Ventilator in Hindi Moral Stories by Renu Yadav books and stories PDF | वेंटिलेटर

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वेंटिलेटर

‘का हम इतने बुरे बेटे हैं... आखिर हम इतना बुरा कैसे सोच सकते हैं, वो भी अपने बाबू जी के बारे में ?... एक-एक पैसा जोड़कर आप हमें पढ़ा-लिखा रहे थे, लेकिन हमने एक ही झटके में...! अम्मा का सोचती होगी हमारे बारे में ?... हम ऐसा कैसे कह सकते हैं... हमने तो ये भी नहीं सोचा कि आप के बिना हमारा का होगा… !

विश्वास नहीं होता कि ये बात सच है... आप की पल्स रेट बढ़ गयी है, आँखें थोड़ी थोड़ी खुलने लगी हैं... शरीर की सूजन कम होने लगी है ।... एक उम्मीद-सी जाग गयी है ठीक होने की... । अम्मा कितना खुस हो गयी है ये सब देखकर... तभी से मंदिर में भगवान के सामने हाथ जोड़े बैठी है... हमें माफ कर दीजिएगा बाबू जी, जो हम ऐसा सोच रहे थे... ।

अगर आपकी जगह मैं वेंटिलेटर पर होता तो आप घर-दूआर सब बेचकर हमें बचाते...लेकिन हम...! आखिर हमारे मुँह से ये बात निकला कैसे... कि वेंटिलेटर हटा देना चाहिए... हमने कैसे सोच लिया कि अब आपकी साँसें खतम हो चुकी हैं... घर परिवार वाले भी यही सोच रहे थे कि अब आप नाहीं बचे हैं । सबने जिद्द किया, बस अम्मा को विश्वास था कि आप हमें छोड़कर नाहीं जा सकतें... वह अपने फैसले पर अटल रही कि ‘जब तक साँस तब तक आस, हम वेंटिलेटर नाहीं हटने देंगे...’ ।

अगर उस दिन अम्मा अड़ नहीं गयी होती तो हम सब आपको मरा हुआ मानकर घर पहुँचा चुके होतें । लेकिन दूसरे अस्पताल के डॉक्टर ने ले जाते ही चेक किया और कहा कि ‘अभी साँस है , आँखों में रोशनी है । अंदर ले चलो...’

हमके माफ कर दीजिएगा बाबू जी... माफ.फ..अ...अ...’

अस्पताल के पीछे आत्मग्लानि में डूबा पन्द्रह साल का विनोद अकेले में बुदबुदाते हुए अहक अहक कर रो रहा था । आज धरती फट जाय या आसमान अपनी बाहें खोल दे, कुछ तो ऐसा हो कि उसे कोई देख ना पाये । उसे अम्मा के सामने जाने में सरम आ रही थी । वह यह सोच सोच कर घुटनों के बीच में मुँह छिपा-छिपा ले रहा था कि अब दुनियाँ के सामने और खासकर बाबू जी के सामने, का मुँह लेकर जायेगा ! उसने हमेशा से अपने बाबूजी को आदर्श माना, और जब बाबू जी की ये हालत हुई तब सारे आदर्श कहीं बिला गये या फिर आदर्शवादी बेटा और भाई बनने के चक्कर में बाबू जी की चलती साँसों को महसूस ही नहीं कर पाया । परिवार के ऊपर जान देने वाले बाबूजी के जान की जब बारी आयी तो सब लोग प्रेक्टिकल हो गयें ।

वह फिर से पिछले एक महिने से गुजरी जिन्दगी को बुदबुदाने लगा । जहाँ सुनने वाला वह खुद था और जिन्दगी जीने वाला भी ।

‘बाबू जी चीनी मिल में सुपरवाइजर का काम कर करके पूरे घर भर का भरण-पोषण करते थे । वे सिर्फ घर के बड़े बेटे ही नहीं थे बल्कि पूरे घर के मान-सम्मान थे । जब पैंट पर कुर्ता पहन लेते तब वे कौनो नेता से कम नाहीं लगतें । सब कहते कि रामनाथ पूरे गाँव के शान है शान ।

बाबा (दादा जी) दो साल पहले ही अपने तीन बेटों और दो बेटियों की जिम्मेदारी इनके ही सर डाल कर इस दुनिया से निश्चिंत हो गयें । खेती से सबका खर्चा-बर्चा चल ही जाता, लेकिन ऊपर का खर्चा शादी ब्याह, बीमारी-उमारी बाबू जी की अपनी कमाई से ही चल पाता । बाद में शंकर चाचा और बच्चन चाचा थोड़ा-बहुत कमाने लगें जिससे उनका अपना खर्चा निकलने लगा । बड़ी बुआ रजनी की शादी हो गयी और छोटी बुआ रंजना की शादी अभी बाकी है । लेकिन एक बार बाबू जी ठीक हो जाये तो सब ठीक हो जायेगा ।

