The Author Prabodh Kumar Govil Follow Current Read प्रकृति मैम - बदन राग By Prabodh Kumar Govil Hindi Philosophy Share Facebook Twitter Whatsapp Featured Books THE MIRROR KEEPER The village library stood like a quiet guardian in the heart... Predicament of a Girl - 13 Predicament of a Girl A romantic and sentimental thriller Ko... HAPPINESS - 104 Keep erasing hatred from hearts in the universe. Keep... Love at First Slight - 28 The Grand Event at Marina Bay SandsThe night was alive with... The Village Girl and Marriage - 2 Diya had only seen the world of books; she had not witnessed... 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में और छह दूसरे भाग में। उन दिनों मैं इस परीक्षा का इतना ही असर जानता था कि इसमें पास हो जाने से दो इंक्रीमेंट मिलते हैं, यानी वेतन वृद्धियां।एक दिन किसी काम से मैं उदयपुर के पुराने ऑफिस में गया था, कि वहां एक अधिकारी को तमाम नए लड़कों पर ये कॉमेंट करते हुए सुना- इतने बड़े दफ़्तर में एक भी ऐसा नहीं निकला जो परीक्षा का एक पेपर भी पास कर पाता। संयोग से उस समय मेरी मार्क्स शीट मेरी जेब में ही थी, जिसमें दो पेपर्स में मेरे पासिंग मार्क्स थे। मैंने कुछ संकोच से शीट उन अधिकारी की मेज़ पर उनके सामने रख दी।उनका सुर तत्काल बदल गया।अब वो और भी रुखाई से नए स्टाफ को सुनाने लगे- अरे देखो शर्म करो, ये गांव में बैठा बच्चा दो पेपर निकाल गया और तुम शहर में बैठे बैठे गोल हो गए।शाम को हम कुछ मित्रों ने सिनेमा घर में जाकर फ़िल्म देखी और खाना भी बाहर खाया। अगली सुबह मैं वापस लौट गया।इन दो परीक्षा परिणामों का असर ये हुआ कि मेरे छात्र मित्रों का भरोसा मुझ पर बेतहाशा बढ़ गया। उदयपुर में भी और गांव में भी।कई तो दीवाने हो गए। मुझसे नजदीकियां बढ़ गईं। मेरे पास पढ़ने आते। रात देर तक पढ़ाई करते। कई बार रात को मेरे पास ही सो जाते।अंग्रेज़ी से सब परेशान रहते थे। अंग्रेज़ी पढ़ने की तो लाइन लगी रहती। उन दिनों कोचिंग नाम की चिड़िया का कोई नाम भी नहीं जानता था। टीचर और सीनियर छात्रों से ही सब पढ़ते थे। ट्यूशन किसे कहते हैं,इस बात का आविष्कार भी नहीं हुआ था। और जिस तरह पानी पिलाने का पैसा लेना पाप समझा जाता था उसी तरह कुछ सिखाने की फीस ले लेना भी जुर्म सरीखा था। लड़के आते, पढ़ते, साथ खाते, साथ सोते।कोई कोई तो मुझे परीक्षा के दिनों में मुझे अपने घर बुला ले जाता। कितने ही मित्रों को पढ़ाने के लिए उनके कमरों पर जाकर सोना पड़ता।भरत,महेश,राजेश,दिनेश, रतन,नरेश,राकेश,गजेन्द्र...ज़मीन पर बिस्तर बिछा है, हम सब खाना खाने के बाद केवल चड्डी पहने, पैर फैलाए हुए बैठे हैं, हाथों में अंग्रेजी की किताबें और एक दूसरे से बहस और समस्या समाधान में उलझे हुए।