Bhadukada - 44 in Hindi Fiction Stories by vandana A dubey books and stories PDF | भदूकड़ा - 44

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भदूकड़ा - 44

रात दस बजे के आस पास सुमित्रा जी सपरिवार ग्वालियर पहुंच गईं।
जानकी और किशोर के जाने के बाद कुंती बैठका में ही निढाल हो बड़े दादाजी की आराम कुर्सी पर बैठ गयी। आंखें बंद कीं, तो उसे बचपन से लेकर अब तक, अपने द्वारा , सुमित्रा जी के लिए गढ़ी गयी तमाम साजिशें याद आने लगीं। आज उसी सुमित्रा ने एक बार फिर उसे संकट से उबारने की कोशिश की है। पहले भी, बचपन में जब भी कुंती पर कोई संकट आता था तो सुमित्रा ही उसे आगे आकर अपने सिर पर ले लेती थी वो चाहे बच्चों के साथ मार पीट की वजह हो या स्कूल में की गई कोई शैतानी हो। कुंती भी हर वक़्त सुमित्रा को सताना नहीं चाहती थी, लेकिन क्या करे....सुमित्रा का फूल जैसा खूबसूरत चेहरा उसके सामने आता, और उसे तुरन्त अपनी शक़्ल दिखाई देने लगती। अपने बदसूरती को मात करते चेहरे को याद करते ही उसे लगता, जैसे उसकी इस सूरत के पीछे सुमित्रा का ही हाथ है। फिर जब लोग उसकी तुलना सुमित्रा से करते हुए उस पर तरस खाते तब तो जैसे कुंती के तनबदन में आग ही लग जाती। लोगों का कहना-
"जा मौड़ी जाने कीए पड़ गयी.... भगवान जाने ई कौ ब्याओ हो पैहै के न हूए। को कैहे के जा सुमित्रा की बैन आय? एक जनी हूर की परी हैं तो दूजी....अब का कंय!!" इन कहने वालों की आवाज़ में चिंता भी इस क़दर होती जैसे कुंती को ब्याहने की ज़िम्मेदारी तो बस इन्हीं के कंधों पर है!!! कुंती सुनती और उसे लगता कि जा के सुमित्रा के मुंह पर ढेर सारी ऐसी कालिख़ पोत दे जो कभी न छूटे। ऐसी कालिख़ तो कहीं मिलती नहीं सो वह इल्ज़ाम पर इल्ज़ाम लगा-लगा के सुमित्रा के चेहरे पर अदृश्य कालिख़ पोतने की कोशिश करती जिसमें अधिकतर कामयाब न हो पाती। इल्ज़ाम कुछ दिनों तक तो काम करता लेकिन फिर पता नहीं कैसे कुंती की पोल खुल जाती और ये कालिख़ कुंती के ही चेहरे पर पुत के उसे और बदसूरत बना देती।
जानकी जब बहू बन के आई तो पता नहीं क्यों, कुंती को उसके डील डौल में सुमित्रा नज़र आई। और इस एक समानता ने उसे फिर बेचैन कर दिया। इतना बेचैन, कि वो अब दिन रात उसे अपमानित करने के बहाने खोजने लगी। किया भी। लेकिन ये सुमित्रा नहीं जानकी थी। उसने कुंती की एक भी चाल सफल न होने दी उल्टे अब तो जानकी ही कुंती पर भारी पड़ रही थी। कुंती ने कई बार ख़ुद भी कोशिश की कि वो अपनी इन बेहूदा हरक़तों से बाज आ जाये, कोई गुड़तान न रचे, लेकिन उसे पता ही नहीं चलता था कि हमेशा ख़ुराफ़ात का आदी उसका मन कब चाल चलने लगता था.....!
सिर में हल्का सा दर्द होने लगा था कुंती के...सोची जाने वाली बातें ही इतनी भारी थीं, कि सिर तो भारी होना ही था। उसे बार-बार जानकी के कहे वाक्य याद आ रहे थे-
"अम्मा, न तुम हमाये अम्मा-पापा खों गारी दो, न हम कछु कैंहें। तुमे जो कछु काने, हमसें कओ न, उने कायहाँ बीच में लै आतीं? उनन ने का बिगारो तुमाओ? तुमाय अम्मा बाबू हां कोउ गारीं दैहें, तौ तुमे कैसो लगै? बस ऊसई तौ हमाई दसा आय। तुम नौने रओ, औ हमें रन दो। प्रैम सें रओ करे अम्मा।"
पता नहीं क्यों, आज जानकी की ये बातें याद करके कुंती को गुस्सा नहीं आ रहा था। थोड़ी देर में उसे महसूस हुआ, जैसे उसकी आँखों से आंसू बह रहे हैं। पोंछ के देखा- हां आंसू ही तो हैं.....!
"हे मोरी शारदा मैया, जानकी खों ठीक कर दियो" अपने आप ही कुंती के मुंह से ये दुआ निकली और हाथ स्वतः ही जुड़ गए प्रार्थना में।
क्रमशः