Himadri - 10 in Hindi Horror Stories by Ashish Kumar Trivedi books and stories PDF | हिमाद्रि - 10

Featured Books
  • My Wife is Student ? - 25

    वो दोनो जैसे ही अंडर जाते हैं.. वैसे ही हैरान हो जाते है ......

  • एग्जाम ड्यूटी - 3

    दूसरे दिन की परीक्षा: जिम्मेदारी और लापरवाही का द्वंद्वपरीक्...

  • आई कैन सी यू - 52

    अब तक कहानी में हम ने देखा के लूसी को बड़ी मुश्किल से बचाया...

  • All We Imagine As Light - Film Review

                           फिल्म रिव्यु  All We Imagine As Light...

  • दर्द दिलों के - 12

    तो हमने अभी तक देखा धनंजय और शेर सिंह अपने रुतबे को बचाने के...

Categories
Share

हिमाद्रि - 10

    
             
                     हिमाद्रि(10)


हिमाद्रि...इस नाम ने सभी के मन में हलचल मचा दी। खासकर उमेश के दिल में इस नाम के लिए एक नफरत सी पैदा हुई। कुमुद को तकलीफ देने वाली, उसके जीवन में उथल पुथल मचाने वाली उस अज्ञात शैतानी ताकत का नाम हिमाद्रि था।
प्रेत आगे कह रहा था। 
"गांव वालों ने मुझे पीट पीट कर मार दिया। मेरे मन की वासना अतृप्त थी। इसलिए मैं प्रेत बन गया।"
डॉ. निरंजन ने उसे अपनी पूरी कहानी बताने को कहा। इस पर वह प्रेत भड़क उठा।
"क्या करोगे मेरी कहानी जान कर....मुझे अपनी अतृप्त वासना की पूर्ति के लिए बस एक देह चाहिए....."
"हिमाद्रि वासना को तृप्त नहीं किया जा सकता है। इसकी कोशिश करना वैसे ही है जैसे आग में घी डाल कर उसे बुझाना। केवल संयम ही वासना की आग को बुझा सकता है। तुम अपने बारे में बताओ। मैं तुम्हें इस भटकाव से मुक्त करने का प्रयास करूँगा।"
प्रेत एक बार फिर उत्तेजित हो गया।
"कोई मुझे मुक्त नहीं करा सकता। प्रेत योनि में पड़े रहना ही मेरी नियति है। मैं बस इसके द्वारा एक शरीर प्राप्त कर कुछ समय अपनी जलन को शांत करना चाहता हूँ।"
"तुम मुक्त हो सकते हो। बस कोशिश करनी पड़ेगी। तुम मुझे सब कुछ बताओ। तभी मैं तुम्हारी मदद कर सकता हूँ।"
प्रेत कुछ शांत हुआ। कुछ देर बाद उसने कहा। 
"मैं भी इस प्रेत योनि में नहीं रहना चाहता। ना जाने कितने सालों से इस आग में जल रहा हूँ। अब सहन नहीं होता है।"
"तो फिर मुझे अपनी कहानी सुनाओ..."

हिमाद्रि ने अपनी कहानी शुरू की.....