परीक्षा खत्म होते ही माहौल बदल जाता। फ़िर उसी तरह एक दूसरे के कमरे पर ताश, अंत्याक्षरी, फ़िल्मों की बातें।और एक एक बिस्तर पर दो दो - तीन तीन सो जाते।इस माहौल में भला परिवार,लड़की,शादी, घर, बच्चे...पर किसका ध्यान जाता।शाम को खेलना और घूमना। छुट्टी के दिन मेरे मित्र उदयपुर से गांव में मेरे पास चले आते और कभी मैं उदयपुर चला जाता।मुझे कभी - कभी याद आता कि बचपन में मैं लड़कियों के जिस संस्थान में पढ़ा था वहां देश भर से आई हज़ारों लड़कियां रहती थीं। हम लोग कभी कभी सुनते थे कि लड़कियां एक दूसरी को "जीजी" बनाती हैं। न जाने ये क्या प्रथा थी, पर ये रोचक थी। हम कभी अपनी हमउम्र और साथ पढ़ने वाली लड़कियों से पूछते थे कि ये जीजी कौन होती हैं और तुम उन्हें कैसे चुनते हो?अधिकांश लड़कियां ये सवाल सुन कर शरमा जाती थीं और किसी न किसी तरह बात को टाल देती थीं। पर कुछ लड़कियां खुल कर इस विषय पर बात भी कर लेती थीं। दरअसल कोई बड़ी लड़की किसी अपने से छोटी लड़की को चुन लेती थी और उसकी जीजी बन जाती थी। ये रिश्ता केवल दो के बीच होता था, इसमें किसी तीसरे के लिए कोई जगह नहीं होती थी। कभी कभी कोई छोटी लड़की भी अपनी पसंद से किसी को अपनी जीजी चुन लेती थी।- फ़िर जो जीजी बन जाती है, उससे तुम्हें क्या लाभ होता है? हम लड़कों के इस सवाल पर कई लड़कियों के चेहरे लाल हो जाते, कई अपनी हथेलियों से चेहरा छिपा भी लेती थीं। और कोई शरारती क़िस्म की लड़की "धत" या "हट बदतमीज" कह कर हमें और भी जिज्ञासु बना डालती।बड़े लड़के अपने अपने अनुभवों और कल्पना से बताते कि ये सीनियर लड़कियां अपनी जूनियर लड़कियों की बॉस बन जाती थीं। इनके बीच आपस में फ़िर किसी किस्म का भेद नहीं रहता था, न तो एक दूसरे के सामान में, न कपड़ों में और न शरीर में। स्वाभाविक सी बात थी कि सीखी हुई पीढ़ी आने वाली पीढ़ी को सिखाती थी।लड़कियां थीं,अपने अपने घर से, मां बाप से दूर रहती थीं,चढ़ती उम्र होती थी, सीखने बताने की हज़ारों बातें, ढेरों उलझनें, मन के सवाल,तन के अजूबे!किसी जीजी की शागिर्द को "फट्टो" कहा जाता था। ये शब्द कहां से आया,कैसे बना,इसका अर्थ क्या...ये सब न हम जानते थे और न वे, जो खुद किसी की फट्टो या जीजी होती थीं।मैं कभी कभी मन में सोचता, कि ऐसा रिश्ता क्या हम लड़कों में नहीं होता? और तब मुझे लगता कि कोई फ़र्क नहीं, हम मित्रों के बीच में भी तो आयु से इतर ऐसे दिल के रिश्ते होते ही हैं।मुझे याद आया कि एक बार रात को साथ में सोते सोते राजेन्द्र ने मुझसे पूछा- भैया,रात को कभी कभी मेरे लिंग में दर्द होता है।कमरे की बत्ती बुझी हुई थी।मैं कुछ देर तो चुप रहा फिर उसे बताया - इस उम्र में लिंग ऊपर तक चमड़ी से ढका रहता है,और एक ओर से ये खाल उससे जुड़ी होती है। जब कभी लिंग कड़ा होकर खड़ा हो जाता है तो शायद ये खाल खिंचने से दर्द होता होगा।