Dahleez Ke Paar - 21 in Hindi Fiction Stories by Dr kavita Tyagi books and stories PDF | दहलीज़ के पार - 21

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दहलीज़ के पार - 21

दहलीज़ के पार

डॉ. कविता त्यागी

(21)

अक्टूबर के प्रथम सप्ताह मे ‘दहलीज के पार' साप्ताहिक—पत्र प्रकाशित हो गया। पत्र की कुछ प्रतियाँ डाक के द्वारा गरिमा के पास पहुँचायी गयी और गाँव साक्षर स्त्रियो को निःशुल्क उपलब्ध कराने का दायित्व भी गरिमा को सौपा गया। पत्र मे ‘नारी जागरण स्वर' शीर्षक से श्रुति द्वारा रचित ओजपूर्ण लम्बी कविता थी, जो इतनी लोकप्रिय हो गयी कि हर ग्रामीण स्त्री, चाहे वह निरक्षर थी या साक्षर, उस कविता को गाकर आनन्द लेने लगी। गरिमा की लिखी हुई ‘अनकही' नामक प्रेरणादायी कहानी मनोरजक थी और प्रभा के विचार—प्रधान लेख नारी—मन को आन्दोलित करने की सामर्थ्य से परिपूर्ण थे। सम्पूर्ण पत्र की भाषा—शैली प्रभावशाली थी और उसका प्रत्येक शीर्षक नारी—जीवन को अनेकशः कोणो से देखते हुए नारी—जीवन की पीड़ा को मार्मिक अभिव्यक्ति प्रदान कर रहा था। सभी महिला—पाठको को पत्र मे कुछ सामग्री अवश्य ऐसी मिली थी, जिससे उनको प्रतीत होता था कि अमुक बात उनके ही विषय मे लिखी गयी है। पत्र की इसी विशेषता ने पत्र के साथ—साथ गरिमा, प्रभा और श्रुति को भी कुछ ही महीनो मे लोकप्रिय बना दिया।

प्रभा और श्रुति आसपास के क्षेत्र की सुयोग्य बेटियाँ बन गयी थी और गरिमा सुशिक्षित—सुशील बहू। अपनी बेटी और बहू की लोकप्रियता और पत्र मे छपा चित्र देखकर श्रुति की माँ सीना चौड़ा रहता था। वे सबके समक्ष अपनी बेटी—बहू का गुणगान किया करती थी। ऐसा करके उनके मन को प्रसन्नता और सतुष्टि मिलती थी।

‘महिला जागरुकता अभियान' निरन्तर विकास की ओर बढ़ रहा था। अधिकाधिक सख्या मे लोग अब इस अभियान से जुड़ रहे थे। ‘दहलीज के पार' साप्तपहिक—पत्र के पाठको की सख्या मे निरन्तर वृद्धि हो रही थी। अपनी सफलता से श्रुति, प्रभा और अथर्व का मनोबल भी बढ़ रहा था, किन्तु प्रसन्नता के क्षणो मे भी कभी—कभी प्रभा अत्यधिक उदास हो जाती थी। श्रुति के बार—बार पूछने पर वह मात्र इतना ही कहती थी कि उसको अपनी माँ की याद आती है।

श्रुति जानती थी कि प्रभा की उदासी का कारण उसकी माँ की यादे मात्र नही है, बल्कि उसके अतीत से जुड़ी अनेक घटनाएँ है, जो उसका पीछा नही छोड़ रही है ; जिन्हे वह चाहकर भी नही भूल सकती है। प्रभा की ऐसी दशा देखकर श्रुति ने निर्णय लिया कि अब वह प्रभा के जीवन की प्रसन्नता छीनने वाले अपने दुष्कर्मी भाई को दड दिलाने के अपने निश्चय को गति देने की दिशा मे प्रयास करेगी। अपने अभियान की सफलता के फलस्वरूप अब तक ऐसी अनेक सस्थाओ से तथा सस्थाओ के सचालको से श्रुति की टीम का परिचय हो चुका था। उन सबके सहयोग से श्रुति ने एक ऐसे कार्यक्रम की रूपरेखा बनायी, जिसमे वह अपने गाँव जाकर किसी सभा या रैली का आयोजन कर सके और गाँव—समाज मे प्रभा का पक्ष मजबूत करते हुए वहाँ की स्त्रियो के लिए मुक्ति तथा सशक्तिकरण का पथ प्रशस्त कर सके। कार्यक्रम की सफलता सुनिश्िचित करने के लिए श्रुति ने कार्यक्रम से सम्बन्धित वैधानिक अनुमति प्राप्त कर ली थी और उपद्रवी—असामाजिक तत्वो पर नियत्रण करने के लिए आवश्यकतानुसार सुरक्षा बल की भी माँग कर दी थी। एक परिचित प्रभावशाली व्यक्ति के प्रभाव से जब श्रुति की सुरक्षा—बल की माँग स्वीकृत हो गयी, तब उसने अपने कार्यक्रम को साकार करने की दिशा मे कदम उठा दिया।

श्रुति के कार्यक्रम की सूचना सर्वप्रथम गरिमा को दी गयी थी। उसके परामर्श से वह सूचना अनेक पत्र—पत्रिकाओ मे भी प्रकाशित करा दी गयी। पत्र—पत्रिकाओ मे प्रकाशित होते ही जगल की आग की भाँति अतिशीघ्र यह सूचना थोड़ी—सी विकृतियो के साथ समूचे स्थानीय क्षेत्र मे फैल गयी कि श्रुति प्रभा के साथ अपने भाई के द्वारा किये गये दुष्कर्म का प्रतिशोध लेने के लिए पूरे दल—बल के साथ गाँव लौट रही है।

कार्यक्रमानुसार निर्धारित समय पर श्रुति अपनी टीम के साथ गाँव पहुँच गयी। जैसा श्रुति ने अनुमान किया था, ठीक वैसी स्थिति उसने वहाँ पर देखी। उसने देखा कि गाँव की सीमा पर कुछ लोग लाठी—डन्डे लिए हुए श्रुति की प्रतीक्षा कर रहे है। वे सभी लोग स्त्री के अधिकारो के प्रति नकारात्मक और रूढ़िवादी सोच से ग्रसित होने के कारण श्रुति के कार्यक्रम मे व्यवधान उत्पन्न करना चाहते थे, उनके व्यवहार से यह अनुमान लगाना कठिन नही था। किन्तु अपने कार्यक्रम की विफलता की हर सभावना को नगण्य करने की पूर्णव्यवस्था वह पहले ही कर चुकी थी। गाँव का या बाहर का कोई व्यक्ति अपनी अनुचित—अनैतिक योजना को कार्यरूप देने मे सफल हो पाता, इससे पहले ही वहाँ पर सुरक्षा बल ने स्थिति पर नियत्रण करके गाँव की स्थिति सामान्य बना दी। परिणामतः श्रुति का सभा—आयेजन सफलतापूर्वक क्रियान्वित किया जाने लगा और योजनानुसार सम्पन्नता की ओर बढ़ने लगा।

अपने कार्यक्रम के अन्त मे श्रुति ने सभा को सम्बोधित करते हुए आह्वान किया —

आइये, किसी भी स्त्री पर होने वाले अमानवीय अत्याचारो का विरोध हम सभी स्त्रियाँ एक साथ करे ! यदि सभी स्त्रियाँ अपनी शक्ति का अनुभव करके एकता के महत्व को समझ लेगी, तो ब्रह्माण्ड की कोई भी शक्ति मातृशक्ति पर अत्याचार करने का दुस्साहस नही कर सकेगी ! यदि नारी अपनी अनुपम शक्ति के साथ कर्तव्य पथ पर अग्रसर हो जाए तो वह दिन दूर नही, जब दुनिया से दुष्कर्म जैसे जघन्य अपराधोे का अधियारा मिट जाएगा और समानता—समरसता का प्रकाश चारो दिशाओ मे फैल जाएगा। यह तभी सभव है जब समाज की स्त्रियाँ अज्ञान और रूढ़ियो की दहलीज पार करके उनमुक्त—ज्ञान की दुनिया मे प्रवेश करेगी ; जब वे स्वतत्र मस्तिष्क से निर्णय लेने मे सक्षम होगी ; जब मातृशक्ति बेटा—बेटी के प्रति भेदभावपूर्ण दोहरे मानदण्ड का परित्याग करके अपने बेटे—बेटियो को जन्म लेने और सम्मान सहित जीने का समानाधिकार प्राप्त कर उन्हे समानता से जीना सिखायेगी ! यदि आप सब मेरे वक्तव्य से सहमत है, तो आइये हम इसका आरम्भ आज से, अभी से करते है, प्रभा को न्याय दिलाने के लिए उसके साथ खड़े होकर ! क्या आप सब तैयार है ? अपनी सहमति दर्ज कराने के लिए आपको इस कागज पर अपना हस्ताक्षर और अपने अगूठे का चिह्न अकित करना होगा, जो अभी आपके पास आ रहा है !

