बाज़ूबंद
संभव, सुहानी और झिलमिल की छोटी सी दुनिया थी। संभव और सुहानी दोनों अच्छी नौकरी में थे और उनकी बेटी झिलमिल स्कूल में ही पढ़ रही थी। सप्ताह भर तीनों जी तोड़ मेहनत करते और रविवार के दिन फ़ुल डे मस्ती। कक्षा नौ में पढ़ने वाली बेटी झिलमिल अपने पूरे सप्ताह के डाउट्स टिक लगा कर रखती और छुट्टियों वाले दिन घूमने निकलने के पहले उसे सुहानी से पूछ लेती। संभव का गणित बहुत ही अच्छा था सो उसके मैथ्स के sums वही बताता। इन तीनो की दुनिया में चौथे की जगह ही नहीं थी। बड़ा सा घर था, जहाँ उनकी सपनों की दुनिया बसी हुई थी। वर्षों से मुंबई में रहते हुए वे पूरी तरह यहीं के हो कर रह गए थे। पर साल में एक दो बार सुहानी गाँव ज़रूर ज़ाती, जो बिहार के अंदरूनी हिस्से में था। माता पिता दोनों के गुज़र चुके थे पर अपने गाम और ग्रामवासियों से उसका जुड़ाव और लगाव बरक़रार था। इस तरह अपने दूर दराज़ के रिश्तेदारों से भी सुहानी का सम्पर्क बना हुआ था।ज़रूरत बे ज़रूरत वह सबकी मदद भी करती थी। कितनी बार संभव के मना करने पर भी वह चुपचाप अपनी साड़ियाँ या अन्य कोई सामान मायक़े या ससुराल के रिश्तेदारों में बाँट आती थी।
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सुहानी के दूर के रिश्तेदार के घर शादी थी, उन्होंने सम्भव से भी आने के लिए बहुत इसरार किया।
"देखो सुहानी, मैं नहीं जाऊँगा गाँव इस गरमी में। तुम अपने उन चाचा जी को कुछ बहाना बना मना कर दो। मैं और झिलमिल यहीं मुंबई में ही रहेंगे।
संभव ने सुहानी से झुँझलाते हुए कहा।
"चाचाजी ने बहुत प्यार और आग्रह कर हमदोनों को बुलाया है।ख़ास कर हिदायत दी है कि मैं तुम्हारे साथ ही आऊँ, उनलोगों ने तुम्हें कभी देखा भी नहीं है।चलो न इस बार अपने गाम वाले घर को भी देख लेना, जाने कितने सालों से तुम वहाँ गए भी नहीं हो। बग़ल में ही तो है तुम्हारा गाँव , हर बार मैं ही जाती हूँ।"
सुहानी ने गले में बाँहें डाल बड़े प्यार से कहा तो सम्भव के तेवर कुछ नरम पड़ते दिखे।
"पर दो दिनों से अधिक नहीं रुकूँगा, उसी में दोनों जगह निपटा लूँगा",
संभव ने अकड़ते हुए कहा।
"चलो तुम राजी तो हुए, मैं जल्दी से पटना तक का हवाई टिकट बुक कर लेती हूँ। वही से दो दिनों के लिए टैक्सी ले लेंगे।"
सुहावनी झटपट प्लान बनाने लगी कि इस से पहले सम्भव का मन पलट जाए।
सुहानी मनही मन उन संभावित समानों की लिस्ट बनाने लगी जो वह शादी में गिफ़्ट देना चाहती थी। चाचाजी की आर्थिक हालत उससे कुछ छिपी नहीं थी। वह ये भी समझ रही थी कि उसे इतना आदर और ख़ास निमंत्रण दे कर क्यूँ बुलाया जा रहा है। जो हो हर स्त्री की तरह वह मायक़े जाने का लोभ संवरण नहीं कर पा रही थी। चलो किसी मदद की आशा से ही सही, पर बुला तो रहें ही हैं। दे देगी वह उनको कुछ रक़म शगुन के तौर पर। वह देख रही थी कि सम्भव ने बिलकुल बेमन से हामी भरी है सो ख़ुद ही सारी तैयारी और पैकिंग वह करने लगी। लॉकर से कुछ ज़ेवर भी निकाल आयी। बहुत दिनों के बाद किसी शादी में जाने का मौक़ा मिल रहा था।
