Kafir tamannaye in Hindi Moral Stories by Husn Tabassum nihan books and stories PDF | काफिर तमन्नाएं

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काफिर तमन्नाएं

काफिर तमन्नाएं

मै अमीरनबाई हूँ। उम्र यही कोई 80-85। वक्त के चढ़ाव-उतार खूब देखती रही हूँ। कभी अशरफियों की मलिका थी। आज फुटपाथ पे अमरूद लगाती हूँ। चंद सिक्कों की कमाई पर जिंदगी धकेल रही हूँ। मेरी पीढ़ी के बचे कुचे लोग ही रह गए हैं इस शहर में जिनका अता पता नहीं है। झिलमिल आँखों से मैं इस बदलती बदरंग दुनिया का तिलस्म टटोलती रहती हूँ। पर कुछ साफ नजर नहीं आता। अपनी बिरादरी की दूसरी-तीसरी पीढ़ी भी नजर नहीं आती कहीं। यदा-कदा कुछ नव-उम्र पेशा करने वाली लड़कियाँ दिख जाती हैं। मगर पहचान में नहीं आतीं। वो तो गली के रशीद पानवाले ने पहचान करवा दी। बताता है इन्हें किसी अंग्रेजी नाम कालगर्ल कह के पुकारा जाता है। यही हैं नव-वक्त के चलते-फिरते कोठे। बड़े-बड़े शहरों में ‘बार‘‘ भी सुनाई पड़ते हैं। कजरी, ठुमरी, दादरा की संगत सिरे से लापता हो चुकी है। इनकी जगह पाॅप गानों ने ले ली है। आज कल की कालगर्ल-नुमा तवायफों के उसूल भी नहीं हैं। टके-टके पर बिकती हैं। बगैर किसी पैमाईश के। दायरे के। कभी-कभी जी होता है हारमोनियम, सारंगी और तबले वगैरह की संगत पे मन ही मन खूब झूमूं । मगर कहाँ? इस दौर में तो टीन-कनस्तरों के शोर के सिवा कुछ सुनाई ही नहीं देता। संगीत की सत्या पीटी जा रही है। वर्ना हमारें कोठों से तो गालिब, मीर और दाग़ की शायरी की त्रिवेणी बहा करती थी।

मेने जिंदगी की अनगित बहारें देखीं। हर बहारों के सत्तर-सत्तर रंग देखे। इन रंगों में पचासों ऊदे-पीले मौसम देखे। और हर मौसम पे अपनी बेजोड़ छाप। हमारी दहलीज से निकली कजरियों, ठुमरियों की थाप महलों की चूल हिला के रख देती थीं। हमारी चैखटें महज सनमखाना ही नहीं थीं, बल्कि नवाबों के साहबजादे और साहबजादियों को तहजीब व तंजीम की तरबियत देने के मरक़ज़ भी हुआ करते थे। वे हमारे यहाँ छोड़ दिए जाते थें फिर हम उन्हें नवाबी अदब ओ तहजीब के तौर तरीके अपने ढंग से सिखाते थे। बहरहाल......

हमारे साथ की कई तवाईफें थीं जो अब तक जिंदगी के थपेड़ों से पनाह मांग चुकी थीं और गहरी नींद सो गईं। मैं भी अपनी तवायफ माँ के पेट से हूँ। मेरी माँ बला की हूर थी। नवाब अमानत अली के खानसामें की नाजाईज औलाद जिसे उन्हीं के नौकर ने किसी रोज बहला फुसला कर कोठे पर कुछ अशरफियों में बेच आया। फिर माँ की जिंदगी वहीं परवान चढ़ी। मेरी माँ नवाब शौकत अली की पहली पसंद थीं। सुनती हूँ नवाब शौकत अली के सिवा किसी और मर्द ने उनका चेहरा तक ना देखा था। वह खास और सिर्फ उन्हीं की रातों की महक थीं। हत्ता कि नवाब साहब की मौत के बाद उन्होने ये पेशा ही छोड़ दिया। लिहाजा कोठा भी खाली कर दिया। तब मैं चार साल की थी। कोठा खाली करते वक्त हमारा सारा अमला असबाब कोठे की मालकिन ने जब्त कर लिया। वो दिन हमारी जिंदगी के सबसे बुरे और कठिन दिन थे। माँ अक्सर नवाब शैकत का दम भरा करतीं। बहुत देर से पता चला कि मैं उनके ही नुत्फे से हूँ और नवाब शोकत ही मेरे वालिद हैं। ये बात तब पता चली जब माँ आखिरी सांसे ले रही थी और मेरे जिस्म पे हरकते सिंदूरी मौसमों के लम्स को महसूस कर फिक्र से दोहरी हुई जा रही थी। वह चाहती थी मैं नवाब शैकत के वहां अपना हक मांगने जाऊँ। लेकिन नहीं। क्यूँ जाती? किस रिश्ते से जाती। जमीं ओ आसमान पे हक़ तो रोपे गए पौधों का होता है। झाड़ी झंखाड़ियों का कौन सा हक? किसने कहा था ‘‘उग‘‘ आओ? हमारा क्या हक़? खैर बात आई गई हो गई। मैं नहीं गई शौकत अली के वहां। माँ ने किसी जमाने में एक मस्जिद की बुनियाद भी रखी थी। एक बड़ी मस्जिद तामीर करवाई थी अपने खर्च पर जो ‘‘बेगम मस्जिद‘‘ के नाम से जानी जाती है। हजारों नमाजी उसमें नमाज अदा करते हैं। मगर एक ये दिन थे कि घर में खाक़ उड़ती थी। माँ एक दिन जिंदगी से हार मान कर आँखेंा से ओझल हो गई अब बची मैं। उसके जनाजे पे रोने वाली तन्हा मैं ही अकेली शख्सियत थी। यहां तक कि उसकी मिट्टी में भी गिनती के लोग ही शामिल हुए। लोगों को एक तवयफ के जनाजे से भी परहेज था। हालांकि जनाजा तो पाक होता है। माँ की जनाजे की नमाज उन्हीं की तामीर की गई मस्जिद में पढ़ाई गई। खैर, मैं हफ्तों घर में बंद रही। महल्ले के छिछोरे घर के चक्कर लगाते रहे। फिकरे कसते रहे। मैं खुद मे ही सिमटी बैठी रही। जानती थी अब लोग जीने नहीं देंगे। एक रोज आधी रात को मैं फिर से अपनी रिहाईशगाह में जा पहुँची।

