Kaalbij - 2 in Hindi Horror Stories by Divyanshu Tripathi books and stories PDF | कालबीज़ - 2

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कालबीज़ - 2







स्थान : दिल्ली पुलिस मुख्यालय

आज दिल्ली पुलिस के मुख्यालय में सुबह से ही काफी गहमा गहमी थी। सुबह सुबह सामने आई उन 13 लोगों की सनसनीखेज़ मौतों की खबर ने पूरे पुलिस महकमे में हड़कंप मचा रखी थी।

" मौका मिला तो कभी ना कभी इन मीडिया वालों का टेंटुआ जरूर दबा दूंगा। साले शैतान का दूसरा रूप हैं ये सब। अभी हम लोग जांच पड़ताल ही कर रहें हैं कि तबतक ये लोग उस जांच का निष्कर्ष निकालकर हमारे जांच के ऊपर प्रश्नचिन्ह भी लगाने लगे।", पुलिस मुख्यालय के मुख्य हॉल में मौजूद क्राइम ब्रांच के हेड आनंद कुमार लगभग चिल्लाते हुए बोले।

पुलिस मुख्यालय में मौजूद सभी ऑफिसर्स सिर झुका कर आनंद कुमार की बातों की स्वीकृति में सिर हिलाते हुए बोले। उसके अलावा उनके पास कोई चारा भी नही था क्योंकि आनंद कुमार को अपनी बातों को किसी के द्वारा नकार दिया जाना बिल्कुल भी पसंद नही था। इसके साथ ही उन्हें अपने शहर में क्राइम भी बिल्कुल नही पसंद था।

"हेल्लो। कार्तिक ? कहाँ हो तुम। जल्द से जल्द पुलिस मुख्यालय पहुंचो। इस समय तुम्हारे एक्सपीरियंस की सख्त जरूरत है।", आनंद कुमार ने अपने फोन पर बात करते हुए कहा।

मोबाइल जेब मे रखने के बाद आंनद कुमार अपना चश्मा उतारकर उसे पोछने लगे। छोटी कद काठी वाले 40-45 साल की उम्र के इस जांबाज़ अफसर ने इतनी कम उम्र में ही अपने पुलिस अफसर के इस कैरियर में ही काफी नाम कमा लिया था और उसी का नतीजा था कि आज वो क्राइम ब्रांच का हेड था। अपने इन 20 साल के कैरियर में आंनद ने बड़े से बड़े जटिल केस संभाले थे और उनको बखूबी अंजाम तक भी पहुंचाया था जिसका साक्षी दिल्ली का पूरा पुलिस महकमा था।

मगर आज का ये केस बाकी सभी केसेस से एकदम ही अलग था, आनंद ने मन ही मन सोचते हुए कहा। जादू- टोने , तंत्र-मंत्र को लेकर मौत के केस पहले भी आ चुके थे मगर अभी तक आंनद ने घटना स्थल पर मौजूद पुलिस वालों से जो कुछ भी सुना था वो उसको सहमा देने वाला था। उसे अब घटना स्थल पर पहुंच कर सब कुछ अपने आँखों से देखनी की जल्दी थी।

स्थान - दिल्ली ( घटनास्थल)

कमरे की ऊपरी दीवार पर उस खौफ़नाक मंज़र को देखकर वहां मौजूद हर पुलिस वाले के रौंगटे खड़े हो चुके थे। ऊपर दीवार पर 13 इंसानी दिल एक गोल घेरे में दीवार से चिपके हुए थे जिनके बीच मे एक और दिल था।उनसे खून रिस रिस कर बाहर आ रहा था । वो गोल घेरा नीचे उन हवन कुंडों द्वारा बनाये गए गोल घेरे के तरह ही था।

मगर ये दीवार पर चिपके 14 दिल आये तो आये कहाँ से और ये हैं किसके ?

यही एक सवाल उस समय वहां पर मौजूद हर पुलिस वाले के जेहन में कौंध रहा था। कुछ देर तक वहां मौजूद हर एक शख्स उन दिलों को एकटक देख रहा था तभी वहां मौजूद एक पुलिस वाले के दिमाग मे एक बात कौंधी और उसने उन लाशों को ध्यान से देखा।

वो सभी लाशें एक गोल घेरे में पूरे कमरे में रखीं हुईं थी। इसके साथ उसने ये भी ध्यान दिया कि वो सभी लाशें पेट के बल रखीं गईं थी। सभी लाशें एक ही तरह पेट के बल रखीं हुईं थीं। वहां पर उस खौफ़नाक मंज़र को देखकर किसी का भी ध्यान इस ओर आकर्षित ही नहीं हुआ था। उस पुलिस वाले ने ये बात अपने सभी साथियों को बताई और अब सभी का ध्यान उस ओर आकर्षित हुआ। सभी ने ध्यान दिया कि वो सभी लाशें एक गोल घेरे बनाएं ऊपर दीवार पर चिपके मानव दिलों से सामंजस्य में जमीन पर पेट के बल रखीं गईं थीं।

उस दृश्य को देखते ही सभी के मन में एक बात कौंधी और पुलिस वाले एक एक लाशों के पास जाकर खड़े हुए और सभी को पलटने लगे। सभी लाशों को पलटने के पश्चात उन सभी की आँखें भय और आश्चर्य से फ़टी रह गईं।