"गाँव में शादी है सो साड़ियाँ ही ठीक रहेंगी, साथ में कुछ हल्के मैचिंग सोने के ज़ेवर रख लेती हूँ",
सुहानी ने सोचा।
अपनी मयूर आकार की बाज़ूबंद रखना वह नहीं भूली जो उसकी दादी ने उसकी शादी के वक़्त उसे दिया था।जिसे वह मुंबई में कभी पहन ही नहीं पायी और वह बैंक के लॉकर में ही दुबका रह गया।
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लम्बी सी कार जब दरवाज़े पर आ कर रुकी तो उस छोटे गाँव में हलचल मच गयी। पूरा परिवार सुहानी और पहली बार घर आयें जमाई की ख़ातिर में जुट गया। शादी तो चाचाजी के बेटे की थी परंतु सुहानी ने सभी चचेरे भाई- बहनों के लिए कुछ न कुछ रख लिया था। सभी उससे छोटे ही थे। संभव कुछ घटें रूक अपने गाँव चला गया । अगले दिन फिर उन्हें लौटना ही था।
"दीदी तुम्हारी साड़ी बहुत सुंदर है, ऐसी साड़ी तो शायद पटना में भी न मिले"
"तुम्हारे पर्स और सैंडल क्या ख़ूब मैच कर रहें हैं। क्या जीजाजी बहुत ज़्यादा कमाते हैं जो तुम इतनी रानी बन कर रहती हो?"
ये उसकी उन्ही दूर के चाचा जी की बेटी 'रम्या' थी, जो उसके कपड़ों गहनों इत्यादि को छू छू कर देख रही थी। उससे तो उम्र में बहुत छोटी थी और वह पटना में एमसीए कर रही थी।
उसकी कंजी आँखों में एक अलग सा ही शातिरपन झलक रहा था, जो उसे सबसे अलग बना रहा था। कुछ देर पहले ही सुहानी ने उसे अपनी माँ से झगड़ते हुए सुना था , वह उसी साड़ी को पहनने की ज़िद्द कर रही थी जो उसकी होने वाली भाभी के लिए ख़रीदी गयी थी। सुहानी उसकी बाँह पकड़ कर लायी और अपने बैग से दो साड़ियाँ निकाल कर कहा कि एक वह ले ले। पर निर्लज्ज रम्या ने कहा,
"दी तुम ही इनमें से कोई पहन लो, देनी ही है तो जो तुमने पहनी है वही दे दो।मेरा मन तो इसी में अटक गया है"
सुहानी को उस का ये व्यवहार खला तो, पर उसने अपनी पहनी साड़ी खोल कर उसे दे ही डाली। झिलमिल को वह ऐसा कभी नहीं बनने देगी, उसने सोचा। रम्या झटपट साड़ी पहन उसके सामने आ खड़ी हुई, कहना न होगा कि वह बला की ख़ूबसूरत लग रही थी।
"दी, अपना नेकलेस भी दो ना और ये मैचिंग सैंडल भी। मैं कल लौटा दूँगी पक्का",
रम्या की मानो धृष्टता बढ़ती जाता रही थी।
"छोटी बच्ची ही है , उस पर इतना बड़ा परिवार। चाचा जी भला इसे क्या मन का दे पाते होंगे। पढ़ा दे वही बहुत है।"
यह सोच सुहानी उसे अपने सारे गहने पहना दिए और बढ़ियाँ से makeup भी कर दिया।
"बताओ तो कौन है तुम्हारा बेस्ट फ़्रेंड, उसे फ़ोटो भेजी जाए तुम्हारी?"
सुहानी ने उसकी ठुड्डी पकड़ कर कहा।
"दी दोस्त तो बहुत हैं पर सब मेरे ही तरह कंगले हैं। मुझे तो जीजा जी की तरह ही कोई चाहिए जो मुझे रानी बना कर रखे",
रम्या ने कहा तो सुहानी चिहुंक सी गयी,
"पगली कुछ भी बोलती हो.....
