Sanjha in Hindi Classic Stories by Prabodh Kumar Govil books and stories PDF | सांझा

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सांझा

- सेव क्या भाव हैं? मैंने एक सेव हाथ में उठाकर उसे मसलते हुए लड़के की ओर देखते हुए पूछा।
- साठ रुपए किलो! कह कर उसने आंखें झुका लीं।
मैं चौंक गया, क्योंकि अभी थोड़ी देर पहले मैंने टीवी पर सुना था कि कश्मीर से सेवों के ट्रक न आ पाने के कारण शहर में सेव का भाव आसमान छू कर सौ रुपए किलो तक पहुंचा। वहां भारी बर्फ़बारी हो जाने से रास्ता बाधित हो गया था।
देश में और कुछ उछले न उछले, ये टीवी वाले ज़रूर उछल जाते हैं। थोड़े दिन पहले कह रहे थे प्याज़ के दाम आसमान छू रहे हैं। मानो आसमान न हुआ, इन फल- सब्ज़ियों की छतरी हो गया!
कल अगर सेव का भाव सौ से बढ़कर दो सौ हो जाए, तो ये क्या कहेंगे? भाव आसमान फाड़ कर अंतरिक्ष के पार निकल गया? ऐसी उतावली भाषा इन्हें ही मुबारक!
मैंने लड़के की ओर देख कर पूछा - ताज़े हैं न?
लड़का कुछ हंसते हुए बोला- बिल्कुल, आपने छू कर देख तो लिया।
लड़के की न तो हंसी दुकानदारों वाली थी, और न ही उम्र!
मैंने उससे कहा- तुम्हें पहले कभी देखा नहीं दुकान पर !
वह बोला- यहां चाचा बैठता है मेरा, मैं तो पढ़ने जाता हूं। वो अभी घर पर रोटी खाने गया है, तो मुझे बैठा गया।
अब मुझे थोड़ी शंका हुई। मैंने ज़ोर देकर फ़िर से पूछा- तो तुम्हें भाव ठीक से पता हैं न ?
लड़का ज़ोर से हंसा और बोला- ले जाओ अंकल, उसे कौन बताएगा कि मैंने क्या भाव बेचा।
- अरे, तो वो तुम्हें भाव बता कर नहीं गया? मैंने हैरानी से पूछा।
- बताया तो था कुछ, पर मैंने ठीक से नहीं सुना। लड़के ने कहा।
- क्यों?
- क्योंकि उसने ठीक से नहीं बताया। बोलता था कोई खरीदेगा नहीं, बस भाव पूछ कर जाते हैं सब...लड़के ने मानो कोई रहस्य खोला।
अब ये मेरे लिए साफ़ संकेत था कि मैं अब कुछ मोल - भाव न करके सीधे ख़रीद लूं।
मैंने अपनी जेब में हाथ डाल कर वहां पड़े रुपए निकाल कर देखे। एक पचास का नोट, और एक दो हज़ार का।
लड़के ने भी उत्सुकता से देख ली मेरी जमा पूंजी।
मैंने कहा - तुम दो हज़ार का छुट्टा दे दोगे?
- कितने लोगे? उसने प्रतिप्रश्न किया।
- एक किलो। मैंने कहा।
- तो आपके पास पचास का नोट है न, वो दे दो। लड़का बोला।
- पर तुम्हें तो साठ देने हैं। मैंने कहा।
लड़के ने लापरवाही से कहा- मैं दस रुपए आपके घर से ले आऊंगा, और छांट - छांट कर सेव तौलने लगा।
मैंने चौंक कर कहा- तुम मेरा घर जानते हो?
लड़के ने कुछ अविश्वास से मुझे देखते हुए कहा- हां। मानो उसे ये आश्चर्य हो रहा हो कि क्या मैं उसे नहीं जानता?
मैंने पूछा- कैसे जानते हो बेटा?
