Loutari. in Hindi Moral Stories by Pawan Chauhan books and stories PDF | लॉटरी.

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पिछले कल हुई वर्षा ने सर्दी का पूर्ण अहसास करा दिया था। बादल भी आॅंख मिचैली का खेल बंद कर चुके थे। बादल रहित नीला आसमान आज सूर्य के रास्ते में कोई रूकावट पैदा करने के मूड़ में नहीं लग रहा था। धूप पूरी तरह से खिली हुई थी। सर्दी का मौसम गाॅंववालों के लिए दूसरे मौसमों के मुकाबले थोड़ा आराम लेकर आता है। गेहूॅं खेतों में बीजा जा चुका होता है। इस मौसम की बात करें तो पशुओं के लिए घास सर्दी आने से पहले ही कूपों1, कोठों2 और पशुशाला की तालड़ी3 में इकट्टठा कर लिया जाता है। कंही दूर जाने की जरूरत नहीं पड़ती। लेकिन दूसरे मौसमों में पशुओं के लिए घास जब दूर फाटों4 से और बरसात में पानी से लबालब सिर पर उठाकर लाया जाता है तो हालत खराब हो जाती है। सर्दी के मौसम में काम अब सुबह-शाम का खाना बनाने तक सीमित रह जाता है। बाकी सारा दिन तो औरतों का धूप सेंकने, स्वैटर बुनने, मांजरी5 व बैठकू बनाने, गलगल के मुरब्बे के साथ-साथ भूने सोयाबीन या भूनी मक्की को चबाने और इकट्टठे बैठकर यहां-वहां की गप्पे हांकने में ही बीत जाता है।

”निर्मला तेरे स्वैटर की बुनती तो बड़ी सुन्दर है। कंहा से सीखी ?“ धूप सेंकने के अपने अड्डे पर बैठी औरतों में से चंपा ने निर्मला के स्वैटर की तारीफ के साथ-साथ एक प्रश्न किया।

”मुझे किसी से बुनती सीखने की जरूरत नहीं है। ये पूछो कि किस-किस ने मुझसे बुनती सीखी है!“ स्वभाव से घमंडी निर्मला ने जवाब दिया।

”हां भई चंपा। तु क्या निर्मला को हमारे जैसी अनपढ़ गंवार समझती है। यही तो पहली पढ़ी-लिखी बहू आई थी हमारे गाॅंव में। इसका दिमाग हमारे जैसा थोड़े ही है बुद्धु-सा। क्या तुु नहीं जानती, पढ़े-लिखे अनपढ़ों से ज्यादा समझदार होते हैं। हमारे पास निर्मला जैसा तेज दिमाग कंहा है? क्यों निर्मला!“ औरतों के इसी समूह से गौरी ने बातों-बातों में निर्मला की तारीफ के साथ-साथ एक व्यंग्य भी कस दिया था।

निर्मला ने गौरी की बात का कोई उत्तर तो नहीं दिया लेकिन अपनी तारीफ सुनकर उसके छिदरे दांत जरूर निकल आए थे। वहीं चंपा और गौरी के चेहरे पर भी निर्मला पर किए व्यंग्य बाण से हल्की-सी मुस्कान उभर आई थी।

इसी बीच गाॅंव की कच्ची सड़क के दूसरी ओर अपने मकान से मीरा प्लेट में गलगल का मुरब्बा बना कर ले आई थी। गले में सोने का नैकलेस, इअरिंग, सोने का ही मंगलसूत्र पहने ऐसा लग रहा था मानो आज मीरा किसी शादी या उत्सव में शरीक होने जा रही हो।

”वाह री मीरा! तुने तो मेरे दिल की सुन ली। आज मेरा खट्टा खाने का बड़ा मन कर रहा था।“ मुरब्बे को देख चंपा की आॅंखे चमक उठी थी।

”जल्दी ला री! मेरा मुंह तो पानी से भर गया है।“

”मुझसे भी रहा नहीं जा रहा है।“ गौरी और निर्मला भी चंपा की तरह अपनी चाहत दबा नहीं पा रही थी।

प्लेट को जैसे ही मांजरी पर रखा गया सभी मुरब्बे पर ऐसे टूट पड़े जैसे खाने की कोई प्रतियोगिता चल रही हो। चंपा ने तो चार-पांच टुकड़े बिना चबाए फटाफट ऐसे निगल लिए जैसे वर्षों से उसने मुरब्बा खाया ही न हो।