श्रुति के आह्‌वान का एक स्वर मे सभी ने समर्थन किया और अपना हाथ ऊपर उठाकर सकारात्मक शब्दो मे उत्तर भी दे दिया। यह बात अलग थी कि किसी के भी शब्द स्पष्ट नही सुने जा सकते थे, किन्तु उनकी मुद्रा स्पष्टतः श्रुति के प्रति उनका समर्थन दर्शा रही थी। कुछ समय पश्चात्‌ ही सभा मे उपस्थित महिलाओ के पास कागज—पैन लेकर सगठन के सदस्य दिखाई देने लगे। देखते—ही—देखते प्रभा के पक्ष मे खड़ी होने वाली महिलाओ की एक लम्बी सूची तैयार हो गयी। दूसरे शब्दो मे, समाज के उन लोगो के विरुद्ध एक सुदृढ़ सगठन तैयार हो गया, जो स्त्री को एक वस्तु के रूप मेे देेखते है और स्त्री को दहलीज की सीमा मे प्रतिबधित कर देते है। समाज के उन्ही लागो मे से एक प्र्रशान्त था। कहे की आवश्यकता नही कि नारी—शक्ति का यह सगठित रूप सर्वप्रथम प्रशान्त के विरुद्ध अपना परिचय प्रस्तुत करने के लिए तत्पर था।

श्रुति जब तक गाँव मे नही पहुँची थी, तब तक उसकी माँ अपनी बेटी की सुरक्षा के प्र्रति चिन्तित थी। स्त्रियो के अधिकारो की माँग को लेकर आगे आने वाली श्रुति के प्रति उसके गाँव वालो ने क्या—क्या षडयत्रकारी योजनाएँ बनायी है, इस सबन्ध मे उड़ती—उड़ती—सी जानकारी श्रुति की माँ को मिल चुकी थी, किन्तु जब माँ ने गाँव की सीमा पर सुरक्षा—बल की व्यवस्था देखी, तब बेटी के प्रति माँ की चिन्ता समाप्त हो गयी। इसके साथ ही अपनी बेटी की सूझ—बूझ पर श्रुति की माँ को भी गर्व हुआ था कि उसकी बेटी अपनी रक्षा स्वय कर सकती है। किन्तु अब उस माँ का वह गर्व पुत्र के भविष्य को लेकर दुश्चिन्ता और क्रोध मे परिवर्तित हो गया। सभा मे बैठी श्रुति की माँ को किसी ने बताया कि कागज पर गाँव की महिलाओ के अँगूठे के चिह्न और हस्ताक्षर प्रशान्त को उसके दुष्कर्मा का दड दिलाने को लिए गये है। यह सुनते ही श्रुति की माँ चीखने—चिलाने लगी और मच पर जाकर प्रभा पर बरस पड़ी —

तू सजा दिलवायेगी मेरे बेट्‌टे कू ! माँ मरगी, रिश्ता टूट गा, बाप पहले ही इस दुनिया से विदा होगा हा, तेरे कालजे मे अब बी ठडक न पड़ी, जो अब मेरे घर मे आग लगाने कू चली है ! श्रुति ने अपनी माँ को समझाने का प्रयास किया, तो माँ उसे भी डाँटने लगी—

निर्जलज्ज ! कैसी बहण ऐ तू ? अपणे भैया कू हथकड़ी लगवावेगी अर उसकू जेल भिजवावेगी ! मैन्ने सबसे ऊप्पर होके तू पढ़ायी, सहर मे जाणे कू अपने जेवर तुझे दे दिए अर तैन्ने मुझे आज यू फल दिया, मेरे बेट्‌टे कू सजा दिवाणे की तैयारी कर री है तू ! श्रुति की माँ लगातार चीख रही थी। उसके स्वर मे रुदन, क्रोध, पश्चाताप आदि के मिश्रित भाव थे और चेहरे पर हृदय की असह्य पीड़ा झलक रही थी। श्रुति अपनी माँ को समझाने का प्रयास कर रही थी, परन्तु माँ का हृदय पुत्र—मोह मे उचित—अनुचित का भेद भुलाकर केवल पुत्र—वियोग तथा पुत्र के सम्भावित कष्टो की कल्पना करके तड़प रहा था, इसलिए श्रुति बार—बार अपने प्रयास मे असफल हो रही थी। माँ कभी चीखती—चिल्लाती थी, कभी रोने—गिड़गिड़ाने लगती थी और प्रार्थना करने लगती थी कि उनके बेटे को क्षमा कर दिया जाए। श्रुति अपनी माँ के असामान्य व्यवहारो से असहज हो रही थी और विवश—सी दृष्टि से माँ की ओर देखती थी — माँ ! एक बार प्रभा के बारे मे सोचकर देखो, तब तुम ऐसा नही कहोगी, जैसा अब कह रही हो !

मेरे बेट्‌टे परसान्त कू जेल मे भेजके इसकी लुटी हुई इज्जत बण जावे, तो भेज दे उसे जेल मे ! परसान्त कू हथकड़ी लगवाके अर उसे जेल भेज के इसके दुख दूर हो जावे तो भेज दे उसकू जेल मे ! पर मै कहरी हूँ ... ! माँ ने कहा, परन्तु माँ अपना अगला सवाद पूरा कर पाती, इससे पहले ही श्रुति बोल उठी —

माँ, जो कुछ प्रशान्त भैया ने प्रभा के साथ किया, वही सब कुछ तेरी बेटी के साथ होता, तो क्या करती तू ? तब भी ऐसा ही कहती, जैसा आज कह रही है ? क्या तब तू यह नही चाहती कि तेरी बेटी का सुख—चैन बर्बाद करने वाला जेल की सजा काटे ? वह समाज मे बेइज्जत हो ? माँ, तू जानती है, प्रभा की माँ की मौत का क्या कारण था ? बेटी का रिश्ता टूटने का समाचार उसकी माँ की मृत्यु का कारण बना था ! आपको पता है, प्रभा का रिश्ता क्यो टूटा था ? क्योकि प्रशान्त ने उसके साथ बलात्कार किया था माँ ! विनय की माँ ने तब इस लड़की को अपनी बहू के रूप मे स्वीकार करने से मना कर दिया था ! माँ, एक बार सोच, प्रभा की जगह तेरी बेटी होती और प्रशान्त की जगह कोई दूसरा लड़का, जो तेरा बेटा नही होता, तब क्या तेरी आत्मा चीख—चीखकर नही कहती कि उस दुष्कर्मी को मौत की सजा मिलनी चाहिए, जिसने तेरी बेटी की हँसती—खिलाती जिदगी उजाड़ दी ? बोल माँ ! क्या मै गलत कह रही हूँ ?