- अंकल, मेरा भाई आपके घर अख़बार डालता है, कभी- कभी उसके साथ मैं भी आता हूं, आपने देखा होगा।
- अच्छा - अच्छा... मैंने कहा।
अब मुझे ध्यान आया कि सुबह घर में अख़बार डालने वाला लड़का जब दरवाज़े के नीचे से पेपर घुसा कर जाता है तो मैं चाय का कप हाथ में लिए उसे उठाने आता हूं।
कभी - कभी ऐसा भी हुआ कि अख़बार वहां नहीं था। मैंने एक निगाह घड़ी पर डाली फ़िर दरवाज़े को खोल कर देखा तो अख़बार बाहर पड़ा था।
अगले दिन अख़बार वाले से अख़बार भीतर न डालने की शिकायत करने पर उसने कहा था - सर, कल मैं नहीं आया, मेरा छोटा भाई आया था,उसे पता नहीं था तो वो गलती से बाहर डाल गया, मैं उससे कह दूंगा।
अच्छा, तो ये वो महाशय हैं!
मैं सोचता हुआ सेव लेकर और उसे पचास का नोट देकर पलटने ही लगा था कि लड़का बोल पड़ा- अंकल, चाचा तो मुझे अस्सी का भाव बोल कर गया था, पर मैंने आपको साठ में ही लगाए। उसने अब कुछ खुल कर कहा।
- तो तूने चाचा को इतना घाटा क्यों दिया। अब मैंने कुछ मुस्कराते हुए कहा।
वो हंसते हुए बोला- घाटा नहीं दिया, भाव तो ये ही था, वो तो कल दोपहर को टीवी पर समाचार देख कर चाचा बोला था- अस्सी कर देना भाव, बोलना कश्मीर से माल आ नहीं रहा।
मैं मन ही मन ये सोचता हुआ पलटने लगा कि मुझे अपने नए लेख के लिए विषय मिल गया, "मीडिया की भूमिका"!
मैंने एक बार फ़िर लड़के से कहा- जब चाचा ने तुझे भाव ज़्यादा बताया था तो तूने मुझसे कम क्यों लिया?
- क्योंकि आप बहुत अच्छे हो। लड़के ने तपाक से कहा।
मैं मन में तो खुश हो गया, पर फ़िर भी उससे कुछ और सुनने की गरज से मैंने कहा- कैसे?
- मेरा भाई कहता है कि आप जब शहर से बाहर जाते हो, तो भी कभी अख़बार बंद नहीं करते, और कभी अख़बार न आए तो उस दिन के पैसे भी बिल में से नहीं काटते। लड़के ने बुलंदी से कहा। मानो वो मुझे सेव के भाव में छूट देने का स्पष्टीकरण दे रहा हो।
मैं कुछ बोल पाता, इससे पहले ही दुकान में एक महिला दाख़िल हुई।
मैं सेव की थैली लेकर बाहर निकल लिया। पर निकलते - निकलते भी मेरे कान में महिला और लड़के का वार्तालाप पड़ गया- सेव कैसे दिए... अस्सी रुपए किलो!
