The Author राजीव तनेजा Follow Current Read काम हो गया है..मार दो हथौड़ा By राजीव तनेजा Hindi Comedy stories Share Facebook Twitter Whatsapp Featured Books પ્રેમ થાય કે કરાય? ભાગ - 21 સગાઈ"મમ્મી હું મારા મિત્રો સાથે મોલમાં જાવ છું. તારે કંઈ લાવ... ખજાનો - 85 પોતાના ભાણેજ ઇબતિહાજના ખભે હાથ મૂકી તેને પ્રકૃતિ અને માનવ વચ... ભાગવત રહસ્ય - 118 ભાગવત રહસ્ય-૧૧૮ શિવજી સમાધિમાંથી જાગ્યા-પૂછે છે-દેવી,આજે બ... ગામડા નો શિયાળો કેમ છો મિત્રો મજા માં ને , હું લય ને આવી છું નવી વાર્તા કે ગ... પ્રેમતૃષ્ણા - ભાગ 9 અહી અરવિંદ ભાઈ અને પ્રિન્સિપાલ સર પોતાની વાતો કરી રહ્યા .અવન... 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"जी!...दरअसल ..वाराणसी से लौटते समय श्री लौटाचन्द जी ने मुझे आपका ये नम्बर दिया था"… "अच्छा!...अच्छा...फोन करने का कोई खास मकसद?”… "जी!...मुझे पता चला था कि इस बार दिल्ली में शिविर का आयोजन होना है"... "जी!…आपने बिलकुल सही सुना है"... "तो मैं चाहता था कि इस बार का... "देखिए!...आजकल हमारे फोनों के टेप-टाप होने का खतरा बना रहता है इसलिए अभी ज़्यादा बात करना उचित नहीं"... "जी!… “ऐसा करते हैं...मैं दो दिन बाद मैं दिल्ली आ रहा हूँ...आप अपना पता और फोन नम्बर मुझे मेल कर दें... आपके घर पे ही आ जाता हूँ और फिर आराम से बैठ के सारी बातें...सारे मैटर डिस्कस कर लेंगे विस्तार से"... "जी!…जैसा आप उचित समझें"... “आप मेरी ई-मेल आई.डी नोट कर लें”.... "जी!...बताएँ"... आई.डी है व्यवस्थानन्द@नकदनरायण.कॉम "ठीक है!...मैं अभी मेल करता हूँ"... "ओ.के...आपका दिन मँगलमय हो" "आपका भी" (दो दिन बाद) ट्रिंग...ट्रिंग...ट्रिंग.... “हैलो ...राजीव जी?”... "जी!...बोल रहा हूँ"... "मैं सैटिंगानन्द!.....बाहर खड़ा कब से कॉलबैल बजा रहा हूँ...लेकिन कोई दरवाज़ा ही नहीं खोल रहा है".. "ओह!...अच्छा....एक मिनट…मैं अभी आता हूँ"… “जी!.. (दरवाज़ा खोलने के पश्चात) “नमस्कार जी"… “नमस्कार…नमस्कार…कहिए!…कैसे हैं आप?”.. “बहुत बढ़िया…आप सुनाएं"… “मैं भी ठीकठाक…सब कुशल-मंगल"… “आईए..यहाँ...यहाँ सोफे पे विराजिए".. “जी!… "वो दरअसल…क्या है कि आजकल हमारी कॉलबैल खराब है और ये पड़ोसियों के बच्चे भी पूरी आफत हैं आफत...एक से एक नौटंकीबाज ...एक से एक ड्रामेबाज…मन तो करता है कि एक-एक को पकड़ के दूँ कान केनीचे खींच के एक"…. "छोडिये!…तनेजा जी…बच्चे हैं...बच्चों का काम है शरारत करना"... "अरे!…नहीं….आप नहीं जानते इनको…आप तो पहली बार आए हैं…इसलिए ऐसा कह रहे हैं वर्ना ये बच्चे तो ऐसे हैं कि बड़े-बड़ों के कान कतर डालें…वक्त-बेवक्त तंग करना तो कोई इनसे सीखे...ना दिन देखते हैं ना रात....फट्ट से घंटी बजाते हैं और झट से फुर्र हो जाते हैं" "ओह!… “इसीलिए…इस बार जो घंटी खराब हुई तो ठीक करवाना उचित नहीं समझा"... "बिलकुल सही किया आपने”... “आजकल तो वैसे भी बच्चे-बच्चे के पास मोबाईल है...जो आएगा...अपने आप कॉल कर लेगा"... "जी!… "सफर में कोई दिक्कत..कोई परेशानी तो नहीं हुई?"... "नहीं!...ऐसी कोई खास दिक्कत या परेशानी तो नहीं लेकिन बस…थकावट वगैरा तो हो ही जाती है लम्बे सफर में”... “जी!… “बदन कुछ-कुछ टूट-टूट सा रहा है" सैटिंगानन्द जी अंगड़ाई लेते हुए बोले... "ओह!…आप कहें तो थोड़ी मालिश-वालिश… “नहीं-नहीं…रहने दें…आपको कष्ट होगा".. “अजी!…काहे का कष्ट?…घर आए मेहमान की सेवा करना तो मेरा परम धर्म है"… “अरे!…नहीं…रहने दें…घंटे-दो घंटे सुस्ता लूँगा तो ऐसे ही आराम आ जाएगा"… “जी!… जैसा आप उचित समझें"… “आपसे मिलने को मन बहुत उतावला था...इसलिए इधर स्टेशन पे गाड़ी रुकी और उधर मैंने ऑटो पकड़ा और सीधा आपके यहाँ पहुँच गया".... "अच्छा किया"... "पहले तो सोचा कि किसी होटल-वोटल में कोई आराम दायक कमरा ले के घंटे दो घंटे आराम कर…कमर सीधी कर लेता हूँ …उसके बाद आपसे मिलने चला आऊँगा लेकिन यू नो!...