श्रुति के प्रश्नो का उत्तर उसकी माँ के पास नही था। वह न तो ना कह सकती थी और न ही हाँ कह सकती थी। वह जानती थी कि उसकी बेटी गलत नही थी, न आज गलत है, किन्तु माँ का पुत्र—मोह बेटी को उचित कहने मे बाधक बनकर खड़ा था। अतः उस समय माँ को मौन रहना ही अधिक उपयुक्त सूझ रहा था। माँ की इस दुविधा को श्रुति भली—भाँति अनुभव कर रही थी। उसने माँ को पुनः समझाने का प्रयास करते हुए सात्वना देने की मुद्रा मे कहा —

माँ, आप थोड़ी—सी देर के लिए प्रभा की माँ भी बन जाइये! प्रभा की माँ बनकर आप प्रशान्त भैया को सजा से बचाने के लिए आग्रह नही करेगी ! इतना ही नही, आप स्वय भी प्रशान्त भैया को क्षमा नही कर सकती ! पर आप प्रशान्त भैया की माँ वास्तविक माँ है, इसलिए आप उन्हे दड देने का आग्रह कभी नही करेगी, यह मै जानती हूँ ! ऐसी दशा मे यही उचित हे कि आप सब कुछ ईश्वर—भरोसे छोड दे, अब जो भी करेगा, ईश्वर करेगा ! आप और हम कुछ नही करेगे, माँ ! आप हमेशा से यही तो कहती आयी है कि करने वाला तो भगवान है, जैसा जिसके भाग्य मे लिखा है, वैसा होके रहेगा !

मेरा बेट्‌टा इतना खोट्‌टा भाग लिखा के आया है इस दुनिया मे ? यू माँ कैसे जीयेगी, जब उसका बेट्‌टा जेल की चक्की पीस्सेगा! अर एक तू ...! यह कहते हुए श्रुति की माँ की रुलाई फूट पड़ी। माँ की बात सुनकर कुछ क्षणो तक वह चुप रही, तदुपरान्त सयत किन्तु ओजपूर्ण शैली मे बोली —

प्रशान्त भैया ने ऐसा दुर्भाग्य स्वय अपने कर्मो से लिखा है ! भगवान ने नही कहा था उससे प्रभा का जीवन बर्बाद करने के लिए! और और... ! आज तो आपको समझ मे आ रहा है कि आपके बेटे को दड दिलाने वाली कोई देवलोक की देवी नही है, इसी गाँव की रहने वाली दो साधारण लड़की है ! आप प्रशान्त भैया को बचपन मे ही बहन—बेटी का सम्मान करना सिखाती ; उसे बताती कि घर मे और समाज मे लड़कियो को भी उसी प्रकार स्वतत्रतापूर्वक विकास के समान अवसर मिलने चाहिए, जिस प्रकार लड़को को मिलते है, तो आज आपको यह दिन नही देखना पड़ता ! सच तो यह है कि माँ—बाप ही बेटो मे ऐसे सस्कार डाल देते है कि वे पुरुष को स्त्री की अपेक्षा श्रेष्ठ समझने लगते है। वह स्त्री उनकी माँ, बहन, बेटी या पत्नी किसी भी रूप मे क्यो न हो। और उसी समय से वे स्त्री पर शासन करना अपना प्राकृतिक अधिकार समझने लगते है ! ... रही मेरे भाग्य की बात, माँ, मै समझती हूँ कि मेरे भाग्य को भी स्वय मैने ही गढ़ा है, किसी भगवान ने नही ! हाँ, इतना जरूर कह सकती हूँ कि यदि मेरे भाग्य को चमकाने मे किसी भगवान का योगदान है, तो वह भगवान आप है ! आपने मुझे पुरुषवादी विचारधारा से मुक्त होकर आगे बढ़ने का मार्ग दिया और इस समाज के रूढ़ नियमो को तोड़कर आगे बढ़ने मे सहयोग किया, इसलिए मेरे भगवान आप है ! यह कहते—कहते भावावेश मे श्रुति का गला रुँध गया और आँखे भर आयी।

श्रुति द्वारा कही गयी एक—एक बात माँ को सत्य प्रतीत हो रही थी और उनके हृदय पर गहन प्रभाव छोड़ रही थी, परन्तु उनके पास प्रत्युत्तर मे कहने के लिए कोई शब्द नही था। अन्ततः उन्होने बेटी के सिर पर हाथ रखा और आँसू—युक्त नम आँखो से घर वापिस लौट आयी। माँ के जाने के पश्चात्‌ श्रुति और प्रभा का मन भारी हो गया था, वे शीघ्रातिशीघ्र गाँव से लौट जाना चाहती थी, इसलिए यथासम्भव शीघ्र ही उनकी टीम ने गाँव छोड़ दिया और दिल्ली के लिए प्रस्थान किया। ‘महिला जागरुकता अभियान' की टीम के लौट जाने के बाद गाँव मे तैनात पुलिस—बल भी लौट गया और गाँव मे पुलिस की उपस्थिति से उत्पन्न तनाव समाप्त हो गया।

गाँव से पुलिस नियन्त्रण हटते ही परम्परावादी समाज पुराने ढर्रे पर लौट आया। अधिकाश परिवारो मे उन स्त्रियो पर शिकजा कसा जाने लगा। जो श्रुति की सभा मे सम्मिलित हुई थी। जो स्त्रियाँ उस सभा मे सम्मिलित होने के औचित्य पर अपना पक्ष रखने का साहस कर रही थी, उन्हे व्यक्तिगत और सामूहिक रूप से प्रताड़ित किया जाने लगा। इसका परिणाम यह हुआ कि अगले दिन उनमे से अधिकाश महिलाएँ गरिमा के पास आकर अपना नाम वापिस लेने की माँग करने लगी, जो सभा के समय कागज पर लिखे गये थे। गरिमा उनको बड़ी कुशलता से समझाती कि उस कागज पर नाम लिखने और अँगूठा लगाने से उन्हे किसी कठिनाई का सामना नही करना पड़ेगा, वे निश्चिन्त रहे। गरिमा उन्हे अपने अस्तित्व के प्रति जाग्रत करने का प्रयास करते हुए सभी प्रकार की कष्टपूर्ण परिस्थितियो से सघर्ष करने की प्रेरणा भी देती और उनमे अभूतपूर्व साहस का सचार करने मे भी सफल होती थी। गरिमा की बातो मे ऐसा प्रभाव होता था कि जो स्त्री उसके पास यह कहने के लिए आती थी कि उसका श्रुति की सभा मे जाने का निर्णय उचित नही था और अब वे घर की चारदीवारी से बाहर निकलने की विचारधारा से ,तथा श्रुति के सगठन से मुक्त होना चाहती है, उन स्त्रियो मे गरिमा की बाते सुनकर पुनः चेतना का उन्मेष होने लगता था। तब वे ओजपूर्ण शैली मे कह उठती थी कि रूढ़ियो की जजीरे तोड़ने के लिए, प्रतिबन्धो की दहलीज पार करने के लिए, ज्ञान के प्रकाश मे आँखे खोलने के लिए तथा उनमुक्त गगन मे उड़ान भरने के लिए वे प्रत्येक प्रतिकूल परिस्थिति से सघर्ष करने के लिए तैयार है और अन्ततः विजयपताका उनके हाथ मे होगी। तब वे स्त्रियाँ प्रभा को न्याय दिलाने के लिए कोर्ट मे गवाही देने के लिए भी तैयार हो जाती थी और गरिमा के समक्ष श्रुति का आभार प्रकट करती थी कि उसने गाँव की अन्य लड़कियो के लिए आगे बढ़ने का रास्ता बनाया है। यदि श्रुति साहस नही दिखाती और दुनिया को अपनी प्रतिभा से परिचित नही कराती, तो न जाने कितनी लड़कियो की प्रतिभा अकुरित होने से पहले ही दम तोड़ देती।