मैं सोच रहा था कि हर व्यापारी की बिज़नेस तकनीक में कुछ तो "डिस्क्रिशनरी पावर्स" होती ही हैं, जो अर्थशास्त्र के सामान्य मांग व पूर्ति के नियम से अप्रभावित रहती हैं। लड़का जितनी देर के लिए दुकान का स्वामी था, उतनी देर के लिए ही सही, पर ग्राहकों से विभेद कर सकने का ये अधिकार उसके पास था ही।
सोलह साल के लड़के पर भी सारे विज्ञान और शास्त्र लागू हो रहे थे।
रात को खाना खाकर और थोड़ी देर टीवी देख कर मैंने सोने के लिए अपना बिस्तर ठीक किया ही था कि दरवाज़े की बैल बजी।
"इस समय कौन होगा" का भाव लिए मैंने दरवाज़ा खोला तो सामने सेव की दुकान वाला वही लड़का खड़ा था।
अगर वो मुझसे कहता कि दस रुपए दे दो, तो मैं तुरंत लाकर उसे रुपए दे ही देता।
लेकिन उसने ऐसा नहीं कहा, केवल हंसता रहा। इस समय वह फुरसत में लग रहा था। वह कुछ देर दरवाज़े पर ठिठका रहा, फ़िर भीतर चला आया।
मैंने कहा- तेरे रुपए देता हूं...पर वो बोला- ले लूंगा अंकल, जाते समय।
इसका मतलब ये था कि वो अभी नहीं जा रहा था और कुछ देर बैठना चाहता था।
मैं कुछ नहीं बोला, चुपचाप अपने बिस्तर पर बैठ गया। वो भी सामने रखी एक कुर्सी पर बैठ गया।
- अंकल, आप बिल्कुल अकेले रहते हो, आपका मन लग जाता है? उसने जैसे बातचीत का कोई सिलसिला शुरू करना चाहा।
- लगाना पड़ता है, क्या करूं। मैंने कहा।
उसने दीवार घड़ी पर उड़ती सी नज़र डालते हुए कहा- अब आप सो जाओगे?
- हां, तू कितने बजे सोता है? मैंने कहा।
- अरे अंकल, हमारे घर में तो बहुत सारे लोग हैं, सोते- सोते बारह बज जाते हैं, हमारा और चाचा का परिवार एक साथ ही रहता है ना। उसने कहा।
- मैं भी कभी - कभी कुछ लिखने- पढ़ने का काम होने पर देर से सोता हूं, नहीं तो जल्दी सो जाता हूं। मैं बोला।
उसे एकाएक जैसे कुछ याद आ गया, वो बोला- अंकल, मुझे मालूम नहीं था न, इसलिए मैं आपका अख़बार बाहर डाल गया, भैया बता रहा था कि आपको बहुत परेशानी हुई।
- परेशानी नहीं, बस भैया तो अन्दर डाल जाता है तो मैं दरवाज़ा बंद रहने पर भी उठा लेता हूं, पर दरवाज़ा खोल कर बाहर से अख़बार उठाने में मुझे कपड़े पहनने पड़ते हैं न ! उठते ही पहले कपड़े पहनें, फ़िर केवल अख़बार उठाने के बाद वाशरूम जाने के लिए दोबारा उतारें।
वह पहले तो कुछ चौंका, फ़िर बोला- हां, आप रात को चड्डी पहन कर सोते होगे ना अंकल!
कुछ रुक कर वो अपने आप फ़िर बोल पड़ा- आप तो अफ़सर हो न अंकल, इसलिए चड्डी पहन कर घर से बाहर आने में आपको शर्म लगती है, हम तो चड्डी पहन कर पूरे मोहल्ले में घूम लेते हैं।
- तुम तो बच्चे हो, बिना चड्डी के भी घूमोगे तो कोई फ़र्क नहीं पड़ेगा। मैंने कहा।
वो झेंप कर शरमा गया, फ़िर तुरंत बोल पड़ा- आपके सामने तो बच्चे ही हैं, नंगे भी रह सकते हैं।
कुछ देर की चुप्पी रही।
- तेरा नाम क्या है, मैंने कभी पूछा ही नहीं तुझसे। मैंने उससे कहा, जबकि मैंने नाम तो उसके भाई का भी कभी नहीं पूछा था, जो अख़बार डालता था।
वो बोला- संजय...वैसे घर में मुझे सांझा कहते हैं।
उसके नाम बताते ही मुझे कुछ याद आ गया और मैं किसी पुरानी याद में खो गया।
ये कैसा संयोग था कि यहां संजय नाम के इस लड़के को सांझा कहते हैं और वहां सांझा सरफराज़ का नाम था।
वहां माने?