उसने तपाक से पूछा- आपके भी होता है?मैं चुप होकर कुछ सोच ही रहा था कि वो एकाएक उठ बैठा। उसने मेज़ पर रखी मेरी छोटी सी टॉर्च उठा ली और चड्डी को थोड़ा ऊपर उठा कर मुझे दिखाने लगा।सच में,जो मैं कह रहा था, वही बात थी। उसकी खाल एक ओर से जुड़ी हुई थी।आपके भी ऐसा ही है, कह कर उसने मेरा कपड़ा भी उठा दिया। उसे देख कर तसल्ली सी हुई। टॉर्च रख कर हम लेट गए।मैंने उसे बताया कि रात को नींद में जब उत्तेजना से ये खड़ा होता है तो चमड़ी के खिंचाव से दर्द महसूस होता है,पर थोड़ी देर बाद नींद में ही जब वीर्यपात हो जाने से ये शिथिल हो जाता है,तब दर्द अपने आप ठीक हो जाता है।वो स्कूल के आखिरी साल में था, उसकी आयु संभवतः सोलह या सत्रह के आसपास थी। शायद मेरे बताए अनुभव से गुज़र चुका था, संतुष्ट हो कर सो गया।इस तरह की जिज्ञासा और भी कई लड़कों को हुआ करती थी।कभी कभी छुट्टी के दिन हम लोग आसपास के दर्शनीय स्थलों को देखने भी चले जाया करते थे।एक दिन मेरा अधीनस्थ कर्मचारी शाम को जब बैंक की डाक लेकर आया तो उसमें सबसे ऊपर एक अन्तर्देशीय पत्र भी था, जिस पर मेरा पता लिखा हुआ था। वैसे उस ज़माने में फोन का बोलबाला नहीं था, हर बात के लिए हर जगह से पत्र ही आते थे,इसलिए अचंभे की कोई बात नहीं थी,पर मेरे दिमाग़ में तुरंत वही बात आई कि इस बार घर पर भाई और चचेरी बहन जो कह रहे थे, शायद उसी बात को लेकर पिताजी का पत्र हो।पर पिताजी पत्र क्यों लिखेंगे? और यदि उन्हें कुछ कहना ही होता तो वो तब कह सकते थे जब मैं साक्षात उनके सामने घर पर ही था।मैंने पत्र खोल डाला।पत्र खोलते ही मैं कुछ गर्व से भर गया। पत्र उसी लड़की का था जिसके बारे में मैं आपको बता चुका हूं। शहर ही नहीं, राज्य भर में टॉप करने वाली लड़की।जो विषय मुझसे नहीं पढ़े गए, उनमें ज़बरदस्त अंक लाने वाली लड़की।घर के सब काम करते हुए, घूमते हुए,खेलते हुए,सब भाई बहनों का ख्याल रखते हुए,बिना किसी कोचिंग,ट्यूशन,ट्रेनिंग के एम एस सी टॉप करके देश के एक नामी- गिरामी संस्थान में पहले ही प्रयास में वैज्ञानिक अधिकारी बन जाने वाली लड़की...पत्र में क्या लिखा था, ये तो मैं आपको नहीं बताऊंगा,क्योंकि किसी की चिट्ठी पढ़ना वैसे भी अच्छी बात नहीं मानी जाती।लेकिन चिट्ठी पढ़ कर मुझे कैसा लगा, ये तो मैं आपको बता ही सकता हूं।मैं सोचने लगा- दो चार साल और गुजरेंगे फ़िर घर वाले मेरी शादी के लिए कोई न कोई बात उठाएंगे ही। जब बात उठेगी तो दोनों परिवारों के धर्म जाति की बात भी देखी ही जाएगी। मैंने बचपन से ही अपने घर में पिता के साथ साथ मां को, भाई के साथ साथ भाभी को नौकरी करते देखा था,इसलिए मैं सोचता था कि मेरे लिए भी ऐसी ही लड़की ढूंढी जाएगी जो अच्छी पढ़ी लिखी तो हो ही, नौकरी भी कर सके।...ऐसे में चिट्ठी पत्री चलाते रहना चाहिए।