गरिमा, श्रुति, प्रभा और अथर्व आदि की टीम के सयुक्त प्रयासो के परिणामस्वरूप समय की गति के साथ—साथ एक ओर धीरे—धीरे महिलाओ मे अपने अस्तित्व और अधिकारो के प्रति चेतना आने लगी थी, दूसरी ओर, फास्ट ट्रैक कार्ट मे न्याय की प्रक्रिया तेज हो गयी थी, जिसमे प्रभा का पक्ष प्रबल हो रहा था। प्रशान्त का अब अपने किये पर पश्चाताप होने लगा था। स्त्री को अबला और लाचार—विवश समझने वाला प्रशान्त अब उसी स्त्री की शक्ति के समक्ष नतमस्तक था। पुलिस तथा कोर्ट के कठोर निर्देशो ने उसको अनुभव करा दिया था कि इस युग मे अत्याचारी—दुराचारी पौरुष पुरस्कार या प्रशसा अधिकारी नही, बल्कि दड का अधिकारी है।

ज्यो—ज्यो प्रशान्त का केस कमजोर पड़ता जा रहा था और उसके दड के निर्णय का समय निकट आता जा रहा था, त्यो—त्यो उसका अहकार टूटता जा रहा था। शीघ्र ही वह समय भी आ गया, जब प्रशान्त के दड का निर्णय होना था। प्रशान्त कोर्ट के कटघरे मे खड़ा था। उसने न्यायाधीश के निर्णय से क्षण—भर पूर्व सविनय कहा— जज साहब, मुझे अब अपनी गलती का एहसास है। मैने प्रभा का जीवन बर्बाद किया है। मै अपने अपराध का प्रायश्चित करना चाहता हूँ ! मै अपने अपराध की ऐसी सजा चाहता हूँ कि मुझे जीवन—भर अपनी गलती की याद रहे और प्रभा का जीवन सँवर जाए! जज साहब, मै प्रभा के साथ शादी करना चाहता हूँ !

नही ! जज साहब ! मै इसके साथ विवाह नही कर सकती! ऐसे घटिया आदमी के साथ रहना किसी लड़की के लिए ही अपने आप मे एक सजा हो जायेगी, इसको तो उसमे भी सुख ही मिलेगा! प्लीज़ मेरे लिए ऐसा दड निर्धारित मत कीजियेगा ! प्रभा ने चीखते हुए कहा और फफक कर रो पड़ी।

तुम जैसे जघन्य अपराधी को छोड़ने का अर्थ होगा, ऐसे जघन्य अपराध करने की प्रवृत्ति को प्रोत्साहन देना ! आज आवश्यकता है कि दुष्कर्म के अपराधी को कठोरतम दड दिया जाए, ताकि बलात्कार जैसे अपराध करने से पहले व्यक्ति उसके परिणाम के विषय मे सोचने के लिए विवश हो जाए, तभी ऐसी दुर्घटनाओ को रोका जा सकता है ! जज साहब ने इस टिप्पणी के साथ प्रशान्त को दस वर्ष के सश्रम कारावास का दड सुनाया और प्रभा के साहस की प्रशसा की।

प्रशान्त के लिए दस वर्ष के कारावास की घोषणा तथा प्रभा के लिए प्रशसा के शब्द सुनकर वहाँ पर उपस्थित जन—मानस मे आनन्द की लहर दौड़ गयी। सभी के हृदय मे अपने देश की न्यायव्यवस्था के प्रति विश्वास जाग गया। प्रत्येक व्यक्ति के होठो पर उस समय बस एक ही विषय था —

हमारे देश के कानून मे खोट नही हे, कानून का पालन करने मे खोट है। जितने कानून है, उनका कड़ाई से पालन हो, तो अपराधियो के हौसले धूल मे मिल जाएँ ! सभी मामलो मे कोर्ट जल्दी सुनवायी करे और अपराधी को न्यायोचित कठोर दड देने के लिए न्यायाधीशो के मन मे दष्ढ सकल्प हो, तो अपराधी प्रवष्त्ति के लोगो मे भय बना रहेगा और समाज मे सुख—शान्ति रहेगी !

अगले दिन तक प्रिट मीडिया और इलैक्ट्रोनिक मीडिया मे प्रभा की जीत का समाचार सुर्खियो मे आ चुका था। प्रभा के पास बधाई देने वालो का ताँता लग गया। जो भी सुनता था, वही स्वय जाकर या फोन करके प्रभा को बधाई दे रहा था और उसको न्याय मिलने की प्रसन्नता मे सम्मिलित हो रहा था।

सयोगवश उसी दिन अथर्व ने बताया कि सिविल सर्विस के साक्षात्कार के परिणाम की घोषणा हो गयी है। न्याय मिलने की प्रसन्नता तथा लम्बे सघर्ष के बाद जीतने की खुशी मे आज प्रभा यह भूल गयी थी कि उसके जीवन मे इसके अतिरिक्त भी कुछ कष्ट, समस्याएँ या प्रसन्नता के विषय है। अथर्व के मुँह से यह सुनते ही कि उसके साक्षात्कार का परिणाम घोषित हो चुका है, उसका चेहरा भावशून्य हो गया। उसे लगता था कि इस बार वह अवश्य सफल हो जायेगी और अपने तथा अपने परिवार के सपनो को साकार करेगी । किन्तु, कई बार की पूर्व विफलता उसके विश्वास मे बाधक बनकर खड़ी हो जाती थी और एक अज्ञात स्वर उसके अन्दर से आने लगता था — प्रभा ! अति आत्मविश्वास भी सफलता मे बाधा डालता है, क्योकि अति आत्मविश्वास मे व्यक्ति अपनी दुर्बलता को भूल जाता है। अब से पहले भी तुम्हे अपनी सफलता का पूरा विश्वास था, पर क्या हुआ ?

हृदय के किसी कोने से आता हुआ यह स्वर प्रभा के मनःमस्तिष्क पर ऐसा नियत्रण किये हुए था कि अपने साक्षात्कार का परिणाम घोषित होने की सूचना पाकर भी उसका चेहरा भावशून्य था। उसके भावशून्य चेहरे को देखकर अथर्व कुछ क्षण तक मौन रहकर आश्चर्य की मुद्रा मे उसकी ओर घूरता रहा, मानो वह प्रभा की भावशून्यता के कारण का अनुमान लगाने का प्रयास कर रहा था। कुछ क्षणोपरान्त अथर्व ने खिलखिलाकर हँसते हुए प्रभा को झिझोड़ते हुए कहा—

प्रभा, तूने इन्टरव्यू पास कर लिया है, वह भी बढ़िया पोजीशन से !

सच कह रहा है तू !

हाँ, बिलकुल सच !

झूठ तो नही बोल रहा ना ?

बिलकुल नही !

सिविल सर्विस के साक्षात्कार मे प्रभा की सफलता की शुभ सूचना से ‘महिला जागरुकता अभियान' की टीम मे एक बार फिर प्रसन्नता भर गयी। सारा वातावरण उनकी प्रसन्नता से प्रफुल्लित हो उठा था। तभी प्रभा ने अपने शब्दो से अचानक सभी को चौका दिया—

मै सोचती हूँ, सिविल सर्विस मे न जाकर अब मै राजनीति मे सक्रिय हो जाऊँ !

क्यो ? ऐसा क्यो सोच रही हो तुम ? सभी ने एक स्वर मे कहा।

क्योकि महिलाओ को सशक्त बनाने के लिए ऐसे सशक्त कानूनो की आवश्यकता है, जो महिलाओ के हितो की रक्षा कर सके। आज दिशाहीन राजनीति लोकहित की अपेक्षा सत्ता—केद्रित हो गयी है, इसलिए देश की आबादी मे आज पचास प्रतिशत स्त्रियाँ है, फिर भी स्त्रियो की दशा दयनीय है। जब तक इस पचास प्रतिशत आबादी तक प्रतिनिधित्व ससद और विधानसभाओ मे स्त्रियाँ नही पहुँचेगी, तब तक महिलाओ की दशा सुधरना सभव नही है। इसलिए मै चाहती हूँ कि... ! वैसे भी प्रशासनिक अधिकारियो को सत्ताधारी भ्रष्ट नेता ठीक से काम ही कहाँ करने देते है। देश की दशा सुधरने के इच्छुक अधिकारियो की कर्मठता और ईमानदारी तो घुट—घुटकर दम तोड़ने के लिए विवश हो जाती है ! उन भ्रष्ट नेताओ के समक्ष, जो सत्ता की शक्ति का दुरुपयोग करके स्वार्थी और बेईमान, धूर्त अधिकारियो को अपने हाथ की कठपुतली बना लेते है, ईमानदार और कर्मठ अधिकारी कहाँ कुछ कर पाते है ! कल की जीत के बाद मुझे लग रहा है कि मै राजनीति मे प्रवेश करके महिलाओ के हित मे अपेक्षाकृत अधिक कार्य कर सकती हूँ !