एक महिने पहले बाबूजी के पेट में बहुत तेज दर्द उठा, बुखार उल्टी और दर्द ने आधी जान घर पर ही निकाल दी । भागमभाग में उन्हें देवरिया अस्पताल में पहुँचाया गया । पूरे चेकप के बाद डॉक्टर ने बताया कि हाई शूगर से पेनक्रियाज डैमेज हो गया है । यह सुनकर सब लोग सन्न रह गयें । रात भर के बाद डॉक्टर ने जवाब दे दिया । तब मामा की सहायता से अम्मा ने आनन फानन में लखनऊ के बड़का अस्पताल में भर्ती कर दिया । अस्पताल के अंदर बाबूजी के साथ किसी को अंदर तो रहने नहीं दिया जाता इसलिए अम्मा बाहर एक चदरा बिछा कर रिंकी-पिंकी और मुझे लेकर तपस्या में लग गयी । उसके अंदर जैसे हाथी का बल समा गया हो । जितनी डरी-डरी सहमी सहमी वह पहले रहती थी अचानक से उसका डर न जाने कहाँ समा गया । फुटपाथ पर बिक रहे लिट्टी-चोखा हम सबको खिला कर अपने कई-कई दिन तक भूखे रह जाती । जब मामी और नानी यहाँ आयीं तो थोड़ा-थोड़ा कुछ खाने पीने लगी । पूरे एक महिने हो गये अस्पताल के बाहर जिन्दगी बसर करते हुए ।

जब बाबू जी यहाँ अस्पताल में भर्ती हुए तो नात-रिश्तेदार सब देखने आने लगें । अम्मा को तरह तरह का दिलासा देने लगें, तरह तरह की बात भी बतियाने लगें । किसी ने काली माई को कथा कराही माना, तो कोई बुढ़िया माई का दर्शन, किसी ने हनुमान जी को जिन्दगी भर सेनूर-तेल चढाने का प्रण लिया तो किसी ने सोमावरी अमावस्या का व्रत । पर अम्मा को तो हमने हमेशा तीज, बियफ्फ (वृहस्पतिवार) भूखते (व्रत) देखा है । अम्मा बिना खाये-पिये चौबीस चौबीस घंटे भूक्खी (व्रत) रहती और धुन के सारा काम भी करती । लेकिन आज कौनो भगवान उनकी नाहीं सुन रहें... (फिर से रोने लगा विनोद)

सारी मनौतियाँ एक तरफ और डॉक्टर पर विश्वास एक ओर । अम्मा जैसे काठ हो गयी हो, भगवान भगवान करते करते डॉक्टर को भगवान मान बैठी । वह किसी भी हाल में हारना नहीं चाहती थी, न भगवान से न इंसान से और न ही अपने विश्वास से । उसे बाबू जी के सामने एक भी आँसू गिराना मंजूर नहीं था । बाबूजी कभी आई.सी.यू. से बाहर तो कभी भीतर (अंदर) होते रहे । अम्मा का जी भी बाहर-भीतर होता रहा । डॉक्टर ने पहले ही बता दिया था कि बचने की सम्भावना कम है । जब वे बाबू जी को आई.सी.यू. के भीतर ले जाने लगते तो उम्मीद बढ़ जाती कि एक-एक साँसों को बचाने ले जा रहे हैं, जब बाबू जी जनरल वार्ड में आतें तब लगता कि कुछ समय और मिल गया । लेकिन सच तो यह है कि सब आखिरी साँस जोह रहे थे । सबके जी में धुकधुकी समायी रहती कि कहीं आज आखिरी दिन न हो, कहीं कोई बुरी ख़बर सुनायी न दे दे । जिन्दगी जीना बहुत आसान है लेकिन मौत का इंतजार करना बहुत मुश्किल । इस डर में हर पल मर थे हम सब और अभी भी मर रहे हैं... ।

अम्मा पलकों के ऊपर पलकें नहीं धरती (रखती) । अगर धरती भी तो चिल्ला कर उठ जाती, ‘हम कुछ नाहीं होने देंगे विनोद के बाबू जी को… हम नाहीं जाने देंगे... हमें जाना है विनोद... तुहरे बाबू जी के पास जाना है, नाहीं त उ हमके छोड़ के चले जायेंगे... हमें जाने दो... हमें जाने दो...’ ।

चार चार आदमी उन्हें धरहरिया लगते, उन्हें धर-पकड़ कर किसी तरह बैठाते, ‘विनोदवा की माई, सब ठीक है, काहें पगलाई हो... रामनाथ ठीक हैं उन्हें कुछ नाहीं हुआ है...’ ।