इसी बीच ईष्र्यालु निर्मला का ध्यान मीरा के गहनों पर जा टिका था। ”मीरा, आज तो तु पूरी तरह गहनों से लदी हुई है। क्या बात है! कंही जा रही हो क्या?“ निर्मला ने प्रश्न किया।

”कंही नहीं।“ मीरा ने कानों पर पड़े उन बालों को अपनी उंगलियों से एक तरफ को हटाते हुए कहा जो उसके इअरिंग को छुपा रहे थे।

”फिर आज ये साज संवर किसलिए ?“ निर्मला ने फिर पूछा।

”मैं अभी बाजार जाकर .........“

मीरा की बात को बीच में ही काटते हुए निर्मला एक बार फिर बोली, ”मीरा, मैं तो अभी देख पा रही हूॅं तेरा नैकलैस, मंगलसूत्र और यह इअरिंग, वो भी मैचिंग। किसी से उधार लिए हैं या फिर लाॅटरी लगी है तेरी? दो हफ्ते पहले घनश्याम की शादी में तो तु खाली गला लेकर घूम रही थी, कानों में तेरी वही ओल्ड फैशन्ड बालियां लटक रही थी और मंगलसूत्र भी तुने नाम का ही पहन रखा था।“

”लेकिन चाहे कुछ भी हो। पूरे सैट का डिजाइन है सुन्दर।“ चंपा ने गहनों की तारीफ करते हुए कहा।

”मैं तुझसे कुछ पूछ रही थी मीरा। क्या ये गहने तुने किसी से पहनने के लिए लिए हैं या फिर तेरी लाॅटरी लगी है?“ निर्मला चंपा द्वारा की गई गहनों की तारीफ से चिढ़ते हुए बोली।

मीरा भी तो कब से यही चाह रही थी कि कोई उसके गहनों के बारे में पूछे। उनकी तारीफ करे। मुरब्बा खिलाने के बहाने वह अपने गहने ही तो दिखाने आई थी। निर्मला के प्रश्न के उत्तर में चेहरे पर एक गुदगुदाती-सी मुस्कान बिखेरते हुए मीरा बोली, ”तु तो जानती है निर्मला। दो महीने पहले हमने जो दो आवारा गायों को पकड़ा था। उन दोनों को डाॅक्टर से चैक करवाने पर पता चला कि वे दोनों गर्भवती हैं। बस, फिर क्या था। हमारी तो लाॅटरी लग गई। कुछ दिन पालने के बाद हमने परसों उन्हें बेच दिया। गायों की नस्ल और सेहत को देखते हुए ग्राहकों ने उनकी मुहमांगी कीमत दी। कुछ रूपए हमने अपने डाले और आज हम उन रूपयों से ये कुछ गहने ले आए।’ एक हल्की-सी चुप्पी के बाद मीरा फिर बोली, ‘वैसे निर्मला, मुझ पर ये कैसे लग रहे हैं? जंच भी रहे हैं या नहीं?“

”ठीक ही लग रहे हैं। पर डिजाइन इतना बढ़िया नहीं है। मेरे सैट का डिजाइन देखा है तुने?“ निर्मला का ईष्यालु भाव एक बार फिर छलक पड़ा था।

”मुझे तो इन गहनों का डिजाइन बड़ा सुन्दर लगा। वैसे तेरी तो सचमुच में लाॅटरी निकल आई है मीरा। चलो इसी बहाने बेचारी गायें भी यहां-वहां की ठोकरें खाने से बच गईं। उन्हें रहने का एक ठिकाना तो मिला। नही ंतो बेचारियों को रोज किसी न किसी के डंडे खाने पड़ते हैं। सर्दी के ठंडे थपेड़ों की मार झेलनी पड़ती है।“ चंपा गायों के प्रति हमदर्दी जताते हुए बोली।