टाईम वेस्ट इज़ मनी वेस्ट"… "जी!…. “और ऊपर से टू बी फ्रैंक..मुझे पराए देस में ये…होटल वगैरा का पानी रास नहीं आता है औरधर्मशाला या सराय में रहने से तो अच्छा है कि बन्दा प्लैटफार्म पर ही लेट-लाट के अपनी कमर का कबाड़ा कर ले”… “जी!…ये तो है"… “दरअसल!..इन सस्ते होटलों के भिचभिचे माहौल से बड़ी कोफ्त होती है मुझे...एक तो पैसे के पैसे खर्चो करो...ऊपर से दूसरों के इस्तेमालशुदा बिस्तर पे...छी!...पता नहीं कैसे-कैसे लोग वहाँ आ के ठहरते होंगे और ना जाने क्या-क्या पुट्ठे-सीधे काम करते होंगे"... "स्वामी जी!...ज़माना बदल गया है...ट्रैंड बदल गए हैं…जीने के सारे मायने....सारे कायदे…सारे रंग-ढंग बदल गए हैं….देश प्रगति की राह पर बाकी सभी उन्नत देशों के साथ कदम से कदम...कँधे से कँधा मिला के चल रहा है और अब तो वैसे भी ग्लोबलाईज़ेशन का ज़माना है...इसलिए..बाहरले देशों का असर तो आएगा ही"... "आग लगे ऐसे ग्लोबलाईज़ेशन को...ऐसी उन्नति को...ऐसी प्रगति को”… “जी!…लेकिन… “ऐसी तरक्की को क्या पकड़ के चाटना है जो खुद को खुद की ही नज़रों में गिरा दे…झुका दे?”.. “जी!… "ऐसी भी क्या आगे बढने की...ऊँचा उठने की अँधी हवस....जो देश को...देश के आवाम को गर्त में ले जाए...पतन की राह पे ले जाए?" "जी!… “खैर!..छोड़ो इस सब को...जिनका काम है...वही गौर करेंगे इस सब पर…अपना क्या है?..हम तो ठहरे मलंग…मस्तमौले फकीर...जहाँ किस्मत ने धक्का देना है...वहीं झुल्ली-बिस्तरा उठा के चल देना है"... "जी!… “बस!..यही सब सोच के कि…किसी होटल में जा…धूनी रमाना अपने बस का नहीं…मैं सीधा आपके यहाँ चला आया कि दो-चार...दस दिन जितना भी मन करेगा....राजीव जी के साथ उन्हीं के घर पे…उन्हीं के बिस्तर में..उन्हीं के साथ बिता लूँगा…आखिर!..हमारे लौटाचन्द जी के परम मित्र जो ठहरे" "हे हे हे हे....कोई बात नहीं जी...ये भी आप ही का घर है...आप ही का बिस्तर है…जब तक जी में आए ..जहाँ चाहें…अलख जगा..धूनी रमाएँ"... "ठीक है!...फिर कब करवा रहे हो कागज़ात मेरे नाम?.. "कागज़ात?"... "अभी आप ही तो ने कहा ना"... "क्या?"... "यही कि ..ये भी आप ही का घर है".. "हे हे हे हे….स्वामी जी!...आपके सैंस ऑफ ह्यूमर का भी कोई जवाब नहीं…भला ऐसा भी कहीं होता है कि…. “आमतौर पर तो नहीं लेकिन हाँ…किस्मत अगर ज़्यादा ही मेहरबान हो तो…हो भी सकता है…हें…हें…हें…हें".. 'हा…हा…हा… वैरी फन्नी”… “जी!… “खैर!...ये सब बातें तो चलती ही रहेंगी...पहले आप नहा-धो के फ्रैश हो लें...तब तक मैं चाय-वाय का प्रबन्ध करवाता हूँ"... "नहीं वत्स!...चाय की इच्छा नहीं है...आप बेकार की तकलीफ रहने दें"... "महराज!...इसमें तकलीफ कैसी?".. "दरअसल!...क्या है कि मैं चाय पीता ही नहीं हूँ"... "सच्ची?”… “जी!… “वैरी स्ट्रेंज….जैसी आपकी मर्ज़ी…लेकिन अपनी कहूँ तो...सुबह आँख तब खुलती है जब चाय की प्याली बिस्कुट या रस्क के साथ सामने मेज़ पे सज चुकी होती है और फिर काम ही कुछ ऐसा है कि दिन भर किसी ना किसी का आया-गया लगा ही रहता है...इसलिए पूरे दिन में यही कोई आठ से दस कप चाय तो आराम से हो ही जाती है"... "आठ-दस कप?"... "जी!… “वत्स!...सेहत के साथ यूँ…ऐसे खिलवाड़ अच्छा नहीं"... "जी!… “जानते नहीं कि सेहत अच्छी हो..तो सब अच्छा लगता है...वक्त-बेवक्त किसी और ने नहीं बल्कि तुम्हारे शरीर ने ही तुम्हारा साथ देना है"... “जी!… “इसलिए...इसे संभाल कर रखो और स्वस्थ रहो"… “जी!… “अब मुझे ही देखो…चाय पीना तो दूर की बात है ...मैंने आजतक कभी इसकी खाली प्याली को भी सूँघ के नहीं देखा है कि इसकी रंगत कैसी होती है?..इसकी खुशबु कैसी होती है?”... "ठीक है…स्वामी जी…आप कहते हैं तो मैं कोशिश करूँगा कि इस सब से दूर रहूँ"… "कोशिश नहीं...वचन दो मुझे".. “जी!… "कसम है तुम्हें..