चित्तौड़ दुर्ग जीता अकबर, राणा के चक्षु हुये थे सुर्ख।
उदयसिंह के हाथों फिसला,धोखे से रणथंभौर दुर्ग।।
सुरजन ने पीठ छुरा भोंका, गढ़ सौंपा जाकर अकबर को।
तलवार नहीं पकड़ी उसने, लड़ने न दिया था लश्कर को ।।
पुनः नये साहस से राणा , शक्ति संंचय में जुटे हुये थे।
आजादी पर आंच न आये,इसीलिये वह डटे हुये थे।।
उदयसिंह ने गोगुंदा में, उदयपुर नगर को बसा दिया।
पुत्र प्रताप कुछ बड़े हुये, प्रण आजादी का उठा लिया।।
भाला, बरछी,तीर चलाना, नहीं रहा प्रताप का सानी ।
उनके किस्सों को सुन-सुन कर, अकबर को होती हैरानी।।
पिता-पुत्र ने लक्ष्य था ठाना,हम मुगल वंश का नाश करें।
नामोनिशान इन यवनों का, भारत से बिल्कुल साफ करें।।
होता वही नियति जो चाहे, राणा निज सेहत खोते हैं।
लगातार की भाग-दौड़ से,जर्जर शरीर से होते हैं।।
शारीरिक रोगी उदयसिंह, अपने पौरुष को खोते हैं।
थे अस्ताचल को सोम चले, अब दिनकर नभ में होते हैं।।
एक दिवस जब उदयसिंह ने, राणा प्रताप को बुलवाया।
मीठे वचनों में कहा सुनो, मुझको विचार है यह आया।।
बहुत दिनों से हमने वन में, जाकर खेला आखेट नहीं।
जो दीक्षा पुत्र को मिलनी है, वह अब तक की है भेंट नहीं।।
बोले प्रताप यदि इच्छा है, तो अभी चलेंगे जंगल में।
मैं तो सेवक हूं महाराज,हर खुशी आपके मंगल में।।
श्वेत घोड़ों पर हो सवार,चल पड़े दोनों वन की राह।
निर्जन स्थान पर अश्व रोंक, थे बैठ गये वृक्षों की छांह।।
उदयसिंह बोले प्रताप से, मेवाड़ आन से परिचित हो।
मुगलों से लोहा तुम लोगे, यह लक्ष्य आपका निश्चित हो।।
चल रहें मुगल अब कुटिल चाल, मेवाड़ी आन मिटाने को।
अकबर ने बीड़ा उठा लिया, बस मेरा शीश गिराने को।।
बोले प्रताप चिंता छोड़ें, मुगलों के अत्याचारों की।
जब तक शरीर में जान रहे, गति नहीं रूके तलवारों की।।
एक बूंद भी लहू रहेगा, यदि शेष प्रताप की देह में।
संघर्ष विराम नहीं होगा, मेवाड़ राज्य के नेह में।।
जो नेत्र उठें इस धरती पर, बस उनको फोड़ेगा प्रताप।
हे पितृदेव शोक मत करिये,त्यागें आप सभी संताप।।
तब बोल उठे थे उदयसिंह, मुझे भरोसा पूरा तुम पर।
आप नहीं शान्त बैठेंगे, मुगलों के गर्जन को सुन कर ।।
मुझको प्रतीत यह होता है, दिन अपने चलते ठीक नहीं।
उदयसिंह जीवित छोड़ेगा, अपने पुरखों की लीक नहीं।।
सिसौदिया कुल ने इस जग में, सिर अपना नहीं झुकाया है।
धरती पर जिसकी नजर पड़ी, धरती से उसे उठाया है।।
मुगलों की कठिन चुनौती का, उत्तर हमने भरपूर दिया।
सदैव विदेशी आक्रान्ता, अपनी धरती से दूर किया।।
हमें जीतना नहीं सरल है, अकबर भी भली-भांति जाने।
मृत्यु की राह हम चुन लेंगे,दासता कदापि नही मानें।।
किन्तु सत्य कटु यह भी माने, मुगलों की शक्ति ज्यादा है।
अपनी ताकत पर इतराते, बस नाश हेतु आमादा हैं ।।
प्रत्यक्ष प्रमाण चित्तौड़ दुर्ग, जहां रक्त की होली खेली।
सर्वस्व लुटाया शाका कर, अपनों की मौतें थी झेली ।।
बेबस होकर उदयसिंह ने, महाविनाश समर में देखा।
कुछ रही विवशता थी उसकी, खींच न पाया लक्ष्मण रेखा।।
रुग्ण पिता का हाथ थामकर, बोला सुत वीरोचित बानी।
मैं शपथ उठाता हूं इस क्षण, मैंने जो मन में है ठानी।।
अपनी आजादी से प्रताप, समझौता हरगिज करें नहीं।
मुगलों से बदला लिये बिना,कायर के जैसा मरे नहीं।।
हो जाते भावुक उदयसिंह,निज सुत को गले लगाते हैं।
जो उनको चिंता खाती थी, वह सुत से आज बताते हैं।।
प्रताप आपके दोनों भाई, जो आयु-बुद्धि में पीछे हैं।
गुहिल वंश मर्यादा भूले, झूठे वैभव पर रीझे हैं।।
बोले प्रताप और न सोंचे, ऐसी बातों को करें नहीं।
उनमें भी रक्त आपका है, दासता कभी वह वरें नहीं।।
हे महाराज विश्वास करें,हम सदा रहेंगे हिल-मिल कर।
मेरे जीवित कोई संकट, नहीं हिला पायेगा तिल भर।।
सदा आपका यश फैलेगा, दुनिया में दसों दिशाओं में।
कौन गुलाम बनाये हमको, जब तक है रक्त शिराओं में।।
तभी अचानक चौंके प्रताप, जैसे राणा पर नजर पड़ी।
निश्चय जान लिया था मन में, आने वाली है बुरी घड़ी।।
उदयसिंह की हालत बिगड़ी, हैं प्रताप मन में घबराते।
उनको घोड़े पर बैठाया,सीधे महलों में हैं आते।।
जिस मेवाड़ नृपति पर जीवन भर, मुगलों के व्यर्थ वार गये।
वह उदयसिंह जीवन का रण, अपनों से लड़कर हार गये।।
छोटी रानी की इच्छा पर, अपने जीवन को वार दिया।
उस महाभूल ने बिना मौत, था उदयसिंह को मार दिया।