सन 1915 हिमपुरी से कोई दस किलोमीटर दूर एक गांव था माईखेड़ा। इस गांव का नाम वहाँ के प्रसिद्ध देवी मंदिर के कारण पड़ा था। लोगों में मान्यता थी कि मंदिर में प्रतिष्ठित देवी जाग्रत हैं। जो भी मनोकामना हो पूरी करती हैं। सब देवी को माई के नाम से जानते थे।
इस मंदिर के पुजारी पंडित दीनदयाल का कोई परिवार नहीं था। कई साल पहले उनकी पत्नी अपनी पहली संतान को जन्म देते ही मर गई थी। माँ के जाने के कुछ ही दिनों बाद बच्ची भी चल बसी। पंडित जी ने उसके बाद घर नहीं बसाया। वह माई की सेवा करते। उससे जो मिलता उसमें संतुष्ट रहते थे। मंदिर के पास ही उनकी कोठरी थी।
पंडित जी ब्रह्म मुहूर्त में स्नान करके माई की आराधना करने जा रहे थे। सब तरफ अंधेरा था। वह मंदिर की सीढियां चढ़ रहे थे कि एक बच्चे के रोने की आवाज़ कान में पड़ी। उन्होंने नीचे देखा तो दिल धक से रह गया। एक बच्चा सीढ़ी पर पड़ा था। यदि समय पर वह ना रोया होता तो उनके पैर से कुचल जाता। उन्होंने बच्चे को गोद में उठा लिया। कुछ पलों तक वह बच्चे को गोद में लिए सोंचते रहे कि क्या करें। फिर मन ही मन देवी से बोले।
'हे माई तुमने मुझे यह बच्चा दिया है तो अब मुझे इसकी देखभाल करनी पड़ेगी। अभी मुझे माफ करो। मैं बच्चे को कोठरी में ले जा रहा हूँ।'
कोठरी में आकर उन्होंने दिया जला कर देखा। लड़का था। बच्चा बहुत सुंदर था। किसी का भी मन मोह सकता था। पंडित जी के मन में विचार आया कि आखिर वह कौन होगा जिसने इसे निर्दयता से सीढ़ी पर छोड़ दिया। फिर खयाल आया कि ज़रूर कोई मजबूरी रही होगी। पंडित जी अपनी सामर्थ भर बच्चे की देखभाल करने लगे।
उर्मिला देवी मंदिर पहुँचीं तो देखा कि पट अभी भी बंद हैं। उन्हें आश्चर्य हुआ। दिन चढ़ आया। अभी मंदिर नहीं खुला। कभी आज तक ऐसा नहीं हुआ। क्या पंडित जी की तबीयत ठीक नहीं है। यह सोंच कर वह उनकी कोठरी की तरफ बढ़ गईं।
उर्मिला देवी नियमित मंदिर के दर्शन करने आती थीं। दर्शन करने के बाद पंडित जी के साथ धर्म चर्चा करती थीं। उन्होंने कई धर्मग्रंथ पढ़े थे। उन्हीं में से कोई विषय उठा कर वह पंडित जी से लंबी चर्चा करती थीं। वैसे वह एक निसंतान विधवा थीं। उनकी ससुराल वाले बहुत धनवान थे। पति अंग्रेज़ी सरकार के मुलाजिम थे। एक हादसे में वह चल बसे। गांव में उनकी बहुत इज्ज़त थी। उनके जाने के बाद सब कुछ उर्मिला देवी के हाथ में आ गया। भगवान का दिया बहुत कुछ था उनके पास। बस एक चीज़ का मलाल था कि उनकी कोई औलाद नहीं है। 
उर्मिला देवी जब कोठरी के दरवाज़े पर पहुँचीं तो अंदर से बच्चे के रोने की आवाज़ आ रही थी। वह फिर आश्चर्य में पड़ गईं। पंडित जी का तो कोई रिश्तेदार नहीं है। तो यह बच्चा किसका है। उन्होंने आवाज़ लगाई।
"पंडित भैय....."
पंडित जी बच्चे को गोद में लिए हुए कोठरी से बाहर आए। चारपाई बिछा कर उर्मिला देवी को बैठने को कहा। खुद एक मोढ़ा लेकर पास बैठ गए। 