तुम्हारे आने वाले कल की....खेतों में चलते हल की...जो आज के बाद तुमने कभी चाय को छुआ भी तो"... "जी!…स्वामी जी!....आपके कहे का मान तो रखना ही पड़ेगा"... "तो फिर मैं आपके लिए दूध मँगवाता हूँ?...ठण्डा या गर्म?...कैसा लेना पसन्द करेंगे आप?"... "दूध?"... "जी!… “वो तो मैं दिन में सिर्फ एक बार ही लेता हूँ…सुबह चार बजे की पूजा के बाद...दो चम्मच शुद्ध देसी घी या फिर...शहद के साथ”… "ओह!…तो फिर अभी आपके लिए नींबू-पानी या फिर खस का शरबत लेता आऊँ?”मैं उठने का उपक्रम करता हुआ बोला…. “नहीं!…रहने दीजिए…ये सब कष्ट तो आप बस..रहने ही दीजिए”… “अरे!..कष्ट कैसा?…आप मेरे मेहमान हैं और मेहमान की सेवा करना तो… “अच्छा!…नहीं मानते हो तो मेरा एक काम ही कर दो"… "जी!…ज़रूर….हुक्म करें"… "वहाँ!....उधर मेरा कमंडल रखा है...आप उसे ही ला के मुझे दे दें"... "अभी…इस वक्त आप क्या करेंगे उसका?".. "दरअसल!..क्याहै कि उसमें एक 'अरिस्टोक्रैट' का अद्धा रखा है"... "अद्धा?”… “हाँ!…अद्धा…दरअसल हुआ क्या आते वक्त ट्रेन में ऐसे ही किसी श्रधालु का हाथ देख रहा था तो उसी ने...ऐज़ ए गिफ्ट प्रैज़ैंट कर दिया"... "ओह!... "अब किसी के श्रद्धा से दिए गए उपहार को मैं कैसे लौटा देता?”… “जी!… “आप उसे ही मुझे पकड़ा दें और हो सके तो कुछ नमकीन और स्नैक्स वगैरा भी भिजवा दें"... "जी!….ज़रूर"… “जब तक मैं इसे गटकता हूँ तब तक आप खाने का आर्डर भी कर दें…बड़ी भूख लगी है"सैटिंगानन्द महराज पेट पे हाथ फेरते हुए बोले... "सोडा भी लेता आऊँ?"मेरे स्वर में व्यंग्य था... "नहीं!...यू नो...सोडे से मुझे गैस बनती है...और बार-बार गैस छोड़ना बड़ा अजीब सा लगता है...ऑकवर्ड सा लगता है".. "जी!.. "पता नहीं इन कोला कम्पनियाँ को इस अच्छे भले...साफ-सुथरे पानी में गैस मिला के मिलता क्या है कि वो इसमें मिलावट कर इसे गन्दा कर देती हैं...अपवित्र कर देती हैं?" "जी!… "आप एक काम करें...उधर मेरे झोले में शुद्ध गंगाजल पड़ा है…हाँ-हाँ…उसी 'बैगपाईपर' की बोतल में…आप उसे ही दे दें...काम चल जाएगा"वो अपने झोले की तरफ इशारा करते हुए बोले... "जी!…आपने बताया नहीं कि आपका सफर कैसे कटा?"... "सफर की तो आप पूछें ही मत...एक तो दुनिया भर का भीड़ भड़क्का..ऊपर से लम्बा सफर"… “जी!… “धकम्मपेल में हुई थकावट के कारण सारा बदन चूर-चूर हो रहा था और ऊपर से भूख के मारे बुरा हाल"… “ओह!… “घर से मैं कुछ ले के नहीं चला था और स्टेशनों के खाने का तो तुम्हें पता ही है कि …कैसा होता है?"… “जी!…तो फिर स्टेशन से उतर के किसी अच्छे से….साफ़-सुथरे रेस्टोरेंट में… “मैंने भी यही सोचा था कि जा के किसी अच्छे से रैस्टोरैंट में शाही पनीर के साथ 'चूर-चूर नॉन' का लुत्फ़ लिया जाए .. "यू नो!...शाही पनीर के साथ चूर-चूर नॉन का तो मज़ा ही कुछ और है?" "जी!...ये तो मेरे भी फेवरेट हैं"... "गुड!…फिर मैंने सोचा कि बेकार में सौ दो सौ फूँक के क्या फायदा?...लंच टाईम भी होने ही वाला है और...राजीव जी भी तो भोजन करेंगे ही"... "जी!… “सो!...क्यों ना उन्हीं के घर का प्रसाद चख पेट-पूजा कर ली जाए?…उन्होंने मेरे लिए भी तो बनवाया ही होगा" "हे हे हे हे....क्यों नहीं..क्यों नहीं?…बिलकुल सही किया आपने"... "जी!… “अब काम की बात करें?"मैं मुद्दे पे आता हुआ बोला... "नहीं!...जब तक मैं ये अद्धा गटकता हूँ...तब तक आप खाना लगवा दें क्योंके..पहले पेट पूजा...बाद में काम दूजा"... "जी!...जैसा आप उचित समझें"... "भय्यी!...और कोई चाहे कुछ भी कहता रहे लेकिन अपने तो पेट में तो जब तक दो जून अन्न का नहीं पहुँच जाता...तब तक कुछ करने का मन ही नहीं करता"... "जी!… “वो कहते हैं ना कि भूखे पेट तो भजन भी ना सुहाए" (खाना खाने के बाद) "मज़ा आ गया...अति स्वादिष्ट....अति स्वादिष्ट"सैटिंगानन्द जी पेट पे हाथ फेर लम्बी सी डकार मारते हुए बोले "हाँ!..