चल झिलमिल अब तुझे भी तैयार कर दूँ"
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अगले दिन संभव सुबह सुबह ही अपने पुश्तैनी घर और गाँव से लौट आया और वापस चलने की हड़बोंग मचाने लगा । सुहानी भी अपने बिखेरे समानों को समेेटने लगी। अख़ियों के कोने से वह देख रही थी कि झिलमिल रम्या से घुलमिल गप्पें मार रही थी। सुहानी को रम्या के बातचीत करने का ढंग और व्यवहार बिलकुल पसंद नहीं आया था सो वह नहीं चाह रही थी कि बेटी उससे कुछ सीखे।
"झिलमिल आ बेटा ज़रा बैग का ये ज़िप चढ़ा दे, मुझसे नहीं हो रहा ",
सुहानी ने बहाना कर उसे बुलाया।
"जीजा जी से तो तुमने अभी तक मेरा परिचय कराया नहीं और झिलमिल से बात नहीं करने दे रही हो। दी! तुम बहुत गंदी हो।"
रम्या ने कुछ यूं ठुनकते हुए कहा तो सुहावनी को आश्चर्य हुआ, ब्रीफ़्केस में कपड़े जमाते हुए उसने गहने के डिब्बे को दिखाते हुए पूछा,
"रम्या तूने सारे इसमें रख दिए हैं न?"
रम्या कुछ अनोखे अन्दाज़ में सर हिलाते हुए उन के टैक्सी को सहलाने लगी थी।
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पिछली बार गाँव से आने के बाद संजोग कुछ ऐसा रहा कि दो साल तक गाँव जाने का मौक़ा ही नहीं मिला। दरअसल सुहानी कुछ शारीरिक परेशानियों से जूझने लगी थी। हॉस्पिटल घर और ऑफ़िस के बाद उसे समय ही नहीं बचता कि कुछ और सोच सके। सम्भव भी आश्चर्यजनक रूप से उसी दौरान अतिव्यस्त रहने लगा था सुहानी जहाँ कमज़ोर और बीमार रहने लगी थी वही सम्भव तो दिनों दिन मानों जवान होते जाता रहा था। बाल रंगने लगा था , टी शर्ट्स के रंग चटक होते जा रहे थे। गुनगुनाते हुए घर में घुसता, खाना अक्सर खाए हुए ही आता। कुछ देर अलमरियाँ खोलता बंद करता हुआ दिखता फिर,
"मैं रात को नहीं आऊँगा, एक क्लाइयंट से मिलने जा रहा हूँ",
बोलता निकाल जाता।
एक दिन सुहानी ने उसे टोकते हुए कहा भी,
"सम्भव आज कल तुम बहुत व्यस्त रहने लगे हो, मैं घर-बेटी और दफ्त्तर में सामंजस्य नहीं बिठा पास रही हूँ, सोचती हूँ नौकरी छोड़ दूँ"
सम्भव उसकी बात अनसुनी करता हुआ निकाल गया।
फिर एक दिन तो सुहावनी ने उसकी बाँह को पकड़ कर रोक लिया,
"सम्भव मुझे डॉक्टर ने ऑपरेशन की सलाह दी है, तुम तो घर में रहते ही नहीं हो। मेरे साथ हॉस्पिटल भी नहीं जाते हो, झिलमिल के बोर्ड एग्जाम हैं कम से कम उसे तो पढ़ा दिया करो। क्या हो गया है तुम्हें? तुम तो ऐसे थे, कल सुबह मैं हॉस्पिटल में अड्मिट होने वाली हूँ परसों मेरे यूटरस का ऑपरेशन है।आज मैं नहीं जाने दूँगी......."