मेरे हुस्न ओ शबाब को देख काकी निहाल हो गईं। उनका बंद होता धंधा फिर से चल निकला। मुझे ऐसे माहौल से कुढ़न नहीं हुई। अच्छा खाना, अच्छा पहनना, रास रंग। जिंदगी को और कया चााहिए? इसी कोठे पर की बानों पर एक रईस नवाब महशर जान देता था। खूब दे जाता। एक दिन मुझसे मुलाकात हुई तो बानों को भूल गया। अब उसे सिर्फ मेरी तलब खींच लाती। अभी शुरूआत ही थी कि उसने एक फिक़रा कसा-‘‘ नवाब शैकत अली के नुत्फे से हूँ जानेमन..........खानदानी नवाब हूँ, नवाबी न रही तो क्या हुआ?‘‘

मेरा कलेजा हलक को आ गया। उछल कर दूर खड़ी हुई। वह भैंचक्का। उसके बाद मेरे दरवाजे हमेशा के लिए उस पर बंद हो गए। अलबत्ता वह दीवानों की तरह मेरे नाम की आवाज लगाता गली कूंचों मे भटकता रहता। ये दिन और भी तक़लीफ के थे। वह हमें अपने घर की जीनत बनाने की तिकड़म कर रहा था। मैं दिनो रात उसकी डेवढ़ी के सपने देख रही थी। तमन्नाएं ज़ेर-ए-परवाज थीं कि बिजली गिर गई।

मैंने पलंग पकड़ ली। मगर हाँ, कोठे के नौकर आसिफ ने मेरी खूब तीमारदारी की। मैं चंगी होने लगी। इस दरम्यान उसने मुझसे खूब नजदीकियां बना लीं। पल पल मेरे सिर पर शेतान की तरह सवार रहता। वह मुझे अपने ऊबड़ खाबड़ झोंपड़े में ईंर्टों की तरह सजाना चाह रहा था। कैसे कुबूल कर पाती? एक जर्जर सन्नाटेदार घर में बंधा-बिंधा जीवन। मैने उसे एक तरफ किया। वह तो मेरे एक गजरे का खर्च भी न उठा पाता। एक रोज पता चला नवाब महशर फिर से कोठे में दाखिले के लिए हाथ पैर मार रहा है। मेरे कहने पर काकी ने उसका कोठे पर आना बंद करवा दिया था। मगर सुना कि काकी उसे फिर से कोठे पर मदु करने की मंशा बना रही हैं। मैने रात के तीसरे पहर तिजोरी खंगाली और फिर चीख पुकाार करने लगी कि पेट में दर्द हो रहा है और बेड पर लोटने लगी। खाला आसिफ से झुंझला कर बोलीं-‘‘ जा दिखा कर दवा ले आ, इत्ती रात गए कोई डॅा0 तो यहाँ अएगा नहीं।‘‘

