madh pankhida madh paanjare in Hindi Love Stories by मालिनी गौतम books and stories PDF | मध पंखीड़ा मध पांजरे

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मध पंखीड़ा मध पांजरे

मध पंखीड़ा मध पाँजरे


“मध पंखीड़ा, मध पाँजरे
संसार माया जाल छे...........”
( हे शहद का निर्माण करने वाले पंखियों (मधुमक्खियों), तुम्हारे ही द्वारा रचा हुआ यह शहद का मधुर छत्ता, संसार रूपी एक मायाजाल है । इस पिंजरे को तुमने ही रचा है और तुम ही इसकी माया में फँसकर इसे छोड़ नहीं पाते हो )
मोबाइल की ऑडियो रेकॉर्डिंग में अठ्ठासी वर्षीय फोई बा (बुआ जी) की गहरी और थोड़ी-सी भारी आवाज़ में भजन बज रहा था । उदासी का एक रेला बार-बार इस आवाज़ से निकल कर सूने घर की दीवारों से टकराते हुए उनके हल्के पीले रंग को, अपनी उदासी के रंग में डुबोते हुए धूसर बना रहा था । पलंग से टिक कर बैठी सुनीति अपनी बासठ वर्षीय माँ के अवसान के बाद होने वाले, सारे विधि-वधानों के पूर्ण होने के उपरांत कल ही अपने घर वापस लौटी थी। भतीजी की असमय मृत्यु से आहत फोई बा का यह उदास भजन वहीं से उसके मोबाइल में चला आया था । ऑफिस से तीन दिन की छुट्टी के बाद उसके पति अपूर्व आज सुबह ही टूर पर निकल चुके थे । लेकिन सुनीति भला कहाँ निकल जाती ? वह तो इतने दिनों से बंद पड़े घर की साफ-सफाई करते-करते भी बार-बार माँ की स्मृतियों में खो जाती और जीवन के क्षण-भंगुर एवं नश्वर होने के विचारों से घिर-घिर जाती । कल तक बोलती-मुस्कराती माँ आज एक स्वप्न हो चुकी थी । मौन का एक गहरा कुआँ अक्सर ऐसे अवसाद के क्षणों में सुनीति के भीतर वाचाल हो उठता था । जिसमें वह खुद ही गिरती, तड़पती, छटपटाती और बाहर निकलने का प्रयास करती । इकहरा बदन, हल्के गेहुएँ रंग का लंब-गोल चेहरा, बड़ी-बड़ी पनीली आँखें, उजली दंत-पंक्ति और मोहक मुस्कान वाली माँ, सहज ही किसी का भी ध्यान अपनी ओर आकर्षित कर लेती थीं । सुनीति रातभर करवट बदलते-बदलते सोचती रही कि माँ को जीवन में वह सब नहीं मिला जिसकी वह अधिकारिणी थीं । घर-गृहस्थी और जिम्मेदारियों के बोझ से दबी-दबी माँ एक-एक कर अपनी समस्त इच्छाओं को तिलांजलि अवश्य देती गयीं लेकिन यह पीड़ा उन्हें घुन की तरह भीतर से खोखला करती गयी । स्वाभिमानी माँ को छोटी-छोटी बातें भी तीर की तरह चुभती थीं । छोटा-बड़ा कोई भी उनसे ऊँची आवाज़ में बात कर जाए यह उन्हें गवारा नहीं था । अक्सर वे अपने बच्चों की तेज़ आवाज़ से भी आहत हो जाती थीं । पति का उनके प्रति मौन उन्हें जीवन भर आहत करता रहा । ये छोटे-छोटे मान-अपमान, संताप, बित्ताभर आसमान पर भी अपना नाम न लिख पाने की छटपटाहट, बैचेनी, अवसान, घुटन, तनाव, प्रतिरोध और आक्रोश कब उनके शरीर में गाँठ बनकर पलने लगे, यह उन्हें ही पता नहीं चला ।
सुनीति ने अचकचाकर काँपती उँगलियों से अपने शरीर को टटोला, गोया कि वह आश्वस्त होना चाहती थी, कि कहीं ऐसी कोई गाँठ उसके शरीर के भी किसी हिस्से में तो नहीं पल रही । भाई-बहन, चाचा-ताऊ, नाते-रिश्तेदार, सब ही तो कहते थे बार-बार, कि सुनीति कार्बन कॉपी है माँ की, रंग-रूप, आचार-विचार और व्यहवार में । माँ से अपनी तुलना आज उसे भयग्रस्त कर रही थी । अपरान्ह का सूरज पश्चिम दिशा की तरफ़ बढ़ रहा था और भय की एक परछाई सुनीति के मन को ढँकती जा रही थी । गहराती रात के साथ यह परछाई और भी लंबी होती चली गई । फोई बा का भजन फिर से सुनीति के कानों में गूँजने लगा -
“मध पंखीड़ा, मध पाँजरे
संसार माया जाल छे...........”