अब बताएँ कि आप उन्हें कैसे जानते हैं?" "किन्हें?"... "अरे!...अपने लौटाचन्द जी को और किन्हे?"... "ओह!...अच्छा...दरअसल..वो हमारे और हम उनके लंग़ोटिया यार हैं...अभी कुछ हफ्ते पहले ही मुलाकात हुई थी उनसे"… "अभी आप कह रहे थे कि वो आपके लँगोटिया यार हैं?"... "जी!.. "फिर आप कहने लगे कि अभी कुछ ही हफ्ते पहले मुलाकात हुई?”… "जी!… "बात कुछ जमी नहीं"… “क्या मतलब?”.. “लँगोटिया यार तो उसे कहा जाता है जिसके साथ बचपन की यारी हो...दोस्ती हो"... "ओह!...आई.एम सॉरी…वैरी सॉरी…मैं आपको बताना तो भूल ही गया था कि लंगोटिया यार से मेरा ये तात्पर्य नहीं था" "तो फिर क्या मतलब था आपका?"... "जी!..एक्चुअली….दरअसल बात ये है कि वो मुझे पहली बार हरिद्वार में गंगा मैय्या के तट पे नंगे नहाते हुए मिले थे" "नंगे?"... “जी!… “लेकिन क्यों?”… “क्यों का क्या मतलब?…हॉबी थी उनकी"… “नंगे नहाना?”.. “नहीं!… जब भी वो हरिद्वार जाते थे तो नित्यक्रम बन जाता था उनका".. “क्या?”.. “किसी ना किसी घाट पे हर रोज नहाना"… “तो?”… “उस दिन ‘हर की पौढी' का नंबर था"… “तो?”… “वहाँ पर चल रहे मंत्रोचार में ऐसे खोए कि उन्हें ध्यान ही नहीं रहा कि…आज पानी का बहाव कुछ ज़्यादा तेज है”… “तो?”.. “तो क्या?…उसी तेज़ बहाव के चलते उनकी लंगोटी जो बह गई थी गंगा नदी में…तो नंगे ही नहाएंगे ना?"... "ओह!...लेकिन क्या घर से एक ही लंगोटी ले के निकले थे?" "यही सब डाउट तो मुझे भी हुआ था और मैंने इस बाबत पूछा भी था लेकिन वो कुछ बताने को राज़ी ही नहीं थे"... "ओह!… “मैंने उन्हें अपनी ताज़ी-ताज़ी हुई दोस्ती का वास्ता भी दिया लेकिन वो नहीं माने"... "ओह!… “आखिर में जब मैंने उनका ढीठपना देख…तंग आ…उनसे वहीँ के वहीँ अपना लँगोट वापिस लेने की धमकी दी तो थोड़ी नानुकर के बाद सब बताने को राज़ी हुए".. "अच्छा...फिर?" "उन्होंने बताया कि घर से तो वो तीन ठौ लंगोटी ले के चले थे"... “ओ.के"… "एक खुद पहने थे और दो सूटकेस में नौकर के हाथों पैक करवा दी थी"... "फिर तो उनके पास एक पहनी हुई और दो पैक की हुई…याने के कुल जमा तीन लँगोटियाँ होनी चाहिए थी?"... "जी!..लेकिन...उनमें से एक को तो उनके साले साहब बिना पूछे ही उठा के चलते बने"... “ओह!… "बाद में जब फोन आया तो पता चला कि जनाब तो 'मँसूरी' पहुँच गए हैं'कैम्पटी फॉल' में नहाने के लिए"... "हाँ!...फिर तो लँगोटी ले जा के उसने ठीक ही किया क्योंकि सख्ती के चलते मँसूरी का प्रशासन वहाँ नंगे नहाने की अनुमति बिलकुल नहीं देता है".. "जी!…लेकिन मेरे ख्याल से तो लौटाचन्द जी को साफ-साफ कह देना चाहिए था अपने साले साहब को कि वो अपनी लँगोटी खुद खरीदें"... “जी!.. "लेकिन किस मुँह से मना करते लौटाचन्द जी उसे?...वो खुद कई बार उसी की लँगोटी माँग के ले जा चुके थे...कभी गोवा भ्रमण के नाम पर तो कभी काँवड़ यात्रा के नाम पर और ऊपर से ये जीजा-साले का रिश्ता ही ऐसा है कि कोई कोई इनकार करे तो कैसे?"... "ओह!… “वो कहते हैं ना कि…सारी खुदाई एक तरफ और...जोरू का भाई एक तरफ"... "जी!… "इसलिएमना नहीं कर पाए उसे…आखिर…लाडली जोरू का इकलौता भाई जो ठहरा"... "लेकिन हिसाब से देखा जाए तो एक लँगोटी तो फिर भी बची रहनी चाहिए थी उनके पास"... "बची रहनी चाहिए थी?...वो कैसे?".. "अरे!..हाँ..याद आया....आप तो जानते ही हैं अपने लौटाचन्द जी की..पी के कहीं भी इधर-उधर लुडक जाने की आदत को"... "जी!.. "बस!...सोचा कि हरिद्वार तो ड्राई सिटी है...वहाँ तो कुछ मिलेगा नहीं...सो..दिल्ली से ही इंग्लिश-देसी …सबका पूरा इंतज़ाम कर के चले थे कि सफर में कोई दिक्कत ना हो"... "ठीक किया उन्होंने...रास्ते में अगर मिल भी जाती तो बहुत मँहगी पड़ती"... "जी!… “फिर क्या हुआ?”… “होना क्या था?…खुली छूट मिली तो बस…पीते गए....पीते गए"... "ओह!… “नतीजन!...ऐसी चढी कि हरिद्वार पहुँचने के बाद भी ...