उन सभी लाशों के दिल नही थे। उन सभी की छातियों पर बने एक गोल घेरे को देखकर ऐसा प्रतीत हो रहा था कि किसी ने उनकी छाती में हाथ डालकर उनका दिल बाहर निकाल लिया हो। सबके दिमाग मे बस एक ही सवाल कौंध रहा था कि क्या कोई इंसान किसी की छाती फाड़कर उसका दिल निकाल सकता है वो भी 12 इंसानों के? उस खौफ़नाक दृश्य को सोचने मात्र से ही वहां मौजूद सभी के शरीर मे सिहरन दौड़ गई थी।

मगर एक सवाल अभी भी उन सभी के सामने खड़ा था । इस कमरे में लाशें थी 13 और कमरे की ऊपरी दीवार पर दिल थे 14। अगर 13 दिल इन 13 लाशों के थे तो वो दीवार पर चिपका हुआ 14वां दिल किसका था ? उन्हें किसी और इंसान की लाश उस जगह से बरामद नही हुई थी। तो ये 14वां दिल आखिर था तो था किसका ?

वहां मौजूद पुलिस वाले इस बारे में ज्यादा सोच पाते उससे पहले ही उन सभी की वॉकी टॉकी पर एक साथ एक आवाज गूंजी।

"क्या आप सब हमें सुन सकते हैं ?", वॉकी टॉकी में आवाज़ गूंजी।

"जी, हम आप सुन सकते हैं। बताइये।", वहां मौजूद सीनियर अफसर ने जवाब दिया ।

" आप सभी को आदेश दिया जाता है कि आप सभी पुलिस जवान घटनास्थल को जल्द से जल्द खाली कर दें । आप सभी को तत्काल प्रभाव से इस केस से अलग किया जाता है। इस केस को अब एक स्पेशल टीम हैंडल करेगी जिसकी नियुक्ति माननीय गृह मंत्री करेंगे। उन्होंने इस केस की संवेदनशीलता को ध्यान में रखकर ये फैसला लिया है।"

वहां मौजूद सभी पुलिस वाले इस अचानक लिए फैसले को लेकर चकित नज़र आ रहे थे। वो सब सीन ऑफ क्राइम को व्यवस्थित कर , उसपर चिन्ह लगाकर बाहर की ओर बढ़े और उस स्पेशल टीम के वहां पहुँचने का इंतज़ार करने लगे।

तभी वहां पर आंनद कुमार अपनी सरकारी गाड़ी से पहुँचे। वहां मौजूद पुलिस वालों ने उन्हें सलाम किया और ग्रह मंत्री द्वारा दिये गए आदेश के बारे में बताया।

"गृहमंत्री द्वारा गठित स्पेशल टीम जांच करेगी ? मगर क्यों ? ये कोई देश की रक्षा से जुड़ा मामला तो मुझे लग नही रहा है। It's a clear cut case of homicide . जिसके लिए हम पुलिस वाले पर्याप्त हैं। मुझे ये आदेश अजीब लग रहा है।", आंनद कुमाए ने गृहमंत्री द्वारा किये गए इस फैसले को लेकर रोष जाहिर करते हुए बोला।

"सर, हमे भी ये आदेश अजीब ही लगे। मगर हमे तत्काल प्रभाव से हर इन्वेस्टीगेशन को रोकने का निर्देश दिया गया। इसीलिए हम यहां उस टीम के यहां पहुँचने का इंतज़ार कर रहे हैं।",वहां मौजूद एक सीनियर पुलिस अफसर ने आंनद को अपनी राय से अवगत कराया।

"मगर मुझे गृह मंत्री द्वारा लिया गया फैसला कुछ सही प्रतीत नही हो रहा है। मैं इस मामले की जड़ तक पहुंचने की कोशिश करूंगा। कुछ तो ऐसी बात है जो सरकार हमे बताना नही चाह रही है। ", आंनद कुमार ने अपने विचार व्यक्त किये। "खैर तुम लोग यहां पर मौजूद रहो उस स्पेशल टीम के आने तक ।"

इतना कहते हुए आंनद कुमार अपनी गाड़ी में बैठे और वहां से वापस चल गृहमंत्री द्वारा दिये इस निर्देश की तह तक पहुँचने।

स्थान : हरिद्वार (12 वर्ष पूर्व)

हरिद्वार की इस पावन धरा पर आज गंगा नदी के किनारे अच्छी खासी भीड़ जमा थी। विश्व विख्यात सिद्ध पुरुष विश्व ऋषि श्री अंजनिराम देव आज हरिद्वार पधारे थे। उनके भजन सभा में इतनी भीड़ होना स्वाभाविक बात थी। उनकी बातें लोगो को सुननी पसंद थी क्योंकि उनके द्वारा की गई बातें लोगो को समझने में आसान और अपने जीवन मे उपयोग में लाने में बड़ी ही सरल रहती थी। विश्व गुरु का दर्जा उन्हें यूंही हासिल नही हुआ था। भारत वर्ष के कोने कोने से लोग उनकी इस भजन सभा मे उपस्थित होने आए थे और उनके दर्शन पाकर खुद को तृप्त मान रहे थे।