नही, प्रभा ! अभी तुम्हे प्रशासनिक सेवा के क्षेत्र मे जाकर ही अपनी प्रतिभाओ का विकास करना चाहिए ! राजनीति मे तो तुम कभी भी आ सकती हो ! श्रुति ने कहा।

श्रुति ठीक कह रही है ! अभी तुम्हे सिविल सर्विस मे जाना ही होगा ! यह अवसर छोड़ना बुद्धिमानी नही है ! अथर्व ने कहा।

तुम ठीक कह रहे हो, किन्तु आज हमे ऐसा वतावरण बनाने की आवश्यकता है कि स्त्रियाँ अपना हित—अहित समझ सके ; रूढ़िवादी निरर्थक प्रतिबन्धो की दहलीज को लाँघकर स्वतत्रता के वातावरण मे साँस ले सके ; वे भयमुक्त होकर प्रासगिक विषयो पर विचार कर सके !... इस प्रकार का वातावरण बनाने के लिए नेक—नीयत के साथ—साथ अतिरिक्त शक्ति की आवश्यकता होगी। शक्ति के अभाव मे हमारी सभी योजनाएँ सपना बनकर रह जाएँगी। इसलिए मै चाहती हूँ कि... ! प्रभा अपना वाक्य पूरा नही कर पायी थी, तभी उसकी दृष्टि दरवाजे मे प्रवेश कर रहे विनय और उसकी माँ विजयलक्ष्मी पर टिक गयी।

प्रभा की दृष्टि एक टक दरवाजे की ओर लगी देखकर बाकी लोग भी उधर ही देखने लगे, किन्तु किसी के मुख से एक शब्द भी निसृत नही हुआ। विनय और उसकी माँ विजयलक्ष्मी को देखकर सभी आश्चर्यचकित थे कि प्रभा को अपनी पुत्रवधू के रूप मे अस्वीकार कर उसका तिरस्कार करने वाली स्त्री आज अचानक यहाँ कैसे आ गयी ? कही उनकी आँखे सपना तो नही देख रही है। विनय के साथ प्रभा का विवाह निश्चित होने और रिश्ता टूटने से सम्बन्धित सारी घटनाओ को अब तक लक्ष्मी भी सुन चुकी थी, किन्तु वह विनय और उसकी माँ को पहचानती नही थी।

सब लोगो को प्रकार मौन और आश्चर्यचकित देखकर लक्ष्मी की मानसिक दशा विचित्र थी। उसके मस्तिष्क मे अनेकानेक प्रश्न उठ रहे थे। कुछ ही क्षणो बाद उसको अपने सभी प्रश्नो के उत्तर तब मिल गये, जब विनय अपनी माँ के साथ चलता हुआ उनके निकट तक आ पहुँचा और प्रभा को उसकी सफलता के लिए जोश के साथ बधाई दी, तो प्रभा और अथर्व उनके स्वागतार्थ हाथ जोड़कर खड़े हो गये। उनकी मुद्रा को देखकर लक्ष्मी को विश्वास हो गया था कि वे दोनो अत्यधिक निकट सम्बन्धी है, परन्तु कौन है ? यह प्रश्न अभी भी उसके मस्तिष्क मे सिर उठा रहा था। अपने इस प्रश्न को वह किसी के समक्ष प्रकट नही करना चाहती थी, इसलिए धैर्य के साथ अपनी जिज्ञासा शान्त करने के अवसर की प्रतीक्षा कर रही थी।

विनय और उसकी माँ विजयलक्ष्मी का यथोचित सम्मान और सत्कार करने के पश्चात्‌ बातचीत का दौर आरम्भ हुआ। कुछ देर तक औपचारिक बाते करने के बाद विनय ने बातचीत को बड़ी कुशलता से अपने लक्ष्य की ओर मोड़ दिया। अब तक लक्ष्मी समझ चुकी थी कि विनय वही लड़का है, जिसके साथ प्रभा का विवाह होने वाला था, लेकिन हो नही सका था। विनय ने अपने शब्दो मे मधु घोलते हुए बहुत ही आत्मीय ढग से प्रभा और अथर्व के समक्ष प्रस्ताव रखा—

अब, जब सब कुछ ठीक हो चुका है ; कोई गम्भीर समस्या भी नही रह गयी है, तो मुझे लगता है, हमारे विवाह के विषय मे भी सोचना चाहिए ! मेरे कहने का आशय है, अब हमे विवाह कर लेना चाहिए! पहले ही हमारे विवाह मे इतने विघ्न आ चुके है, मै नही चाहता कि इस बार कोई विघ्न आये ! मेरे विचार से जितनी जल्दी यह कार्य हो जाए उतना ही बेहतर रहेगा ! प्रभा ! तुम्हारा क्या मत है, इस विषय मे ?

तम इतणी समझ—बूझ वाले होत्ते, तो थारी सादी मे विघण आत्ते के ? अब जिज्जी केस जीत गयी, कोरट का फैसला जिज्जी के हक मे आया, तो तम समझदार बणके आ बैट्‌ठे ! तमे सायद पता भी नही, पिरभा जिज्जी का उसमे नम्बर आया है, के कहवे है उसे?

...सिविल सर्विस मे ! अब तो तम इनके साथ ब्याह रचाणे का सपणा देखणा छोड़ दो, तो ही अच्छा है ! क्यूँ भइया, मै ठीक कह रही हूँ? अपने कथन का औचित्य सिद्ध करने की मुद्रा मे लक्ष्मी ने अथर्व की ओर देखकर कहा।

अथर्व को इस विषय मे अपना मत प्रकट करने की आवश्यकता नही पड़ी। अथर्व के कुछ कहने से पहले ही प्रभा ने अथर्व और लक्ष्मी को चुप रहने का सकेत करते हुए विनय से कहा —

विनय तुम मेरे अच्छे मित्र हो ! मै तुमसे आशा कर सकती हूँ कि तुम और मेरी स्थिति को भली—भाँति समझ सकते हो !

प्रभा, मै तुम्हे कोई कष्ट नही देना चाहता, न ही तुम्हे फोर्स कर रहा हूँ ! तुम जैसा चाहती हो , अपने मन की बात खुलकर—निस्सकोच कह सकती हो ! विनय ने सहज—भाव से कहा। विनय, जब हमारा विवाह निश्चित हुआ था, तब मै अपनी माँ की इच्छा के समक्ष विवाह करने के लिए विवश थी ! मेरी माँ चाहती थी कि वे अपनी बेटी को दुल्हन के जोड़े मे सजी हई देखे और अपने हाथ से कन्यादान करे, लेकिन तुम्हारी... ! खैर छोड़ो यह सब ! गड़े मुर्दे उखाड़ने से अब क्या लाभ है ?

प्रभा की बात सुनकर विनय के हृदय की ग्लानि उसके चेहरे पर उतर आयी, किन्तु वह मौन बैठा रहा। क्षण—भर के लिए प्रभा भी मौन हो गयी। तदुपरान्त उसने पुनः कहा —

अब, जबकि मेरी माँ ही नही रही, तो मै समझती हूँ, मुझे विवाह करने के लिए शीघ्रता नही करनी चाहिए ! विनय, तब मै माँ की भावनाओ को चोट नही पहुँचाना चाहती थी, लेकिन सत्य तो यह है कि मै कोई वस्तु नही हूँ, जिसका दान कर दिया जाए। मै एक जीती—जागती हड्‌डी—माँस की बनी हुई लड़की हूँ, जिसके सीने मे एक हृदय धड़कता है और खोपड़ी मे मस्तिष्क है ! स्वतत्र भारत की एक स्वतत्र, वयस्क नागरिक हूँ और अपने विषय मे निर्णय लेने का अधिकार रखती हूँ ! अब मै अपनी शक्तियो को और स्वतत्रता को समझते हुए अपने जीवन मे कुछ सार्थक कार्य करना चाहती हूँ ! मुझे लगता है कि विवाह करके मै अपने सपनो को कार्य—रूप मे परिणत नही कर सकूँगी !