नहीं sss…..सुनीति सिहर उठी । माँ की तरह अधूरी इच्छाओं का बोझ लिए वह नहीं जाएगी इस संसार से । उसने खुद में झाँककर देखा । रिश्तों के न जाने कितने ही महीन तागे उसके मन पिंजरे में उलझे हुए थे । ये तागे उलझ-उलझ कर अनसुलझी गाँठों में बदल जायें, इसके पहले ही उन्हें सुलझाना होगा, तभी वह इस मायाजाल से मुक्ति पा सकेगी । हवा में लहराते हुए एक अबोध, दूधिया तंतु को पकड़े हुए वह पहुँच गई बचपन के गलियारों में ।
” नीति...ऐ नीति.....सुन ना“, माधव ने अपनी बहती नाक को बुश्शर्ट की आस्तीन से पोंछते हुए कहा ।
” क्या है?...पढ़ने दे मुझे”, आठ बरस की नीति खिल-खिल करती हुई बोली ।
” सुन ना ! गणित का लेसन कर दे न मेरा, नहीं तो मास्साब जी मारेंगे।“
”अच्छा ! और बदले में तू क्या देगा मुझे ?”
माधव ने अपना नाश्ते का डिब्बा खोलकर रख दिया उसके सामने । रात के बासी पराँठे और मिर्च-खपिया ।
ललचाई नज़रों से डिब्बे को देखते-देखते नीति बोली-
”बस इतना ही ? पूरे पाँच पन्ने का लेसन है।“
माधव ने निक्कर की दोनों जेबों में भरे हुए चणी बोर जमीन पर बिखेर दिए ।
नीति ने तिरछी नज़रों से माधव की बुश्शर्ट को देखा और माधव ने हँसते हुए बुश्शर्ट की जेब में भरे हुए करौंदे नीति की फ्रॉक की झोली में डाल दिए ।
ये खजाना उसने पूरी दोपहर मंगल काका की बाड़ी से उनकी सोटीयाँ और गालियाँ खाकर भी चुराया था ।
“ठीक है ! ठीक है ! ...लेकिन बोल, तू एक महीने तक मेरी स्लेट भी साफ करेगा न?”
मालती बहनजी पता नहीं क्यों, रफ काम पट्टी पर ही करवाती हैं । हाथ भी बिगड़ते हैं और पेम के चूरे से फ्रॉक भी गंदी होती है । माँ रोज़-रोज़ चिल्लाती हैं मुझ पर । नीति ने मुँह बिगाड़ते हुए कहा ।
“हाँ रे हाँ....कर दूँगा साफ...”
”देख अभी कर रहा..”
“सूख-सूख पट्टी, चंदन गट्टी
सूख-सूख पट्टी, चंदन गट्टी”
माधव ने पानी का पोता पट्टी पर फेरा और हवा में हिला-हिलाकर सुखाने लगा ।
चंदन की सुवास पूरे कमरे में फैल गई और जुबान पर मिर्च –खपिया का स्वाद । अर्ध-तंद्रा में सुनीति जाग बैठी । एक शुभ्र, धवल, उज्जवल, निर्मल हँसी कमरे में खिलखिला रही थी । बचपन का साथी माधव, मन की सात पर्तों से बाहर निकल कर आज सामने खड़ा था । सुनीति के चेहरे पर असीम शांति छा गई । मन की कैद से अब एक पंछी आजाद था ।

“मध पंखीड़ा, मध पाँजरे
संसार माया जाल छे...........”