ऋषि अंजनिराम देव भी सही मायनों में विश्व ऋषि ही थे। धनाढ्य घर से होने से, सारी सुख सुविधाओं में पले बढ़े होने के बावजूद भी 10 वर्ष की छोटी उम्र में ही जीवन के सत्य की खोज में निकल पड़े थे। उनकी उम्र के लड़के जब अपने विद्यालय में दिए गए ग्रह कार्य मे व्यस्त रहते थे , उस उम्र में अंजनिराम देव जीवन -मृत्य की सत्यता को समझ चुके थे। घर वालों को समय समय पर पत्र द्वारा अपना हाल चाल बताते रहते थे मगर एक बार अपना घर छोड़ने के उपरांत कभी भी वापस उस मोह माया में वापस नही गए। दशकों तक हिमालय की कंदराओं में तप करने के उपरांत वह वापस मनुष्य जाति को नीति, धर्म और जीवन के सत्य से परिचय कराने आये थे। तपोबल से अर्जित उनके उस ज्ञान की बातों को सुनने और उसको अपने जीवन मे उतारने के प्रयास में लोग स्वयं ही उनके शिविरों में बढ़ चढ़ कर आते थे। आज के हरिद्वार में लगे इस शिविर की स्थिति भी कुछ ऐसी ही थी।

अपना व्यख्यान समाप्त करके अंजनिराम देव अब लोगो को कुछ भजनों के माध्यम से धर्म कर्म की बातें सुना रहे थे। लोग भी उनके साथ उन भजनों को गाते गाते मंत्रमुग्ध हो गए थे। वहां का पूरा वातावरण भगवत मय हो चुका था कि तभी आसमान में अचानक से एकदम अंधेरा छा गया। वहां मौजूद सभी लोग चौंक पड़े थे। सुबह के 10 बजे ऐसा अंधकार ? लोगो के मन मे यही एक बात गूंज रही थी। सभी लोग ऊपर आकाश की तरफ देख रहे थे मगर काले अंधेरे के सिवाय उन्हें कुछ भी नज़र नही आ रहा था। ये अंधेरा अमावस्या की रात के अंधेरे से भी ज्यादा काला और भयावह प्रतीत हो रहा था। लोगो को अपने आस पास कुछ भी नज़र नही आ रहा था। अब ये अंधेरा लोगो के मन मे घर करने लगा था और सभी के अंदर भय और चिंता की लहर दौड़ चुकी थी।

अंजनिराम देव भी इस स्थिति को देखकर अचंभित थे। दिन के इस समय अचानक से ऐसा घुप्प और घना अंधेरा हो जाना कोई आम बात भी तो नही थी। उन्होंने लोगो से भयग्रस्त ना होने की अपील की मगर उनकी आवाज़ माइक बंद होने की वजह से बहुत दूर नही पहुँच पा रही थी। वहां पर अब अफरा तफरी का माहौल बन चुका था। अंजनिराम देव ने अपने शिष्यों को स्थिति संभालने के लिए भेजा और स्वयं उस अप्रत्याशित घटना के कारण को जानने के लिए निरीक्षण में जुट गए थे।

वो अपनें मंच से उतरकर सीढ़ियों से नीचे उतर ही रहे थे कि उन्हें उस स्थान से दूर एक स्थान पर एक सफेद रौशनी की किरण दिखाई दी। उस रौशनी में कोई खास बात बात थी क्योंकि इतनी दूरी पर होने के बावजूद वो अति तीव्रता से जल रही थी और अंजनिराम को अपनी ओर आकर्षित कर रही थी। चारो ओर फैले उस घने अंधेरे में रौशनी के उस एक स्रोत का होना अंजनिराम को अजीब लगा। वो उसी रौशनी के स्रोत को देखने उसी दिशा में चल पड़े।

उस घने अंधेरे में अंजनिराम देव अपने हर कदम को जांच परख कर ही रख रहे थे। इस समय उनके मस्तिष्क में अनेको सवाल उमड़ रहे थे। दिन के उजाले को एक ही पल में रात अंधेरे में तब्दील होता हुआ देखना कोई सामान्य बात भी नही थी। उनकी रोज़ की गई गणना के अनुसार भी उन्हें ऐसे किसी अप्रत्याशित घटना का अंदेशा नही हुआ था। मस्तिष्क में इन अनेको सवालों के जवाब तलाशते हुए अब वो अपने शिविर से काफी दूरी पर आ चुके थे मगर वो रौशनी का पुंज अभी भी पास आता हुआ नजर नही आ रहा था। अब उनके चारो ओर केवल और केवल सन्नाटा ही था। उन्हें दूर दूर तक किसी भी मानव या पशु के इस स्थान पर होने का कोई अंदेशा नही हो रहा था। उन्होंने आकाश की तरफ सर उठा कर देखा। आकाश में कोई भी तारे नज़र नही आ रहे थे। इतनी देर से अपने मनोबल को ऊँचा बनाये हुए अंजनिराम देव को अब किसी अनहोनी के होने का संकेत नज़र आने लगा था।

