Number One in Hindi Women Focused by Rajesh Bhatnagar books and stories PDF | नम्बर वन

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नम्बर वन

4 - नम्बर वन

शाम गहराने लगी है । स्टेशन के बाहर अहाते में खड़े नीम के पेड़ शांत हैं । हवा जैसे मेरे दिमाग की भांति सुन्न होकर कहीं जा दुबकी है । नीम के पत्ते भी खामोश हैं । ऊपर आसमान की तरफ देखता हूं तो शहर के तमाम तोते स्टेशन वाले नीम के पेउ़ की तरफ उड़े आ रहे हैं । मैं जब जब स्टेशन आता हूं तो नीम पर बैठे सैकड़ों-हज़ारों तोतों को बसेरा करते देख अभिभूत हो जाता हूं, लगता है जैसे आम के पेड़ पर तमाम कैरियां लट़कीं हों । मगर आज मैं इस सबसे बेखबर हूं । ना स्टेशन पर कोई गाड़ी आने का वक्त है, ना जाने का । वो भी वीरान पड़ा है । कुछ कुली नीम के पेड़ के नीचे ही अपना गमछा बिछाकर अपने आपको अगली गाड़ी से आने वाले मुसाफिरों का सामान ढोने के लिए उर्जा से भर लेने को अलसाये पड़े हैं । मेरे शर्ट के कफ़ और कॉलर पसीने से गीले हो चुके हैं और बनियान उस सफेद साड़ी में लिपटी, मायूसी की चादर ओढ़े सूनी आंखें और बोझिल शरीर लिए नम्बर वन को इस अवस्था में देख पसीने से भीग चुकी हैं । मैं कब से स्टेशन के सामने बनी मज़ार पर खड़ा-खड़ा उसके आने की प्रतीक्षा कर रहा था । उसके दरबार से बाहर निकलते ही मैं चौकन्ना होकर उसे देखने लगा । दिल ने कहा आज तो ज़रूर कोई उससे मिलेगा और अपनी गाड़ी पर बैठाकर रफूचक्कर हो जायेगा...। मगर वह हाथ में सफेद रूमाल में कुछ लपेटे नीची निगाह किए बाहर निकली और टैक्सी में बैठकर घर की तरफ चल दी । मैं अब उसके पीछे-पीछे मोटर साईकिल को जबरन धीरे चलाता जा रहा हूं । मन में किसी बेकार बीड़ी जैसी कसैली कड़वाहट भर गई है ।

वह टैक्सी से उतर गई है और नीची गर्दन किए बोझिल कदमों से घर की ओर बढ़ गई है । मैं मोटर साईकिल रोक कर मेरी ही कॉलोनी की सड़क के मोड़ पर उसे उसके घर में प्रविष्ट होते देख रहा हूं । जी में आ रहा है जाकर किसी कुए में छलांग लगा दूं या अपना सिर मोटर साईकिल के हैण्डल से मार-मारकर फोड़ लूं । आखिर मुझ जैसे पढ़े-लिखे गृहस्थीदार के लिए किसी के विषय में ऐसा सोचना और उसकी जासूसी करना क्या शोभनीय है ....?

वह घर में प्रविष्ट हो गई है । मकान नम्बर वन । उसका नाम भी नम्बर वन.......। मेरे बच्चों ने ही रखा था । पहली पहली बार जब उसे देखा था तो बस देखता ही रह गया था । गदराई.... लम्बी.....गोरा बदन...। बड़ी-बड़ी झील-सी मनमोहक आंखें और आंखों में अजीब चंचलता...। उसने मेरे ठीक सामने वाला मकान खरीद लिया था । थोड़े दिनों बाद मैं उसे मोहल्ले की औरतों में हंसते-बतियाते, बैठते देखता था । वह सभी से बेझिझक बात करती । खिलखिलाकर हंसती और रोज़ नये-नये आकर्षक परिधान पहन शाम को घर से निकल जाती । जाने से पहले अपनी मांग में गाढ़ा-गाढ़ा सिंदूर भरती, बड़ी लाल बिंदिया लगाती । अपनी कजरारी आंखों में पतला काजल और हाथ भरकर हरी चूड़ियां पहनती । मोहल्ले की सभी औरतें उसके घर से निकलते ही खुसुर-फुसुर करने लगतीं-

-आज तो बड़ी बन-संवर कर निकली है ।

-तूने देखा नहीं, कैसा महंगा सूट पहना है ?