”तु ठीक कहती है चंपा। आज क्या जमाना आ गया है। जिस गाय को हम पूजते हैं। जिसे बैतरनी पार करने का जरिया मानते हैं। हमारी धार्मिक आस्था का एक अटूट हिस्सा होते हुए भी वह आज मनुष्य के स्वार्थ की बलिबेदी पर इस कदर चढ़ चुकी है कि सारी उम्र उसका दूध, घी खाने के बाद उसके बूढ़े या फिर बांझ होते ही बड़ी बेदर्दी से उसे घर से दूर कंही दर-ब-दर की ठोकरें खाने के लिए छोड़ दिया जाता है। दूध के बंद होते ही उसे एक दिन का घास तक खिलाने में भी उन्हें तकलीफ होने लगती है। गाॅंवों, शहरों, चैराहों, हर जगह पर आज ऐसी ही मनुष्यों के स्वार्थीपन की मिसालें रोज देखने को मिल जाती हैं। बेचारी...........।“ एक लम्बी सांस छोड़ते हुए गौरी ने भी चंपा की बात का समर्थन किया।

निर्मला अभी तक भी मीरा के गहनों की चमक-दमक में ही खोई हुई थी। स्वैटर बुनना तो जैसे वह कब का भूल चुकी थी। मन ही मन वह यही सोच रही थी कि उसके पास इतने सुंदर गहने क्यों नहीं है ?

‘‘मैंने भी उनसे गाय पकड़ने के लिए कहा था!’’ निर्मला एकदम अचानक ऐसे बोल पड़ी जैसे वह अभी-अभी नींद से जागी हो। ”लेकिन वह हैं कि मेरी बातों पर जरा भी ध्यान नहीं देते। कहते हैं अगर गाय को बेचने के लिए ही पकड़ना है तो फिर मैं नहीं पकडुंगा। यदि गाय को पाल सकती हो तो मैं कोशिश कर सकता हूॅं। अब उन्हें कौन समझाए कि गाय पालना कितना मुश्किल है और महंगा भी। रोजाना पीठ पर खेतों से घास उठाकर लाओ, गोबर उठाओ, गाय को नहलाओ-धुलाओ, उनके नीचे बिछे मैल को उठाओ........। ना बाबा ना! मैं अपने हाथ-पैर गोबर और उनके मैल से गंदे नहीं कर सकती। इससे तो मेरे हाथ-पैर ही फट जाएंगे। ऊपर से न तो आराम से बैठ कर तसल्ली से कंही बातें ही कर पाते हैं और न ही रिश्तेदारों के यहां खुले मन से जा पाते हैं।“

”तो तु क्या समझती है निर्मला। गाय से दूध-घी ऐसे ही फ्री में मिल जाता है क्या ?“ चंपा ने निर्मला को टोकते हुए कहा।

”दूध, घी कौन कमबख्त चाहता है। मैं तो मीरा की तरह लाॅटरी पाना चाहती हूॅं। काश! मेरे पति भी गायों को पकड़ने की जरा-सी कोशिश करते तो आज मेरे पास भी........।“ बुरा-सा मुंह बनाते हुए निर्मला एकदम चुप-सी हो गई थी।

”अरे निर्मला, तु भी कंहा उलझ गई। ले मुरब्बा खा। चख तो सही। क्या बढ़िया मुरब्बा बनाकर लाई है मीरा।“ गौरी ने मुरब्बे की प्लेट निर्मला की ओर रखते हुए कहा।

मुरब्बे के चटखारे मारते हुए निर्मला बोली, ”अरे वाह ! मुरब्बा तो सचमुच में बहुत अच्छा है। पर मीरा तुम्हारे घर तो गलगल का कोई पेड़ नहीं है। फिर कंहा से लाई तु ये गलगल ? मुझे भी आचार के लिए चाहिए। थोड़े से गलगल मुझे भी दे देना।“ तारीफ के साथ-साथ गलगलों की अपनी फरमाइश भी निर्मला ने रख दी थी।

‘‘मेरे पास तो निर्मला अब दो-तीन गलगल ही बचे हैं लेकिन मेरे साथ जंगल चलना। हमें इस बार जंगल में गलगल और नींबु के पेड़ों का खजाना हाथ लगा है। तु चाहे वहां से जितने मर्जी ले आना। कुछ दिन पहले सावित्री और पार्वती के साथ मैं भी जंगल से खरकने6 लाने गई थी। वापसी के समय हमें यह खजाना मिला। ले तो मैं ढेर सारे आती परंतु सिर पर पहले से ही खरकनों का बोझ था इसलिए अपने गुजारे लायक ही लाई। इस बार हम दोनों जाएंगे और बोरी भरकर गलगल और नींबू लेकर आएंगे। चलेगी न तु मेरे साथ?’’

