एक साल पहले हिसाम अपने गांव में ही रहता था। दूसरे बच्चों की तरफ स्कूल जाता था। शाम को गिल्ली डंडा खेलता। दूसरे बच्चों को साइकिल चलाता देखता था तो उसका दिल भी करता था कि वह साइकिल चलाए। लेकिन उसकी मां के पास इतने पैसे नहीं थे कि हिसाम के लिए एक साइकिल खरीद पाए। फिर भी हिसाम ने कभी इस चीज के लिए अपनी मां से जिद नहीं की।
खुद को समझाता बड़ा हो जाउंगा न तो साइकिल क्या मोटरसाइकिल लूंगा। एक बार पढ़ लिख कर कलेक्टर बन गया न तो ऐसी कई सारी साइकिल ले लूंगा। ऐसी साइकिल भी नहीं। मशीन वाली। बटन दबाते ही धाएं से भागती है। जो अमीर मोहल्ले के बच्चे चलाते हैं।
हिसाम अपनी मां के हालात अच्छी तरह से समझता था कभी भी मां से फरमाइशें नहीं करता। मां कमाती थोड़ी है जो उसके अरमान पूरी करेंगी।
कभी मां से कुछ मांग बैठता तो मां भी उसे यही समझाती ‘बेटा हमारे पास इतने पैसे कहां हैं। चल ठीक है पैसे जमाकर के तुझे साइकिल जरूर दिला दूंगी।’ मां के इस वादे भर से हिसाम सातवें आसमान पर पहुंच जाता था। उसके पास भी साइकिल होगी वह भी सड़कों पर साइकिल दौड़ाएगा। दूसरे लड़कों से रेस लगाएगा। लेकिन गिर गया तो। नहीं नहीं ..गिरुंगा नहीं..बच्चा थोड़ी हूं। पांचवीं में बच्चे थोड़ी पढ़ते हैं।
लेकिन उसे इतना भी पता नहीं था कि उसकी मां को पैसे मिलते ही कहां थे जो वह जमा करेगी।
घर में पांच-पांच बेटे जरूर थे। लेकिन सबकी शादी हो चुकी थी ऐसे में मां, हिसाम और उसकी बहन नाजमा को पूछने वाला कोई नहीं था।
कभी बड़ा लड़का मां को लाकर कुछ पैसे दे देता तो घर में लड़ाईयां शुरू हो जातीं। हिसाम की भाभी को पसंद नहीं था कि उसका पति अपनी मां और भाई-बहन पर रुपये उड़ाए।
जैसे तैसे गुजारा हो रहा था। लेकिन एक दिन बड़े बेटे ने आकर कह दिया कि मां आपको मैं अब पैसे नहीं दे पाउंगा। घर भी छोटा है तो बेहतर होगा कि आप अपना ठिकाना कहीं और ढूंढ लें।
मां को तकलीफ हुई...जिसको पढ़ाया लिखाया थोड़ा काबिल बनाया आज वह भी साथ नहीं दे रहा। साथ तो दूर सीधे-सीधे घर से निकलने को कह दिया।
गांव की एक पड़ोसन से पैसे उधार लिए और दिल्ली आ गई। दिल्ली आकर कुछ जान पहचान के लोगों ने किराए की झुग्गी दिलवा दी।
लोगों के घरों में काम शुरू कर दिया। हिसाम भी मां के साथ जाता था। उसे लगता था कि अब वह लोग भी कमाते हैं तो कभी अपने भाईयों के आगे हाथ नहीं फैलाने पड़ेंगे। अपने हर अरमान को वह पूरा कर लेगा। मां को नया कपड़ा, बहन की चूड़ी और अपनी साइकिल। मशीन वाली। नहीं शहर में तो उसे सब गीयर वाली साइकिल कहते हैं। हां वही वाली।
एक दिन हिसाम रोज की तरह मां के साथ काम पर गया। जिस दीदी के घर में वह काम कर रहा था वह उसे बहुत पसंद थीं। वह हमेशा खाने के लिए कुछ न कुछ देती थीं। बात भी अच्छे से करती थीं। आज भी दीदी उससे रोज की तरह बात कर रही थीं। लेकिन उसका ध्यान उनकी बातों में नहीं था। रास्ते में आते वक्त उसने कुछ बच्चों को साइकिल चलाते देखा था। वैसी ही जैसी उसको चाहिए थी। उसका दिल तो उसी में अटका था।
