NAR YA MADA in Hindi Poems by Ajay Amitabh Suman books and stories PDF | नर या मादा

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नर या मादा

(१)

माना कि समय के साथ बदलना वक्त की मांग है . पर आधुनिकीकरण और फैशन के नाम पे किसी तरह का पोशाक धारण करना , किसी तरह के हाव भाव रखना , किसी तरह की भाव भंगिमा बनाना , आजकल के युवा पीढ़ी के लिए आम बात हो गई है . बदलाहट के नाम पर युवा पीढ़ी जिस तरह की उलुल जुलूल हरकत कर रही है , उस कारण अनेक बार हस्यादपद परिस्थितियाँ हो जाती हैं. इन्हीं हस्यादपद हाव भाव और पोशाक धारण करने वालों युवकों पर परिहास करते करती हुई इस हास्य कविता की रचना की गई है. कवि का उद्देश्य किसी की भावना को ठेस पहुँचाना नहीं है. यदि इस कविता से किसी की भावना को ठेस पहुँचता है , तो कवि क्षमाप्रार्थी है.


लटक मटकती चाल गजब है,
समझूँ आधा आधा,
अति कठिन ये प्रश्न है भैया ,
है नर वो या मादा?


पैरों में हैं बाल बहुत पर,
हाथों में हैं चूड़ी,
जाने कौन सी विपदा है,
जाने कैसी मजबूरी,


किशन कन्हैया जैसे गाए,
नाचे जैसे राधा,
अति कठिन ये प्रश्न है भैया ,
वो नर है या मादा?


मस्तक पे नीला टिका और,
सर पे लंबी चोटी,
नजरों पे काले काजल,
पर दाढ़ी भी है छोटी,


कैसे कह दूँ ज्ञात मुझे वो,
कैसे कर दूँ वादा,
अति कठिन ये प्रश्न है भैया ,
है नर वो या मादा?


सच है बिंदी ना भालों पे,
ना मांगों पे है सिंदूर,
फिर क्यों शैम्पू सेंट के आगे,
ये हो जाता है मजबूर,


पर आईने पे बैठा रहता,
दिवस बिताए ज्यादा,
अति कठिन ये प्रश्न है भैया ,
है नर वो या मादा?

लड़कों के ना हाव भाव ,
औ इनका साथ न भाय,
कोई तो हल कर दे गुत्थी,
कर दे नए उपाय,


क्या चाहे वो विदित नहीं,
न ज्ञात है कोई इरादा,
अति कठिन ये प्रश्न है भैया ,
है नर वो या मादा?


ये बात सही है दिखने में,
लगने को तो लगता नर,
पर आचार नारी सम इसका ,
जैसे हो कोई किन्नर,


क्या रखता तन नर का मन,
नारी होने को अमादा?
अति कठिन ये प्रश्न है भैया ,
है नर वो या मादा?


है ईश्वर अब तू हीं जाने,
अदभुत तेरी माया?
धूप अगर हो धूप कहूँ मैं,
और साया को छाया,


इन जैसों को जान न पाऊं,
नर मैं सीधा सादा,
अति कठिन ये प्रश्न है भैया ,
है नर वो या मादा?


अजय अमिताभ सुमन:
सर्वाधिकार सुरक्षित

(२)

पत्नी महिमा


लाख टके की बात है भाई,
सुन ले काका,सुन ले ताई।
बाप बड़ा ना बड़ी है माई,
सबसे होती बड़ी लुगाई।


जो बीबी के चरण दबाए ,
भुत पिशाच निकट ना आवे।
रहत निरंतर पत्नी तीरे,
घटत पीड़ हरहिं सब धीरे।


जो नित उठकर शीश झुकावै,
तब जाकर घर में सुख पावै।
रंक,राजा हो धनी या भिखारी,
महिला हीं नर पर है भारी।


जेवर के जो ये हैं दुकान ,
गृहलक्ष्मी के बसते प्राण।
ज्यों धनलक्ष्मी धन बिलवावे,
ह्रदय शुष्क को ठंडक आवे।


सुन नर बात गाँठ तू धरहूँ ,
सास ससुर की सेवा करहूँ।
निज आवे घर साला साली ,
तब बीबी के मुख हो लाली।


साले साली की महिमा ऐसी,
मरू में हरे सरोवर जैसी ।
घर पे होते जो मेहमान ,
नित मिलते मेवा पकवान ।


जबहीं बीबी मुंह फुलावत ,
तबहीं घर में विपदा आवत।
जाके चूड़ी कँगन लावों ,
राहू केतु को दूर भगावो।


मुख से जब वो वाण चलाये,
और कोई न सूझे उपाय ।
दे दो सूट और दो साड़ी ,
तब टलती वो आफत भारी।


कहत कवि बात ये सुन लो ,
बीबी की सेवा मन गुन लो।
भौजाई से बात ना कीन्हों ,
परनारी पर नजर ना दीन्हों।


इस कविता को जो नित गाए,
सकल मनोरथ सिद्ध हो जाए।
मृदु मुख कटु भाषी का गुलाम ,
कवि जोरू का करता नित गान।


अजय अमिताभ सुमन:
सर्वाधिकार सुरक्षित