लाख उतारे ना उतरी"... "ओह"... "रात भर पता नहीं कहाँ लुड़कते-पुड़कते रहे"... “ओह!… "अगले दिन म्यूनिसिपल वालों को गंदी नाली में बेहोश पड़े मिले..पूरा बदन कीचड़ से सना हुआ...बदबू के मारे बुरा हाल"... "ओह!... "बदन से धोती…लँगोट सब गायब"... "ओह!…कोई चोर-चार ले गया होगा"... "अजी कहाँ?...हरिद्वार के चोर इतने गए गुज़रे भी नहीं कि किसी की इज़्ज़त...किसी की आबरू के साथ यूँ खिलवाड़ करते फिरें"... "तो फिर?"... "मेरे ख्याल से शायद...नाली में रहने वाले मुस्तैद चूहे रात भर डिनर के रूप में इन्हीं के कपड़े चबा गए होंगे" "ओह!… “बस!…तभी से हमारी उनकी घनिष्ठ मित्रता हो गई"... "ओ.के”… "वैसे...एक राज़ की बात बताऊँ?…उनसे कहिएगा नहीं...परम मित्र हैं मेरे...बुरा मान जाएँगे"... "जी!..बिलकुल नहीं…आप चिंता ना करें…बेशक सारी दुनिया कल की इधर होती आज इधर हो जाए लेकिन मेरी तरफ से इस बाबत आपको कोई शिकायत नहीं मिलेगी"... “थैंक्स!… "आप बेफिक्र हो के कोई भी राज़ की बात मुझ से कह सकते हैं"... "लेकिन..कहीं उनको पता चल गया तो?"... "यूँ समझिए कि जहाँ कोई कॉंफीडैंशल बात इन कानों में पड़ी...वहीं इन कानों को समझो सरकारी 'सील' लग गई" "गुड".. “और ये लीजिए….लगे हाथ..ये बड़ा..मोटा सा...किंग साईज़ का ताला भी लग गया मेरी इस कलमुँही ज़ुबान पे"सैटिंगानन्द घप्प से अपना मुंह हथेली द्वारा बन्द करते हुए बोले “गुड!…वैरी गुड"… "जहाँ बारह-बारह सी.बी.आई वाले भी लाख कोशिश के बावजूद कुछ उगलवा नहीं पाए...वहाँ ये लौटानन्द चीज़ ही क्या है?"... "सी.बी.आई. वाले?"... "हाँ!… ‘सी.बी.आई’ वाले…पागल हैं स्साले…सब के सब"… ?…?…?…?…? “उल्लू के चरखे...स्साले!..थर्ड डिग्री अपना के बाबा जी के बारे अंट-संट निकलवाना चाहते थे मेरी ज़ुबान से लेकिन मजाल है जो मैंने उफ तक की हो या एक शब्द भी मुँह से निकाला हो"... "ओह!.. “ये सब तो खैर..आए साल चलता रहता है...कभी इनकम टैक्स और सेल्स टैक्स वालों के छापे...तो कभी पुलिस और 'सी.बी.आई' की रेड"... “ओह!.. "इनकम टैक्स और सेल्स टैक्स वालों का मामला तो अखबार और मीडिया में भी खूब उछला था कि इनकी फर्म हर साल लाखों करोड़ रुपयों की आयुर्वेदिक दवायियाँ बेचती है और एक्सपोर्ट भी करती है लेकिन उसके मुकाबले टैक्स आधा भी नहीं भरा जाता"... "आधा?... “अरे!...हमारा बस चले तो आधा क्या हम अधूरा भी ना भरें"... "लेकिन स्वामी जी!...टैक्स तो भरना ही चाहिए आपको...देश के लिए...देश के लोगों के भले के लिए"... "पहले अपना...फिर अपनों का भला कर लें..बाद में देश की..देश के लोगों की सोचेंगे"... "जी!…एक आरोप और भी तो लगा था ना आप पर?"... "कौन सा?"... "यही कि आपकी दवाईयों में जानवरो की... "ओह!...अच्छा...वो वाला...उसमें तो लाल झण्डे वालों की एक ताज़ी-ताज़ी बनी अभिनेत्री...ऊप्स!...सॉरी...नेत्री ने इलज़ाम लगाया था कि हम अपनी दवाईयों में जानवरों की हड्डियाँ मिलाते हैं....गो मूत्र मिलाते हैं".. “जी!… "उस उल्लू की चरखी को जा के कोई ये बताए तो सही कि बिना हड्डियाँ मिलाए आयुर्वेदिक या यूनानी दवाईयों का निर्माण नहीं हो सकता"... "जी!… “और रही गोमूत्र की बात...तो उस जैसी लाभदायक चीज़...उस जैसा एंटीसैप्टिक तो पूरी दुनिया में और कोई है ही नहीं"... "जी!..उस नेत्री को तो मैंने भी कई बार देखा था टीवी....रेडियो वगैरा में बड़बड़ाते हुए"... “अरे!..औरतज़ात थी इसलिए बाबा जी ने मेहर की और बक्श दिया वर्ना हमारे सेवादार तो उनके एक हलके से...महीन से इशारे भर का इंतज़ार कर रहे थे"... “हम्म!… “पता भी नहीं चलना था कि कब उस अभिनेत्री...ऊप्स सॉरी नेत्री की हड्डियों का सुरमा बना...और कब वो सुरमा मिक्सर में पिसती दवाईयों के संग घोटे में घुट गया"... "ये सब तो खैर आपके समझाने से समझ आ गया लेकिन ये पुलिस वाले बाबा जी के पीछे क्यों पड़े हुए थे?".... "वैसे तो हर महीने...