मैंने भी चिट्ठी का जवाब दिया। छोटे से गांव में समय खूब मिलता ही था। इसलिए इस बात की कोई परवाह नहीं थी कि पत्र कितना लंबा हो जाए।जब मेरा पत्र गया तो जवाब आना ही था।जवाब आया तो शिष्टता इसी में थी कि मैं भी जवाब दूं।मेरा पत्र जाए तो जवाब आ जाए।जवाब आए तो यहां से भी पत्र चला जाए।इस तरह मुंबई और उस छोटे से गांव के तार जुड़ गए।डाक तो शाम को बंटती थी,पर सुबह डाक का थैला खुलते ही मेरा नीला लिफ़ाफा पोस्टमास्टर साहब अपने चपरासी से पहले ही भिजवा देते।जिस दिन लिफ़ाफा आता उस दिन वैद्यराज जी चाय पीने मेरे पास बैंक में चले आते। क्योंकि डाक आने का समय दोपहर का वही समय होता जो ड्यूटी के बाद वैद्यराज जी का पोस्ट मास्टर साहब के पास आ बैठने का समय होता। उदयपुर से आई बस से डाक का बोरा उतरता, खुलता, और चपरासी पत्रों पर मोहर लगाए उससे पहले ही वैद्य राज जी ढेर में से लिफ़ाफे को ऐसे उठा लें,जैसे किसी जीमण में परोसने वाले के हाथ से कोई पंडित लड्डू झपटे।फ़िर पोस्ट मास्टर साहब अपने चपरासी से कहते - जा,बैंक में दे आ।और फ़िर उस दिन तीसरे पहर को अपनी ड्यूटी पर जाने से पहले वैद्यराज जी बाहर से ही चाय वाले को कहते हुए भीतर आते कि बैंक में चाय भेज देना।चायवाला भी उनसे कभी कभी मज़ाक करता, कहता - चाय के पैसे आपके नाम लिखूं या बैंक वालों के नाम?वो उखड़ जाते, चिल्ला कर कहते, मैं क्यों दूंगा,वो ही देंगे!ये सिलसिला वैद्यराज जी के माध्यम से ही पूरे गांव में फ़ैल गया।सबको ऐसा लगने लगा, जैसे कि मेरी शादी होने की खबर जल्दी ही आने वाली है। केवल मैं जानता था कि अभी दूर दूर तक ऐसी कोई संभावना नहीं है। स्कूल की शिक्षिकाओं से मिलने पर पहले जो गांव वालों की प्रतिक्रिया होती थी, उस पर भी अपने आप विराम लग गया। अब कोई महिला मेरे पास आती या मैं किसी काम से किसी के पास जाता तो अब ऐसा वैसा सोचने वाला कोई न होता। क्योंकि वैसे भी मेरा जाना या किसी का आना बैंक के काम से ही होता था।सच कहूं तो शादी जैसे मसले पर अभी मैंने कुछ भी सोचा नहीं था।मैं मन या तन से अभी ऐसी कोई ज़रूरत महसूस भी नहीं करता था।लड़कियों को लेकर मेरा सोचना बहुत अलग था। जब हम दोस्त लोग कभी एक साथ होते, तो मौजमस्ती के साथ कभी कभी मैं मन ही मन ये कल्पना करने लग जाता - मान लो,इस समय मेरे साथ लड़के की जगह कोई लड़की हो तो क्या हो?और मेरे सामने कठिनाइयों की एक फ़ेहरिस्त खुल जाती।- घर के सब खिड़की दरवाज़े बंद या भारी पर्दों में रखने होंगे।- अकारण कभी भी,कोई भी यहां आयेगा नहीं, यदि मेरी अनुपस्थिति में आ भी जाए तो वो उद्विग्नता का कारण बनेगा।- अपनी आय का एक एक रुपया सोच समझ कर केवल घरेलू जरूरतों में ही खर्च करना होगा।- मित्र और रिश्तेदार रिजर्व हो जाएंगे,उनसे एक औपचारिक सा रिश्ता ही रखना होगा।- और साल छः महीने बाद ही हस्पताल,प्रसव, धार्मिक अनुष्ठान, पारिवारिक समारोहों का एक ऐसा सिलसिला शुरू हो जाएगा जो जीवनभर पैर और चादर में तालमेल बैठाने के दुष्चक्र में खींच ले जाएगा।