"यह बच्चा किसका है भैया ?"
पंडित जी ने उन्हें बच्चा मिलने की सारी कहानी बताई। 
"बस तब से इस बच्चे को संभाल रहे हैं। इसलिए मंदिर के पट भी नहीं खुले।"
उर्मिला देवी ने बच्चे को अपनी गोद में ले लिया। उसे देख कर बोलीं। 
"कैसी मोहनी सूरत है इसकी। नीली आँखें। रंग कैसा गुलाबी है। लगता है किसी अंग्रेज़ की संतान है।"
"हो सकता है बहन। किसी गरीब हिंदुस्तानी औरत की कोख से किसी अंग्रेज़ की संतान पैदा हुई होगी। बेचारी ने लोकलाज में इसे त्याग दिया होगा।"
बच्चा उर्मिला देवी की गोद में आते ही चुप हो गया था। पंडित जी ने कहा।
"बहन कुछ देर इसे संभाल लो। मैं तब तक जाकर माई की पूजा आरती कर दूँ।"
"हाँ भैया तुम पूजा कर आओ। हम इसे लेकर बैठते हैं।"
पंडित जी के जाने के बाद उर्मिला देवी बच्चे को खिलाने लगीं। बच्चा अब उर्मिला देवी से हिल गया था। उन्हें देख कर मुस्कुरा रहा था। उर्मिला देवी का मन उसकी तरफ खिंचा जा रहा था। वह मन ही मन सोंच रही थीं कि माई तुम्हारी भी माया समझ के परे है। मैं इतने दिनों तक बच्चे के लिए तरसती रही। मेरी गोद नहीं भरी। पर उसकी कोख में इसे डाल दिया जिसे इसकी ज़रूरत नहीं थी। यह मिला भी तो पंडित भैया को। वो मर्द होकर कैसे संभालेंगे इसे। उन्होंने बच्चे को अपनी छाती से लगा लिया। ऐसा लगा जैसे उनके भीतर ना जाने क्या जमा था जो पिघलने लगा था। उनकी आँखों से आंसू बहने लगे।
पंडित जी जब पूजा कर लौटे तो देखा कि उर्मिला देवी बच्चे को प्यार से पुचकार रही हैं। उनके मन में आया कि क्या अच्छा होता कि बच्चा उन्हें ना मिल कर उर्मिला देवी को मिला होता। बच्चे के लिए तरसती ममता को तसल्ली मिल जाती। पास जाकर वह बोले।
"तुम्हारे पास आकर तो यह खुश हो गया। मैं तो सुबह से बहला रहा था पर रह रह कर रोए जा रहा था।"
उर्मिला देवी प्यार से बच्चे को निहार रही थीं। पंडित जी आगे बोले। 
"समझ नहीं आ रहा कि इसके रहते माई की सेवा कैसे कर पाऊँगा। मुझे तो बच्चे पालने का भी तजुर्बा नहीं है।"
पंडित जी ने यह बात इशारे के तौर पर कही थी। उर्मिला देवी ने इशारा समझ लिया।
"तो भैया माई की इस भेंट को मेरी गोद में डाल दो।"
पंडित जी यही चाहते थे। ऐसा नहीं था कि वह बच्चे से पीछा छुड़ाना चाहते थे। पर वह यही सोंच रहे थे कि उनका काम तो थोड़ा बहुत जो मिलता है उससे चल जाता है। पर बच्चे को कैसे खिलाए पिलाएंगे। 
"बहन इससे अच्छा क्या होगा। तुम इसकी अच्छी परवरिश कर सकती हो। मेरे पास तो इतना धन भी नहीं है कि इसे सही से पढ़ा लिखा सकूँगा।"
उर्मिला देवी बहुत खुश हुईं। पंडित जी से बोलीं। 
"भैया आज से तुम इसके मामा हुए। अब तुम ही इसका नाम रखो।"
पंडित जी कुछ देर तक बच्चे को देखते रहे। 
"हिमालय जैसा चौड़ा माथा है इसका। हिमाद्रि नाम कैसा रहेगा।"
"बहुत अच्छा नाम है भैया।"
उर्मिला देवी ने बच्चे की तरफ देख कर उन्होंने प्यार से पुकारा।
"हिमाद्रि....."