कहते हुए मानोंं सुहानी हाँफ गयी थी।
"क्या करने आऊँ मैं घर ? तुम्हारा ये बीमार पीला पड़ा झुर्रियों वाला चेहरा देखने? जब देखो एक न एक रोना लिए बैठे रहती हो"
सम्भव ने टी शर्ट उतार कर बिस्तर पर फेंक लेटते हुए कहा। परदे के पीछे खड़ी झिलमिल देर तक सिसकती रही। मौसम बदलने का आभास हो चुका था। अगले दिन सुहानी हॉस्पिटल में अड्मिट हो गयी, सम्भव साथ आया था।
"मम्मी का ध्यान रखना मैं ऑफ़िस जा रहा हूँ",
झिलमिल के सर पर हाथ फिराते हुए सम्भव ने कहा और तेज़ी से कैबिन से निकल गया। उस दिन वह लाल रंग का शर्ट पहने हुए था और पर्फ़्यूम की ख़ुशबू से तरबतर था। झिलमिल आने वाले कई वर्षों तक अपने पापा के इसी रूप को याद करती रही थी जो हॉस्पिटल में, उसे मम्मी की तकलीफ़ों के बीच अजीब असहज महसूस हुआ था पापा के पहनावे और व्यवहार को देख।
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सम्भव जो उस दिन हॉस्पिटल से गया दोबारा फिर नहीं आया। नियत वक़्त पर सुहानी का ऑपरेशन हुआ, वह बेहद कमज़ोर थी उसे आराम और सेवा की सख़्त ज़रूरत थी। झिलमिल ने घर जा कर सारी अलमरियाँ छान मारी पर कोई क्रेडिट या डेबिट कार्ड नहीं दिखा, ना ही चेक या कैश जो हॉस्पिटल के बिल दिए जा सकें। सम्भव का फ़ोन लगातार ऑफ़ ही था। हार कर सुहानी ने अपने पूराने कूलिग और दोस्तों को मदद करने के लिए कहा। घर आने पर सिर्फ़ सूनापन और सन्नाटा था। दोनों माँ-बेटी अभी समझने की कोशिश कर ही रहीं थी कि फ़ोन की घंटी बज उठी।
"उस दिन तुम ने सबके सामने मुझसे पूछा था न कि मैंने सारे गहने लौटाएँ या नहीं, आज बताती हूँ नहीं लौटाए थे। तुम्हारे बाज़ूबंद पर मेरा दिल अटक गया था। उसी बाज़ूबंद के काँटे से मैंने तुम्हारी मछली को पकड़ लिया है। अब क्या दुनिया की सारी अच्छी चीज़ों को तुम ही रखोगी? तुम्हारी जाती जवानी के साथ तुम्हारा पति भी तो जा ही चुका है"
उस तथाकथित बहन रम्या की पिशाचिनी अट्टहास ने सुहानी की अंतरात्मा तक को हिला दिया था। सौ बातों की एक बात सम्भव अब जा चुका था, साथ में सुहानी की कमाई के अंश को भी समेट लिया था। दोनों औरतों की रुदन ने उस दिन आसमान का सीना चीर दिया।
सुहानी ने दोस्तों रिश्तेदारों की मदद से फिर से जीना शुरू किया। अपनी पुरानी नौकरी पर जाना शुरू कर दिया, वक़्त ने उन्हें चट्टान बना दिया। धीरे धीरे ऊपर से घाव का दिखना तो बंद हो गया पर उसके अंदर दुःख, अपमान और फरेब का मवाद सदा ही हरा रहा।
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संभव रम्या के साथ बहुत ख़ुश था। रम्या ने उसकी जाती जवानी को अपनी मुट्ठी में मानों बाँध लिया था। वह रम्या के लिए कुछ भी करने के लिए तैयार रहता। अपनी पिछली ज़िंदगी को छोड़ वह आगे बढ़ चुका था। हर रिश्ते नाते को भूल वह रम्या के साथ रम गया था मानों। रम्या की ही ज़िद्द थी कि जब तक उसका ख़ुद का घर नहीं होगा वह सम्भव के साथ नहीं रहेगी सो मतिभ्रष्ट सम्भव ने सुहानी के पैसों को भी समेट एक फ़्लैट ख़रीद लिया था जिसमें दोनों ने उसी दिन से रहना शुरू किया था जिस दिन सुहानी का ऑपरेशन होना था।
रम्या के शौक़ बड़े महँगे होते थे। संभव को कभी कभी उसकी पसंद और माँग को जान आश्चर्य भी होता कि इतनी मामूली सी बैकग्राउंड की पली बढ़ी लड़की इतनी ऊँची पसंद कैसे रखती है। पर अगले ही पल वह दीवानों की तरह उसे प्रसन्न करने में लग जाता।