और इस सब के बाद जो कुछ मिलेगा वो सारी दुनिया को समेट कर एक ही केंद्र बिंदु पर स्थिर कर देगा।मैं अभी इस सब के लिए तैयार नहीं था।यद्यपि मैं ये भी जानता था कि शादी, परिवार, संतानोत्पत्ति एक सतत चलने वाली शाश्वत प्रक्रिया है और दुनिया इसी से चल रही है। कई बार ऐसा होता है कि हम जिन लोगों- मित्रों के भरोसे अपना जीवन गुजारने की बात सोचते हैं, कुछ समय बाद वे सब भी उसी रास्ते पर चल पड़ते हैं,जिस पर हम उनके कारण ही नहीं गए।शायद इसीलिए मेरे मन में बीच के रास्ते के रूप में ये समाधान आता था कि ऐसी लड़की से विवाह होने पर सारी समस्याएं अपने आप हल हो जाएंगी।मसलन ऐसी आत्म निर्भर लड़की अपनी व अपने परिजनों की देखभाल खुद करती रह सकेगी और मुझ पर किसी तरह का आर्थिक,सामाजिक या पारिवारिक बोझ नहीं पड़ेगा।ये सब सोचविचार मेरे मन में उसका दर्ज़ा और भी ऊंचा बनाते चले गए।अपनी इस सोच के बावजूद मेरे मन में एक छिपा हुआ भय भी घर किए हुए था कि इतनी तेजवान और मेधावी लड़की के साथ घर बसा कर मेरा अपना व्यक्तित्व बचेगा भी या नहीं।ऐसी लड़की को लेकर मेरा अपना व्यक्तित्व तभी रह सकेगा जब मैं कोई ऊंचा पद और आर्थिक समृद्धि हासिल कर सकूं।और यही मुझे सबसे विश्वस्त और निरापद लगता था कि कुछ समय के लिए मैं अपने आप को कोई ऊंची नौकरी पाने में झौंक दूं, जो मेरे लिए कोई खास मुश्किल भी नहीं था।मेरे भीतर किसी भी किस्म की हीन भावना कभी भी आई नहीं थी, केवल मन से लो प्रोफ़ाइल ज़िन्दगी जीने की इच्छा के चलते ही मैं अपने कैरियर से बेपरवाह हुआ था।मैं यदि रात को नींद या खयालों में उसे देखता भी तो अपने आप को उसके बदन पर कोई राग छेड़ते हुए नहीं, बल्कि संजीदगी से उसके साथ कामयाबी के कोई सोपान चढ़ते ही देखता था, जहां उसकी वाहवाही,और मेरा आत्म संतोष झलकता था।ये सब सोच विचार अपने कमरे पर रात के अंधेरे में होते,सुबह होते ही गांव के किसी कौने में पेड़ों के पिछवाड़े से सूरज निकलता और वही साधारण लोग,साधारण ज़िन्दगी।एक रात को मेरे पास भरत रुका हुआ था। उसने लेटे लेटे कहा- भैया,आप मुझे कोई उपाय बताओ, मेरे बाल कहीं कहीं से सफ़ेद होने लगे हैं।कमरे की बत्ती बंद थी और हम दोनों सोने की तैयारी में ही थे, इसलिए मैं देख नहीं पाया कि उसके कितने बाल सफ़ेद हुए हैं।मैंने कभी इस ओर ध्यान भी नहीं दिया था। किन्तु ये मुझे ध्यान था कि इसके साथ स्कूल में पढ़ने वाला दोस्त महेश बताता था कि इसके गाल ज़रूर पहले से कुछ बैठ गए हैं जो पहले फूले फूले हुआ करते थे।भरत की उम्र लगभग उन्नीस बीस साल थी। वह सेकंड ईयर का विद्यार्थी था।उसने जितनी गंभीरता से अपनी समस्या बताई थी,मैंने उसी से सवाल किया- तू अपने खाने पीने का ध्यान रखा कर। फल सब्ज़ी खाया कर,भूखा रहने की आदत छोड़ दे।