A truth: the beginning of the end in Hindi Comedy stories by Smit Makvana books and stories PDF | एक सच : आरंभ ही अंत

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एक सच : आरंभ ही अंत

एक सच: आरंभ ही अंत


में(निखिल) कॉलेज में था, पापा(जगदीसभाई) काम पर और माँ(रवीनाबेन) घर पे, छोटा भाई(आयुष) भी स्कूल में गया था। सोमवार से लेकर शनिवार तक हम लोगो की ज़िंदगी ऐसे ही चलती रहती थी।

रविवार के दिन पापा काम पर आधे दिन ही जाते थे और आधा दिन हमारे साथ गुज़ारते थे। और रोज हम लोग डिनर साथ में करते थे। पापा और माँ के साथ रहके एक सुकून सा मिलता था। ऐसा लगता था कि ये पल यहीं पर ठहर जाये। बस अब और कुछ नहीं चाहिए।

लेकिन उस दिन........ पापा को काम से आते-आते देर हो गयी, माँ ने फ़ोन किया तो पापा ने कहाँ की, "आज काम ज्यादा हे तुम लोग खाना खा लेना, मुझे देर हो जायेगी" ऐसा तो कईबार होता था। इसी लिए में, माँ और भाई सब ने खाना खा लिया। और शांति से टीवी देखने लगे।

रात के 12 बज गए, माँ को चिंता होने लगी क्योंकि पापा ने बोहोत देर लगादी थी। इससे पहले ऐसा कभी नहीं हुआ था। माँ ने पापा को एक बार और फोन किया पर इस बार फोन स्विच ऑफ आ रहा था। माँ और चिंता में आ गयी, और में भी। पर मैने हिम्मत रखी और माँ को कहा कि, "तुम चिंता मत करो उसके फ़ोन की बैटरी ख़तम हो गयी होगी!"

चिंता तो अब मुझे भी होने लगी पर मैने खुद में सयंम रखना सिख लीया था। 1:20 को पापा घर पर आये और घर में पैर रखते ही माँ शुरू हो गयी, "तुमको देर लगता है तो फ़ोन चालू रखा करो, मालूम है हम लोग कितने चिंता में आ गए थे, पूरा दिन बस काम काम की करते रहते हो।" पापा बस इतना बोले " आगे से ध्यान रखूँगा।" पापा की आवाज़ मुझे कुछ ठीक नहीं लगी! उनका वर्ताव हररोज़ से अलग था, मेने ये सोच के टाल दिया की वो शायद थके हुए होंगे।

पापा ने खाना खा लिया और हम सब सो गए। पर में जागता था। माँ सुबह से जागती थी तो वोह तो सबसे पहले ही सो गयी। धीरे- धीरे सब सो गए! पापा रात के 2;30 बजे उठे और फ़ोन कर के बोले, "काम हो गया कि नहीं अब और में यहाँ नहीं रह सकता, जल्द ही उसे होश में लाकर भेजो ताकि में वहां आ सकूँ।" पापा की ये बात मेने सुन रहा था, दूसरे दिन की सुबह पापा ने नास्ता किये बगैर ही काम पर चले गए।

आज के पहले ऐसा कभी नहीं हुआ था इसी लिए में उस दिन कॉलेज छोड़ के पापा के पीछा करने लगा।
पापा में इतना बर्ताव मेने आज तक कभी नहीं देखा, मुझे अब उन पर शक होने लगा था। में ये बात माँ को भी नहीं बता सकता क्योंकि माँ दिल की बोहोत भोली है। वो हर बात बोहोत जल्दी दिल पर ले लेती है और खामखा चिंता काढ़ती रहती है।


पापा शहर के बहार किसी पुरानी बिल्डिंग में चले गए। जब मैने वहां पर जाके देखा तो मेरी आँखे दांग रह गए 8 वे माले पे 60 से 65 लोग एक साथ खड़े थे।
और पापा उनके बिच में एक टेबल पर बेहोश थे।
में अभी कुछ करता उसके पहले ही मेरी नज़र दूसरी तरफ गई। मेरे पापा के जैसे ही कपङे में कोई और इंसान खड़ा था।

में इंजीनियरिंग का छात्र हु, और संयम रखना मेरी आदत है। मेने कुछ ना करके वही तमाशा देखना पसंद किया क्योंकि में अकेला था और पापा उनके कब्ज़े में। पर पापा ने कहा था,"इंसान तभी सफल कहलाता है जब वो खराब से खराब परिस्थीती को भी अपनी सूज बुज़ के सुलजा लेता है।"

और अब आगे.....