बिना कहे ही पुलिस वालों को और टैक्स वालों को उनकी मंथली पहुँच जाती है लेकिन इस बार मामला कुछ ज़्यादा ही पेचीदा हो गया था एक पागल से आदमी ने पुलिस में झूठी शिकायत कर दी कि… “बाबा जी ने उसकी बीवी और जवान बेटी को बहला-फुसला के अपनी सेवादारी में....अपनी तिमारदारी में लगा लिया है"... "ओह!… “अरे!..उसकी बीवी या फिर उसकी बेटी दूध पीती बच्ची है जो बहला लिया...फुसला लिया?" "जी!….. "अब अपनी मर्ज़ी से कोई बाबा जी की शरण में आना चाहे तो क्या बाबा जी उसे दुत्कार दें?... भगा दें?"... "हम्म!… “उसी पागल की देखादेखी एक-दो और ने भी सीधे-सीधे बाबा जी पे अपनी बहन...अपनी बहू को अगवा करने का आरोप जड़ दिया" "ओह!…फिर क्या हुआ?”... "होना क्या था?…कोई और आम इनसान होता तो गुस्से से बौखला उठता...बदला लेने की नीयत से सोचता लेकिन अपने बाबा जी महान हैं...अपने बाबा जी देवता हैं"... "जी!.. "चुपचाप मौन धारण कर बिना किसी को बताए समाधि में लीन हो गए".... "ओह"... "बाद में मामला ठण्डा होने पर ही समाधि से बाहर निकले"... “हम्म!… "सहनशक्ति देखो बाबा जी की....विनम्रता देखो बाबा जी की…इतना ज़लील..इतना अपमानित...इतना बेइज़्ज़त होने के बावजूद भी उन्होंने किसी से कुछ नहीं कहा"... "बस!...सबसे शांति बनाए रखने की अपील करते रहे"... "जी!... "और जब बचाव का कोई रास्ता नहीं दिखा तो अपने वकीलों..अपने शुभचिंतकों से सलाह मशवरा करने के बाद कोई चारा ना देख...पुलिस वालों से सैटिंग कर ली और उन्होंने जो जो माँगा...चुपचाप बिना किसी ना नुकुर के तुरंत दे दिया".. "बिलकुल ठीक किया...कौन कुत्तों को मुँह लगाता फिरे?".. "बदले में पुलिस वालों ने शहर में अमन और शांति बनाए रखने की गर्ज़ से दोनों पक्षों में समझौता करा दिया"... "ओह!… “जब शिकायतकर्ताओं ने आपसी रज़ामंदी और म्यूचुअल अण्डरस्टैडिंग के चलते अपनी सभी शिकायतें वापिस ले ली तो बाबा जी के आश्रम ने भी उन पर थोपे गए सभी केस..सभी मुकदमे बिना किसी शर्त वापिस ले लिए".. “जी!… "आप शायद कोई राज़ की बात बताने वाले थे?"... "राज़ की बात?"... "जी!… “हाँ!...याद आया...मैं तो बस इतना ही कहना चाहता था कि उन्होंने याने के लौटाचन्द जी ने अभी तक मेरी लंगोटी वापिस नहीं की है"... "हा...हा...हा...वैरी फन्नी...आप तो बहुत हँसाते हो यार"... "थैंक्स फॉर दा काम्प्लीमैंट….क्या करूँ?…ऊपरवाले ने बनाया ही कुछ ऐसा है" "ये ऊपरवाला...कहीं आपसे ऊपरवाली मंज़िल पे तो नहीं रहता?"... "ही...ही....ही...यू ऑर आल सो वैरी फन्नी"... "जी!…अपने को भी ऊपरवाले ने कुछ ऐसा ही बनाया है".. “एक जिज्ञासा थी स्वामी जी"… "पूछो वत्स"... "ये जो स्वामी जी के शिविर वगैरा लगते रहते हैं ...पूरे देश में"... "जी!… "इन्हें आर्गेनाईज़ करने वाले को भी कोई फायदा होता है इसमें?”.. "फायदा?"... "जी!… “अरे!...उनके तो लोक-परलोक सुधर जाते हैं…अगले-पिछले सब पाप धुल जाते हैं…आज़ाद हो जाते हैं इस मोह-माया के बंधन से..मन शांत एवं निर्मल रहने लगता है…वगैरा..वगैरा"... "ये बात तो ठीक है लेकिन मेरा मतलब था कि इतने सब इंतज़ाम करने में वक्त और पैसा सब लगता है"... "वत्स!...हमारे बाबा जी का जो एक बार सतसंग या योग शिविर रखवा लेता है.....वो सारे खर्चे...सारी लागत निकालने के बाद आराम से अपनी तथा अपने परिवार की छह से आठ महीने तक की रोटी निकाल लेता है"... "सिर्फ रोटी?"मैं नाक-भौंह सिकोड़ता हुआ बोला... "और नहीं तो क्या लड्डू-पेड़े?”... लेकिन सिर्फ इतने भर से…. “एक्चुअली टू बी फ्रैंक...बचता तो बहुत ज़्यादा है लेकिन हमें ऐसा कहना पड़ता है नहीं तो कभी-कभार कम टिकटें बिकने पर आर्गेनाईज़र लोगों के ऊँची परवान चढे सपने धाराशाई हो जाते हैं…और हम ठहरे ईश्वर के प्रकोप से डरने वाले सीधे-साधे लोग…इसलिए!…अपने भक्तों को दुखी नहीं देख सकते...