करीब 2 घण्टे से लगातार चलते चलते अंजनिराम देव पर थकावट और प्यास हावी होने लगी थी। उन्हें अब कुछ देर कहीं रुककर अपनी थकावट मिटाने का मन हो रहा था। उन्होंने इधर उधर नज़रे घुमाई मगर कोई उपयुक्त स्थान ना मिलने पर वापस आगे चल पड़े।मगर कुछ ही दूर आगे चलने के बाद उन्हें कहीं से गीली मिट्टी की सोंधी महक आई। आस पास कहीं जल स्त्रोत के होने की उम्मीद ने अंजनिराम के अंदर नई ऊर्जा का संचार कर दिया था। वो तेज़ी से बढ़ते हुए उस जल के स्त्रोत की खोज करने लगे।

कुछ दूर और चलने के बाद उन्हें आगे कुंआ नज़र आया। चारो ओर फैले उस घने अंधेरे में भी उस कुएं के नज़र आने का कारण था उसके अंदर से आता अत्यंत कम तीव्रता का वो प्रकाश। अंजनिराम ने उस कुएं में झांककर देखा तो उन्हें अंदर कुछ नज़र नही आया। वो प्रकाश का स्त्रोत भी कुंए के काफी अंदर था। उन्हें उस कुएं से जल निकालने का और अपनी प्यास बुझाने का कोई तरीका नज़र नही आ रहा था। थोड़ी देर विचार करने के बाद अंजनिराम वहीं बैठ कर अपनी थकान मिटाने लगे। जिस प्रकाश के स्त्रोत के पीछे अंजनिराम इतनी दूर आये थे वो अभी भी उस स्थान से काफी दूरी पर था। ऐसा लग रहा था अंजनिराम के हर बढ़ते कदम के साथ वो और भी दूर होता चला जा रहा था।

सुबह से शिविर में और अभी इतनी देर पैदल चलने के कारण अंजनिराम पर अब थकान हावी होने लगी थी। उनको वहीं कुंए के पास बैठे बैठे उन्हें कब नींद ने अपनी आगोश ने ले लिया उन्हें इस बात की अनूभूति ही नही हुई।

करीब आधे घण्टे की झपकी के बाद उनके चेहरे पर गिरी किसी द्रव्य की बूंद ने उनकी निद्रा तोड़ी। उन्होंने वो द्रव्य की बूंद को अपने चेहरे से पोछा और उठकर खड़े हो गए। उन्होंने चारो ओर देखा । अंधेरा अभी भी उतना ही घना था और आस पास किसी मनुष्य के होने के संकेत उन्हें अभी भी नज़र नही आ रहे थे।

तभी अचानक कुंए में से एक हल्की सी आहट सुनाई दी। अंजनिराम ने उस कुंए के अंदर झांककर देखा तो उस कुंए के तल से एक ईंट अपने स्थान से निकलकर बहुत ही तीव्र गति से कुंए के बाहर आ रही थी। अंजनिराम ने बगल हटकर उस ईंट से अपनी रक्षा की जो बाहर आकर गिरी। अंजनिराम ने फिर अंदर झाँककर देखा तो उस ईंट के निकलने से कुंए में पैदा हुए उस रिक्त स्थान से कोई द्रव्य बहुत तेज़ी से बाहर आने लगा और उस कुंए को भरने लगा। अचानक से हुए इस घटनाक्रम से अंजनिराम चौंक गए थे। उनके देखते ही देखते उस कुंए के अंदर सैंकड़ो की संख्या में वो ईंटे एक एक करके अपनी अपनी जगह से बाहर निकलकर हवा में तैरने लगीं और फिर थोड़ी ही देर बाद बड़ी तीव्रता से सभी ईंटे कुंए के बाहर आकर गिरीं। अंजनिराम ने उस कुंए की ओट लेकर किसी तरह उन ईंटो से अपने आप को बचाया।

कुछ देर इंतज़ार करने के बाद अंजनिराम ने कुंए के अंदर फिर झाँककर देखा तो अब वो द्रव्य उस कुंए को लगभग पूरा भर चुका था। अंजनिराम उस दृश्य को देखकर अचंभित थे। लगातार कुंए को भरते उस द्रव्य की गन्ध भी अब अंजनिराम को महसूस होने लगी थी। वो गंध मानव रक्त की थी। इस बात का आभास अंजनिराम को व्याकुल करने को पर्याप्त था। डर की एक तीव्र लहर ने उनके मस्तिष्क को झकझोर कर रख दिया था। कुछ पलों तक वो कुछ सोचने समझने की स्थिति में नही थे।

उधर वो कुंआ अब पूरी तरह से भर चुका था और उसमें बहता रक्त अब कुंए के बाहर आने लगा था। वो रक्त उस कुएं से इतनी तीव्र गति से बाहर आ रहा था कि कुछ ही पलों में अंजनिराम के घुटने उस रक्त में डूब चुके थे। अंजनिराम ने चारों दिशाओं में उसी अताह मानव रक्त को अपने आस पास महसूस किया। उस मानव रक्त से निकल रही वो तेज़ गंध अब अंजनिराम को परेशान करने लगी थी। वो किसी तरह अपने आप को बेसुध होने से बचा रहे थे। मगर कब तक?