पागल तो उ हो ही गयी थी । ठकमुड़ी मारे बैठी रहती, बैठे-बैठे जमीन पर लोट जाती । हाथ पाँव रगड़ने लगती । अपना अँचरा भिगो-भिगो कर सीने पर रखती तो कभी साड़ी उतार कर दूर फेंक देती और चिल्ला पड़ती, ‘हटाओ इ लुग्गा-कपड़ा… बहुत भारी हो गया है’ ।

पिंकी तो डर के मारे चिल्लाने लगती लेकिन रिंकी जल्दी जल्दी अम्मा को साड़ी ओढ़ाती, ‘पहने रहो अम्मा… सब ठीक हो जायेगा’

दोनों के आँखों में आंसू देखकर अम्मा का करेजा फटने लगता वह उन्हें सीने से चिपका लेती और कहती, ‘तुम लोग कभी मत रोना... सब ठीक हो जायेगा... हम तुम लोगों को टूअर (अनाथ) नाहीं होने देंगे । हमार करेजा हो तुम लोग... रोना नहीं’ ।

अम्मा और रिंकी-पिंकी को देखकर मैं अपना दुःख भूल जाता । सच तो यह है मैं पहले से ज्यादा दुखी हो जाता । मैं अंदर से बहुत डर गया । मुझे लगने लगा कि बाबू जी को कुछ हो गया तो मैं रिंकी और पिंकी को कैसे सम्भालूँगा । बारह दिन तक तो बाबू जी बात करते रहे । उनकी स्थिति में थोड़ा सुधार आ गया, वे जनरल वार्ड में शिफ्ट हो गयें । हम खुश हो गये कि बाबू जी अब ठीक होने लगे हैं ।

जनरल वार्ड में बाबू जी हम सबको आँखों से नहीं बल्कि दिल से देखते थे । ऐसा लगता कि वे हमें आँखों से ही गले लगा रहे हों । लड़बड़ाते हुए बोलते लेकिन शहद भर जाती हवा में । जबकि वे पहले की तरह कड़ी आवाज में बोलने की पूरी कोशिश करतें, ताकि किसी को यह न लगे कि वे बीमार हैं । हमेशा की तरह अपना दर्द छुपाने की कोशिश करते रहें । पर उन्हें नहीं पता था कि छुपाना उनके लिए घातक हो जायेगा । जब भी तेज बोलतें उन्हें खाँसी आ जाती । साँसें उखड़ जातीं । पन्द्रहवें दिन डॉक्टर ने साफ साफ कह दिया, ‘इन्फैक्शन ज्यादा फैल गया है, मल्टीऑर्गन्स बुरी तरह से इफेक्टेड है । ऐसी बीमारी के 99 परसेंट पेसेंट्स की बचने की उम्मीद कम होती है और 1 परसेन्ट भगवान की इच्छा या फिर कोई चमत्कार...’ ।

यह सुनते ही अम्मा धड़ाम से नीचे गिर पड़ी । बहुत देर तक होश में नहीं आयी । लेकिन वह बेहोशी की हालत में भी डर रही थी कि कहीं बाबू जी उसे छोड़ कर चले न जायें ।

आई.सी.यू. में एडमिट करने की तैयारी चल रही थी । अम्मा बाबूजी के पास बैठ कर उनका हाथ-पैर सहलाने लगी । बाबूजी ने अम्मा का हाथ पकड़ लिया और उनकी लाल-लाल चूड़ियों पर हाथ फेरते हुए झरझराती आँखों से कहने लगें, ‘राधा... तुम्हारे हाथों में लाल चुड़ियाँ मुझे बहुत अच्छी लगती है ।... तुम मेरे जाने के बाद भी इन्हें पहने रहना, उतारना नहीं ...। मैं तुमसे कभी यह बात बता नहीं पाया... और न ही तुम्हारे लिए कभी लाल चूड़ियाँ ले आ पाया...। ... मुझे माफ कर देना । मैंने तुम्हें बहुत दुःख दिया ।... सच बताऊँ तो मैं तुम्हें बहुत प्यार करता हूँ लेकिन अपनी परेशानियों के कारण तुमसे हमेशा लड़ता-झगड़ता रहा... । कई बार हाथ भी उठाया... सच बताऊँ तो मैं इसलिए भी लड़ता रहा कि परिवार वालों को यह आरोप का मौका न मिले कि बीवी को सर पर चढ़ा रखा है और उनके साथ नाइंसाफी हो रही है... । लेकिन आज मैं कितना असहाय हो गया हूँ । देखो... देखो न... मैं खुद उठ भी नहीं सकता... और मेरे इतना लड़ने के बाद भी आज तुम मेरे साथ खड़ी हो... । हमारा साथ छूट रहा है राधा... । पर तुम हिम्मत मत हारना, मैं ठीक हो जाऊँगा ।... मैं जीना चाहता हूँ, मैं तुम्हें और बच्चों को वो सारी खुशियाँ देना चाहता हूँ जिसके तुम लोग हकदार हो । एक बार मुझे ठीक हो जाने दो... फिर मैं सब ठीक कर दूँगा । अब तुमसे कभी नहीं लडूँगा, अब तुमसे कभी नाराज नहीं होऊँगा... । मैं तुम्हारे साथ अपनी जिन्दगी बिताना चाहता हूँ ... मुझे बचा लो राधा... मुझे बचा लो...’।