‘‘तु क्या पागल हो गई है मीरा। मैं और जंगल। वो भी गलगल के लिए। न बाबा न ! और देखो तो, तुम खरकने भी ले कर आ गई। पता नहीं रास्ते में कितने लोगों ने तुम्हें देखा होगा। क्या सोचा होगा उन्होंने तुम्हारे बारे में। कि कितनी कंजूस हैं ये औरतें। रास्ते में जो बाजार पड़ता है वो तुमने पता नहीं कैसे पार किया होगा।’’ निर्मला ने इस हैरानी से कहा जैसे मीरा ने कोई गुनाह कर दिया हो।

‘‘क्यों ? हमने ऐसा क्या कर दिया निर्मला?’’ मीरा हैरान होते हुए बोली।

‘‘मीरा, पहले के समय में ऐसा कर लेते थे। उस वक्त के हालात ही वैसे थे जब लोग जंगल से घास, लकड़ी और खरकने बगैरह लाते थे। लेकिन आज परिस्थिति अलग है। आज जब घर पर ही ये सब चीजें आसानी से मिल जाती हैं तो फिर इसके लिए जंगल जाने की क्या जरूरत है? मैं तो इस काम के लिए जंगल कभी न जाऊं। तुम पता नहीं कैसे!’’ निर्मला यह सब कह कर मीरा की खिल्ली उड़ाने की कोशिश में थी।

गौरी निर्मला की बात का जवाब देते हुए बोली, ‘‘तु भी सच्ची बोल रही है निर्मला। तेरे घर में कोई पशु तो है नहीं और तु ठहरी सास-ससुर की इकलौती बहु। घर में देवरानियां-जेठानियां हों तब पता चलता है घर में कैसे काम होता है। आदमी को अपने बूरे वक्त में सब-कुछ करना पड़ता है। हमने भी ऐसे ही कई मील पैदल चलकर दूर जंगल से अपनी पीठ पर लकड़ी, घास और खरकने बगैरह ढो-ढोकर अपने घर की हालत को संवारा है। पाइ-पाइ जोड़कर हमने अपने आज को सहारा दिया है। जिसने गरीबी को नजदीक से देखा हो। उसे बाजार से मिलने वाला चालीस-पच्चास रूपए का झाडू खरीदते समय ऐसा लगता है जैसे वे अपने घर की कमाई को बेकार कंही गंवा रही हो। ऐसा महसूस होता है जैसे हम किसी काम की न बची हों। हम जैसे बूढ़ी हो गई हों। जैसे हममें जान ही न रही हो। जब तक हममें ताकत है। हम यह सब नहीं छोड़ सकती। और तु क्या कह रही थी। लोग क्या कहेंगें..... बाजार कैसे पार किया होगा.....। यह बता इसने ऐसा क्या गुनाह कर दिया! कोई चोरी तो नहीं की इसने न। जो ये लोगों की बातों से डरे। या बाजार से जाने में कतराए।’’ गौरी निर्मला की बात को झेल नहीं पाई थी।

निर्मला बात को नर्मी प्रदान करते हुए बोली, ‘‘दीदी, मेरा मतलब यह नहीं था। मैंने भी तो कभी पशु पाले थे। क्या मैं नहीं समझती। मैं तो बस यूॅं ही आज के दौर को............।’’

‘‘जानती हूॅं तेरा मतलब। और ये आज का दौर क्या लगा रखा है तुने। यह आज का दौर ही तो है जिसने गाॅंव की औरतों तक को नहीं छोड़ा। सब की सब निठल्ली और आलसी होती जा रही है। अपनी नेलपाॅलिश और लिपस्टीक मिटने के डर से कमबख्तों ने अपने खेतों में काम करना तक छोड़ रखा है। अपने पशुओं के लिए खेतों से घास निकालने तक में उन्हें तकलीफ होती है। मजदूरों को रूपए देकर काम करवा लेंगी लेकिन अपने हाथ-पैर नहीं चलाएंगी। रानियां बन कर सारा-सारा दिन बैठी रहती हैं। जैसे पता नहीं उनके पुरखों ने उनके लिए कुबेर का खजाना छोड़ कर रखा हो। नौंवा महीना लगा होता था तब भी हम पच्चीस-तीस घास के पुल्ले अपने सिर पर उठा कर दूर जंगल से लाती थीं। लेकिन आज दिखावा ज्यादा और मेहनत कम है।’’ गौरी की तीखी व्यंग्य भरी बातों ने निर्मला को थोड़ी देर के लिए चुप करा दिया था।