अंजनिराम कुछ और सोच पाते उससे पहले ही उनके नेत्रों के सामने कुंए के ऊपर उस रक्त में एक आकृति का निर्माण होने लगा। धीरे धीरे बड़ी होती उस आकृति की बनावट अलग ही नज़र आ रही थी। अंजनिराम उस आकृति को एक टक देखे जा रहे थे। वो आकृति आड़ी तिरछी अलग अलग दिशाओ में बढ़ती जा रही थी। तभी उस आकृति से निकला एक भाग तेज़ी से अंजनिराम की तरफ आया और उनके गले को जकड़ लिया। अंजनिराम ने उसके गिरफ्त से निकलने की बहुत कोशिश की मगर उसके चंगुल से खुद को आजाद नही कर पा रहे थे।

तभी अचानक अंजनिराम को अपने चारों और फैले मानव रक्त के उस अताह समंदर में हलचल महसूस हुई। उन्होंने चौंक कर अपने चारों और फैले उस अताह रक्त को देखा तो कुएं से निकलती उस हल्की सी रौशनी में उन्हें उस रक्त के समंदर में से मानव धड़ निकलता हुआ दिखा। वो धड़ पूरी तरह उस रक्त से नहाए एक के बाद एक अंजनिराम के चारो तरफ निकल रहे थे। अंजनिराम ने अपनी जगह से हिलने की कोशिश की मगर उनके पैरों को कोई नीचे से पकड़ कर उन्हें नीचे की ओर खींच रहा था। रक्त की वो तीव्र महक भी अंजनिराम के ऊपर हावी हो रही थी।

वो अनेकों रक्त रंजित धड़ जो अभी तक अंजनिराम के चारो ओर बिना कोई हलचल किये खड़े थे उन सभी ने अचानक एक साथ अपनी आँखें खोल दी थी और सभी ने अपने सर को घुमा कर अंजनिराम की ओर केंद्रित कर दिया और धीरे धीरे सभी अंजनिराम की तरफ बढ़ने लगे। अंजनिराम ने चारों तरफ दूर दूर तक नज़रे दौड़ाई मगर हर जगह उन्हें वही धड़ नज़र आये जो उनकी तरफ एकटक देखते हुए बढ़े चले जा रहे थे।

तभी वो सफेद प्रकाश का स्त्रोत जिसका पीछा करते हुए अंजनिराम यहां तक आये थे वो अचानक से उनकी तरफ आगे लगा। वो प्रकाश का स्त्रोत धीरे धीरे बड़ा होता जा रहा था और अंजनिराम की तरफ बढ़ता जा रहा था। मगर आगे का दृश्य देखने तक अंजनिराम अपने होश नही संभाल रख सके । उस रक्त की तीव्र गंध से और जरूरी प्राणवायु की कमी के चलते अंजनिराम बेहोश हो चुके थे और धीरे धीरे उस रक्त के समुद्र में डूबते जा रहे थे।

स्थान : वाराणसी (अमृतोश और वैदेही का घर)

पंडित बिशंभर नाथ जयंत के मुँह से उन शब्दों को सुनकर अचंभित रह गए थे। उन शब्दों ने उनके जीवन का वो अनछुआ भाग याद दिला दिया था जिसको अपने जेहन से निकालने की इतनी कोशिशों के बावजूद वो अभी तक सफल नही हो सके थे और आज जयंत के उन शब्दों ने उनको दुबारा वही खौफ़नाक दृश्य याद दिला दिए थे। उन्होंने जयंत को एक बार फिर ध्यान से देखा क्योंकि उनको जयंत के द्वारा बोले गए उन शब्दों पर यकीन नहीं हो रहा था क्योंकि उन्होंने अपनी जिंदगी का ये पहलू किसी को भी नही बताया था। किसी को भी नही।

जयंत अभी भी एक हल्की मुस्कुराहट के साथ बिशंभर नाथ को घूर रहा था। वो मुस्कुराहट बिशंभर नाथ की आत्मा को छलनी कर रही थी।

"क्या हुआ बिशंभर? चौंक गया मेरे मुँह से उस घटना का जिक्र सुनकर। तूने तो किसी को नही बताया था ना। यही सोच रहा है ना तू।"

बिशंभर नाथ कुछ भी बोलने या समझने की स्थिति में नही थे। उनके सोचने , समझने की समस्त तार्किक शक्ति को उनके भय ने हर लिया था। वो बस अपनी दहशत भरी आँखों से जयंत को देखे जा रहे थे।

"तेरे पापो ने अब तुझे बोलने लायक भी नही छोड़ा है बिशंभर। तू अपने आप को निष्ठावान और सत्य का उपासक कहता है मगर कहाँ था तेरी सत्य और निष्ठा जब वो बच्ची अपनी आखिरी सांसें गिन रही थी और तुझसे अपने जीवन की भीख मांग रही थी। तूने अपने ज्ञान की सत्यता को परखने के लिए उस लड़की की बलि चढ़ा दी थी बिशंभर। तूने केवल अपनी जिद के चलते एक मासूम की जान ली थी बिशंभर। तेरा भगवान तुझे कभी माफ नही करेगा। मगर तेरे भगवान को अपनी वाहवाही के अलावा और कुछ प्यारा भी तो नही है। ये बात तू नही समझ पाया बिशंभर मगर उसकी कीमत एक मासूम बच्ची को चुकानी पड़ी जिसने अपना सब कुछ तुझे मानकर तुझे अपना जीवन सौंपा था।"