सम्भव का रिटायारमेंट नज़दीक ही था जब उसे झिलमिल की शादी का कॉर्ड मिला था। वह रम्या को बिना बताए चला गया था। वहाँ वह एक मेहमान की तरह ही गया और लौटा, किसी ने किसी से उसका परिचय तक नहीं कराया। मंडप में जब पंडितजी ने जब पिता को बुलाया तो झिलमिल बोल उठी,
"मेरे पिता नहीं हैं, मेरी माँ ही मेरी सब कुछ है"
सम्भव अपना सा मुँह ले कर लौटा था। सुहानी को देख वो चौंक गया था, जिस कमज़ोर बीमार सुहानी को छोड़ गया था वह आत्मविश्वास से भरपूर और आर्थिक रूप से सम्पन्न भी दिखी। एक ग्रंथि जो मन के कोने में कहीं पल रहा था वह दूर हो चुका था अलबत्ता। लौट कर वह और दुगुनी ख़ुशी से रम्या संग जीवन में रम गया।
साल दर साल गुज़रते रहें, सम्भव अवकाश प्राप्त कर चुका था, रम्या ऐशो आराम से जीवन गुज़ारती अब सम्भव से ऊब चुकी थी। संभव का अति प्रेम से अब उसे वितृष्णा सी होने लगी थी। उस बुढ़ाते संभव में अब उसे कोई रस नहीं
देर रात को झिलमिल के फोन आ आ कर कट रहें थें। झिलमिल सिडनी, ऑस्ट्रेलिया में थी, वहां तो सुबह के चार-पांच बज रहे होंगे। झिलमिल का नवां महीना चल रहा था, सुहानी अगले चार दिनों में वहां जाने ही वाली थी। उसे घबराहट होने लगी और उसे फोन किया, रिसीवर पार की चुप्पी उसे डराने लगी।
"बेटा कैसी हो, क्या हुआ कुछ बोल बच्चा?", सुहानी सवाल पर सवाल चढ़ाये जा रही थी।
"माँ, मुंबई के एक वृद्धाश्रम से फोन आया है",
झिलमिल ने अटकती आवाज में कहा।
"कौन था क्या बोल रहा था?",
सुहानी अंदाजा लगाने की कोशिश कर रही थी।
'वृद्धाश्रम के व्यस्थापक का फोन आया था, वे मुझे डाँट रहें थे कि मेरे पिता अनाथों की तरह वहां रह रहें थे पिछले कुछ वर्षों से और आज लम्बी बीमारी और संघर्ष के बाद चल बसें हैं। वे मुझे नालायक बोल अपशब्द भी कह रहे थें",
झिलमिल का स्वर धीमा होते होते भर्राने लगा था।
एक लम्बी चुप्पी पसरी रही देर तक फोन के दोनों छोर पर।
"मुझे पता बताओ मैं जाती हूँ", सलोनी ने कहा।
"तुम अपना ध्यान रखों और उनकी बातों को दिल से ना लगाओ, हमेशा औलाद ही नालायक नहीं होती है "
उस दिन का सूर्योदय अलग सा था, कुछ ज्यादा चमकीला कुछ ज्यादा सुनहरा। सलोनी के जीवन में लगे ग्रहण का अब अंत हो चुका था।
वृद्धाश्रम पहुँच उसने सारे बकाये बिल्स को चुकाया। संभव की अंतिम क्रिया की तैयारी हो रही थी। एक वृद्ध सज्जन उसके पास आ कर खड़े हो गएँ, धीमे से उन्होंने पूछा,
"आप सलोनी जी हैं? "
"मैं और संभव एक ही कमरें में रहतें थें। उसने मुझे सब कुछ बताया था, पिछले चार सालों से वह यहीं था। उसे सड़क किनारे से लावारिस बीमार स्तिथि में किसी ने ला कर पहुँचाया था। उसके साथ भी बिलकुल वही हुआ जो उसने आपके साथ किया था। ग्लानि से भरा संभव हर पल अपनी मृत्यु की ही कामना करता रहता था। उसने मुझे बेटी का फोन नंबर दे रखा था और ताकीद की थी कि उसके मरने के बाद ही उसकी बेटी को खबर की जाये क्यूंकि वह आपदोनों का सामना नहीं कर सकता था। हाँ! ये गहना उसने आखिरी दम तक सीने से लगाए रखा था और इसे आपको ही सौपने को कहा था। "
सलोनी ने देखा वह उसका खोया हुआ बाजूबंद है, आँखों के कोर पर छलक आये आये आंसुओं को उसने पोंछा। धू धू कर जलती चिता मानों लपकती झपकती झुकती कह रही थी,
"माफ़ कर दो माफ़ कर दो......"
सलोनी ने उस बाजूबंद को एक बार मुठ्ठी में कस कर भींचा और फिर उस मनहूस को दान पेटी में डाल चलती बनी।
(मौलिक)
द्वारा
रीता गुप्ता
RITA GUPTA