‘ऐइसन मत कहिए विनोद के बाबू जी... रोइये नाहीं... काहे रो रहे हैं... ? ... रऊरे ठीक हो जाइब... चिंता मत करिये... हम रऊरे को ठीक करवा के घर ले चलेंगे...’

हमेशा लड़ते झगड़ते रहने वाले अम्मा-बाबूजी को उस दिन बिना बोले एक दूसरे से बतियाते देखा । जो बातें दोनों चिल्ला-चिल्लाकर भी समझा नहीं पाते थे उस दिन वे दोनों सब समझ रहे थे और एक दूसरे की बात मान भी रहे थे । उसी समय कुछ नर्स आयीं और उन्हें आई.सी.यू. में शिफ्ट करने लगीं । बाबूजी आँखों से पूरा विरोध कर रहे थे कि ‘हमें कहीं और नहीं जाना... हमें तुम लोगों के साथ रहना है’ । अम्मा उनके सीने से लिपटकर साथ साथ आई.सी.यू. तक गयी । आई.सी.यू. के दरवाजे पर से अम्मा को पीछे छोड़ दिया गया । वह वहीं धड़ाम से बैठ गयी और चिल्लाने लगी, ‘हमको भी साथ में जाने दो... उनको अकेले हदासा समा जा रहा है... उ डर के मारे अऊर बीमार पड़ जा रहे हैं... हमरे रहने से उनको बल मिलेगा... हमको भीतर जाने दो…’।

जो लोग अपना काम-काज अकाज होने के कारण घर लौट गये थे वे फिर से अस्पताल आने लगें । देखनहारों का ताता (क्रम) लग गया । किसी किसी दिन तो पूरा गाँव उलट पड़ता । तरह तरह की बातें होने लगीं -

‘ठीक होना तो मुश्किल है, जब डॉक्टर ने ही जवाब दे दिया तो…’

‘अब तो भगवान ही मालीक हैं’

‘का पता ठीक हो जाये... तो ठीक-ठाक से घर ले चलेंगे’

‘वैसे बहुत पैसा कमाया था उसने चीनी मिल से... लेकिन दिखता सीधा-सादा था…’

‘मेहरारू लइकन के लिए घर बनवा लिया... भाईयों की नौकरी भी लगवा दी... लेकिन भाईयों को अपने घर में नाहीं ले जाना चाहता था, ऐही से तो अलग घर बनवाया’

‘अरे... अब सुख भोगने का टाइम आया तो देखो का हाल हुआ...’

‘बहुत कड़ेर (दृढ़) बोली थी... जिसको डांट देता वो वहीं थर थर काँपने लगता’

‘आज देखो बोली कैसे बंद पड़ी है बेचारे की’ (अफसोस के साथ)

लोगों की बातें तो फिर भी सहन हो जातीं लेकिन जब चाचा लोग कहने लगें, ‘बहुत पैसा कमाये थे... सब तो दवा-दारू में लुट रहा है...’

‘हाँ... घर के खातीर का बचेगा’

‘अभी तो रंजनवा का बियाह भी करना है... कहाँ से आयेगा पैसा...’

‘करीब करीब सात लाख लग गया...’

‘अब तो लग रहा खेत घर सब बेचना पड़ेगा...’

‘पैसा तो होगा ही… भौजी बतायेंगी... आखिर उनके पैसे खर्च ही कहाँ होते थे’

‘बनवाये तो हैं घर... उह बेच देंगे’

‘कैसे बेच दोगे... उसमें हमारा हिस्सा नाहीं होता है क्या ?’

‘होता है, बिल्कुल होता है… हम सबका होता है... आखिर उन्होंने हमारे लिए किया ही क्या है... कमा कमा के सिर्फ अपना घर भरते रहे हैं...’