बिशंभर को आज भी याद था वो दिन जब उसके आश्रम की एक शिष्या ने उसको हर समय अपने साथ किसी साये के होने की बात बताई दी। बिशंभर उस समय युवा था और अपने गुरु अमोघनाथ से प्राप्त की हुई शिक्षा को पूर्ण रूप से समझने का प्रयास कर रहा था। उसने उस शिष्या को एक मंत्र का उच्चारण करने को और गंगा जल अपने पास रखने को कहा। मगर इससे उसकी हालत में कोई खास फर्क नही पड़ रहा था। ये बात बिशंभर को बहुत अच्छे से पता थी। उसने जानबूझकर उस शिष्या को उस साये से उसके शरीर के परिग्रह(possession) के शुरुआती चरणों मे उससे मुक्ति नही दिलाई क्योंकि वो उस साये को उसके शरीर के ऊपर परिग्रह के तीसरे चरण तक पहुँचाना चाहता था।

"किसी भी आत्मा या साये का किसी भी शरीर पर परिग्रह करने के तीन चरण होते हैं।"
पंडित अमोघनाथ बिशंभर को बता रहे थे।

बिशंभर बड़े ध्यान से अमोघनाथ के उस ज्ञान को ग्रहण कर रहा था।

"प्रारंभिक चरण, मध्य चरण और अंतिम चरण। प्रारंभिक चरण किसी साये का किसी उस शरीर के ऊपर परिग्रह का सबसे कमज़ोर चरण होता है। इस चरण में वो साया उस इंसान के अंदर की आत्मा के सामने काफी कमजोर रहता है और उसकी शक्ति के आगे दबा रहता है। वो साया उस शरीर से उस समय अपने मुताबिक काम नही करवा सकता है क्योंकि उस इंसान की आत्मा उसके ऐसा करने की हर कोशिश को नकाम कर देती है। वो साया उसके शरीर मे मौजूद रहता है मगर निष्क्रिय अवस्था मे। वो प्रतीक्षा कर रहा होता है एक ऐसे क्षण का जब उस इंसान का अपने ऊपर से विश्वास कम हो। अर्थात अपनी आत्मा के ऊपर से विश्वास कम हो।"

पंडित अमोघनाथ इस ज्ञान की महत्ता समझते थे औऱ उसके किसी गलत हाथों में जाने की सूरत में ये ज्ञान कितना विनाश फैला सकता था इस बात से भी अनभिज्ञ नही थे। मगर वर्षो तप कर पाए गए इस ज्ञान का लाभ आने आगे आने वाली पीढ़ी तक पहुँचाना भी उनकी ही जिम्मेदारी थी जिससे वो दूर नही भाग सकते थे। इसलिए अपने आश्रम में पढ़ने वाले सभी शिष्यों की सत्यता, निष्ठा और भौतिक सुखों के प्रति उनके झुकाव को जांच परख कर उन्होंने केवल पंडित बिशंभर नाथ शुक्ला को ही इस ज्ञान के योग्य पाया।

पंडित बिशंभर नाथ भी अपने गुरु के इस विश्वास पर खरे उतरने की पूरा प्रयत्न कर रहे थे।

"प्रारंभिक चरण के बाद आता है मध्य चरण। कोई भी साया किसी मनुष्य के शरीर के परिग्रह के इस चरण तक तब तक नही पहुँच पाता जब तक उस मनुष्य का आत्मविश्वास अपने ऊपर से अर्थात अपनी आत्मा से डिगा ना हो। अगर हम मुश्किल और कठिनाइयों के समय अपने ऊपर विश्वास बनाये रखें तो कोई साया किसी के शरीर के परिग्रह के इस चरण तक कभी नही पहुँच पायेगा। इस चरण में धीरे धीरे वो साया हमारा आत्मविश्वास गिराता है तब तक जब तक हममें जीवन जीने की इच्छा खत्म ना होने लगे। इस चरण में उस शरीर की आत्मा इस बाहरी साये का विरोध करती है मगर बिना विश्वास की शक्ति के वो उसके सामने ज्यादा देर टिक नही पाती है। और अंतिम चरण ……"

अपनी बात को बीच मे काटकर पंडित अमोघनाथ ने बिशंभर नाथ को ध्यान से देखा। बिशंभर नाथ के चेहरे के हाव भावों ने पंडित अमोघनाथ को अंतिम चरण के बारे में बताने के लिए स्वीकृति दे दी थी।

"अंतिम चरण में वो साया उस शरीर को अपने पूर्ण कब्ज़े में ले चुका होता है। उसकी आत्मा अभी भी उसके अंदर मौजूद रहती है मगर निष्क्रिय अवस्था मे। परिग्रह के इस चरण में वो साया उस शरीर को अपने अनुसार चलाता है। इस अवस्था से बाहर निकालकर मनुष्य को वापस सामान्य अवस्था मे लाना अत्यंत कठिन काम होता है। इस अवस्था से केवल दृढ़ इच्छाशक्ति वाले मनुष्य ही वापस सामान्य अवस्था मे आ पाते हैं । हम अपने इस ज्ञान से उस मनुष्य के अंदर मौजूद उस दृढ़ इच्छाशक्ति को और प्रबल करके उसे उस साये से मुक्ति दिलवाने में सहायता करते हैं।"

