वीणापाणि नमन है तुमको, मेरे कंठ में कर लो वास।
देकर ज्ञान पुंज हे माता, निमिष में संशय कर दो नाश।।
हे गौरी-शिव शंकर के सुत, मुझ अज्ञानी का ध्यान करो।
कर दो विवेक की वर्षा अब, और प्रभु मेरा अज्ञान हरो।।
वीरों की गाथा लिखने को, काली को शीश झुकाते हैं।
जिनको ग्रीवा की माला में,बस नर के मुण्ड लुभाते हैं।।
भारत वीर भोग्या वसुधा, जिसकी मिट्टी भी चंदन है।
जिसके वीरों ने धरती पर,वारा कुबेर का कंचन है।।
आर्यों की वसुंधरा भारत, वीरों की अदभुत थाती है ।
उस भरतभूमि को है प्रणाम, देवों को भी जो भाती है।।
जब वीर और साहसी शब्द, अन्तर्मन् में बस जाते हैं।
उस क्षण कल्पना के चित्रों में,हम राजपूत को पाते हैं।।
राजपूत वह शूरवीर थे, जो महाकाल से समर करें।
मातृभूमि हित जिये सदा वह,मरकर यशगाथा अमर करें।।
आती विपदा मातृभूमि पर,तब अपने शीश कटाते हैं।
जो धरती पर डाले कुदृष्टि, तो उसका गर्व मिटाते हैं ।।
बैरी की नग्न कृपाणें लख, पथ पर नग बनकर अड़ते हैं।
रिपु को बस धूल चटाने को, वह प्रलयंकर बन लड़ते हैं।।
जिस समय तेग ले राजपूत, संग्राम भूमि में जाते हैं।
उनके हर-हर के सिंहनाद,रण में उत्पात मचाते हैं।।
अपना वचन निभाने को वह,नभ और रसातल एक करें।
दुर्लभ है होगा काल सफल, चाहें वह जतन अनेक करें।।
दीन-हीन,निर्बल, असहायों, मानवता हेतु वह रक्षक थे।
क्रूर, कुटिल, व्याभिचारी को,दानवी कृत्यों के भक्षक थे।।
वीरों की धरती कहलायी,पावन भूमि राजस्थान की।
अनायास ही याद दिलाती,अति साहस और बलिदान की।
भारत के नभ पर गुहिल वंश, सूरज की तरह दमकता था।
जिसके यश के मलय पवन से, भारत का चमन महकता था।।
गुहिल वंश को इतिहासों में, सिसौदिया वंश भी हैं कहते।
मातृभूमि हित जिसके सपूत, लाखों संकट को हैं सहते ।।
राणा कुम्भा,बप्पा रावल,गौरव को सदा बढ़ाते हैं।
नृप रतन सिंह,गोरा-बादल, खिलजी को धूल चटाते हैं।।
उस पावन कुल में जन्म लिया, संग्राम सिंह कहलाया था।
जिसने निज साहस का लोहा, मुगलों से भी मनवाया था।।
राणा सांगा उपनाम मिला, जो बना बाद में मूल नाम।
वीर साहसी राजपूत को, संग्राम बन गया देव धाम।।
जो समरभूमि में मिले घाव,साहस की झलक दिखाते थे।
कैसे रिपु को राणा सांगा, मिट्टी में तुरत मिलाते थे।।
उस समय विश्व में भरतभूमि, सोने की चिड़िया कहलाती ।
जिसके अकूत वैभव को लख,सारी धरती थी ललचाती।।
वीरों की धरती होकर भी, अभिमान नहीं दर्शाता था।
अतः विधर्मी आक्रान्ता को, भारत ही अधिक सुहाता था।।
तैमूर लंग था फिर भी वह,मार गया था मुख पर चांटा।
भारत आहत था पीड़ा से,जिसको चुभता था वह कांटा।।
मुगल बादशाह था बाबर,फरगना देश का वासी था।
जिसको त्यागा देश ने था, वह भारत का अभिलाषी था।।
लोदी वंश मिटाने की थी, दौलत लोदी ने हठ ठानी।
बाबर के द्वारा वह लम्पट, करना चाहें बस मनमानी।।