दीदी को अच्छा नहीं लग रहा था कि हिसाम रोज की तरह कायदे से बोल नहीं रहा। खोया खोया है।
आज उन्होंने हिसाम से कपड़े भी धुलवाए थे। इसलिए जाते वक्त मां के हाथों में कुछ पैसे पकड़ा दिए।
हिसाम को न जाने क्या हुआ। उसने मां के हाथों से पैसे छीन लिए। इन पैसों को साइकिल खरीदने के लिए इकट्ठा करेंगे। पैसों को देख कर वह सोचने लगा शायद कम पड़ेंगे लेकिन ज्यादा काम कर के ज्यादा पैसे मिल जाएंगे। दीदी के यहां ही ज्यादा काम कर के ज्यादा पैसे कमा लूंगा।
अरे ... ये क्या किया तुमने। दीदी को यूं हिसाम का अपनी मां के हाथ से पैसा छिनना अच्छा नहीं लगा।
ये पैसे मैंने आपको दिए हैं। आपके बेटे को नहीं। देख रही हूं कई दिन से बिगड़ता चला जा रहा है। बतमीज कहीं का। पता नहीं कहा रहता है इसका दिमाग।
हिसाम को समझ नहीं आया। था तो बच्चा ही ..चंद पैसों को देख कर इसलिए खुश हो गया था क्योंकि लगा था साइकिल मिल जाएगी।
दरअसल कई दिनों से यह साइकिल खरीदने को कह रहा है..इसलिए ऐसा किया इसने। वरना यह बुरा लड़का नहीं है। मां ने दीदी की गलतफहमी को दूर करने की कोशिश की।
क्या...साइकिल....पता भी है कितने की आएगी। हजार से कम की क्या ही होगी। खाने के पैसे नहीं है आपके पास और इसको बिगाड़ना चाहती हैं। इंसान को हमेशा अपनी चादर देख कर ही पैर फैलाने चाहिए।
बच्चा है...दिल करता है इसका भी...मां ने कहा।
बच्चा है तो क्या चोरी करोगी। डाका डालोगी। जितना कर सको उतने के ही सपने दिखाओ।
इस बार मां कुछ नहीं बोल सकी।
खैर जो करना है करें...आपका बेटा है मैं कौन हूं बोलने वाली। दीदी यह कह कर अपने फोन में देखने लगी।
हिसाम चुप-चुप सिर झुका कर अपनी मां के साथ घर से बाहर आ गया।
खाने को पैसा नहीं है आपके पास और इसको बिगाड़ना चाहती हैं... ये शब्द हिसाम के कानों में गुंज रहे थे। वह मन में सोचने लगा शायद दीदी ठीक कह रही थीं। लेकिन क्या मैं कभी साइकिल नहीं खरीद पाउंगा। अब तो हम कमाने लगे हैं। मां ने तो कहा था वह मुझे साइकिल दिलाएगी। पैसे जमा करेगी औऱ साइकिल लाएगी। तो क्या उसने मुझसे झूठ कहा था। हिसाम बिना कुछ बात किए चला जा रहा था।
इतने में बच्चों का एक झुंड फिर से साइकिल पर जाता दिखाई दिया।
इस बार उसने उन्हें देख कर मुंह घुमा लिया। वह समझ गया था कि उसकी किस्मत कभी बदल नहीं सकती। कभी वह दूसरे बच्चों की तरह खेल नहीं पाएगा। बच्चों की तरह खेलना तो दूर शायद वह कमाने लगा है तो अब तो वह बच्चा भी नहीं रहा। वक्त से पहले ही उसका बचपन खत्म हो गया है।
मां ने हिसाम को मायूस देखा तो उसके सिर पर हाथ फेरा।
मां के हाथों के स्पर्श भर से ही उसकी आंखों में आंसु आ गए थे। लेकिन मां से उन्हें छुपाते हुए बोला जल्दी चल मां...वरना दूसरे घर जाने में देर हो जाएगी। आज हिसाम भी समझ गया था कि अब उसे सपने भी चादर के हिसाब से देखने होंगे....