लंबी बात है।
लगभग तीस- पैंतीस साल पहले एक बार मेरा कश्मीर जाना हुआ था। श्रीनगर में मैं कुछ समय रुका, लगभग एक सप्ताह।
इसी समय एक शाम को मुझे डल झील के किनारे घूमते हुए देख कर कुछ नाव वालों ने आवाज़ लगाई... आइए, आइए पचास रुपए देना, पूरे चार घंटे तक पानी में सैर कीजिए।
और इसी समय एक छोटी सी नाव में मैं जा बैठा।
नाविक एक किशोर वय का छोटा सा लड़का था। मुझे पहले तो ऐसा लगा कि ये अपने पिता, चाचा या बड़े भाई की एवजी में नाव संभालने वाला कोई बच्चा है, जिससे अभी आकर कोई चप्पू ले लेगा।
किन्तु जल्दी ही मुझे पता चला कि उस लड़के के परिवार में उससे बड़ा कोई नहीं है, और बारह साल की उम्र से ही वो ख़ुद ये काम करके अपना और अपने परिवार का पेट पाल रहा है।
उसने नाव को गहरे पानी की ओर मोड़ते ही किसी सिद्ध हस्त मल्लाह की तरह संभालते हुए मुझे दर्शनीय झील के बारे में बताने के लिए कमेंट्री भी करनी शुरू कर दी।
मैं उससे बात करता हुआ पूरे चार घंटे उसके साथ घूमा।
जब हम लौटे तब तक शाम का झुटपुटा सा होने लगा था। उसे पैसे देते समय मैंने उससे पूछा , कि तुम कितने बजे तक यहां नाव चलाते हो,क्योंकि अब अंधेरा सा भी होने लगा था।
वो बोला- बस, अब नाव बांध दूंगा, मेरा भी समय हो गया घर जाने का।
थोड़ी देर चहल- कदमी करके मैं अपने होटल लौटने की सोच ही रहा था कि मुझे सामने सड़क के किनारे एक फोटो स्टूडियो दिखाई दिया। मुझे याद आया कि यहां पर स्टूडियो में कुछ प्रसिद्ध दर्शनीय स्थलों को पृष्ठभूमि में रख कर तत्काल फोटो खींच कर दे देते हैं।
ऐसे ही स्मृति के लिए यहां के कुछ फ़ोटो लेने के लिए मैं स्टूडियो में जा घुसा।
भीतर का नज़ारा देखा तो ऐसा लगा कि मैंने यहां आने में देर कर दी है। स्टूडियो बंद हो रहा था। एक लड़का काउंटर पर इस तरफ पीठ किए, सफ़ाई और चीज़ों को करीने से रखने में लगा था और स्टूडियो मालिक एक हाथ में ताला चाबी लिए उसे बंद करने की फ़िराक में खड़ा था।
मैं चौंका, क्योंकि सफ़ाई करने वाला लड़का जब पलटा तो वो भी लगभग चौंक ही गया। ये वही लड़का था जिसने मुझे नाव की सैर कराई थी।
उसने मुझे सलाम किया।
मैं बाहर निकल आया, और अपने होटल की ओर बढ़ गया।
अगली सुबह मैं कुछ देर से उठा। मुझे केवल दो घंटे के लिए एक सरकारी दफ़्तर में जाना था, फ़िर पूरा दिन घूमने- फिरने के लिए मैं स्वतंत्र था।
दोपहर को खाना खाने के बाद मैं होटल से बाहर निकल आया।
दिन भर घूम- फ़िर कर आने के बाद रात का खाना खाने की इच्छा नहीं रह जाती थी, ये मैं पिछले दिनों देख चुका था। दिन भर कुछ न कुछ खाते रहने के कारण शायद ऐसा होता हो।
मैंने सोचा कि कुछ फल खरीद कर कमरे पर रख दूं ताकि शाम को काम आ सकें।
मैं उस ओर बढ़ चला जहां मंडी में कुछ फल वाले कतार से खड़े थे।
- अरे, तुम यहां भी? क्या- क्या करते हो? मैंने उसी नाव वाले लड़के को एक ठेले पर फल बेचते देख कर पूछा।
उसने भी हुलस कर मुझे सलाम किया और मेरे बिना कहे ही मेरे लिए सेव चुन- चुन कर छांटने लगा।
उसका लगाव देख कर मैंने बिना किसी आपत्ति के उसके तौले हुए फल ले लिए और पैसे देकर आते - आते उससे ये भी तय कर लिया कि तीसरे पहर फ़िर से उसके साथ नाव की सैर करने मैं डल झील पर आऊंगा।
उस दिन फ़िर देर रात तक हम दोनों साथ रहे।
और तभी मुझे वो डरावनी कहानी सुनने को मिली, जिसे सुन कर मैं रात भर ठीक से सो नहीं सका।
लड़का बातें करते- करते मेरे साथ मेरे होटल भी चला आया।
कुछ देर बाद कुछ संकोच के साथ बोला- सर,आप दिन भर घूम कर थक गए होंगे, आराम से लेट जाइए, मैं आपके पैर दबा दूंगा।
- अरे, मैं ऐसा बुज़ुर्ग नहीं हूं कि तुम इतनी सेवा करो। अभी तो मेरी उम्र...