प्रभा, मैने आज तक तुम्हारी स्वतत्रता को कभी भी चुनौती दी है ? ऐसा कौन—सा क्षण था, जब तुम्हे मेरा सहयोग और समर्थन नही मिला ?

विनय मेरे कहने का यह अर्थ नही था, जो तुम समझ रहे हो! तुम यह समझो कि विवाह के पश्चात्‌्‌ हम दोनो केवल मित्र नही रहेगे, हमारे बीच पति—पत्नी का सम्बन्ध बन जायेगा ! तुम्हारे घर की बहू बनकर मै स्वतत्रतापूर्वक अपनी रुचि के कार्य कर सकूँगी, क्या यह सम्भव है ? शायद नही ! इसलिए मै चाहती हूँ कि मै अभी विवाह के बन्धन मे न बधूँ !

मै तो पहले ही कहती थी, जिसकी आँखो मे लज्जा और वाणी मे विनम्रता न हो, वह लड़की रिश्तो का मूल्य नही समझ सकती ! आज तो जीत के घमड का पर्दा भी इसकी आँखो पर पड़ा है ! विजयलक्ष्मी ने प्रभा को लक्ष्य करके विनय से कहा। प्रत्युत्तर मे विनय ने माँ से कहा —

मम्मा, मै बात कर रहा हूँ न ! आप अपने कटु शब्दो पर नियत्रण रखिए !

अथर्व अब तक मौन बैठा हुआ सबकी बाते सुन रहा था, परन्तु अब उसको चुप रहना अप्रासगिक लगने लगा। उसने प्रभा को समझाते हुए कहा —

प्रभा हम जानते है, तुम कोई वस्तु नही हो, जिसका दान किया जा सके। हम यह भी मानते है कि प्रत्येक स्त्री स्वतत्रता और सम्मान की अधिकारिणी है ; तुम भी हो, परन्तु एक मनुष्य के रूप मे तुम्हारा हृदय मित्रता, प्रेम और विश्वास का आकाक्षी नही है ? रिश्तो मे बँधकर ये आकाक्षाएँ सहजता से पूरी होती है और समाज की सुव्यवस्था भी बनी रहती है। प्रभा, तुम रिश्तो के बन्धन का केवल नकारात्मक पक्ष देख रही हो, सकारात्मक पक्ष पर तुम्हारी विचार—दृष्टि नही गयी है। रिश्तो के बन्धन मे व्यक्ति जितना खोता है, उससे अधिक पाता भी है। मेरे विचार से मनुष्य को रिश्तो मे अज्ञानतावश आ गयी विकृतियो और विसगतियो का त्याग करना चाहिए, रिश्तो का नही। जिस प्रकार हमारे नक्षत्र मडल मे सभी नक्षत्र अपना स्वतत्र अस्तित्व रखते हुए भी परस्पर बँधे रहते है, उसी प्रकार हम सब भी अपनी स्वतत्रता के साथ—साथ पारिवारिक—सामाजिक बँधनो के सुख और सुरक्षा का लाभ उठा सकते है। एक क्षण चुप रहकर अथर्व ने पुनः कहना आरम्भ किया — प्रभा ! क्या तुम्हे याद नही है ? तुमने माँ को उनके अन्तिम समय वचन दिया था कि तुम विनय के साथ विवाह अवश्य करोगी !

मुझे अच्छी तरह याद है ! मुझे यह भी याद है कि मैने विवाह करने का कोई समय निर्धारित नही किया था ! प्रभा ने उत्तर दिया। प्रभा उस समय परिस्थिति ऐसी नही थी कि तुम समय का निर्धारण कर सकती ! पर तुम्हारे कहे बिना भी एक अर्थ निश्चित था कि अनुकूल समय आने पर तुम विनय साथ विवाह करोगी ! मेरा विचार है कि आज वह समय आ गया है, अब तुम्हे माँ को दिया हुआ वचन पूरा करना चाहिए ! अथर्व के कथन का प्रभा ने विरोध नही किया, तो अथर्व ने पुनः कहा — तो मै समझ लूँ कि तुम मेरे विचार से सहमत हो ?

सहमत नही होती तो अब तक विरोध कर चुकी होती ! श्रुति ने कहा। प्रभा ने भी मुस्कराकर अपनी सहमति प्रकट कर दी। प्रभा के मुस्कराते ही सबके चेहरे खिल उठे। विनय ने एक बार फिर प्रभा को आश्वस्त किया और कहा —

प्रभा, विवाह के पश्चात्‌ भी तुम्हे अपनी रुचि के कार्य करने की पूरी स्वतत्रता रहेगी। तुम स्वतत्र देश की स्वतत्र नागरिक हो, हम यह बात कभी नही भूलेगे, हम तुम्हे यह वचन देते है ! यह कहकर अथर्व और विनय हँसने लगे।

कुछ समय तक हास—परिहास की बाते होती रही तत्पश्चात्‌ अथर्व ने विनय तथा उसकी माँ से कहा — अब बताइये, आप लोग विवाह कब, कहाँ और कैसे करना चाहते हो ? अपनी बहन के विवाह मे मै कोई कमी नही रखना चाहूँगा और प्रयास करुँगा कि आप सबको भी सतुष्ट कर दूँ !

अथर्व, मै चाहता हूँ, मेरा विवाह पूरी तरह आडम्बरविहीन हो! न दिखावा हो, न दहेज ! बस हम दोनो का प्रेम—विश्वास हो और सगे—सबन्धियो की शुभकामनाएँ और आशीर्वाद हो और ...!

और ? प्रभा ने आशका की मुद्रा मे कहा।

और हमारे विवाह का रजिस्ट्रेशन हो जाए ! यह कहकर विनय खिलखिलाकर हँस पड़ा। उसको हँसता देखकर वहाँ पर उपस्थित सभी लोग हँसने लगे और उसके व्यक्तित्व की प्रशसा करने लगे।

और तुम्हे यह वचन देना होगा कि तुम मुझे दहलीज की सीमा मे बाँधकर रखने का कभी प्रयास नही करोगे और अपने इस वचन का आजीवन निर्वाह करोगे !

मै तुम्हे प्रेम और विश्वास के बधन मे बाँधकर रखूँगा, दहलीज के बधन मे नही ! केवल इसी जीवन मेु नही, बल्कि जन्म—जन्मान्तर तक अपने इस वचन का निर्वाह करुँगा ! विनय ने माधुर्यपूर्ण मुद्रा मे कहा, तो प्रभा वहा से उठकर चली गयी। प्रभा के जाने के पश्चात्‌ लक्ष्मी ने कटाक्ष करते हुए विनय से कहा —

तम तो जिज्जी कू परेम से राक्खोगे और घर मे बन्द करके भी ना राक्खोगे, पर अपणी माँ से भी बूझ ली है तमणे, वे बहू कू कैसे राक्खेगी ?