वो बोला- उसका तो ध्यान रखता हूं। फिर अपने आप ही बोल पड़ा- भैया, हस्त मैथुन करने से भी बालों और गालों पर फर्क पड़ता है क्या?- ज़्यादा मत किया कर, कितने दिन में करता है? मैंने पूछा।वो बोला- हर तीन चार दिन में करता हूं, पर कभी कभी रोज़ भी हो जाता है।मैंने अपने पढ़े हुए एक आर्टिकल के आधार पर उसे विस्तार से वीर्य चक्र के विषय में बताया। मुझे लगा कि उसकी चिंता कुछ कम तो हुई है।मैंने उसे ये भी सलाह दी कि ज़्यादा समय किसी के साथ रहा कर,अकेला मत रहा कर कमरे पर।बातें करते करते हम सो गए,किन्तु अकेले न रहने की सलाह जो मैंने उसे दे दी,वो तो मेरी भी समस्या थी।कुछ दिन बाद मेरे साक्षात्कार की सूचना दिल्ली से आ गई।मैं उदयपुर से ही सीधी ट्रेन से दिल्ली चला गया।दिल्ली में मैं अपने एक रिश्तेदार के घर पहुंचा जिनका पता मुझे मेरे पिता ने दिया था। वे जनकपुरी में रहते थे।मेरा साक्षात्कार अगले दिन सुबह ग्यारह बजे ग्रीन पार्क में था। मैं जब जनकपुरी में अंकल के घर पहुंचा तब घर पर आंटी और उनकी बिटिया ही थे। अंकल तब तक आए नहीं थे।चाय पीने के बाद आंटी तो खाना बनाने रसोई में चली गईं हम दोनों बैठ कर बात करने लगे। अंकल की वो बिटिया दिल्ली के किसी कॉलेज से एम बी ए कर रही थी।उसने छूटते ही पहला सवाल मुझसे ये किया- कोई एप्रोच है? मैं सकपका कर उसे देखने लगा। सच में तब तक मैंने एप्रोच या सिफ़ारिश जैसी किसी बात के लिए सोचा तक न था।मुझे उसका सवाल अच्छा नहीं लगा। मैंने कुछ खिन्न होकर कहा- आपके यहां बिना सिफारिश के कोई काम नहीं होते क्या?वह बोली- आपको दिल्ली का आइडिया नहीं है, यहां ये ही सब चलता है।मैंने बात बदलना ही उचित समझा। मैं उससे उसके विषय आदि के बारे में पूछता रहा।मुझे याद आया कि एक बार मेरे एक इम्तहान के समय मेरे पिता के एक मित्र ने मुझसे कहा था कि तुम्हारा इंटरव्यू जो लेने वाले हैं वो मेरे मित्र हैं,इसलिए अपना रोल नंबर मुझे दे दो, मैं उनसे कह दूंगा।मैंने पूरे आदर के साथ अपने पिता की उपस्थिति में ही विनम्रता से उनसे कहा- अंकल,मुझे सिर्फ़ तीन साल का समय दे दीजिए, यदि मैं इस बीच अपने आप नौकरी नहीं ढूंढ़ पाया तो मैं निसंकोच आपकी सिफ़ारिश ले लूंगा, पर कृपया दौड़ से पहले ही मुझे अयोग्य घोषित मत कीजिए।वे सकपका कर चुप हो गए। मेरे पिता ने भी उनका मान रखने के लिए उनके सामने मुझसे कहा कि अंकल से ज़रूरत होने पर मदद ले लेना...पर मैं अच्छी तरह जानता था कि मन ही मन मेरे पिता मेरे उत्तर से खुश ही हुए होंगे।उस लड़की के मन में भी भ्रष्टाचार या धांधलियों को लेकर जो धारणा बन चुकी थी,वो उसका अपना अनुभव होगा। इसलिए उसकी बात को मैंने ज़्यादा गंभीरता से नहीं लिया।मैंने भ्रष्टाचार को कभी मैग्निफाइंग ग्लास से नहीं देखा। ‹ Previous Chapterप्रकृति मैम - आलाप › Next Chapter प्रकृति मैम - गाकर देखो Download Our App