YAM YACHAN in Hindi Poems by Ajay Amitabh Suman books and stories PDF | यम याचन

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यम याचन

ये कविता एक आत्मा और यमराज के बीच वार्तालाप पर आधारित है।आत्मा का प्रवेश जब माता के गर्भ में होता है, तभी से यमराज उसका पीछा करने लगते है। वो आत्मा यमराज से यम लोक न जाने का अनेक कारण देती है। इसी तरह मौत बाल्यावस्था से लेकर बुढ़ापे तक आत्मा का पीछा करती है और आत्मा हरदम विनती कर मृत्यु को टालती रहती है। और अंत में इस तथ्येय को स्वीकार लारती है कि वो कभी मृत्यु को प्राप्त होना नहीं चाहती है । कविता जीव के वासना के अतृप्त रहने की प्रकृति को दिखाती है।

यम याचन

अभी भ्रूण को हूँ स्थापित , अस्थि मज्जा बनने को,
आँखों का निर्माण चल रहा,धड़कन भी है चलने को,
अभी दिवस क्या बिता हे यम, आ पहुँचे इस द्वार,
तनिक वक्त है ईक्क्षित किंचित, इतनी सी दरकार ।

माता के तन पर फलता हूँ, घुटनों के बल पर रहता हूँ,
बंदर मामा पहन पजामा, ऐसे गीत सुना करता हूँ,
इतने सारे खेल खिलौने , खेलूँ तो एक बार ,
तनिक वक्त है ईक्क्षित किंचित, विनती करें स्वीकार।

मृग नयनी का आना जाना, बातें बहुत सुहाती है,
प्रेम सुधा रग में संचारित , जब जब वो मुस्काती है।
मुझको भी किंचित करने दें, अधरों का व्यापार,
तनिक वक्त है ईक्क्षित किंचित, दिल की यही पुकार।

बीबी का हूँ मात्र सहारा , बच्चों का हूँ एक किनारा,
करने हैं कई कार्य अधूरे, पर काल से मैं तो हारा,
यम आएँ आप बाद में बेशक , जीवन रहा उधार,
तनिक वक्त है ईक्क्षित किंचित, फिर छोडूँ संसार।

धर्म पताका लह राना है, सत्य प्रतिष्ठा कर जाना है,
प्रेम आदि का रक्षण बाकी, समन्याय जय कर जाना है।
छिपी हुई नयनों में कितनी , अभिलाषाएँ हज़ार,
तनिक वक्त है ईक्क्षित किंचित, यम याचन इस बार।

देख नहीं पाता हूँ तन से, किंचित चाह करूँ पर मन से,
निरासक्त ना मैं हो पाऊँ , या इस तन से , या इस मन से।
एक तथ्य जो अटल सत्य है, करता हूँ मैं स्वीकार ,
कभी नहीं ईक्क्षा ये सिंचित , जाऊँ मैं यम द्वार।

मानव स्वभाव

ओ वैज्ञानिक किस बात का है तुझको अभिमान ?
एक लक्ष्य अति दुष्कर दुर्लभ कठिन अति संधान।
जैसा है व्यवहार मनुज का, क्या वैसा है भाव ?
कैसा है मन मस्तिष्क इसका, कैसा है स्वभाव ?

अधरों पे मुस्कान प्रक्षेपित जब दिल में व्याघात,
अति प्रेम करे परिलक्षित जब करना हो आघात।
चुपचाप सा बैठा नर जब दिखता है गुमनाम,
सीने में किंचित मचल रहे होते भीषण तूफान।

सत्य भाष पे जब भी मानव देता अतुलित जोर,
समझो मिथ्या हुई है हावी और सत्य कमजोर।
स्वयं में है अभाव और करे औरों का उपहास,
अंतरमन में कंपन व्यापित, बहिर्दर्शित विश्वास।

और मानव के अकड़ की जो करनी हो पहचान,
कर दो स्थापित उसके कर में कोई शक्ति महान।
संशय में जब प्राण मनुज के, भयाकान्त अतिशय,
छद्म संबल साहस का तब नर देता परिचय।

करो वैज्ञानिक तुम अन्वेषित ऐसा कोई ज्ञान,
मनुज-स्वभाव की हो पाए सुनिश्चित पहचान।
तब तक ज्ञान अधुरा तेरा और मिथ्या अभिमान,
पूर्ण नहीं जब तक कर पाते मानव अनुसंधान।