माँ से क्या पूछना, बेटी ! चढ़ते सूरज को सभी पानी देते है। मेरी बहू तो चढ़ता सूरज है। जब पढ़ी—लिखी बहू है, तो बाहर—भीतर से क्या परहेज ? जहाँ भी रहेगी, जो भी करेगी, सोच—समझकर ठीक ही करेगी, यह मुझे विश्वास है ! और वैसे भी, जब मिया—बीवी राजी, तो क्या करेगा काजी ? जब बेटे के दिल—दिमाग पर बहू का राज हो, तो सास क्या कर सकती हे ? सास तो बदनाम हो जाती है। सदियो से बदनाम होती आयी है सास अपने बेटे की ढाल बनकर ! जब बेटा अपनी पत्नी से सतुष्ट होता है, तो माँ भी सतुष्ट रहती है। जब बेटा सतुष्ट नही होता, तब सास बुरी हो जाती है, बेटा उसकी आड़ लेकर भलाई का नकाब ओढ़े रहता है। तुम मेरी इस बात को कभी भी, कही भी देख सकती हो ! लेकिन ऐसा वही होता है, जहाँ माँ—बेटे मे परस्पर प्रेम और समर्पण का भाव होता है। जिस परिवार मे स्वार्थ अपनी जगह बना लेता है, उसके बारे मे मै कुछ नही कह सकती। विजयलक्ष्मी ने अपनी बात पूरी की, तभी गरिमा का फोन आ गया।

फोन पर गरिमा ने श्रुति को बताया कि माँ ने उसको घर से बाहर जाकर आस—पास के गाँवो मे स्त्रियो से सम्पर्क करके अपने ‘महिला जागरुकता अभियान' के लिए कार्य करने की अनुमति दे दी है। अतः अब वह ‘दजलीज के पार' पत्र के लिए मात्रा और गुणो मे अपेक्षाकृत अधिक सामग्री दे सकेगी और ग्रामीण स्त्रियो को समाजहित और उनके अधिकारो, कर्तव्यो के प्रति जागरूक करके उन्हे रूढ़ियो से मुक्त होने के लिए प्रेरित कर सकेगी। श्रुति के यह पूछने पर कि माँ ने अपनी बहू को घर से बाहर जाने की अनुमति कैसे दे दी ? क्या उन्हे समाज की मान—मर्यादा की चिन्ता नही है ? गरिमा ने बताया —

पहले तो माँ मुझ पर बहुत कुपित थी कि मैने उनके बेटे को जेल भिजवाने के लिए प्रभा का साथ क्यो दिया ? किन्तु आशुतोष के समझाने पर उन्हे सब कुछ समझ मे आ गया। आशुतोष ने माँ से पूछा कि क्या वे अपनी बेटी श्रुति की उन्नति से सतुष्ट और प्रसन्न नही है? और वे आज अधिक प्रसन्न नही है, जब उनकी बेटी ने समाज मे अपनी एक जगह बनाकर अपने अस्तित्व की घोषणा की है ? क्या वे तब अधिक प्रसन्न होती, जब उसको अपने विषय मे किसी प्रकार निर्णय लेने की न तो समझ होती, न सामर्थ्य और अधिकार ? माँ ने कहा कि वे अपनी बेटी को समाज मे आगे बढ़ते हुए देखकर अधिक प्रसन्न है। तब आशुतोष ने उन्हे समझाया कि प्रशान्त जेल मे इसीलिए है, क्योकि वह श्रुति को आगे बढ़ने के अधिकार से वचित कर रहा था, जबकि अथर्व और प्रभा उसे आगे बढ़ने मे सहयोग कर रहे थे। अपनी इसी विकृत मानसिकता के चलते वह अथर्व और प्रभा को अपराधी मान रहा था और प्रतिशोध की भावना के वशीभूत स्वय दुष्कर्म जैसा जघन्य अपराध कर बैठा। यदि समाज के सभी लोग अपने अधिकारो और कर्तव्यो के बीच सतुलन बना ले, तो सम्पूर्ण समाज मे समरसता भर जाए। इस कार्य को जितनी कुशलता से स्त्री—समाज सम्पन्न कर सकता है, उतनी ही कुशलता से पुरुष—समाज नही कर सकता, क्योकि स्त्री मे जो शक्ति है, वह पुरुष मे नही है। स्त्री प्रत्येक स्तर पर पुरुष के मनः मस्तिष्क को सस्कारित कर सकती है। वह माँ के रूप मे बेटे को तथा पत्नी के रूप मे पति को नियत्रित करती है। यदि स्त्री सुशिक्षित है, जागरुक है, तो वह सम्पूर्ण समाज को जागरुक करने का बीड़ा उठा सकती है और तब परिणाम शत—प्रतिशत शुभ—सकारात्मक ही आएँगे। अन्ततः माँ पर आशुतोष के शब्दो का ऐसा शुभ—सकारत्मक प्रभाव पड़ा कि उन्होने मुझे दहलीज की सीमा पार करने की अनुमति दे दी !

भाभी, तब तो आप यहाँ आकर हमारे साथ काम कर सकती हो ? श्रुति ने अपना प्रस्ताव रखा।

नही, इस अभियान की आवश्यकता नगरो—महानगरो की अपेक्षा गाँवो मे अधिक है। मै चाहती हूँ कि तुम अब अपने अभियान की शाखाएँ गाँवो मे भी स्थापित कर लो ; गाँवो मे भी अपने कार्यालय स्थापित करो और अपने सगठन का विस्तार करो। इस क्षेत्र का कार्य सम्भालने के लिए मै शीघ्र ही एक टीम तैयार कर लूँगी, मै यहाँ पर अनुभव कर रही हूँ कि ग्रामीण स्त्रियो मे भी दहलीज पार करने का उत्साह हिलोरे ले रहा है। अब मै फोन बन्द करती हूँ, शेष बाते फिर करेगे ! सम्भवतः मै दो—तीन दिन मे तुम सब लोगो से मिलने के लिए आ सकती हूँ। मै तुम सबसे मिलकर आगे की योजना तैयार करना चाहती हूँ ! यह कहकर गरिमा ने औपचारिक अभिवादन किया और फोन काट दिया।

श्रुति के साथ गरिमा का फोन पर सम्पर्क हुए मात्र दो घ्ाटे बीते थे। श्रुति को दिये वचन के अनुसार गरिमा दिल्ली जाने का कार्यक्रम बनाने की कल्पना कर—करके प्रसन्न हो रही थी और विचार कर रही थी कि सास से वहाँ जाने की अनुमति लेने के लिए किन शब्दो मे निवेदन करना उपयुक्त होगा ? तभी फोन की घटी बज उठी। गरिमा ने फोन रिसीव किया। दूसरी ओर से अथर्व का स्वर सुनाया पड़ा। अथर्व ने गरिमा से आग्रह किया —

भाभी जी ! आपको कल सुबह यहाँ आना होगा। प्रातः दस बजे तक आप यहाँ पहुँच जाएँगी, हम ऐसी आशा करते है !

मै तो स्वय ही दो—तीन दिन मे आने का कार्यक्रम बना रही थी ! तुम कल सुबह दस बजे तक पहुँने का आग्रह क्यो कर रहे हो, कोई विशेष बात है ? गरिमा ने अथर्व से पूछा।

हाँ बात विशेष ही है, लेकिन फोन पर नही बताऊँगा ! यह कहकर अथर्व ने फोन काट दिया। अथर्व द्वारा दिल्ली आने का आग्रह करना और बुलाने का करण नही बताना, दोनो ही बातो ने गरिमा को बेचैन कर दिया। उसने तुरन्त श्रुति का नम्बर डायल किया और जानने का प्रयास किया कि वहाँ कोई असामान्य घटना तो नही घटित हुई है ? श्रुति ने भी गरिमा को मात्र इतना कहा कि वह दस बजे तक वहाँ अवश्य पहुँच जाएँ, वहाँ पहुँचकर सब कुछ स्वय ज्ञात हो जायेगा।

अगले दिन दिल्ली जाने के लिए गरिमा ने अपनी सास से रात मे ही अनुमति ले ली थी और दस बजे से पहले ही वहाँ पहुँच गयी। वहाँ जाकर गरिमा के आश्चर्य का ठिकाना न रहा। उसने देखा कि उसके आने से पहले ही उसका पति आशुतोष भी वहाँ पहुँच चुका है। सारा वातावरण भी बदला हुआ दिखायी दे रहा था। कुछ क्षणो मे उसको वहाँ ज्ञात हो गया कि प्रभा का विवाह होने वाला है। उसने असमजस के भाव मे अथर्व से कहा —

लेकिन आज तो विवाह की कोई साइत नही है !