‘‘अरे गौरी, तुम भी न। छोड़ इन बातों को। ले मुरब्बा खा। नहीं तो यह भी तेरी बातों की तरह कड़वा हो जाएगा।’’ चंपा ने मजाकिया लहजे के साथ गौरी का ध्यान उसकी पसंदीदा चीज पर लगा दिया था।

‘‘क्या चंपा दीदी। जब प्लेट में सिर्फ दो-तीन टुकड़े रह गए हैं। तब तुम कह रही हो।’’ निर्मला से ज्यादा देर तो चुप बैठा नहीं जा सकता था। एक बार वह फिर आदतानुसार शिकायतिया लहजे में बोल पड़ी थी।

‘‘भई देखो, प्लेट तुम सबके सामने ही थी लेकिन तुम्हें मीरा के गहनों का हालचाल पूछने से फुरसत मिली होती तभी तो तुम मुरब्बे का आनन्द ले पाती न।’’

चंपा की बात पर गौरी और मीरा खिलखिलाकर हंस पड़ी थी। निर्मला के चेहरे पर भी हंसी और गुस्से का एक मिश्रित-सा भाव उभर आया था।

मुरब्बा खाते-खाते गौरी बोली,‘मैंने कल सुना था कि बिमला के लड़के राजेश ने भी आवारा गायों को पकड़कर बेचा। क्या यह सही है ?’

‘हां, बिलकुल गौरी। उसने परसों ही एक गाय को जो उसने दो हफ्ते पहले पकड़ी थी को बारह हजार में बेचा। उसकी देखा-देखी में अब हर गाॅंव वाला दिन-रात इसी मौके की तलाश में रहता है कि कब उनके हाथ कोई आवारा गर्भवती गाय लग जाए जिसे बेचकर वे कुछ रूपए कमा सकें। ऐसी गायों को लोग अब लाॅटरी कहकर पुकारने लगे हैं। सबकी नजरें आजकल आवारा गायों के पेट और थनों पर टिकी रहती हैं। जरा-सा भी किसी को लगा कि गाय गर्भवती है तो वे उसे पकड़ कर गाॅंव में खुली डिस्पेंसरी में चैक करवाकर उसके गर्भवती होने की तसल्ली कर लेते हैं। अगर गाय गर्भवती हुई तो उसकी लाॅटरी लग गई समझो। अगर फंडहर हुई तो उसे फिर से दर-ब-दर की ठोकरें खाने को छोड़ दिया जाता है।’’ चंपा ने सारा खुलासा कर दिया था।

‘‘चलो इसी बहाने बेचारी गायों को इस कड़कती सर्दी में रहने का कोई स्थाई ठिकाना तो मिल जाता है। बेचारियों को घास के लिए यहां-वहां की ठोकरें तो नहीं खानी पड़ती।’’ गौरी ने भी अपना पक्ष रखा।

निर्मला सबकी बातें चुपचाप सुने जा रही थी। अबकी बार उसके मुॅंह से एक शब्द भी नहीं फूटा था।

‘‘लेकिन स्थाई ठिकाना तो बेचारी कुछ एक भाग्यशाली गायों को ही मिल पाता है। उससे कई गुणा ज्यादा तो लोग फिर से और गायों को आवारा की ठोकरें खाने का छोड़ देते हैं।’’ चंपा बोली।

‘हमने अपने इलाके में इस तरह से। और इतनी मात्रा में कभी आवारा गायों को नहीं देखा। परंतु अब आदमी बेचारा भी क्या करे।’ मीरा ने कहा।

‘क्यों ? आदमी को क्या हो गया ?’ चंपा बोली।

‘सारी घासनियां जहां कभी हमारे पशु चरते थे। वहां तो अब सीमेंट फैक्टरी, कारखानों या फिर लोगों के नए घरों ने कब्जा जमा लिया है। बहुत सी घासनियां ऐसी हैं जहां घासनी का नजदीक वाला किसान उन घासनियों पर अपना नाजायज कब्जा कर बैठा है। वह उस सरकारी जमीन को भी अपना मान रहा है। उसने चारों ओर से बाड़ लगा दी है। अब कहां जाएं हमारे पशु चरने...................। अब वही किसान इन घासनियों को शहर से आए व्यापारियों को घास निकालने के लिए हर साल बेच देता है और फिर वही व्यापारी हमें हमारा ही घास मुंहमांगी कीमत पर बेच रहा है। सभी चुपचाप बैठे तमाशबीन बने हुए हैं। नौकरी पेशों को इसके विरुद्ध जाने का समय नहीं है और बेचारे किसान को या तो इस सबके खिलाफ जाने की हिम्मत नहीं है या फिर उसे न्याय का सही रास्ता मालूम नहीं है।’ मीरा ने अपनी बात रखी।