‘अरे का मरदे… अस्पताल में अब यही सब बात करोगे... छोड़ो जाने दो’ ।

बाबू जी ने कभी नहीं छोड़ा था अपने घर परिवार को । हर सुख-दुख में साथ खड़े रहें । एक आंगन के किनारे किनारे चार कोठरी, एक दालान और एक ओसारे वाले घर में बड़का बाबा (दादा) और हमारे बाबा का परिवार रहता था । दोनों के हिस्से में दो-दो कोठरी थी । आधे हिस्से में बड़का बाबा के तीन बेटे और एक बेटी और आधे में हमारे बाबा का परिवार, चार बेटे और दो बेटियाँ और इन सबके परिवार, लइके-बच्चे सब रहते थे । जब चाचा लोगों की शादी नहीं हुई थी तब बाबूजी हम लोगों के साथ एक कोठरी में रहते थे, लेकिन जब से दोनों चाचा लोगों की शादी हुई तबसे अम्मा बुआ और हम लोगों के साथ दालान में और बाबूजी और छोटे चाचा ओसारे में रहने लगें । लेकिन छोटे चाचा की शादी के बाद उनके लिए कोई कोठरी नहीं थी । अम्मा बार बार बाबू जी से कहती, ‘हमारी भी एक कोठरी होनी चाहिए । अभी तो लइके छोटे हैं, जब बडे जायेंगे तो इनको बड़ी परेशानी होगी । और हमरे लहुरा देवरूआ की दुलहीन का ओसारे में उतरेगी ? (हँसते हुए) हा..हा...हा.. हम तो दालान नाहीं छोडेंगे’ । अपने लइकन के बड़े होने में समय था लेकिन चाचा की चिंता बाबू जी को इतना सतायी कि उन्होंने घर के किनारे लोन लेकर दो कोठरी और एक ओसारे का मकान बनवा दिए । अब बखरसुत घर को तोड़वाना भी तो ठीक नहीं था । उसी समय बाबा एक रात सोये सोये जब सुबह उठे नहीं । तबसे घर वालों को लगने लगा कि बाबू जी बस अपने लिए ही घर बनवाये हैं, और बाबा इसी सदमे से दुनियाँ छोड़ गये । घर मनहुस बन गया ।

ईया टुकुर-टुकुर सब देखती रहती, कुछ नहीं बोलती । दो साल हुए अभी बाबा का ग़म गला नहीं कि अब इतनी बड़ी बिपत उसके सामने खड़ी है । कभी बाप बाप कहकर चिल्लाती है तो कभी छाती पीट पीट कर, जमीन पर अपना माथा रगड़ लेती है । अचानक से उसे कुछ कम सुनाई देने लगा है, कुछ कम समझ में आने लगा है और शायद आँखों की रोशनी कुछ कम हो गयी है ।

अम्मा की हालत देखी नाहीं जाती... वह पगलाये पगलाये सबको डाँटने लगी । वह बाबू जी के पास किसी को जाने नहीं देती । मैं अम्मा पर झल्ला पड़ता कि ‘काहें ऐसे कर रही हो सबके साथ । सब साथ छोड़ देंगे तो हम अकेले कैसे सम्भालेंगे’ ।

तब उसने बताया, ‘हम तुम्हारे बाबूजी के सीने पर जब सर रखते हैं ना, उनके दिल की बात हम पढ़ लेते हैं । उनको सब पता चल गया है… इ सब उनके बारे में का सोचते हैं ! ... उ कह रहे थे कि हमारे बाद तुम लोगों को कौनो नाहीं देखेंगे... । अपने को बचा कर रखना, लइकन की रच्छा करना ।... देख नाहीं रहे उनकी हालत... केतना खराब होता जा रहा है... । इ सब देखके उनकी हालत और बिगड़ जायेगी...’ ।

अम्मा तो पढ़ी-लिखी नहीं थी, मामा की चिट्ठी तो मुझसे पढ़वाती थी । फिर वो बाबूजी के मन की बात पता नहीं कैसे पढ़ लेती थी ! हमको तो कुछ समझ में नहीं आ रहा था लेकिन यह सब देख-सुन कर मुझे सबसे नफरत होने लगी । मेरा मन करता मैं सबको मार-मार कर वहाँ से भगा दूँ और कहूँ कि अगर तुम सबके दिल में बाबूजी के लिए ईज़्ज़त नहीं है तो देखने मत आओ । बाबू जी की आवाज तो बंद हो ही चुकी थी, मैं सबकी आवाज बंद कर देना चाहता था । मैंने कितनों से लड़-भिड़ भी गया । हर पल सोचता रहता कि एक बार बाबू जी ठीक हो जाये तो मैं एक-एक को देख लुँगा ।