दौलत दौलत का भूखा था,सो बाबर को उकसाता है।
अब उसका आमंत्रण पाकर, वह सेना लेकर आता है।।
लोदी का तख्त पलटने को, पानीपत का मैदान चुना।
भारत में मुगल राज होगा, बाबर ने कुछ षड्यंत्र बुना।।
था सांगा को संदेश दिया, उसकी सहायता तुरत करें।
करता है अगर नहीं ऐसा,पल में कुत्ते की मौत मरें।।
सांगा ने यह उत्तर भेजा, लोदी मेरा भी दुश्मन है।
पर तुम जैसा आक्रान्ता भी, मुझको तो उस भुजंग सम है।।
चाहें दूध पिलाओ उसको, वक्त पड़े पर काटेगा।
बहलोल न दौलत है सांगा, जो उसके तलवे चाटेगा।।
बाबर ने जीता पानीपत, था इब्राहीम को दफनाया।
भारत में मुगल पताका को,अब गढ़ दिल्ली पर फहराया।।
मेवाड़ी ध्वज तले सांगा, राजपूत शक्ति जुटाता है।
उधर मुगल सामंतों को भी, बस भीषण युद्ध सुहाता है।।
वह उकसाते हैं बाबर को, लगता सांगा बौराया है।
मुगलों को धूल चटाने को, उसने दिमाग दौड़ाया है।।
यदि उसको दण्ड नहीं देते, तो हमको पछताना होगा।
सांगा को असि की धारों से,अब लोहा मनवाना होगा ।।
निज सामंतों की राय सुनी, उसने मन में यह ठहराया।
राणा का शीश झुकाना है,रण में सम्मुख जो वह आया।।
बाबर मुगलों का दल लेकर,खानवा ग्राम में आया था।
सांगा ने भी यह संदेशा, अपने सेवक से पाया था।।
हमले की जब सुनी बात तो, सांगा के दृग थे लाल हुये।
मानो अब जग के नाश हेतु, खुद शिव शंकर विकराल हुये।।
अब तो सीधा सम्बोधन था,निज सेना के सरदारों से।
जीवन का दाम चुकाना है, अब तलवारों की धारों से।।
हम राजपूत नश्वर जग में, सिर कालों को न झुकाते हैं।
यदि मृत्यु भी बनकर शत्रु लड़े, तो उसका मान मिटाते हैं ।।
हमें मौत का खौफ नहीं है, वह राजपूत की दासी है।
काली सांगा को बतलाती,तेग तुम्हारी प्यासी है ।।
अतः हमें अब इसी समय ही, बाबर को सबक सिखाना है।
इस सांगा को रणचण्डी की,असि की भी तृषा मिटाना है।।
जब मिलना तय है बाबर से, तो तलवारों से भेंट करें।
आओ सब मिलकर मुगलों का,रण में चलकर आखेट करें।।
डंका रण का बजवाया अब,निज पुरखों को था नमन किया। उसने पल भी न व्यर्थ किया,दल लेकर रण को गमन किया।।
मेवाड़ी सेना जिस पल ही,खानवा भूमि पर आती है।
सांगा की रौद्र रुप की छवि, शिव शंकर को भी भाती है।।
सांगा बोला सरदारों से, मुगलों को बढ़कर बतलाओ।
राजपूत कैसे रण करते, अब उनको यह भी दिखलाओ।।
राजपूत काल समान लगे, मुगलों का दल घबराया था।
तो बाबर ने निज सेना का, भाषण से जोश बढ़ाया था।।
जिसने धरती पर जन्म लिया, तो निश्चित उसका जाना है।
वीरों मृत्यु से भय न खाओ, गाजी की पदवी पाना है।।
राजपूतों पर विजय पायी,जग में गाजी कहलाओगे।
मृत्यु के साथ किया आलिंगन, तो पद शहीद का पाओगे।।
सारे दुनिया से चले गये, एक खुदा का नाम रहेगा।
जो जाये जेहाद की राह, सारे जग का भोग करेगा।।
शपथ कुरान पाक की खाओ, जब तक भी देह में जान है।
अन्तिम श्वास तक युद्ध करें,अपना उद्देश्य महान है।।