-हां ! देखा ना । यार ने दिलवाया होगा ।

-मैं तो नहीं मानती दरबार में जाती होगी ।

-भइर्, कहती तो यही है कि दरबार साहब में माथा टेकने जाती हूं ।

-और वो जो इसके घर आता है दोपहर को ? वो....वो कौन है ?

-अपना धरम भाई बताती है ।

-भाटे का धरम भाई । मुझे तो लगता है एक नहीं, छत्तीस यार हैं ...।

-होंगे क्यों नहीं । आदमी को अपाहिज हुए पच्चीस साल हो गये । तब तो ये बीस-इक्कीस की थी । तब से आज तक क्या कोई औरत बिना मर्द के यूं ही रह सकती है ?

-और जब मर्द को नहलाती-धुलाती है तो उसे देखकर मन तो चलता ही होगा । ऐसे कोई रह सकता है ?

-ना बाबा ! मैं तो दो दिन भी नहीं....। सामने हलवा पड़ा हो और मुंह में पानी ना आए ...?

फिर खिलखिलाकर हंस पड़ीं थीं । इन सब जानकारियों का इजाफ़ा मेरी पत्नी द्वारा कभी-कभार मोहल्ले की बात चलने पर हुआ था । मगर मुझे मोहल्ले की छिछोड़ औरतों की बातों से कोई सरोकार ना था, लेकिन इतनी सुंदर, मनमोहक स्त्री के जीवन के कड़वे सच् के प्रति दिल में अपार करूणा जागृत हो उठी थी । इसीलिए मैं स्वयं उसके घर जाकर उसके अपाहिज पति को दयावश देख आया था । ट्रेन एक्सीडेंट में उसकी रीढ़ की हड्डी में चोट के कारण नीचे का हिस्सा बिल्कुल बेकार हो गया था । मुझे बड़ा तरस आया था नम्बर वन पर...उसके पति पर...।

कैसा क्रूर मज़ाक था एक नारी के जीवन का....। आदमी है, पर आदमी नहीं है । एक लाश.....रगड़ती ..घिसटती लाश जिसे ढोना है उसे ज़िन्दगी भर । जिसका मल उठाना है, नहलाना-धुलाना है । रगड़ खा-खाकर चलने और बरसों पलंग पर पड़ेे रहने से हुए घावों की पट्टी करनी है उसे जो वो पूरी लगन और निष्ठा से अब तक करती आई है । मगर उसकी सेवा का फल वो अब कभी नहीं पा सकती....। शायद इसीलिए मोहल्ले की औरतें.....। एक लड़का विदेश में किसी सेठ के काम करता है । चार-छः माह में कुछ पैसे भेजता है और कोई आय का साधन नहीं । तो पति होकर भी पति का सुख नहीं नम्बर वन की जिन्दगी में । फिर भी इतनी खुश मिज़ाज़.....इतनी हंसमुख... ..।

मोहल्ले के एक मित्र ने मुझे उससे बात करते देख कहा था-“माल अच्छा है, और तुम्हारी मसल्स पर फ़िदा है । बड़े हंस-हंसकर तुमसे बात करती है ।”

“मतलब ?”

“मतलब ! बेचारी का उद्धार कर दो । आदमी तो बेकार है ।”

“तो ?” इसका क्या मतलब हुआ ?”