मेरी बात पूरी भी नहीं हुई थी, कि लड़का बोल पड़ा- सर, मुझे पैसे की जरूरत है, आप जो चाहें दे देना,आप कहें तो मैं रात को भी यहीं...
अब मैं कुछ सतर्क हुआ, मैंने उससे कहा- तुम फल बेचते हो, नाव चलाते हो,फ़िर स्टूडियो में सफ़ाई करते हो, इतना काम करके थक नहीं जाते? कितना कमा लेते हो? क्या तुम्हारे घर की पूरी ज़िम्मेदारी तुम्हारी ही है। और कोई कुछ नहीं कमाता?
लड़का बोला- सब कमाते हैं। मां भी काम करती हैं और दोनों बहनें भी। मैं अपने पैसे घर पर नहीं देता।
- फ़िर? तुम्हें इतने पैसों की जरूरत क्यों पड़ती है? मैंने कहा।
वो बोला- मैं बाहर जाना चाहता हूं, श्रीनगर में नहीं रहूंगा।
- क्यों?
- यहां कोई ज़िन्दगी नहीं है।
- कहां है ज़िन्दगी? मैंने कुछ उपेक्षा से कहा।
वो बोला- मैं सेना में जाऊंगा!
- वहां किससे लड़ोगे? बीहड़ जंगलों में, बर्फ़ के पहाड़ों पर, बंकरों में पड़े रह कर ज़िन्दगी मिल जाएगी तुम्हें? तुम्हें लड़ना किस से है।
- इंडिया से!
- क्यों?
- बहुत पैसे मिलते हैं।
- जान का जोखिम भी तो है।
- नहीं,वो कहते हैं कि छोटे लड़कों से खून - खराबा नहीं कराते, उन्हें तो खाली ड्रग्स बेचने पर लगाते हैं।
- तुम्हें पता है कि मैं कहां से आया हूं?
- हां, इंडिया से। पर मेरी आपसे दुश्मनी थोड़े ही है, आप तो कर लो, जो आपको करना हो!
मैंने एकदम से अपने पैर सिकोड़ लिए। जल्दी से खड़े होकर अपना पायजामा भी ठीक से चढ़ा लिया,जिसे बात करते हुए पैर दबाते- दबाते उसने ढीला करके कुछ बेतरतीब कर लिया था।
मैंने उससे पूछा- तुम्हारा नाम क्या है?
- सरफराज़, वैसे घर में मुझे सांझा कहते हैं। वो कुछ संशय से बोला। शायद उसे मेरा पैर सिकोड़ कर उससे कुछ दूर हो जाना अच्छा नहीं लगा।
- नींद आ रही है, कह कर मैं उठा। मानो वो भी मेरा संकेत समझ गया और कुछ अनमना सा होकर होटल की सीढ़ियां उतरने लगा। मैंने कमरा भीतर से बंद किया और अपने बिस्तर पर आ लेटा।
अगली सुबह मेरी दिल्ली वापसी थी।

- प्रबोध कुमार गोविल