मौन के सन्नाटे में अचानक धब्ब से किसी चीज के गिरने की आवाज़ आई ...और सुनीति हिरणी की तरह कुलाँचे भरते हुए पहुँच गई अपने पिता के, सरकारी कॉलोनी के कोने पर बने, खिलौने जैसे दो मंजिला क्वाटर के पिछवाड़े में । बिना ए.सी और कूलर वाले उन दिनों में, गरम हवा फेंकते सीलिंग पंखों की घुटन से बचने के लिए, माँ ने साँझ ढलते ही पिछवाड़े वाले आँगन में लाइन से निवाड़ के पलंग बिछाये हुए थे । आँगन के एक कोने से निकलकर जूही की बेल कपड़े सुखाने के तारों पर छाई हुई थी । अमरूद के पेड़ की शाखाओं पर पत्तियाँ, हवा की लय से संगत करते हुए सरसरा रही थीं । आँगन के एक किनारे पर रखा टेबल फैन भी घुर्र-घुर्र के एक विशेष आलाप के साथ अपनी उपस्थिति दर्ज़ करा रहा था । इस समय सब घर के अंदर व्यस्त थे । सोने में अभी वक्त था ।
चौदह बरस की सुनीति, सिकुड़ी-सहमी-सी बैठी हुई थी एक खटिया के पैताने पर, अपनी तेज़ चलती धड़कनों को सँभालते हुए । गोया कि इस लयबद्ध माहौल में कहीं ये तेज़ धड़कने ऑफ बीट होते हुए किसी का ध्यान न खींच लें अपनी ओर ।
“शश्श्श्......शश्श्श्......सुमी...”
एक हल्की-सी आवाज़ क्वाटर की ऊपरी मंजिल से आई और धप्प से एक भारी लिफाफा बिस्तर में आ गिरा । कुछ पल के लिए तो सुमी को जैसे काठ मार गया । साँसों की सरगम जैसे किसी राग के पंचम सुर पर जाकर अटक गयी । काँपते हाथों से उसने लिफाफा उठाया और अपनी स्कूल की किताबों के बीच छिपा दिया । गहरी साँस भरकर जब वह फिर बाहर आई और ऊपर नज़र की तो लंबी-सी नाक वाला शिशिर वहाँ नहीं था ।
सुनीति और शिशिर लगभग एक ही समय पर स्कूल जाने के लिए निकलते । नौवीं में पढ़ती सुनीति के कदमों के पीछे-पीछे ग्यारहवीं में पढ़ते शिशिर के कदमों की आहट रहती । शिशिर की लंबी-सी परछाई अक्सर सुमी की छोटी-सी परछाई से संवाद करती प्रतीत होती ।
जुबान पर बैठे न जाने कितने ही संवादों को थूक के साथ निगलते हुए शिशिर ने पूछा था
“सुमी... तुम्हें कौन-सा हीरो पसंद है?”
”जितेन्द्र ! क्यों?” सुमी ने मुस्करा कर पीछे देखते हुए कहा ।
”बस यूँ ही ! ऐसे ही पूछा ।“
सुमी की गर्ल्स स्कूल का रास्ता एक तरफ़ मुड़ जाता और शिशिर के कदम अपने स्कूल जाने वाले रास्ते को छोड़कर बाज़ार जाने वाले रास्ते का रुख करते ।
बाज़ार शुरु होने से पहले सड़क के किनारे-किनारे पच्चीस-पच्चीस पैसे के फिल्मी हीरो-हीरोइनों की तस्वीर वाले ग्रीटिंग कार्डस लाइन से बिछाए हुए दो-तीन लड़के बैठे रहते थे । शिशिर चुन-चुनकर जितेन्द्र की तस्वीरें इकट्ठी करता क्योंकि...सुमी जितेन्द्र की दीवानी थी और वह.......
सुनीति की आँखों में पिता के सरकारी मकान का आँगन पसरता ही जा रहा था । खटिया, जूही, अमरूद, पंखा, लंबी-सी नाक और धप्प की आवाज़ ....। काँपते हाथों से सुनीति ने एक बार फिर लिफाफे को खोला । इस बार लिफाफे में जितेन्द्र की जगह उसे सिर्फ और सिर्फ शिशिर की ही तस्वीरें नज़र आयीं । मासूम से शिशिर की उलाहना भरी निश्छ्ल आँखें छलक-छलक जा रही थीं । मानों कह रही हों- ”सुमी...ओ सुमी...इतने बरस लगा दिए तूने जितेन्द्र और शिशिर का अंतर समझने में...”