खुदा कसम मदिरा को बाबर, अपने अधरों पर धरे नहीं।
गाजी कहलाने के पहले, कायर के जैसा मरे नहीं।।
यह समर जीतने को उसने,तुलगमा चाल अपनायी थी।
जिसके बल पर पानीपत में, मुगल पताका फहरायी थी।।
अगले ही दिवस खानवा में, बाबर ने हमला करवाया।
तोपों के प्रबल प्रहारों से, शत्-शत् वीरों को मरवाया।।
वह सोंच रहा था मन में यह, अब राजपूत डर जायेंगे।
मेरी तोपों के आगे वह, तिनकों जैसे उड़ जायेंगे।।
वह दस घण्टों से लगातार, तोपों से गोले दाग रहा।
फर्क न पड़ा राजपूतों पर,उनको रण से अनुराग रहा।।
आग तोप की राजपूत थे, अपनी छाती पर झेल रहे।
अब कफ़न बांधकर सिर पर वह,थे समरभूमि में खेल रहे।।
मुगलों के पथ पर राजपूत, अब पर्वत बनकर अड़ते थे।
सिर उनके गिरे समर में थे, धड़ युद्धभूमि में लड़ते थे।।
समरभूमि में सांगा ने कुछ, अद्भुत पौरुष दिखलाया था ।
राणा को काल सदृश लखकर, मुगलों का दल घबराया था।।
वह प्राण हथेली पर रखकर, सबसे आगे ही लड़ता था।
पर्वत के जलधार वेग सा, वह मुगल फौज में बढ़ता था।।
सांगा को आते देख मुगल,बाना भिक्षुक का बनाते थे।
कोई पण्डित बन जाता था,मस्तक पर तिलक लगाते थे।।
कहते हम तो परदेशी हैं, इस पथ पर बढ़ते जाते थे।
फूटे भाग्य जो यहां फंसे, जब आप समर में आते थे।।
सांगा के सम्मुख मुगलों की, कोई चाल नहीं टिकती थी।
बह रही रक्त की सरिता थी, लाशों पर लाशें बिछती थी।।
भागे सारे प्राण बचाकर, मुर्दों की लेकर ओट गये।
कुछ मरे नहीं फिर भी तन पर, लेकर वह गहरी चोट गये।।
जिस प्रकार से केहरि वन में, हिरणों के झुंड गिराता है।
वैसे सांगा समरभूमि में, मुगलों की खोज मिटाता है।।
प्रबल प्रहार राजपूतों के, थे सहन नहीं कर सके मुगल।
चन्द्रहास चपला सम चमकी,अति मची समर में उथल-पुथल।।
उल्टे पांवों थे भगे मुगल, तो नयी चाल फिर अपनायी।
बाबर ने सुरक्षित सेना भी,थी समरभूमि में पहुंचायी।।
यह बाबर की युद्ध नीति थी, वह सेना ताजादम भी थी।
वह राजपूत थे थके हुए, अब उनकी गिनती कम भी थी।।
बाबर ने एक बार फिर से, तोपों के मुख को खोल दिया। आरक्षित दल और तोपों से, सांगा पर हमला बोल दिया।।
यहीं युद्ध का पांसा पलटा, सांगा को ढेरों घाव लगे।
उसका क्रोध बढ़ा था दूना, मानों अब घृत से अग्नि जगे।।
घावों पर ताव न लाया था, मुगलों से लड़ता जाता था।
बाबर का शीश काटने को, वह आगे बढ़ता जाता था।।
घावों पर घाव लगे उसके, पर पग पीछे को नहीं धरा।
जब छायी बेहोशी उसको, वह निज घोड़े से तभी गिरा।।
अंगरक्षक दल ने सांगा का, इस बेला साथ नहीं छोड़ा।
सांगा को रण से हटा दिया,मुख महाकाल का था मोड़ा।।
राणा विहीन रण में सेना, अब अधिक देर तक लड़ी नहीं।
मुगलों के पथ पर फिर से वह,नग बनकर अबकी अड़ी नहीं।।
परिणाम स्वरूप मुगलों ने,जय का डंका बजवाया था।
छोटी-छोटी सी भूलों ने, सांगा को रण हरवाया था।।