बीजक यज्ञ शुरु हो गया है. गुप्त यज्ञ है. महाराज मन ही मन मंत्र बुदबुदाते हैं और स्वाहा ज़ोर से बोलते हैं. पति=पत्नी आग में घी की आहुति डालते हैं हर स्वाहा पर. महाराज ने एक नारियल लाल कपड़े में लपेट के रख दिया है वेदी के सामने. यही बीज है. यज्ञ समाप्ति पर यही कविता के गर्भ में स्थापित होगा, अदृश्य रूप में. सांकेतिक बीज है ये. कविता के हाथ में पुष्प और अक्षत पकड़ा के , उसके दोनों हाथ अपनी हथेलियों में बन्द करके महाराज आंखें मूंदे बीजक मंत्र पढ़ रहे हैं. कविता के स्निग्ध हाथों का स्पर्श बेचैन कर रहा है महाराज को… लेकिन वे हाथ छोड़ना नहीं चाहते, और संतानप्राप्ति के लिये कुछ भी कर गुज़रने की लालसा लिये कविता हाथ छुड़ाना नहीं चाहती.. मंत्र अधूरा न रह जाये कहीं……
तीन महीने चलेगा ये बीजक यज्ञ. हर महीने में एक सप्ताह लगातार. गर्भ की स्थिति अत्यंत रुष्ट है. उसे पुनर्जीवित करना होगा. मनाना होगा. शुद्धिकरण करना होगा. तब कहीं जा के कुछ सकारात्मक परिणाम मिल सकेंगे. जहां इंतज़ार करते सात साल बीते, वहां तीन महीने कौन बड़ी चीज़?
अगले महीने से एक सप्ताह की जगह पन्द्रह दिन चलेगा यज्ञ. एक हफ़्ते पति-पत्नी दोनों का शुद्धिकरण एक साथ फिर तीन दिन पत्नी का शुद्धिकरण, तीन दिन पति का शुद्धिकरण, और अन्त में फिर दोनों का एक साथ शुद्धिकरण. पिछले जन्म में बहुत पाप किये थे पति ने, उसका खामियाज़ा भुगत रही थी पत्नी, और पति खुद. सो जब तक पूर्ण शुद्धि नहीं हो जाती, तब तक यज्ञ का कोई लाभ नहीं. ऐसा बताया महाराज ने. एकान्तिक शुद्धिकरण होगा अब. नारियल को फोड़ा जायेगा और उसके बीज को निकाला जायेगा. इस बीज को तीन दिन पति की बांह पर बंधा रहना है, चौथे दिन पत्नी के गर्भ में स्थापन की प्रक्रिया होगी.
एक लाल कपड़े में बीज को बांध के पोटली सी बना दी गयी है. पति अपनी बांह पर बांधे खुशी-खुशी घूम रहा है…. पति जानता है, डॉक्टर ने क्या कहा है, रिपोर्ट्स क्या कह रही हैं, सो खुश है कि उसकी कमी शायद छुपी रह जाये, महाराज की कृपा से…. वैसे भी अब उसे किसी चमत्कार का ही इंतज़ार था, वरना डॉक्टर तो…..
आज पत्नी का एकान्तिक शुद्धिकरण और बीज रोपण है….. पति को नहीं देखना है ये यज्ञ.
महाराज कविता को अपने कमरे में ले गये हैं…. ढही हुई हवेली के अब तक सुरक्षित बचे रहे कमरे में… जहां वे खुद एकांत साधना करते हैं, बिना किसी व्यवधान के…… पिछले जन्म के जो पाप पत्नी पर चढ गये हैं, उनको धोने का दिन है आज…. शुद्धिकरण का दिन…. बीज रोपण का दिन….
कमरे से बाहर बदहवास सी आई है कविता…. ये कैसा शुद्धिकरण यज्ञ!!!!
अगले दिन फिर एकान्तिक शुद्धिकरण यज्ञ…… ये कैसा बीजरोपण यज्ञ !!!
किससे कहे कविता?? पति से? पति उसे ही दोषी मान लेगा. पड़ोसिन से? वे सब भी उसे ही दोषी मानेंगीं….
भक्ति में डूबे भक्त तो महाराज को भगवान की जगह बिठाये हैं…. भगवान के खिलाफ़ कौन सुनेगा?? उसे ही चरित्रहीन बता दिया जायेगा… लेकिन नहीं अब वो नहीं जायेगी महाराज के पास. यज्ञ पूरा हो न हो. वैसे यज्ञ की असलियत भी जान चुकी थी कविता… लेकिन तब भी महाराज ने पति के अनिष्ट का जो भय उसे दिखाया था उससे कहीं न कहीं डरा हुआ था मन उसका….
तीन महीने पूरे हो गये थे. भजन-कीर्तन, यज्ञ, और व्रतों के सिलसिले के. तिवारी के आने का समय हो चला था. आज भव्य कीर्तन होगा हवेली में. देर रात तक चलेगा कीर्तन और फिर महाराज एकान्त-मौन साधना में महीने भर को लीन हो जायेंगे. स्थान भी छोड़ने का वक्त है…. रमता जोगी, बहता पानी…. लोग दुखी हैं. परेशान हैं. अपने को अनाथ सा महसूस कर रहे हैं. फिर भी आज आखिरी रात का कीर्तन चला देर रात तक… सुबह का तारा निकल आया तब तक…. आज महाराज विदा हो रहे हैं. अब हिमालय में वास होगा उनका. फल-फूल, वस्त्र, धन से लदे-फदे महाराज और उनका शिष्य पैदल ही जायेंगे शहर के आखिरी छोर तक… कई लोग साथ आये, फिर महाराज एक जगह खड़े हो गये और सबको लौट जाने का आदेश दिया. सब लौट आये हैं. महाराज अन्तर्ध्यान हो गये हैं.
कविता की रिपोर्ट पॉज़िटिव आई है. उनके घर में अब किलकारी गूंजेगी. पति महाराज के चरणों की फोटो के सामने लोट रहा है. कविता चुप है. चुप नहीं रहना चाहती कविता, लेकिन तब भी चुप है. बचपन से मां-बाप ने चुप रहना ही सिखाया है उसे, तो आज बोलने की हिम्मत कहां से लाये ? उसके जैसी तमाम लड़कियां पता नहीं क्या-क्या सह के चुप हैं… बोलने की हिम्मत जुटाती भी है तो ससुराल के ताने याद आ जाते हैं. बांझ होने का ठप्पा दिखाई देने लगता है. और दिखाई देने लगती है पति की दूसरी शादी, जिसका ज़िक्र कई बार ससुराल में उसे सुना के किया जा चुका है. निर्वंशी नहीं रहना चाहती उसकी ससुराल…
इस रिपोर्ट का सच या तो कविता जानती है, या हवेली की दीवारें….
सूनी हवेली की दीवारें एक दूसरे से सवाल पूछ रही हैं. हवेली की सबसे बुज़ुर्ग दीवार ने सबको शान्त रहने का इशारा किया है जैसे कह रही हो, चुपचाप सब देखना हम दीवारों की रवायत है. पहले भी बहुत कुछ देखा. हवेली के कितने ही रहस्यों की राज़दार रहीं हम दीवारें, आज इस रहस्य की भी राज़दार हैं. चुपचाप देखते जाना और फिर राज़ को खुद में समेटे ढह जाना ही जैसे नियति है हवेलियों की।
(समाप्त)