दोनों हाथों से अपना चेहरा ढाँप कर रो पड़ी सुनीति । जी भर रोने के बाद आँसुओं से धुला उसका मन अब पहले से अधिक श्वेत, धवल और हल्का था । रात का तीसरा पहर बीतने को था । सुनीति की आँखों के पोपचे धीरे-धीरे बोझिल होकर बंद होने लगे । मन की कसी हुई गाँठे अब शिथिल होती जा रही थीं और उनमें से सुलझे हुए तागे मुक्त हवा में लहरा रहे थे । अधखुली आँखों में शिशिर की लंबी-सी नाक ने सुनीति की नाक को छुआ और सुनीति खिलखिला उठी....”ऐ...तोते जैसी नाक है तुम्हारी...मेरी नाक से दूर रखो इसे...।” किसी अबोध बच्चे की तरह गुड़मुड़ हुई सुनीति बेखबर सो चुकी थी ।
आँसुओ से धुली सुबह में बीते दिन का उदास रंग अब हल्का होता जा रहा था । दीवार पर टँगी हुई माँ की तस्वीर जैसे सुनीति को एकटक देखते हुए अपनी मोहक मुस्कान के साथ उस पर अमृत वर्षा कर रही थी । सुनीति को लगा कि तस्वीर के उस पार माँ के चेहरे पर खिंची तंग रेखाएँ कुछ ढीली हो गयी हैं और वे गा रही हैं ...
“मध पंखीड़ा, मध पाँजरे
संसार माया जाल छे...........”
भजन के शब्दों में ओत-प्रोत होते-होते सुनीति का गला भर आया । मन डूबता-उतराता रहा संगीत की स्वर-लहरियों के साथ-साथ । फोई बा की आवाज़ धीरे-धीरे जगजीत और पंकज उधास की आवाज़ों में गड्ड-मड्ड होने लगी । उन आवाज़ों के पीछे खिंचती-खिंचती सुनीति जा पहुँची पच्चीस बरस पहले अपने कॉलेज के बगीचे में । सर्दियों की नर्म धूप में करीने से सजा कॉलेज का बगीचा और भी सुंदर लग रहा था । पंक्तिबद्ध लहराते पिटूनिया और गज़ानिया के फूल सुंदरता के नए उपमान खोज रहे थे । डहलिया की डालियाँ अपने ही सौन्दर्य के भार से लजा कर झुकी-झुकी जा रही थीं । जींस का काला-सफेद स्कर्ट और लाल टॉप पहने अपनी सहेलियों के साथ बगीचे की नर्म लॉन पर बैठी सुनीति, फिजिक्स का लेक्चर बंक करके मैथ्स की कुछ थ्योरम्स सॉल्व कर रही थी । तभी बगीचे के दूसरे कोने से एक सधा हुआ, मन को छूकर अंदर उतर जाने वाला स्वर सुनाई दिया- “धूप में है साये का आलम....रौशन चेहरा काली जुल्फ़ें...।“
मित्रों की फ़रमाइश पर शहरोज़ ने मुमताज़ राशिद की ग़ज़ल गानी शुरु की थी । सुनीति की नज़रें आवाज़ की दिशा में उठीं और शहरोज़ की आँखों से चार होकर नीचे झुक गयीं । सबके चले जाने के बाद भी देर तक सुनीति धूप में खुद के साये को दर्प से भरी-भरी देखती रही । दोपहर बाद कैमिस्ट्री की प्रैक्टिकल लैब में वह अपना प्रैक्टिकल करते-करते परखनली में कैमिकल के बदलते रंगों को निहार रही थी । तभी शहरोज़ ने पीछे से आकर उसके बालों में चंपा का फूल खोंसते हुए कहा -
”सुम्मो...बाल ऐसे ही खुले रखा करो तुम हमेशा।“
किसी ने देखा तो नहीं, इस डर से मुँह बिचकाते हुए सुनीति बोली-
”अच्छा जी ! क्यों भला?”
शहरोज़ मासूमियत से बोला- “ताकि पूरी ज़िंदगी, मैं अपने हर स्टेज शो में सबसे पहले यही ग़ज़ल तुम्हारे लिए गाता रहूँ । बोलो सुम्मो...सुनोगी न तुम सामने बैठकर?”
