Badi baai saab - 12 in Hindi Fiction Stories by vandana A dubey books and stories PDF | बड़ी बाई साब - 12

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बड़ी बाई साब - 12

कभी डॉक्टर बनने का ख्वाब देखने वाली नीलू भी अब कुछ और कहां सोच पाती थी? उसे भी दिन रात अपनी शादी की ही चिन्ता रहने लगी थी . ऐसे में जब परिहार परिवार की ओर से खुद चल के रिश्ता आया तो नीलू समझ ही नहीं पाई कि उसे कैसा लग रहा है? खुश है या नाखुश? रिश्ता आने की तह में लड़के वालों की कमियां तलाशे या अहसानमंद हो जाये उनकी? और अन्तत: सीधी-सज्जन नीलू का मन उनका अहसानमंद हो गया, जिन्होंने ऐसे समय में रिश्ता भेजा था, जबकि घर में नीलू की शादी को लेकर एक अजब सी हताशा का माहौल बन गया था. रिश्ता वैसे भी समाज की तयशुदा व्यवस्था के खिलाफ़ ही आया था. नीलू को यही बात अच्छी भी लगी थी कि जहां समाज में लड़की के बाप को ही रिश्ता ले के जाने की बाध्यता हो, वहां परिहार साब ने सारे नियम तोड़ते हुए रिश्ता खुद आगे बढ़ के मांगा था. उसी शहर के स्थाई निवासी परिहार साब , बुन्देला परिवार से अच्छी तरह परिचित जो थे. लड़का नीलू को बहुत पसन्द नहीं आया था, लेकिन उसका मन इस परिवार के प्रति इतना एहसान के बोझ से खुद को दबा पा रहा था, कि अपनी पसन्द-नापसन्द ज़ाहिर करने की उसकी इच्छा ही नहीं हुई. घर वालों ने भी कुछ भी पूछने-जांचने की इच्छा कहां जताई? लड़के वाले कैसे हैं, उनका परिवार कैसा है, माहौल कैसा है, कुछ भी कहां जानना चाहा? नीलू को लग रहा था कि जैसे ये सब उतावले से बैठे हैं कि यदि यहां नीलू की शादी न हुई तो कहीं न हो पायेगी! ऐसे माहौल में नीलू क्या बोले? रिश्ते की जानकारी देते हुए दादी बस इतना बोली थीं कि-“ नीलू, बेटा कोई चिन्ता मत करना. सामान से घर, और पैसों से अकाउंट भर देंगे उनका, फिर देखना कैसे राजरानी की तरह रहेगी हमारी बेटी वहां. अरे बेटा, पैसा अच्छे-अच्छों को झुका देता है.” वाक्य पूरा करते-करते दादी के चेहरे पर जो गर्वीली मुस्कान उभरी थी, उसने नीलू के बदन में सिहरन भर दी थी. अच्छी नहीं लगी थी दादी की ये बात नीलू को. लेकिन प्रतिवाद करना कहां सीखा था नीलू ने? सो उस समय भी चुप ही रही. दादी का ये दांव भी तो कैसा उल्टा पड़ा था!! उसकी ससुराल ज़रूरत से ज़्यादा ही होशियार थी. किसी सामान की मांग नहीं की, क्योंकि जानते थे बुंदेला परिवार को, कि बिना मांगे ही भरपूर मिलेगा सो काहे को ज़बान निकालना? बल्कि इतना सामान देने की निंदा ही की, कि अब रक्खें कहां? तंज भी कस दिया कि- “ इतना सामान देना था, तो एक घर भी दे देते सब रखने को.” जबकि मन ही मन खुश हो रहे थे कि चलो अब दोनों लड़कियों के दहेज का इंतज़ाम तो हो गया. सास ने डेढ़ तोले के झुमकों को देख कर बुरा सा मुंह बनाते हुए सुनाया- “ इतने हल्के झुमके दे पायीं तुम्हारी दादी! इससे अच्छा तो न देतीं.” नीलू का मन हुआ कि कहे –“ कभी एक तोले के झुमके पहन के देखे हों, तो वज़न का अन्दाज़ हो पाये, कि कान कितना भार सम्भाल सकते हैं.” लेकिन बोली कुछ नहीं.

(क्रमशः)