मैं ये गई वो गई। बाहर आसिफ को सारा माजरा बताया तो वह मेरे साथ घर छोड़ने को तैयार हो गया। किसी बीहड़ जंगल के किनारे बसे गांव में उसका झोंपड़ा था। घर में सिर्फ अंधा बाप। हमने शादी की। सुकून से रहने लगे। आसिफ ने मेरे लाए पैसों से एक किराने की दुकान खोल ली। जिंदगी एक बार फिर रिदम में आ गई। आसिफ और उसका अंधा बाप बहुत खुश रहता। मगर कहां? मेरे भीतर की तवायफ फिर हिलोरें मारने लगी। शहर के तमाम लकड़हारे इधर लकड़ियां काटने अक्सर आया करते थे। मेरे घर से कुछ दूरी पर एक कुंआं था। वो लोग दोपहर की रोटी वहीं बैठ कर खाते। इत्तेफाकन मैं भी कभी कभार ऐसे ही वक्त वहाँ पहुँच जाती पानी भरने। कभी कभी वो लोग मदद भी कर देते। धीरे धीरे उनसे अच्छी बनने लगी। कि उसमें से बैजू नाम के लकड़हारे ने मेरा मन जीत लिया। पता ही नहीं चला मैं कब उसकी हो गई। वह जितना कमाता सब मुझ पे ही खर्च कर देता। मुझे और क्या चाहिए था। एक दिन पानी भरने के बहाने निकली और आ गई बैजू के साथ उसके शहर। मगर कहाँ ? मेरे गजरे का खर्च ढोते-ढोते एक दिन बैजू भी दीवालिया हो गया। अब उसके झोंपड़े में मेरा दम घुटने लगा। हमारा एक बच्चा भी हुआ। मगर निमूनिया से मर गया। बैजू को टी बी हो गई। मैं भाग खड़ी हुई। एक होटल में बर्तन धोने लगी पर अपने मन का मैल न धुल पाई। सोंचती हूँ, तवायफ की तमन्नाएं भी तवायफ ही होती हैं। होटल में क्या-क्या लोग आते थे। मेरे भीतर की तवायफ फिर अंगड़ाई लेने लगी। मगर कहाँ ? उस वक्त मैं 55 की थी। दोड़ भाग में सब वक्त भी चुक गया। मगर काफिर तमन्नाओं का क्या कहूँ ?

खैर, एक रोज जज्बात की आंधी मुझे उसी ड्योढ़ी़ पे खींच ले गई जहाँ मेरी पैदाईश हुई थी। क्या देखती हूँ कि वो जगह भीड़ से अटी पड़ी है। क्या नवजवान, क्या बच्चे, क्या औरतें। पूछने पर पता चला कि वहाँ कोई स्कूल कायम हो गया है। चैकीदारों के मना करने के बावजूद मैं भीतर घुस गई और सरपट कदमों से कई हाॅल और कमरे झांक आई। पर नहीं। कोई निशां नहीं। मेरा जी चाहा सब एक झोंके से लौट आए। मेरे कमरे में महशर फिर से मेरे कदमों में आ बैठे। काकी फिर से उसी हाॅल में बैठ अपना पानदान संभाल ले। मुजरे वाले हाॅल में फिर से अब्बू मिंयां की थाप पर बानों झूम के नाचे और घुधरूओं की छनक से सारा समां गूंज जाए। अभी नारंगी खाबों से एक मेक हो ही रही थी कि एक दरबान आया और मुझे खींचता हुआ बाहर डाल आया। धक्का सा लगा। मैं आँखों में आंसू लिए उस खण्डहर की तरफ बढ़ गई जहाँ कभी हमारी फुलवारी हुआ करती थी और में तितलियां पकड़ती थी। दीवार की ईंर्टों से मिट्टी झर-झर के नीचे ढेर थी। दीवार किसी खाज खाए कुत्ते की तरह दिख रही थी। मेने धीरे से, बड़े प्यार से उस पर हाथ फेरा तो एक परत और भरभरा आई। जैसे किसी की दुःखती रग पे उंगली रखो तो वो बिलख पड़े। मैने मिट्टी को आँखों से लगाया और वहीं बैठ गई। अपनी जमीन की मिट्टी भी कितनी अजीम और पाकीजा लगती है। कोई तरफ की दीवार साबुत थी। बिल्कुल चिकनी फर्श। मैने ढेला उठाया, थोड़ी आगे खिसक आई फिर यूंही एक फौरी वसीयत लिखने बैठ गई।-

1-मेरी मौत के बाद मुझे यहीं दफनाया जाय।

2-मेरी कब्र के सिरहाने गुलाब की वेड़ियाँ जरूर रखी जाएं।

3-मेरी कब्र पर बेले के फूलों की घनी बाड़ लगा दी जाए।

4-साल में एक बार मेरी कब्र पर मुजरा जरूर करवाया जाए।

5-मेरी जो भी जर-जायदाद हो वो किसी कोठे को इम्दाद कर दी जाए।

बकौल अमीरनबाई

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