Bhukh ki aag in Hindi Biography by Dinesh Tripathi books and stories PDF | भूख की आग

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भूख की आग

मै तब बारह वर्ष का था |मेरा रोज का नियम था सुबह नास्ते में एक लोटा गाय का ताजा दूध पीना |उस दिन गॉव के पश्चिम दिशा के हनुमान मन्दिर मे अखण्ड रामायण थी |मै भी रामायण पाठ में था तो सुबह घर देर से गया |भूख भी लगी थी |मै कितनी भी देर कर देता पर माँ मेरे लिए ताजा दूध बिना उबला रख देती थी लेकिन उस दिन भाभी ने दूध उबाल कर रखा था |मैने जैसे ही दूध का लोटा मुँह मे लगाया मै जल गया |मै ितलिमला उठा और दूध लोटा सिहत जमीन पर पटक दिया|मेरा गुस्सा जले मुँह से कम, दूध के उबालने से ज्यादा था |क्योंकि कच्चे दूध मे पौष्टिकता होती है, जो उबालने पर खत्म हो जाती है |किसी ने बचपन मे समझाया था, जो मेरे कोमल दिमाग मे यह बात पत्थर की लकीर थी|जो मूर्खता पूर्ण थी |कच्चा ग्यान था |क्योंकि बच्चे का कोमल मन मे समाज की छाप दिखती है ,उसे चाहे जो ग्यान दो ?
मेरी ऐसी प्रतिक्रिया बडे भैया ने देखा तो उनसे मेरा यह अत्याचार देखा न गया और दण्ड स्वरूप डण्डा लेकर मेरी ओर दौडे |मै जान लगाकर भागा और एक ही साँस मे हनुमान मन्दिर में खडा हुआ|पीछे मुडकर देखा तो भैया चले आ रहे थे |मै फिर भागा और एक स्कूल में शरण ली |जो गॉव से एक किलोमीटर दूर है|तब पिता जी उसके मैनेजर थे,अब भैया हैं|
स्कूल के एक कमरे मे चपरासी की चारपाई थी मै उसमे लेट गया |भैया की पहुँच से अब मै दूर था |दूरी से दूर नहीं हिम्मत से दूर|क्योंकि उनको पकडना था और मुझे भागना था|मुझे भूख लग रही थी भोजन का कोई निशान तक न था |मुझे एक उपाय सूझा, पास मे अपने आम के बागीच से आम खाया जाय |
दोपहर के बारह बजे थे|जून महीने का प्रथम सप्ताह था |सूरज अपनी तेज प्रचंड ज्वाला बरसा रहा था ,शरीर झुलस रहा था आँखें चौंधिया रही थी|जीव-जन्तु ,मनुष्य कोई नही दिख रहा था|थी ,तो सिर्फ प्रचंड तेज धूप और लू|जिसे देखकर ह्रदय काँप जाता था|लेकिन आँतें भी सुलग रही थी, मरते क्या न करते|मै बगीचे मे पहुँचा तो दूर-दूर तक पके आम न थे |अभी आम पकने का शुरुआती मौसम था |बगीचे का एक सबसे बडा पेड, जिसकी शाखायें मोटी व लम्बी थी उसकी ऊँची चोटी पर कुछ पके आम दिखे| मै चढ गया |कभी इतनी ऊँचाई पर नही चढा था|देखा तो अधपके थे डूबते को तिनके का सहारा ही सही|मैने डाल को झटका दिया ताकि झटके से आम टूटकर गिर जाये लेकिन एक अनहोनी हुई, हाँथ से डाल छूट गयी |धुकधुकी बढ गयी,मन छटपटाने लगा, पता नही अब क्या होगा? भय का सिकंजा कसता गया | सरसराती हुई पत्तियाँ और डालों से टकराते हुए जमीन पर लद्द से गिरा|शुक्र था हाँथ पैर नहीं टूटे|
सिर्फ अन्दरूनी चोट आई |जो कभी-कभी अभी तक दर्द करती है |लेकिन आम मैने तोड लिए थे |उन अधपके आम को एक स्कूल वाली बाल्टी मे लिया, हैण्डपम्प से पानी भरा |उस माहौल मे सिर्फ पानी ही ठण्डा था |आम को भी ठण्डा किया |कच्चे आम का खट्टा रस चूसा तो शरीर को थोडी ऊर्जा मिली |दिमाग फिर भी सिथिल था| एक लोटा पानी पिया और खाट पर लेट गया |लेटते ही बेहोशी नींद आयी |आँख तब खुली, जब मेरा मित्र सुशील मुझे हिला रहा था और जोर-जोर से कह रहा था"अरे उठ कितना सोयेगा|"मेरी आँख बोझिल थी, खुमारी पलकों पर वजन लिए बैठी थी |सुशील फिर बोला"ले खाना खा तुम्हारी माँ ने दिया है|"मेरे मन में खुशी की लहर दौड गयी ,संसार का सबसे बडा उपहार जो सामने था|भोजन मे घी से चुपडी चार रोटियाँ,अचार और एक बडा पका आम था |मै पलक झपकते भोजन चट कर गया|दुनिया का सबसे स्वादिष्ट भोजन था|बाहर हम निकले तो सूरज की किरणें निस्तेज हो रही थी|शाम के छह बजे थे| हम दोनो ने घर के लिए प्रस्थान किया|रास्ते में सुशील को भी अपनी सौर्यगाथा सुनायी|अब हम घर आ चुके थे |लेकिन किसी ने हाल भी न पूँछा, सबको लगा होगा कि मै रामायण में व्यस्त था|सही सोचना था सबका क्योंकि मै रामायण मे ही व्यस्त था |रामायण पात्र का किरदार निभा रहा था| रामायण पाठ हनुमान मंदिर मे था और वनवास मुझे हुआ था |


लेखक-दिनेश त्रिपाठी