अटठरहवाँ दिन था । मुझे लोगों की अच्छी बातें भी बुरी लगने लगी थीं । यह समझना मेरे वश की बात नहीं रही कि कौन बाबू जी का हितैषी है और कौन दुश्मन ? जब तक वे ठीक थे सब उनकी तारीफ करते नहीं थकते थे और अब जब वे बीमार हैं तब सारी बुराई उनमें ही नज़र आने लगी है ! सब लोग हम पर अपना अधिकार जमाने लगे हैं । ‘ऐसे मत करो…वैसे मत करो... तुम अभी छोटे हो...तुम्हें कुछ नहीं पता...तुम्हारे बाबूजी को कुछ हो जायेगा तो आखिर हम ही सम्भालेंगे... हमारी बात माना करो, उनकी मत सुनो... कितने पैसे हैं तुम लोगों के पास... दवा में कितने खर्च हो गये... अब कहाँ से लाओगे... हम तुम्हारे साथ हैं... हमारी बात सुनते ही नहीं हो, सिर्फ अपनी ही करते हो... कितनी बार समझाना पड़ेगा तुम लोगों को कि खुद फैसले मत लिया करो...तुम तो अभी से ढ़ींठ हो गये हो बाद में न जाने क्या होगा...’ सुन-सुन कर मुझे लगा कि मेरा दिमाग फट जायेगा या मैं सबको मार डालूँगा ।

दोपहर का समय था । अम्मा पेड़ की छाँव में रिंकी-पिंकी के साथ अलहर लोटी थी । उस दिन अम्मा को देखकर मेरा कलेजा सचमुच फटने लगा उसके अँचरा में छुप कर मैं चिल्ला चिल्ला कर रो पड़ा । मेरा मन कर रहा था कि मैं कहीं छुप जाऊँ मुझे कोई देख न सके । मैं बाबू जी, अम्मा, रिंकी-पिंकी सबको दुनियाँ की नज़रों से कहीं दूर लेकर चला जाऊँ । जहाँ न कोई देख सके और न ही हम किसी की बातें सुन सकें । या फिर बाबू जी को जाना ही है तो हम सबको साथ में ले चलें । ऐसी दुनियाँ में हमको अकेले न छोड़ें ।

मेरा रोना देख सबने समझा कि बाबूजी को कुछ हो गया । दौड़कर अस्पताल में पता किए तो वे ठीक थे । फिर सब मुझको डाँटने लगें, ‘मर्द होकर रो रहे हो... ऐसे कौन रोता है... तुम्हारे बाबू जी को कुछ नाहीं हुआ है...’

‘सबको डेरवा दिये… चल निकल अपनी माई की गोदी से’

सब डाँट रहे थे लेकिन अम्मा हमारे दिल की हालत समझ रही थी । वह हल्के हाथों से मेरे बालों को सहलाती रही । मैं उसके गोदी में सर रख कर रोता-रोता सो गया । अम्मा के आँसू मेरे गालों पर ढूलक ढूलक मुझे सान्तावना देते रहे, मानो जैसे कह रहे हो, ‘रोओ मत बेटा... सब ठीक हो जायेगा... हम है न तुहरे साथ...’।

उस दिन से मैं अचानक से अपने आप में बहुत बड़ा बदलाव देखने लगा । मुझे लगने लगा कि मैं सब समझने लगा हूँ । मैं बाबू जी की जगह पर खड़ा हो गया हूँ । अब मुझे मोबाइल के लिए रोना नहीं आ रहा था, दोस्तों के साथ क्रिकेट खेलने जाने की चिन्ता नहीं हो रही थी । चाचा, मामा, नाना लोगों पर गुस्सा नहीं आ रहा था । मुझे दस साल की रिंकी और सात साल की पिंकी अपनी बेटी की तरह लगने लगीं । मुझे उनकी पढ़ाई और शादी की चिंता सताने लगी, जैसा कि बाबू जी कभी चाहते थे । मैं एक एक पैसा जोड़ने लगा कि उनकी पढ़ाई और शादी में कितना खर्च आयेगा । मुझे अपने कमाने की चिंता सताने लगी । बाबूजी पीछे छुटने लगें और उनका सपना आगे हो गया ।

आई.सी.यू. में बाबूजी को दिन में बस दो बार देखने का मौका मिलता । डॉक्टर ने बता दिया था कि मल्टीऑर्गन्स फेल हो चुके हैं । बाबूजी का पहले हाथ पाँव फूलना शुरू हुआ, धीरे धीरे हाथ-पाँव हिलना बंद हो गया, फिर आँखें बंद हुई और अब सिर्फ मशीन पर साँसों का पता चलता । रह रहकर जब उनका सीना फूलता तो लगता कि वे हैं और जैसे ही सीना पचकता तो लगता कि पता नहीं फिर से सीना फूलेगा कि नहीं । यह देख कर हम सबकी साँसें छूट जाती । पर अम्मा का करेजा काठ होता गया या कुछ और भी नरम, यह समझना बहुत मुश्किल हो गया । वह दोनों टाइम बाबूजी को देखने जाती और उनके सीने पर सर रखकर बतियाती रहती, ‘उठिए न विनोद के बाबू जी... उठिए... घर चलिए ।... देख न कौन कौन आया है मिलने... आँखें खोलिए... देखिए... अरे ऐसे भी कोई सोता है का । कुछ कहिए... देखिए हम कह रहे हैं न, रऊरे बिल्कुल ठीक हैं... हमरे बात पर भरोसा नाहीं है का... एक बार आँख खोल कर देखो तो सही...’