गरिमा की शका का समाधान अथर्व से पहले विनय ने किया— भाभी जी, सब दिन भगवान के है ! हमारे विवाह के लिए पुरोहित द्वारा बताया गया समय शुभ सिद्ध नही हो सका था। इसलिए मैने सोचा कि जब शुभ कार्य करे, तभी शुभ समय हो जायेगा ! सही सोच रहा हूँ ना मै ?

विनय की बात पूरी होने के पश्चात्‌ अथर्व ने कहा—

भाभी जी, विनय तो दिखावे और दहेज के विरुद्ध है, पर हमने सोचा, ‘महिला जागरुकता अभियान' की टीम का प्रत्येक सदस्य इस विवाह मे सम्मिलित हो, इसीलिए आपको अर्जेट मैसेज देना पड़ा था। अब चूँकि सभी लोग आ चुके है, तो हमे मन्दिर मे पहुँचकर विवाह सम्पन्न कराना चाहिए ! विलम्ब करने मे कोई लाभ नही है।

अथर्व का निर्देश पाते ही सभी लोग उठ खड़े हुए। मन्दिर मे जाकर परम्परागत रीति से विवाह सम्पन्न होने के बाद विवाह के रजिस्ट्रेशन के लिए आवेदन किया गया। प्रभा और विनय के विवाह मे सम्मिलित होने वाले लोगो ने अपने जीवन मे कभी ऐसा विवाह नही देखा था। विचित्र विवाह था यह। न बारात, न बाजा और न कन्या की विदाई का वह कारुणिक दृश्य, जिसमे कन्या—पक्ष की आँखे आँसुओ मे डूब जाती है। रजिस्ट्रेशन का आवेदन करते ही प्रभा ने गरिमा की ओर मुड़कर कहा —

भाभीजी, अब बताइये आपकी योजना क्या है ?

योजना भी बता दूँगी, अभी पहले तुम अपनी शादी एन्जॉय करो ! गरिमा ने परिहासात्मक मुद्रा मे कहा । प्रत्युत्तर मे प्रभा ने गरिमा से बताया कि उसका सिविल सर्विस मे चयन हो चुका है। अब उसके लिए अपना कैरियर और गृहस्थी दोनो समानतः महत्वपूर्ण हो गये है। वह चाहती है कि उसके विवाह के कारण उनके अभियान मे भी सुस्ती न आये। गरिमा भी प्रभा के विचार से सहमत थी। उसने प्रभा को विश्वास दिलाया कि वह अभियान की चिन्ता न करे, अपना पूरा ध्यान अपने गृहस्थ—जीवन और अपने कैरियर पर केद्रित कर सकती है। प्रभा को आश्वस्त करने के बाद गरिमा ने अपनी योजना की रूपरेखा टीम के सभी सदस्यो के समक्ष प्रस्तुत की —

मैने गाँव मे देखा है, हमारी अधिकाश बहिने सिलाई, कढ़ाई, बुनाई आदि के कार्यो मे और इससे सम्बन्धित डिजाइनिग के कार्यो मे बहुत कुशल है। उन्हे अपनी प्रतिभा को निखारने का अवसर नही मिलता है। यदि उन्हे आगे बढ़ने के पर्याप्त अवसर उपलब्ध हो जाएँ, तो वे अपनी प्रतिभा के झन्डे गाड़ सकती है। आज उनका अधिकाश समय निरर्थक बातो मे व्यतीत होता है। उनकी अधिकाश शक्ति का दुरुपयोग हो जाता है एक—दूसरे को नीचा दिखाने मे। यदि हम उनके लिए एक ऐसा प्लेटफॉर्म तैयार कर सके, जहाँ पर वे अपनी गृहस्थी मे से बचे हुए समय का सदुपयोग करके उन्हे अपने कौशल से कुछ धनार्जन हो जाए, तो हमारी ग्रामीण बहिने आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर होकर एक नये जीवन का अनुभव कर सकेगी। तब न केवल उनमे सदियो से खीची गयी दहलीज रूपी लक्ष्मण रेखा को पार करने की सामर्थ्य का विकास हो जायेगा, बल्कि तब वे अन्धविश्वास और रूढ़ियो की जजीरो को भी झटककर तोड़ना सीख जाएँगी!

हमे क्या करना होगा ऐसा प्लेटफॉर्म तैयार करने के लिए ? अथर्व ने पूछा।

गाँव की ऐसी स्त्रियाँ जो काम करने की इच्छुक है, उनके लिए यथायोग्य प्रशिक्षण की व्यवस्था हो, ताकि वे नयी—नयी आधुनिक मशीनो से कार्य कर सके और उनके द्वारा तैयार किये गये सामान की खपत की व्यवस्था करनी पड़ेगी !

उससे पहले कच्चे माल की व्यवस्था करनी पड़ेगी और उससे भी पहले यह निश्चित करना पड़ेगी कि किस गाँव मे कौन—सा कुटीर उद्योग स्थापित करना होगा ! विजय लक्ष्मी ने गरिमा की बात काटते हुए कहा।

हाँ, आप सही कह रही है ! हमे इतना अनुभव नही है, जितना आपको है ! आप यदि हमारा मार्गदर्शन करेगी, तो मजिल बहुत आसान हो जायेगी !

गरिमा, मै मार्गदर्शन ही नही, पूरा—पूरा सहयोग भी करुँगी। तुम अपनी ग्रामीण बहिनो की टीम तैयार करो और यह निश्चित करो कि कौन—सा कुटीर उद्योग आरम्भ करना है ? उनके प्रशिक्षण की व्यवस्था, मशीनो और कच्चे माल की व्यवस्था और तैयार माल की खपत मै करा दूँगी !

आप यह सब करा देगी ? कैसे ? कहाँ से कराएँगी आप यह सब ? गरिमा ने अपनी जिज्ञासा प्रकट की।

यदि तुम्हारी टीम के पास लौह—इच्छा—शक्ति होगी, तो सब कुछ हो जायेगा!

पर कैसे ?

नाबार्ड की सहायता से !

नाबार्ड की सहायता से ? सभी ने एक साथ प्रश्न किया। विजयलक्ष्मी ने बताया कि हमारे देश मे अनेक स्वय सेवी महिला सगठन कार्य कर रहे है। बैक किसी भी सगठन को कार्य कराने के लिए धन उपलब्ध कराता है और उस धन को लौटाने के लिए छूट भी देता है। विजयलक्ष्मी के सुझाव से गरिमा का उत्साह बढ़ गया, परन्तु अगले ही क्षण उसने शका व्यक्त करते हुए कहा— लेकिन कार्य आरम्भ करने के लिए कुछ पैसा तो अपने पास से खर्च करना ही होगा !

उसकी चिन्ता आप मत करो ! हमारी माँ ने प्रभा के विवाह के लिए कुछ पैसा इकट्‌ठा करके रखा था। इसके विवाह मे खर्च नही हुआ, तो उसे समाज सेवा मे खर्च कर सकते है ! क्यो विनय ? क्या कहते हो ? अथर्व ने कहा।

मै कुछ क्यो कहूँगा ? पैसा आपका है, निर्णय भी आपका ही होगा ! विनय ने उत्साहपूर्वक उत्तर दिया।

विनय की सहमति के बाद पूरी टीम ने परस्पर सहमति से श्चिय किया कि प्रभा के विवाह से बचाये गये धन से कपड़ो पर कढ़ाई करने का काम आरम्भ किया जायेगा और अधिक धन की आवश्यकता पड़ने पर बैक से कर्ज ले लिया जायेगा। उसी दिन योजना को मूर्त रूप देने के लिए रूपरेखा तैयार कर ली गयी और इस पावन कार्यक्रम को नाम दिया— ‘महिला स्वाभिमान केद्र'।

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