“सुना है जहां पहले रहती थी वहां भी कई यार थे...। देखा नहीं इस उम्र में भी कैसी सज-धज कर रहती है । मतलब साफ है । आदमियों को रिझाने के लिए ही बनती-संवरती है ...।”

“मैं नहीं मानता । तुम्हारी बातें फिज़ूल हैं । पति है तो मांग में सिंदूर भरती हैंे । रंगीन जोड़े पहनती है, लिपिस्टिक लगाती है । माथे को सूरज-सी लाल बिंदिया से सजाती है ...। कितना साहस .....कितनी हिम्मत से लड़ रही है ज़िन्दगी से और ये मोहल्ले की औरतें और तुम भी उसे बदमाश.....उसके चरित्र पर कैसे-कैसे लांछन...? तुम्हें शर्म आनी चाहिए ऐसा सब सोचते हुए ।”

फिर कुछ समय पश्चात् एक दिन तो उसकेे अपाहिज पति ने भी उसकी सेवा का इनाम दे डाला उसे । घर में बने पानी के टेंक का ढक्कन खोलकर उसमें कूदने ही वाला था कि नम्बर वन ऐन वक़्त पर घर पहुंच गई और उसे बड़ी मुश्किल से बचाया । पति ने भी लोगों की भांति उस पर शक करके बरसना चालू कर दिया -

“मुझे मालूम है तू कौन से दरबार में जाती है । साली तेरे यार को यहीं बुला ले और मुझे ज़हर दे दे ।”

“क्या ? यार के पास जाती हूं ...?” वह फट पड़ी थी जैसे ।

“अगर यार करना होता तो तुझे कभी का मार ही डालती । तेरे घावों की पट्टियां नहीं करती । आधा पेट रहकर तेरे बच्चों को पाल-पोसकर इतना बड़ा नहीं करती । तुझे शरम नहीं आती...? मरने चला है ? अरे कुछ करना ही है तो मुझे ज़हर दे दे । वैसे भी ज़िन्दगी नरक से कम नहीं है मेरी । कम से कम भगवान को तो बख्श...। दरबार जाती हूं तो तेरे लिए...तेरे लिए ही दुआ करती हूं । भगवान से तेरे पापों की सज़ा माफ करने की दुआ करने जाती हूं ... किसी यार से मिलने नहीं...।”

मगर उसके पति ने पास ही पड़ा प्लास उसके सिर में दे मारा था । और तब वह सिर से बहते खून को पकड़कर चीख मार कर बेहोश हो गई थी । चीख सुनकर मेरी पत्नी पहुंची थी तो बेहोश पाया था उसे । पानी के छींटे मुंह पर देकर झिंझोड़ा था तब कहीं होश में आई थी । रो-रोकर अपने दिल का दर्द सुनाया था पत्नी को ।

शायद उस दिन अपने ही पति द्वारा लगाये इल्ज़ाम से गहरा सदमा लगा था उसे इसीलिए कई दिन तक खामोश ....उदास रही थी वो । आम दिनों की तरह घर की बॉलकनी में बाल संवारते भी नहीं देखा था उसे ।

और एक दिन मौहल्ले के लोग उसके घर जमा थे । उसका अपाहिज पति अपनी लम्बी बीमारी के कारण चल बसा था । मोहल्ले की औरतों के मुंह से तब उसने सुना था-

“बेचारी ने बहुत सेवा की । अपनी जवानी के पच्चीस बरस यूं ही गुज़ार दिये....। कोई और होती तो कभी का दूसरा कर लेती । मगर बेचारी ने सिलाई-बुनाई कर-करके बच्चों को खाने-कमाने लायक बनाया । रात-दिन पति की सेवा की । उसको नहलाना-धुलाना, गंदे कपड़े धोना, घावों की पट्टियां करना और यूं विवाहित होकर साध्वी-सा जीवन जीना क्या आसान है..?”