निराश नहीं देख सकते" .. "ओह!…वैसे आजकल बाबा जी का रेट क्या चल रहा है"... “रेट?”… “जी!… “फॉर यूअर काईंड इन्फार्मेशन…बाबा जी बिकाऊ नहीं हैं"… “म्मेरा…मेरा ये मतलब नहीं था…म्म..मैं…तो बस इतना ही पूछना चाहता था कि सात दिन के एक शिविर में बाबा जी के विजिट के कितने चार्जेज हैं?”… “ओह!...तो फिर ऐसा कहना था ना…लैट मी कैलकुलेट…. सात दिनों के ना?”… “जी!… “सत्तर लाख" सैटिंगानन्द महराज जेब से कैलकुलेटर निकाल कुछ हिसाब लगाते हुए बोले .. "लेकिन मेरी जानकारी के हिसाब से तो पाँच साल पहले बाबा जी ने इतने दिन के ही शिविर के तीस लाख लिए थे"… "तो क्या हुआ?...इन पिछले पाँच सालों में महंगाई का पता है कि कितनी बढ़ गई है?...साग-सब्जियों के दामों में रोजाना नए सिरे से आग लगती है …पेट्रोल-डीज़ल की कीमतें हैं कि काबू में आने का नाम ही नहीं ले रही...जिस चीज़ को हाथ लगाओ...उसी के दाम आसमान को छू रहे होते हैं"… “जी!…ल्ल...लेकिन…एकदम से इतने ज़्यादा...कोई अफोर्ड करे भी तो कैसे?".. “अरे!..पाँच-सातसालों में तो बैंक पे पड़े रूपए भी लगभग दुगने होने को आते हैं...इस हिसाब से देखा जाए तो बाबा जी ने आम आवाम का ध्यान रखते हुए तीस के सत्तर किए हैं...नब्बे या फिर पूरे एक करोड़ नहीं"... "जी!... "बातें तो बहुत हो गई...अब क्यों ना काम की बात करते हुए असल मुद्दे पे आया जाए?"... "जी!...ज़रूर"... "तो फरमाएँ...क्या चाहते हैं आप मुझसे?".. "यही कि इस बार दिल्ली के शिविर का ठेका मुझे मिलना चाहिए"... "लेकिन मेरे ख्याल से तो इस बार की डील शायद मेहरा ग्रुप वालों के साथ फाईनल होने जा रही है"... "सब आपके हाथ में है...आप जिसे चाहेंगे...वही नोट कूटेगा" "बात तो आपकी ठीक है लेकिन वो गैडगिल का बच्चा... "अजी!...लेकिन-वेकिन को मारिए गोली और टू बी फ्रैंक हो के सीधे-सीधे बताईए कि आपका पेट कितने में भरेगा?".. "ये आपने बहुत बढ़िया बात की…मुझे वही लोग पसन्द आते हैं जो फालतू बातों में टाईम वेस्ट नहीं करते और सीधे मुद्दे की बात करते हैं"... "जी!...अपनी भी आदत कुछ-कुछ ऐसी ही है"... "साफ-साफ शब्दों में कहूँ तो ज़्यादा लालच नहीं है मुझे"... "फिर भी कितना?"... "जो मन में आए...दे देना".... "लेकिन बात पहले खुल जाए तो ज़्यादा बेहतर...बाद में दिक्कत पेश नहीं आती....यू नो!...पैसा चीज़ ही ऐसी है कि बाद में बड़ों बड़ों के मन डोल जाते हैं" "अरे!...यार...मैं तो अदना सा...तुच्छ सा प्राणी हूँ...ज़्यादा ऊँची उड़ान उड़ने के बजाय ज़मीन पे चलना पसन्द करता हूँ"... "पहेलियाँ ना बुझाएं प्लीज़..मुझे इनसे बड़ी कोफ़्त होती है"... "बस!...आटे में नमक बराबर दे देना"... "आप साफ-साफ कहें ना कि ...कितना?"... "ठीक है!...बाबा जी का तो आपको पता ही है...सत्तर लाख उनके और उसका दस परसैंट...याने के सात लाख मेरा...तुम एक काम करो....पूरे पचहतर दे देना...मैं कम में भी अपना काम चला लूँगा"... "लेकिन जहाँ तक मेरी जानकारी है...मेहरा ग्रुप वाले तो इससे काफी कम में डील फाईनल करने जा रहे थे"... "जी!...आपकी बात सही है...सच्ची है लेकिन उनके मुँह से निवाला छीनने में यू नो... "मुझे भी कोई ना कोई जवाब दे उन्हें टालना पड़ेगा..और साथ ही साथ...ऊपर से नीचे तक काफी उठा-पटक करने की ज़रूरत पड़ेगी...कईयों के मुँह बन्द करने पड़ेंगे"... "जी!...वो तो लौटाचन्द जी ने कहा था किसी और से बात करने के बजाय सीधा 'सैटिंगानन्द' जी से ही बात करना...इसीलिए मैंनेआपको कांटैक्ट किया वर्ना वो गैडगिल तो बाबा जी से भी डिस्काउंट दिलाने की बात कह रहा था".. "उस स्साले!...गैडगिल की तो मैं...कोई भरोसा नहीं उसका...कई पार्टियों से एडवांस ले के पहले भी मुकर चुका है..आप चाहें तो खुद हमारे दफ्तर से पता कर लें"... "हम्म!... "मैं तो कहता हूँ कि ऐसे काम से क्या फायदा?...