शहरोज़ फिर से गुनगुना रहा था-
“धूप में है साये का आलम....रौशन चेहरा काली जुल्फ़ें...।“
परखनली के सारे रंग सुम्मो के चेहरे पर छलक आये । सुम्मो का रोम-रोम इकतारा बनकर गूँज रहा था । शहरोज़ के सुरीले स्वर से उसके मन का तार-तार झनझना उठता था । किसी बाँसुरी की सुरीली तान-सा था जीवन इन दिनों ...और यह तान सुम्मो के कानों से गुज़रकर उसके मन और आत्मा को तृप्त कर रही थी । सहसा सख़्त मिज़ाज भाई का ऊँचा स्वर उसके कानों से टकराया....संगीत की भले कोई जाति नहीं होती, लेकिन उसे गाने वाले की तो होती है न ?” भाई की आग उगलती आँखों के ताप भर से सुनीति जल बिन मछ्ली की तरह छटपटा उठी और उसकी कोहनी लगने से मेज पर भरा पानी का ग्लास छन्न की आवाज़ से टूटकर फर्श पर जा गिरा । फर्श पर फैले पानी में सुनीति को शहरोज़ की कातर आँखें नज़र आयीं । सुनीति भारी कदमों से अपने घर के बगीचे की तरफ़ चल दी ।
स्कर्ट-टॉप पहनना वो कब का छोड़ चुकी थी और बालों को खुला रखना भी । अपूर्व को यह सब पसंद जो न था । बगीचे में लॉन पर बैठते हुए सुनीति ने हल्के हाथों से, कस कर बाँधा हुआ जूड़ा खोल दिया । बाल उसके गालों को छूते हुए शानों पर लहराने लगे । सुनीति ने आँखें उठाकर देखा, बगीचे के दूसरे छोर पर गुलमोहर के नीचे खड़ा शहरोज़ मुस्करा रहा था । सुनीति स्वस्थ मन से खुले बालों को लहराते हुए किचन में चाय बनाने के लिए चल दी । शहरोज़ की आँखों से छलकता नेह उसकी आत्मा में झर रह था । इतने बरसों से बँधीं हुए ज़ुल्फें क्या लहरायीं, मन के तहखाने में गाँठ मारकर बैठे न जाने कितने ही तागे सुलझकर एक सुंदर आकृति रचने लगे । इस आकृति में वह थी, शहरोज़ था । सुनीति ने माँ की तस्वीर को देखा । माँ अब खुलकर मुस्करा रही थीं । सुनीति गुनगुनाने लगी....

“मध पंखीड़ा, मध पाँजरे
संसार माया जाल छे...........”

सूरज की किरणे जामुनी रंग के नेट के पर्दे से होते हुए दीवार पर एक सुंदर चित्रावलि निर्मित कर रही थीं । सुनीति ने लपक कर अपना मोबाइल उठाया और उस चित्र को अपने मोबाइल में कैद कर लिया । बीते दो बरसों से कैमरा, सुनीति का अनन्यतम साथी था । किसी ने उससे कहा था कि, सुंदरता हर चीज़ में होती है, बस उसे देखने की नज़र होनी चाहिए हमारे पास । गैलरी में खींची गई तस्वीरों को स्क्रॉल करते-करते सुनीति न जाने कितने ही चित्रों के सामने ठहरी...अनिमेष, अपलक उन्हें निहारती रही और मुस्कराती रही ।
” आप तस्वीरें अच्छी खींचती हैं जी”
मोबाइल की व्हाट्सएप स्क्रीन पर झपकता एक मैसेज आज दो बरस बाद भी मन की स्क्रीन पर उसी तरह झपक रहा था ।
”अच्छा जी ! आप जानते हैं न कि मुझ बौड़म को चित्र-वित्र खींचने का कोई शऊर नहीं था ।“
सुनीति बेसब्री से विश्व के ऑंलाइन होने की प्रतीक्षा कर रही थी । विश्व जैसे ही ऑनलाइन होता, सुनीति को लगता कि जैसे वह अपने चश्मे के पीछे से मोबाइल की स्क्रीन में से झाँक रहा है ।
“ओ ! हो ! तो फिर अचानक कहाँ से आ गया जी शऊर ?”
सुनीति ने काले चश्मे वाली इमोजी भेजते हुए लिखा-
”बस आ गया”
”अरे! कुछ तो बताइये जी ! हम भी सीख लें कुछ....थोड़ा-बहुत”
” दो बरस पहले एक आयोजन में आपके ही जैसे एक कलाकार के खींचे हुए चित्रों की प्रदर्शनी देखी थी जी ! बस तबसे आ गया हमें भी “
”ओ ! हो ! बस देखने भर से आ गया जी?”