हिमाद्रि को पाकर उर्मिला देवी निहाल हो गईं। उन्होंने जी भर कर उस पर अपनी ममता लुटाई। जैसे जैसे हिमाद्रि बड़ा होने लगा उसका रूप रंग सबको आकर्षित करने लगा। लेकिन उसके व्यवहार में एक अधिकार की भावना थी। वह अपने आसपास के लोगों पर हुक्म चलाता था। सब कुछ अपनी मर्ज़ी के हिसाब से चलाना चाहता था। वह देखने में अंग्रेज़ की तरह ही लगता था। उर्मिला देवी उसे गांव के पारंपरिक परिधान ना पहना कर पतलून और कमीज़ पहनाती थीं। 
उर्मिला देवी ने पंडित जी से कह कर हिमाद्रि की कुंडली बनवाई। पंडित जी कुंडली बना कर उनके पास आए तो बहुत गंभीर थे।
"क्या बात है भैया ? परेशान लग रहे हो। सब ठीक तो है ना।"
"बहन तुम्हारे कहने पर मैंने हिमाद्रि की कुंडली बनाई। कुंडली के हिसाब से यह बहुत ही बुद्धिमान होगा। जीवन में धन की कभी कमी नहीं होगी। परंतु...."
कहते हुए पंडित जी अचानक रुक गए। 
"परंतु क्या भैया ?"
पंडित जी कुछ चिंतित स्वर में बोले।
"बहन बाकी सब तो ठीक है पर हिमाद्रि की कुंडली में अकाल मृत्यु लिखी है।"
"तो भैया जो उपाय हो वह करवा दो।"
"बहन इसका यही उपाय है कि अपने बेटे के कर्मों पर नज़र रखना। उसे सही मार्ग दिखाना।"
पंडित जी की बात से उर्मिला देवी परेशान हो गईं। उन्होंने ज़ोर डाला तो पंडित जी ने पूजा करवा कर उन्हें तसल्ली देने का प्रयास किया। पर वह जानते थे कि इससे कुछ नहीं होने वाला है। इस घटना के कुछ ही महीनों के बाद पंडित जी चल बसे।
हिमाद्रि जब स्कूल जाने लायक हुआ तो उसे गांव की पाठशाला में ना भेज कर उसे अंग्रेज़ी पढ़ाने के लिए घर पर ही टीचर आता था। जब तक वह इस लायक नहीं हो गया कि शहर के बड़े अंग्रेज़ी स्कूल में हॉस्टल में रह सके तब तक वह टीचर उसे घर पर आकर पढ़ाता रहा। 
हिमाद्रि शहर के बड़े अंग्रेज़ी स्कूल में पढ़ता था। वहाँ अधिकतर बड़े अंग्रेज़ अधिकारियों या भारतीय ज़मींदारों के बच्चे पढ़ते थे। उनके बीच रहते हुए हिमाद्रि को भी शाहखर्ची की आदत हो गई। वह अक्सर उर्मिला देवी से पैसे मंगाता रहता था। वैसे तो उर्मिला देवी के पास कोई कमी नहीं थी। पर कुबेर का खजाना भी नहीं था। वह खुद तंगी में रह कर उसके खर्चे पूरे करती थीं। 
पीठ पीछे लोग उनकी इस अंधी ममता का मज़ाक उड़ाते थे। उनका कहना था कि ना जाने किसका खून है। ज़रूर किसी की नाजायज़ संतान होगा। तभी तो मंदिर की सीढियों पर फेंक दिया। उस पर अपनी दौलत लुटा रही है। एक दिन बुढ़िया पछताएगी। पर उनके मुंह पर कुछ कहने की उनकी हिम्मत नहीं होती थी।
जैसे जैसे हिमाद्रि जवानी की तरफ बढ़ रहा था उसके शौक भी बढ़ते जा रहे थे। बनना संवरना अच्छे कपड़े पहनना उसे बहुत पसंद था। अपने आपको आईने में निहारता रहता था। जब भी मौका मिलता था तो अंग्रेज़ी वेशभूषा में अपनी तस्वीर खिंचवाता या फिर किसी कलाकार से अपना चित्र बनवाता था। 
हिमाद्रि सत्रह साल का हो चुका था। इस अवस्था में एक पुरुष का औरत की तरफ आकर्षण कोई असामान्य बात नहीं है। 
पर हिमाद्रि का औरतों के लिए आकर्षण असामान्य था।