पंडित बिशंभर नाथ को अपने गुरु की बताई हर बात और दिए हर ज्ञान का भली भांति बोध था उस समय मगर फिर भी अपने ज्ञान को सबसे कठिन चरण पर परखने की उनकी मंशा ने उनकी उस शिष्या से उसका जीवन छीन लिया। उनकी शिष्या की इच्छाशक्ति उतनी प्रबल नही थी कि वो उस बाहरी साये से मुकाबला करे और ना ही बिशंभर नाथ इसमें उसकी कोई मदद कर पाए। अंततः बिशंभर नाथ ने उस पर- आत्मा को उसकी मृत शरीर से ही बाहर निकालकर उसको बंदी बनाया।

इसी बात की आत्म ग्लानि उन्हें जीवन भर खाती रही है । उसी आत्मग्लानि से निजात पाने उन्होंने काशी विश्वनाथ में महादेव की शरण मे सैकड़ो अनुष्ठान किये मगर उस शिष्या की मौत को वो अपने मन मस्तिष्क से बाहर कभी कर ही नही पाए थे।

जयंत के चेहरे पर मौजूद उस हल्की सी हँसी ने बिशंभर नाथ को उनके उस काले अतीत से फिर परिचय करवाया था।

"लगता है सब याद आ गया तुम्हें बिशंभर की कैसे तुमने और तुम्हारे उस भगवान ने अपनी झूठी प्रशंसा के लिए उस लड़की को मौत की तरफ ओर धीरे धीरे बढ़ने दिया। उसने तुम दोनों पर विश्वास किया था। क्या फायदा ऐसे भगवान का बिशंभर जो अपने भक्तों की प्राणो की रक्षा भी ना कर सके। क्या फायदा ऐसे भगवान का जो अपने भक्तों के दुख भी ना हर पाए। मैं नही मानता ऐसे भगवान में बिशंभर। ये भगवान झूठा और अधर्मी है। इसे बस लोगो के मन मे अपने डर को व्याप्त करके जय जयकार लगवाने ही आता है क्योंकि जब उन्ही जयकारों को लगाने वाला कोई मुश्किल में होता है तो तुम्हारा भगवान मुँह मोड़ लेता है। तुम मेरी शरण मे आओ बिशंभर। मैं दूँगा तुम्हे असल ताकत। ऐसी ताकत जिसके स्त्रोत का जन्म बहुत जल्द होने वाला है। एक ऐसी ताकत जिसका राज पूरी दुनिया पर होगा। मैं बनाऊंगा तुम्हें उस शक्ति का अगुवा जिसके आगे तेरा वो भगवान भी झुकेगा।"

ऐसा कहते हुए जयंत ने अपने हाथ हवा में उठाये और अचानक से ही असंख्य आत्माएं किसी दूसरे आयाम से उस कमरे में प्रवेश करने लगी। वो आत्माएं बिशंभर के चक्कर लगाते हुए इधर उधर घूमने लगीं। डर और दहशत से भर चुके बिशंभर नाथ ने जोरो से महादेव का नाम लेना प्रारंभ कर दिया।

" तेरा महादेव तेरी कोई रक्षा नही कर पायेगा बिशंभर। ये सभी वो अतृप्त आत्माएं हैं जिनका मुश्किल समय मे साथ तेरे भगवान ने छोड़ा मगर मरने के बाद जिनका हाथ उस अलौकिक शक्ति ने थामा और उन्हें हिस्सा बनाया अपनी इस नई दुनिया का जो जल्द ही उनके जन्म के साथ अपने स्वरूप में आएगी। हमारे साथ आ जाओ बिशंभर । हम ही इस दुनियां का भविष्य है और हमीं सबका वर्तमान लिखेंगे।"

उन असंख्य आत्माओं को अपने चारों ओर घूमता देख कर दहशत में आये बिशंभर ने अपनी सारी इच्छाशक्ति को एकत्रित कर भाग कर कमरे का दरवाजा खोला और बाहर की तरफ भागे।

"क्या हुआ अंकल।", कमरे के दरवाज़े के बाहर खड़े जयंत ने उनसे पूछा।

उनके बाहर निकलते ही उनके सामने जयंत खड़ा था मगर ये वो जयंत नही था जिसके दहशत से भाग कर बिशंभर अभी उस कमरे के बाहर आये थे। इस जयंत के चेहरे पर बच्चों वाली मासूमियत थी।

बिशंभर नाथ का सर चकरा रहा था। वो बिना कुछ बोले सीढियों से नीचे उतरे और दरवाज़े की तरफ बढ़ चले।

"क्या हुआ बिशंभर नाथ जी ? आपने कमरे में क्या देखा। रुचि क्यों चिल्ला रही थी।", वैदेही ने बिशंभर जी की तरफ बढ़ते हुए कहा।

बिशंभर जी ने एक पल को अपने आगे बढ़े कदम रोके और पीछे मुड़कर बोले।

"चिंता की कोई बात नही है। सब कुशल मंगल है। मैं आपसे इन संदर्भ में बाद में बात करता हूँ। अभी मुझे जाना होगा।"

इतना कहते हुए बिशंभर आगे मुख्य दरवाजे की तरफ बढ़ चले।


स्थान : प्रयागराज

अंजनिराम देव अपने शिविर मैं स्वामी ज्ञानदेव के साथ मौजूद गहन गणना में लीन थे।

"मेरी इतनी कोशिशों के बाद भी अभी तक उस शस्त्र के मौजूद होने के साक्ष्य अभी तक मुझे मिल नही पाएं हैं ज्ञानदेव।", अंजनिराम ने चिंतित मुद्रा में अपने द्वारा लिखित गणनाओं का एक बार पुनः निरीक्षण करते हुए बोले।