विश्व आज सुनीति को परेशान करने के मूड़ में था ।
”नहीं जी ! उन कलाकार को धीरे-धीरे जाना भी न...” सुनीति के गाल यह लिखते हुए ब्लश कर रहे थे ।
“ अच्छा जी ! क्या-क्या जाना उनके बारे में ?
यही कि वे बहुत अच्छे फोटोग्राफ़र हैं और बहुत शानदार चित्र भी बनाते हैं”
”आपका कोई चित्र बनाया क्या जी?”
सुनीति ने मुँह लटकाकर कहा- “नहीं जी, मेरे शब्द शायद होते ही नहीं उनके रंगों के लायक”
विश्व अचानक ऑफलाइन हो गया । यह कोई नयी बात नहीं थी, ऐसा अक्सर होता था और फिर पूरे दिन सुनीति बार-बार मोबाइल खोलती-बंद करती रहती ।
औचक ही खत्म हुआ यह संवाद देर तक खलता रहा सुनीति को और शायद विश्व को भी ।
देर रात विश्व का संदेश फिर स्क्रीन पर चमका -
”सुनो....मेरे पास बहुत कम रंग और रेखाएँ हैं । मुझे उनमे ही अपना काम चलाना होता है । तुम्हारे शब्दों में जीवन का हर रंग है । तुम कब सफेद से गुलाबी..फिर हल्की लाल और रतनारी होते हुए जामुनी हो जाती हो, मैं समझ ही नहीं पाता । मेरे धूसर रंग तुम्हारे शब्दों की चमक झेल ही नहीं पाते हैं । ढेरों ज़िम्मेदारियों के बोझ तले दबा मैं डरता हूँ कि शायद कभी नहीं बटोर सकूँगा इतने रंग तुम्हारे लिए, मेरे जीवन में । हो सके तो मुझे समझना ......और माफ कर देना ।
मारे क्रोध, क्षोभ और गुस्से के सुनीति तमतमा उठी थी । अपूर्व जैसे सुदर्शन पति के होते हुए भी उसके मन का एक कोना सदैव रीता रहा । बड़ी ख़्वाहिशों और हसरतों से उसने एक चित्रकार की कूँची के कुछ रंग वहाँ फैलाये थे । उन रंगों को गहराते देखा था उसने । और अब अचानक ही इस तरह उन रंगों का स्याह-धूसर रंगों में बदल जाना वह सहन नहीं कर पा रही थी । आवेश में भरी सुनीति ने फिर कभी व्हाटसएप के उस इनबॉक्स को नहीं खोला । उस इनबॉक्स पर आते हरे संदेशों को वह बिना पढ़े ही डिलीट करके स्याह रंगों में बदलती रही ।
सुनीति के माथे पर पसीना चुहा रहा था। उसने अपने क्रोध से लाल हुए चेहरे पर ठंडे पानी की छालक मारी । द्वेष और कड़वाहट में पगे, मटमैले होते इन जटिल तागों को अब वह जल्द से जल्द सुलझाना चाहती थी। उन्हें सतरंगी न सही, पर कम से कम धवल-सुफेद रंग देकर मुक्त करना चाहती थी । काँपते हाथों से उसने इनबॉक्स खोलकर मैसेज टाइप किया -
”विश्व, मैंने बिना किसी राग-द्वेष के तुम्हें मुक्त किया । तुम्हारी चंद रेखाएँ और धूसर रंग मेरी हथेली में नित नवीन रंगोली रचते रहेंगे.....विदा...”
इतना लिखते-लिखते सुनीति फफक-फफक कर रो पड़ी । बहती आँखों से उसने माँ की तस्वीर को देखा । धुँधली दिखाई देती तस्वीर के उस पार माँ की आँखें भी उसे भरी-भरी नज़र आयीं । वह मुक्त थी अब मन की हर गाँठ से । काँपते हाथों से उसने एक बार फिर अपने शरीर को टटोला ।
मन की मटमैली कोठरी अब खाली थी । साफ-स्वच्छ, बुहारी हुई । प्रीत का एक दीया वहाँ अब भी टिमटिमा रहा था...कौन जाने,..अब न जाने किसके इंतज़ार में ......
फोई बा की गहरी-उदास आवाज़ फिर मोबाइल में गूँज उठी .....
“मध पंखीड़ा, मध पाँजरे
संसार माया जाल छे...........”

मालिनी गौतम