मीरा की बात का समर्थन करते हुए गौरी बोली,‘मीरा, बिलकुल सही कह रही हो तुम। मेरे मायके वालों के पूरे इलाके में तो ईंट भट्ठे वालों ने जमीन को लीज पर ले रखा है। वे उस जमीन को कई सालों से खोद रहे हैं। सारे के सारे खेत अब सूखे, भूरे और बंजर मैदानों में बदल गए हैं। यह सब आदमी का खुद का ही किया धरा है। आज आदमी को सिर्फ रुपये चाहिए। वह उस जमीन का सौदा करने से जरा भी नहीं कतराता जिस जमीन को उनके बाप, दादा ने संभाल-संभाल कर रखा और बिजली प्रोजेक्ट वालों से वे अनपढ़ किसान अपनी जान की परवाह किए बगैर भीड़ गए थे। उन्होने बड़ी से बड़ी मुश्किल आने पर भी अपनी जमीन को बेचने का सोचा तक नहीं। उसी जमीन को आज की यह पीढ़ी अपने ऐशो-आराम के लिए किसी फैक्टरी, ईंट भट्ठे या फिर किसी होटल बनाने वाले व्यापारी को लगी-फबी कीमत पर पता नहीं क्या सोचकर बेच रही है? यदि जमीन के साथ ऐसा ही सब चलता रहा तो गायें ऐसी ही सड़कों पर, गाॅंवों में, चैराहों पर यूं ही आवारा घूमती, किसी गाड़ी के नीचे कुचलती, लोगों से मार खातीं और ठंड के थपेड़ों को झेलती नजर आएंगी।’ गौरी ने भी अपना गुस्सा बाहर निकाल कर रख दिया था।

‘‘तुम सच कह रही हो गौरी। बात तो तुम्हारी एकदम सही है। लेकिन फिर भी जो लोग इन गायों को इस्तेमाल करने के बाद आवारा दर-दर की ठोकरें खाने के लिए छोड़ रहे हैं। उनका क्या ? गायों को ऐसे छोड़ देना, यह बात मेरी समझ से बिलकुल बाहर है। मुझे तो इसका एक ही हल नजर आता है। जो भी कोई अपना पशु कंही आवारा छोड़ता हुआ पकड़ा जाए। उसे वहीं के लोग या पंचायत कोई ऐसी सख्त सजा सुनिश्चित करे ताकि दोबारा कोई ऐसी नीच हरकत न कर पाए।’’ चंपा सख्त होते हुए बोली।

गौरी और मीरा ने चंपा की बात का समर्थन किया। लेकिन निर्मला अधजगी सी अभी भी कंही खोई हुई थी। उसकी आॅंखों में मीरा के गहने अभी भी लटक रहे थे। अंदर ही अंदर उसके कोई योजना जन्म ले रही थी। समय बीतने के साथ-साथ बातों का दौर भी थमता चला गया। धूप सेंकनें के स्थान पर अब ठंडी हवाओं ने कब्जा करना शुरू कर दिया था। सभी धूप सेकनें के अड्डे से उठकर अपने-अपने घर के काम-काज में रम चुकी थीं।

एक नई सुबह के साथ धूप सेंकनें का अड्डा फिर से जम चुका था। सारी औरतें थीं लेकिन निर्मला नहीं थी।

‘‘क्यों चंपा ! निर्मला को कंहा छोड़ आई। आज उसे अपने साथ लाना भूल गई क्या?’’ गौरी ने चंपा से प्रश्न किया।

‘‘निर्मला शायद अब कई दिनों तक हमारे बीच दिखाई नहीं देगी।’’ चंपा ने कहा।

‘‘क्यों !’’ गौरी हैरानी थी।

‘‘क्योंकि कल रात से उसका पति अस्पताल में दाखिल है।’’

‘‘उसे क्या हुआ है !’’