अम्मा के बात करने से बाबूजी का पल्स रेट ऊपर होने लगता और जैसे ही वह बात करना बंद करतीं वैसे ही कम हो जाता । उनको पूरा विश्वास था कि बाबू जी हमारी बात सुन रहे हैं । वो कहतीं कि अगर हम बतियाया करेंगे तो एक दिन बाबू जी उठकर खड़े हो जायेंगे । उन्होंने बताया कि बाबू जी नहीं चाहतें कि अस्पताल में उन्हें अकेले छोड़ा जाय । लेकिन उनकी बात मानने वाला कोई नहीं था । उन्हें खींच-खींच कर आई.सी.यू. से बाहर ले आया जाता । वह आने को तैयार नहीं होतीं फिर फिर बाबू जी के सीने पर लोट-लोट जातीं । बाबू जी के बंद आँखों से आँसू छलक जाता । वे कहतीं, ‘देखो… सब सुन रहे हैं पर बोल नाहीं पा रहे हैं... हम बुलायेंगे तो वे बोल भी देंगे... उनको हमारी जरूरत है ... तुम लोगों को इन्फैक्शन का डर है ना... हम उनको छुयेंगे भी नाहीं । दूर बैठे रहेंगे... पर हमें यहाँ रहने दो...’।

मूर्ती की तरह खड़ी नर्स जबरदस्ती उन्हें बाहर कर देती । मैं अम्मा को समझाने की कोशिश करता तो वे कह कहकर रो पड़ती, ‘तुम नहीं जानते… जैसे पिंजरे में परिंदा तड़फड़ाता है ना वैसे ही उनका जी तड़फड़ा रहा है... बस वे बोल नाहीं पा रहें... । देख नहीं रहे हम कुछ भी कहते हैं तो वे रोने लगते हैं । वे भी ठीक होना चाहते हैं पर का करें किसी के बस में नाहीं है...’।

पच्चीस दिन होते होते बाबू जी की शरीर फूल कर पथरा गयी । मुँह और साँस की नली से होते हुए गले मे पाइप साँप की तरह गेडूल मार कर बैठा था जिसकी पूँछ सीने तक महसूस होती । नात रिश्तेदार आते और उनका पैर छूते हुए यह कह कर चले जातें कि ‘रामनाथ तो नहीं रहे, देख नहीं रहे पैर ठंड़ा गया है । सीना तो मशीन के कारण फूल-पचक रहा है ।… डॉक्टर सिर्फ पैसे लेने के लिए वेंटिलेटर पर सुला रखा है…’ ।

मैं भी सबकी बातें सुनता, मुझे भी यही सच लगने लगा । अब तो बाबू जी की आँखों से आँसू भी न आते । जैसे उन्हें कुछ सुनायी न दे रहा हो ।

मेरे सामने रिंकी-पिंकी का भविष्य था । उनके भविष्य की चिंता सताने लगी और मरे हुए बाबू जी पर पैसा खर्च करना व्यर्थ लगने लगा । मैंने कई दोस्तों और जानने वालों को फोन किया सबने यही कहा कि ‘दिमाग से काम लो, दिल से नहीं । जो जिन्दा नहीं है उसके ऊपर पैसा फूकने से का फायदा’ ।

चाचा लोग तो पहले से ही वेंटिलेटर हटाने के लिए कह रहे थे अब मैं भी उनके साथ शामिल हो गया । लेकिन अम्मा अड़ी रही । अम्मा ने दृढ़ता से कह रखा था, ‘जब तक साँस, तब तक आस… अगर तुम लोगों को लग रहा है कि पैसा बहुत खर्च हो गया तो तुम लोग घर लौट जाओ... हम आपन गहना-गुरिया सब बेचकर-बाचकर दवा करायेंगे और उनको सही सलामत वापस घर ले आयेंगे’

‘पर अम्मा… अब पैसे कहाँ है हमारे पास’

‘हम अपने देह का एक एक अंग बेच देंगे… लेकिन उनको ठीक कराये बिना नाहीं जायेंगे’

उसके बाद कहने के लिए कुछ नहीं बचता । अम्मा को सब लोग ‘इमोशनल फूल’ मानने लगें । आखिर अनपढ़ औरत की समझ ही कितनी !