बाद में उसके चक्कर काटते रहोगे"... "जी!... "वैसे…एक बात टू बी फ्रैंक हो के कहूँ?.... "जी!...ज़रूर"... 'खाना उसने भी है और खाना मैंने भी है लेकिन जहाँ एक तरफ आजकल वो मोटा होने के लिए ज़्यादा फैट्स...ज़्यादा प्रोटींन वगैरा ले रहा है...वहीं मैंने आजकल पतला होने की ठानी है...इसलिए मार्निंग वॉक के अलावा बाबा 'कामदेव' जी का योगा भी शुरू किया है”... “कमाल के चीज़ है ये योगा भी...यू नो!... पिछले बीस-पच्चीस दिनों में...मैं पंद्र्ह किलो तक वेट लूज़ कर चुका हूँ"... "दैट्स नाईस...इसीलिए आप फिट-फिट भी लग रहे हैं"... "थैंक्स!..थैंक्स फॉर दा काम्प्लीमैंट"... ट्रिंग...ट्रिंग...."... "एक मिनट…पहले ज़रा ये फोन अटैंड कर लूँ".. “जी!…बड़े शौक से"… “हैलो...कौन?"... "लौटाचन्द जी?”.... "नमस्कार"... "हाँ जी!...उसी के बारे में बात कर रहे थे"... "बस!...फाईनल ही समझिए"... "ठीक है!...एडवांस दिए देता हूँ"... "कितना?"... "पाँच लाख से कम नहीं?"... "लेकिन अभी तो यहाँ...घर पे मेरे पास यही कोई तीन...सवा तीन के आस-पास पड़ा होगा"... "ठीक है!...आप दो लाख लेते आएँ...आज ही साईनिंग एमाउंट दे के डील फाईनल कर लेते हैं"... "जी!...नेक काम में देरी कैसी?"... "आधे घंटे में पहुँच जाएँगे?"... "ठीक है!..मैं वेट कर रहा हूँ"... “ओ.के...बाय" (फोन रख दिया जाता है) "अपने लौटाचन्द जी थे...बस..अभी आते ही होंगे".. "तो क्या लौटाचन्द जी भी आपके साथ?"... "जी!...पहली बार आर्गेनाईज़ करने की सोची है ना...इसलिए...पूरा कॉंफीडैंस नहीं है"... "चिंता ना करो..राम जी सब भली करेंगे...मैं तो कहता हूँ कि ऐसा चस्का लगेगा कि सारे काम..सारे धन्धे भूल जाओगे...लाखों के वारे-न्यारे होंगे..लाखों के"... "एक मिनट!..आप बैठें ..मैं पेमैंट ले आता हूँ"... "ठीक है...गिनने में भी तो वक्त लगेगा..लेते आइये"... "जी!..मैं बस..ये गया और वो आया"... "जी!... (पाँच मिनट बाद) "लीजिए!...स्वामी जी..गिन लीजिए..पूरे तीन लाख है...बाकी के दो भी बस आते ही होंगे"... "जी!... "और बाबा जी के पेमैंट तो डाईरैक्ट उन्हीं के पास..आश्रम में पहुँचानी है ना?"... "नहीं!..वहाँ नहीं...आजकल बड़ी सख्ती चल रही है...उड़ती-उड़ती खबर पता चली है कि कुछ सी.बी.आई वाले सेवादारो के भेष में आश्रम के चप्पे-चप्पे पे नज़र रखे बैठे हैं"... "ओह!...तो फिर?"... "चिंता की कोई बात नहीं...हमारे पास और भी बहुत से जुगाड हैं...वो सेर हैं तो हम सवा सेर"... "जी!... "आपको एक कोड वर्ड बताया जाएगा"... "जी!... "जो कोई भी वो कोड वर्ड आपको बताए..आप रकम उसी के हवाले कर देना"... "जी!... "वो उसे हवाला के जरिए बाहरले मुल्कों में बाबा जी के बेनामी खातो में जमा करवा देगा".. "जी!...जैसा आप उचित समझें"... "ठक...ठक..ठक.." "लगता है कि लौटाचन्द जी आ गए…टाईम के बड़े पाबन्द हैं".. "जी!..यही लगता है" सैटिंगानन्द महराज घड़ी देखते हुए बोले... "एक मिनट!...मैं दरवाज़ा खोल के आता हूँ...आप आराम से गिनिए"... "जी!.. "आईए!...आईए... S.H.O साहब और गिरफ्तार कर लीजिए इस ढोंगी और पाखँडी को"... "धोखा".... "सारे सबूत...आवाज़ और विडियो की शक्ल में रिकार्ड कर लिए हैंमैंने इसके खिलाफ और आपके दिए इन नोटों पर भी इसकी उँगलियों के निशान छप चुके होंगे" "छोडों…छोड़ो मुझे…मैं कहता हूँ…छोड़ो मुझे".. “कस के पकड़े रहना S.H.O साहब…कोई भरोसा नहीं इसका”… “अरे!...कुछ नहीं बिगाड़ पाएगी पुलिस मेरा...दो दिन भी अन्दर नहीं रख पाएगी तेरी ये पुलिस मुझे".. "जानता नहीं कि "बाबा जी महान है"...उनकी की पहुँच कहाँ तक है?"... "चिंता ना कर...तेरे चहेते बाबा जी के आश्रम में भी रेड पड़ चुकी है"... "इधर तेरा विडियो बन रहा था तो उधर उनका भी बन रहा था"... "क्क्या?".. "हाँ!...अपने लौटाचन्द जी वहीं है और उन्हीं का फोन था उस वक्त कि...."काम हो गया है...मार दो हथोड़ा".. ***राजीव तनेजा*** Download Our App