगाए रहती हैं टकटकी

फिर भी आस की पँखुड़ी सजना नहीं छोड़ती ---

हाँ,आज़मा लो चाहे कितना भी

वक़्त का नश्तर लगाना नहीं छोड़ती -------||

डॉ.प्रणव भारती