अम्मा दिन-रात जागने लगी कि कहीं उसके साथ धोखा न हो जाये । उसे डर था कि कहीं अगर वह सो गई तो सब डॉक्टर से कह कर वेंटिलेटर हटवा देंगे ! कहीं इन सबकी डॉक्टर से मिली-भगत न हो जाये ! ‘अरे जब बेटा ही अपने बाप को मारने... तो दूसरों का क्या भरोसा’ !

अम्मा ने डॉक्टर से हाथ जोड़कर विनती किया, ‘किसी के कहने पर कौनो फैसला मत लीजिएगा डाक्टर साहब, जब तक हम न कुछ कहें...’

नात रिश्तेदारों में मतभेद हो गया । कुछ लोग वेंटिलेटर हटा देने में समझदारी समझते और भावनाओं में बहने को मुर्खता, तो कुछ लोगों का कहना था कि जीते जी किसी कैसे मार सकते हो ? आज नहीं तो कल वह खतम हो ही जायेंगे ।

अट्ठाइसवें दिन अम्मा को हदासा समा गया, उसका सत्त टूटने लगा । उसका पेट झरने (लूज मोशन) लगा, साया में पेट बह बह जाता । पर वो आँख खोले बैठी रहती । मुझे अम्मा की हालत से डर लगने लगा कि कहीं अम्मा भी हमें छोड़ कर न चली जाये । इसलिए मैंने फैसला किया कि अब अम्मा के सामने ऐसी कोई बात नहीं करनी है ।

अगले दिन अम्मा बहुत कमजोर हो गयी । करियायी आँखों की कोइया में पुतली दिखायी ही नहीं दे रही थी । बड़ी मुश्किल से पलकें उठा पाती । उसे लगने लगा कि पलकों पर मन भर पत्थर रख दिया गया है । कहीं न कहीं उसे हम लोगों की बातों पर विश्वास हो चला कि अब बाबू जी नहीं रहें । वह अह-जह (असमंजस) में पड़ गयी कि ‘वेंटिलेटर हटा देना चाहिए कि नाहीं ? कहीं सचमुच डॉक्टर पैसे लेने के लिए मशीन पर सुता रखा हो ? कोई कुछ भी कहे लेकिन विनोद तो झूठ नहीं बोलेगा, वह तो समझदार हो गया है ! हॉस्पीटल का दवाई-ववाई, हिसाब-किताब सब आखिर उह तो देख रहा है । बेटा कभी अपने बाप का मरन नाहीं चाहेगा । हम अनपढ़ गँवार का जानी । एक आदमी का... जब सब कह रहे हैं त कुछ तो सच्चाई होगी...’ ।

वह चौबीस घंटे इस चिंता में खुद से लड़ती रही कि ये बात किसी से कहें तो कैसे ? अपने आपको मथती रही । अपना भर माँग का सेनूर शीशे में देख देख कर रोती रही । जमीन पर लोट लोट जाती । उसे देखकर सब सकते में आ गयें । तीसवें दिन उसकी बात सुनकर सब हैरान रह गयें, ‘रऊरे सब जवन कह रहे हो का उ सब सच है ? मशीन पर से उनको का सचमुच हटा देना चाहिए’ ?

अम्मा के मुँह से ये बात क्या निकली सबने फैसला समझ लिया । उससे बिना बताये सब लोग वेन्टिलेटर हटाने के लिए डॉक्टर से लड़ने लगें । लेकिन डॉक्टर इस बात के लिए तैयार नहीं था । अस्पताल में हंगामा बढ़ता देखकर डॉक्टर ने किसी और अस्पताल में रेफर कर दिया । उसके बावजूद सबने एक मत से प्लॉन बनाया कि यहाँ से निकलते ही बॉडी को लेकर घर भाग जायेंगे । अब बाबूजी सबके लिए बॉडी बन चुके थे । पर अम्मा का जी अब भी मानने को तैयार न था ।

बाहर निकल कर एम्बुलेंस में डालने से पहले अम्मा एक बार फिर उनके सीने पर लोट गयी और रोने लगी, ‘उठो न... देखो... सब का कह रहे हैं... एक बार सबको झूट्ठा बना दो न हर बार की तरह... ऐसे भी कोई छोड़ कर जाता है का...’ और कुछ देर के लिए सीने पर ही सन्न मार गयी । सबने समझा कि अम्मा को कुछ हो गया पर जब वह उठी तो अपने आँसू दृढ़ता से पोछते हुए बोली, ‘विनोद के बाबू जी कह रहे हैं...अभी कुछ समय हमको और दे दो...’ (रोते हुए)

पीछे से किसी की आवाज आयी, ‘अरे ले चलो घर... ये तो कहेगी ही...’

माई अड़कर खड़ी हो गयी, ‘हम कह रहे हैं न... हमारी बात समझो... रऊरे सब ले जाना चाहते हैं... तो ले जाना... लेकिन एक बार किसी और अस्पताल में कन्फरम करने के बाद…

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