Bhadukada - 19 in Hindi Fiction Stories by vandana A dubey books and stories PDF | भदूकड़ा - 19

Featured Books
  • నిరుపమ - 10

    నిరుపమ (కొన్నిరహస్యాలు ఎప్పటికీ రహస్యాలుగానే ఉండిపోతే మంచిది...

  • మనసిచ్చి చూడు - 9

                         మనసిచ్చి చూడు - 09 సమీరా ఉలిక్కిపడి చూస...

  • అరె ఏమైందీ? - 23

    అరె ఏమైందీ? హాట్ హాట్ రొమాంటిక్ థ్రిల్లర్ కొట్ర శివ రామ కృష్...

  • నిరుపమ - 9

    నిరుపమ (కొన్నిరహస్యాలు ఎప్పటికీ రహస్యాలుగానే ఉండిపోతే మంచిది...

  • మనసిచ్చి చూడు - 8

                     మనసిచ్చి చూడు - 08మీరు టెన్షన్ పడాల్సిన అవస...

Categories
Share

भदूकड़ा - 19

सुमित्रा की नौकरी ने ये तय कर दिया था, कि उसे अब स्थाई रूप से गांव नहीं जाना है. जायेगी, लेकिन मेहमानों की तरह. त्यौहारों पर, या गरमी की छुट्टियों में.
’दादी...... आज न तो आप ठीक से खेल रहीं, न मुझे कोई कहानी ही सुना रहीं. आपका मन नहीं लग रहा क्या? ड्रॉइंग करेंगी मेरे साथ?’ चन्ना फिर सुमित्रा जी को झिंझोड़ रहा था.

’अरेरे...... चन्ना, मेरे सिर में दर्द हो रहा हल्का-हल्का इसलिये मन नहीं लग रहा खेलने में. तुम बनाओ न ड्रॉइंग, मैं चैक कर लूंगी बाद में. ठीक है न?’ सुमित्रा जी ने बहाना बनाया. आज वे अतीत से बाहर नहीं निकलना चाहती थीं जैसे....!

’सिर दर्द है? ओहो.... आप ने बताया क्यों नहीं? मैं आपके सिर में चम्पी कर दूंगा न बढ़िया से फिर देखियेगा, दर्द कैसे ग़ायब होता है.’ चन्ना सचमुच ही चिंतित हो गया. दौड़ के गया और तेल उठा लाया. छोटे-छोटे हाथ सिर में चम्पी कर रहे थे और सुमित्रा जी वापस गांव की गलियों में पहुंच गयी थीं....!
सुमित्रा की नौकरी लगने के अगले साल ही कुन्ती का बीटीसी हो गया और वहीं गांव के प्राथमिक विद्यालय में नियुक्ति भी हो गयी. तिवारी खानदान की अब दो-दो बहुएं नौकरी कर रही थीं, उस वक़्त, जबकि महिलाओं की शिक्षा ही महत्वपूर्ण नहीं समझी जाती थी. सुमित्रा वहां जितनी लगन और मेहनत से नौकरी कर रही थी, वहीं कुन्ती की नौकरी मज़े की थी. एक तो अपना ही गांव, उस पर तिवारी ख़ानदान की बहू. सो नौकरी भी बस मौज-मौज में हो रही थी. ये अलग बात है कि बड़के दादाजी के रहते कुन्ती कभी स्कूल जाने में हीला-हवाली नहीं कर पाई. उसकी तमाम लापरवाहियां दादा जी के ट्रांसफ़र के बाद ही शुरु हुईं. समय बीतता गया.... बच्चे बड़े होते गये, लेकिन कुन्ती की हरक़तों पर कोई असर न पड़ा. छुट्टियों में जब भी सुमित्रा जी गांव आतीं, कुन्ती का कोई न कोई नाटक ज़रूर होता.

पता नहीं कुन्ती की हरक़तों के तनाव से या खुद के प्रति लापरवाही से एक दिन बड़के दादा जी ऐसे सोये, कि फिर उठे ही नहीं....! पूरा तिवारी परिवार सकते में आ गया. इतना बड़ा सदमा कुछ इस तरह मिला, कि कोई भी इस घटना को स्वीकार करने की मन:स्थिति में ही नहीं था. जब कुन्ती ने हल्ला मचाया कि बड़के दादाजी बोल नहीं रहे, तो बहुत देर तक तो सबने यही समझा कि कुन्ती की कोई नयी नौटंकी होगी ये. लेकिन जब कुन्ती लगातार सबसे यही कहती रही तो सब इकट्ठे हुए.
तुरन्त बड़के दादा को गाड़ी में डाल के झांसी ले जाया गया. ज़िला अस्पताल में भरती करते ही डॉक्टर्स अपनी ड्यूटी पर तैनात हो गये. आनन-फानन उन्हें गहन चिकित्सा कक्ष में भर्ती किया गया. कमरे के अन्दर डॉक्टर्स और बाहर रिश्तेदारों/गांववालों की भीड़ ने अजब जमावड़े की स्थिति पैदा कर दी मरीज़ के साथ शायद पहली बार इतने लोग भागे चले आये थे अस्पताल. पूरा अस्पताल ऐसे भर गया जैसे शहर किसी महामारी का शिकार हो गया हो, और लोग भर्ती होने आ गये हों. सैकड़ों लोग, और कोई वापस जाने को तैयार नहीं।
( क्रमशः)