किसी ने दबे स्वर में ये भी कहा-

“भगवान जो करता है अच्छा ही करता है । बेचारा नरक भोग रहा था ..। आदमी होकर भी आदमी का सुख नहीं मिल पा रहा था इससे तो अच्छा है चला ही गया । कम से कम आत्मा तो नहीं कुढ़ेगी...।”

कुछ ने कहा था-

“जैसा भी था, सिर पर आदमी का साया तो था । कम से कम मांग में सिन्दूर तो भर सकती थी....। सुहागिन तो कहलाती थी ..। अब तो बेचारी विधवा.....। और बिना आदमी की जोरू पर तो सब नज़र रक्खे हैं...।”

जितने मुंह उतनी बातें थीं उस दिन । ये समाज है किसी भी प्रकार जीने नहीं देता..। मगर उसके पति की मौत के बाद मोहल्ले में किसी ने उसे कहीं आते-जाते नहीं देखा । मेरा मन भी उसकी झलक पाने को व्याकुल था । वह चहचहाती....खनकती हंसी गली से प्रायः लुप्त हो गई थी । मगर फिर भी औरतों-मर्दो की नज़र उस पर लगातार बनी हुई थी ।

और पति की मौत के तीन माह बाद लोगों ने उसे देखा । ना हाथ में चूड़ियां, ना मांग में सिंदूर, सूना माथा....सूनी आंखें और सफेद साड़ी में लिपटी बोझिल कदमों से खामोश दरबार साहब जाते हुए । वो रोज़ शाम को घर से निकलती और अंधेरा होते-होते घर लौट आती । मोहल्ले के मनचलों में फिर खुसुर-फुसुर होने लगी । लोग सोचने लगे हैं कि वो फिर से दरबार का बहाना कर अपनी जिस्म की तृप्ति के लिए यार के पास जाने लगी है । मोहल्ले की औरतों में चर्चा है कि अब तो कोई कहने-सुनने वाला भी नहीं बचा । आखिर क्या करे बेचारी, शरीर की आग तो इन्सान को जला देती है ये तो पच्चीस साल से जल रही है । कुछ लोग ऐसी औरत को मोहल्ले से निकालने की बात तक करने लगे थे । उनका मानना था कि ऐसी औरत को मोहल्ले में रखना अपने बच्चों पर ग़लत असर डालना है । मगर कुछ लोग अपनी पत्नियों से चोरी-छुपे उसके घर से निकलने से पहले ही अपने-अपने दरवाज़ों पर खड़े हो जु़ल्फें संवारते फिल्मी गीत गुनगनाने लगे । पड़ौसिनों से रहा नहीं गया तो एक दिन पूछ बैठीं-

“दरबार जाने लगी है क्या ?”

“हां ।” उसने संक्ष्प्ति उत्तर दिया और चल पड़ी । पति की मौत के बाद उसने मोहल्ले की औरतों मं बैठना-उठना, हंसना-बोलना तक बन्द कर दिया है । जैसे कहीं गहरे समुद्र में डूब गई है ।

और आज मोहल्ले की औरतों की सारी बातें धराशाई हो गई थीं । खाली दिमाग और समय ने मुझे उसका पीछा करने पर मज़बूर कर दिया था । ना जाने क्यूं उसके पति के पानी की टंकी में कुूदकर जान देने वाली घटना के दिन से ही मैं भी उसके चरित्र पर शक करने लगा था और पिछले एक सप्ताह से उसका दरबार तक पीछा कर रहा था । मगर वह रोज़ सच्चे मन और श्रृद्धा से दरबार जाती और घर लौट आती । मैं अपने किये पर शर्मिंदा हूं । आखिर झूठे और पाखण्डी समाज की बातों में जो आ गया था । आज मेरे दिलो-दिमाग में नम्बर वन की जो तस्वीर उभरी है उसने मुझे अपनी नज़रों में ही बौना कर दिया है । आज मेरा लेखक मन फिर से नारी की महिमा गाने को कर रहा था । उस नारी की जो सीता बनकर जन्म-जन्मान्तर से समाज को अग्नि-परीक्षा देती आई है .....वो नारी जो स्वयं अग्नि में जलकर सत्य की जीत के लिए प्रहलाद को बचाती आई है ...वो नारी जो अपने सुहाग की खातिर यमराज से टकराती आई है ....।

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