"मगर ऐसा कैसे हो सकता है अंजनिराम जी। हम दोनों ने तो उस शस्त्र की गणना करने में हर तरीके की विधा का उपयोग किया था और हमे सबसे एक ही उत्तर प्राप्त हुआ था। तो वो आज हमारी आँखों से ओझल कैसे हो रहा है।"

"यही बात तो मुझे भी चिंतित कर रही है ज्ञानदेव। उस जन्म लेने वाली अनिष्टकारी शक्ति से हमारी रक्षा करने की शक्ति केवल उसी एक शस्त्र में है ज्ञानदेव। अगर हमने इस शस्त्र का पता अतिशीघ्र नही लगाया तो घोर अनर्थ हो जाएगा ।"

स्वामी ज्ञानदेव और अंजनिराम देव दोनों ही चिंता की मुद्रा में अपने सामने रखीं उन पांडुलिपियों को बार बार पलट पलट कर देख रहे थे और चेहरे के भाव ये दर्शा रहे थे उन्हें अभी तक कोई सफलता हासिल नही हुई थी। 12 वर्ष पूर्व हुई उस घटना ने अंजनिराम देव को अंदर तक भयभीत कर दिया था तब से लेकर आज तक उन्होंने अपने जीवन के 12 वर्ष अपने मित्र स्वामी ज्ञानदेव के साथ मिलकर एक ऐसी शक्ति की खोज में लगा दिए जो इस ब्रह्मांड की रक्षा वैसी अलौकिक शक्तियों से कर सके। और अब तो उस शस्त्र का मिलना और भी जरूरी हो गया था क्योंकि निकट भविष्य में बहुत जल्द उस एक महा अधर्मी अलौकिक शक्ति का जन्म होने वाला था जिसका मुकाबला शायद वो शस्त्र भी अकेले ना कर पाए मगर फिर भी वो शस्त्र ही इस ब्रह्मांड की आखिरी उम्मीद थी।

"अंजनिराम देव । ऐसा भी तो हो सकता है कि हमारी समस्त गणनाएं बिल्कुल सटीक ही हों और हमे सही दिशा दिखा रहीं हों मगर कोई और शक्ति उस शस्त्र पर किसी प्रकार का आवरण लगा कर हमारी गणनाओं को प्रभावित कर रही हो।"

ज्ञानदेव के इन शब्दों ने मानो अंजनिराम के मन मस्तिष्क में तीव्र बिजली का प्रवाह प्रवाहित कर दिया हो क्योंकि अगर ज्ञानदेव की ये बात सत्य थी तो अंजनिराम ब्रह्मांड पर इसके भारी दुष्परिणामों से भली भांति परिचित थे।

"आपके कहने का तातपर्य ये है कि हमारे अलावा कोई और भी उस शस्त्र का पता लगा चुका है और हमसे पहले ही उस तक पहुँच चुका है।",

"ऐसा संभव है ।"

स्थान :अज्ञात

"तुमने इस शस्त्र का पता लगाकर इस जंग को पूरी तरीके से हमारे पक्ष में कर दिया है सेवक। हम तुम्हे मनचाहा उपहार देंगे और भविष्य की हमारी इस दुनियां में एक अति महत्वपूर्ण स्थान।"

वो शख्स जिसको अभी सेवक कहके पुकारा गया वो इन शब्दों को सुनकर गद गद होकर उस दूसरे शख्स के चरणों को छूने लगा और बोला।

"तो अब हमें किस बात का इंतज़ार है प्रभु। इस शस्त्र को हम अभी नष्ट करके हम अपने राज्य की स्थापना का बिगुल बजा सकते हैं।"

" नही मूर्ख नही। हमे इंतज़ार हैं हमारे ईश्वर के इस पृथ्वी पर आगमन का और वो क्षण अब बहुत ही नजदीक आ चुका है। हमें इस शस्त्र को उनके आगमन तक केवल उस अंजनिराम की शक्तियों से छुपाकर रखना है। ये शस्त्र अभी निष्क्रिय अवस्था में है और हम इसे सक्रिय नही कर सकते। इसे सक्रिय केवल और केवल अंजनिराम जैसा शक्तिशाली मनुष्य ही कर सकता है। हमे केवल हमारे ईश्वर के आगमन तक उसे उस अंजनिराम जैसे शक्तिशाली मनुष्यो से छुपाकर रखना है । हमारे ईश्वर के आगमन के बाद हम स्वयं ही इस आवरण को हटा कर अंजनिराम जैसे शक्तिशाली मनुष्य को यहां आने का मौका देंगे और इस शस्त्र को सक्रिय अवस्था में आने देंगे क्योंकि उसके बाद हमारे ईश्वर उस मनुष्य को अपने हाथों मोक्ष देकर इस शस्त्र पर अपना अधिकार कर लेंगे और फिर उनको नष्ट करने के लिए बनाएं गए इसी शस्त्र से वो इस ब्रह्मांड से उसके भगवान और उसके अनुनायियों का नाश करके एक नए ब्रह्मांड की रचना करेंगे। हमारे ब्रह्मांड की रचना करेंगे।"

क्रमशः।