‘‘निर्मला जब कल यहां से घर गई तो उसके मन से मीरा के गहनों का भूत उतरा नहीं था। शाम को अपने पति के आते ही उसने गाय को पकड़ने का राग अलपना शुरू कर दिया। उसका पति मना करता रहा लेकिन वह न मानी। कहने लगी, ‘मीरा की तो लाॅटरी निकल आई है। उसने गहनों का एक पूरा सैट गायों को बेचकर खरीद लिया है। मैं पहले ही आपको कहती रही कि गर्भवती गाय को देखकर पकड़ लो। लेकिन तुम आलसी के आलसी ही रहे। अगर तुमने कोशिश की होती तो वे दोनों गायें आज मीरा के खूंटे पर न होकर मेरे खंूटे पर बंधी होती और वह प्यारा-सा सोने का सैट मेरे गले में जंच रहा होता। पता है, जब वह अपने गहनों को दिखाती फिर रही थी तो मुझे उस वक्त आप पर कितना गुस्सा आ रहा था।’’

अपने बारे में ऐसा सुनकर मीरा के चेहरे के भाव बदल चुके थे। उसे निर्मला की घटिया सोच पर गुस्सा आ रहा था।

‘‘लेकिन चंपा! तुम इतने दावे के साथ कैसे कह सकती हो कि निर्मला ने यह सब कहा।’’ मीरा जैसे बात की पुष्टि कर लेना चाहती थी।

‘‘अरे भई, यह भी कोई पूछने वाली बात है। एक तो हम दोनों परिवारों के आंगन एक। और दूसरा निर्मला की भोंपु की तरह आवाज। कुछ न भी सुनना हो तब भी सब-कुछ साफ-साफ सुनाई पड़ ही जाता है।’’ चंपा मीरा की बात की पुष्टि करते हुए बोली।

‘‘लगता है मीरा आज जानबूझ कर अनजान बन रही है। क्या इसे निर्मला की आदत का पता नहीं। खैर, जो भी है। पर चंपा उसके बाद क्या हुआ ? क्या उसका पति गाय पकड़ने चला गया ?’’ गौरी ने विषय को फिर पटरी पर ला दिया था।

‘‘जाता क्यों नहीं। वह अपने पति को इतना कुछ सुना बैठी थी कि बेचारे को मजबूरी में जाना ही पड़ा। अपने लड़के को साथ लेकर वह उन गायों के झुंड की ओर गया जहां वे रात को बैठती हैं। एक गाय उनकी नजर में पहले से ही थी। उस गाय को पकड़ने के चक्कर में गायों के झुंड में बैठे सांड ने उसे ऐसी टक्कर मारी कि उसे रात को ही अस्पताल में भर्ती करवाना पड़ा। सुना है सांड ने उसे पेशाब की जगह पर टक्कर मारी है। उसी का लड़का सुबह बता रहा था कि पिता जी का आॅपरेशन करना पड़ेगा जिसमें काफी खर्चा आएगा। मैंने तो यहां तक भी सुना है कि निर्मला को रूपयों के लिए अपने गहने तक बेचने पड़ रहे हैं।’’

‘‘बेचारी निर्मला! उसे तो लेने के देने पड़ गए। न तो वह जिद्द करती और न ही यह सब होता। आदमी कभी-कभी एक-दूसरे की देखा-देखी में अपना ही नुकसान कर बैठता है। जिसकी उसने कल्पना तक नहीं की होती।’’ गौरी निर्मला के प्रति सहानुभूति जताते हुए बोली।

‘‘गौरी, तुम सच कह रही हो। निर्मला को शायद अब यह अहसास हो गया होगा कि लाॅटरी कई बार ऐसे भी निकलती है जो कभी-कभी पूरे घर को बरबाद तक कर देती है।’’

चंपा गौरी की बात का समर्थन कर रही थी।

-पवन चौहान

गाॅंव व डाकघर महादेव,

त0. सुन्दरनगर, जिला मण्डी,

(हि0 प्र0) - 175018

फोन न0.: 094185-82242, 9805402242

कहानी से ही

कूपों1 - भूसे को रखने के लिए कनक के पुल्लों से बनाया गया ढांचा

कोठों2 - तरतीब से रखा गया घास का ढेर

तालड़ी3 - कच्चे मकान में रसोई के छत के ऊपर की खाली जगह

फाटों4 - घासणी

मांजरी5 - पराली से बनाई गई चटाई

खरकना6 - एक जंगली पौधे से बनाया गया झाडू