Dahleez Ke Paar - 18 in Hindi Fiction Stories by Dr kavita Tyagi books and stories PDF | दहलीज़ के पार - 18

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दहलीज़ के पार - 18

दहलीज़ के पार

डॉ. कविता त्यागी

(18)

घर का काम पूरा करके पुष्पा समाचार—पत्र लेकर बैठ गयी। आज जब से वह सोकर उठी थी, उसका मन उदास था। उसको अकेले समय काटना भारी पड़ रहा था। एक बार उसने सोचा, पड़ोसिन के पास जा बैठे, लेकिन फिर मन मे दूसरा विचार आया — जीवन तो अकेले ही जीना है ! रोज—रोज किसी के घर जाकर बैठना ठीक नही है ! सोचती हूँ कल गाँव हो आऊँ ! गरिमा से मिलूँगी, तो मन की उदासी कुछ कम हो जायेगी ! एक वही तो है, जो मेरे दुख—दर्द को समझती है ! सोचते—सोचते उसकी दृष्टि समाचार—पत्र के एक चित्र पर पड़ गयी, जिसका शीर्षक था — ‘बहन की हत्या का प्रयास और उसकी सहेली के साथ सामूहिक दुष्कर्म' उस शीर्षक को पढ़कर जीवन के पच्चीस बसन्त पार कर चुकी पुष्पा को आज फिर उसी दर्द ने घेर लिया था, जिसे वह पिछले सत्रह वर्ष से भुलाने की चेष्टा करती रही थी, लेकिन सफलता नही पा सकी। अपने जीवन मे खुशियो के बहाने खोजती हुई पुष्पा को इस पीड़ा से साक्षात्कार कराने का माध्यम आजकल समाचार—पत्र या टी.वी. चैनल रहते थे, जो उसे अतीत की स्मृतियो मे ले जाकर हर बलात्कार—पीड़िता लड़की की पीड़ा को सवेदनाओ की गहराई तक अनुभव कराके कराहने के लिए विवश कर देते थे। यह सिलसिला पिछले कुछ वर्षो मे अधिक बढ़ गया था। इससे पहले पुष्पा को इन दुर्घटनाओ की सूचना कभी—कभार ही मिलती थी। वह सोचती थी कि क्या पहले हवसी पुरुषो की वासना का शिकार कम लड़कियाँ होती थी ? या उसको उनके विषय मे पता ही नही चलता था ? फिर वह सोचने लगती — नही ! भोली—भाली लड़कियाँ मानसिक रूप से विकृत पुरुषो की हवस का शिकार तब भी होती थी। तब समाचार—चैनलो की भरमार नही होने के कारण ऐसी खबरे आग की तरह नही फैलती थी, जैसे कि आज दुर्घटना घटने के दो घटे के अन्दर पूरी दुनिया मे फैल जाती है। आखिर, आज इन्टरनेट का युग है।

इन्टरनेट और कम्प्यूटर के विषय मे पुष्पा अधिक ज्ञान नही रखती थी। परन्तु वह इतना अवश्य समझती थी कि विज्ञान से एक ऐसी मशीन बन चुकी है, जो अत्यन्त कम समय मे किसी भी सूचना को एक स्थान से दूसरे स्थान तक पहुँचाती है। उसके मस्तिष्क प्रायः एक बात को लेकर बेचैनी रहती थी कि मशीन तो अपना काम करती है, अधूरा काम करते है समाचार—पत्र और टी.वी. चैनल जो किसी लड़की की असह्‌य पीड़ा का समाचार देकर अपने कर्तव्य—दायित्व की इतिश्री मान लेते है। पुष्पा सोचने लगती है और इन समाचारो मे छिपी हुई पीड़ा को अनुभव करने लगती है। वह विषय की गहराई मे उतरती जाती है — दुष्कर्म—पीड़िता की पीड़ा के प्रति भी कई प्रकार की अनुभूति लोगो मे पायी जाती है। कुछ लोग उसके प्रति मूक सहानभूति रखते है, कुछ उसके पक्ष मे अपनी आवाज बुलन्द करते है, तो कुछ उसके विपक्ष मे टिप्पणी करके कहते है कि पुरुष का कोई दोष नही है। उनका तर्क होता है कि पुरुष की तो प्रकृति ही ऐसी होती है। लड़कियाँ अपने वस्त्रो से, भाव—भगिमा से लड़को को आकर्षित करती है, तभी उनका मन विचलित होता है। दूसरे पक्ष का तर्क होता है कि हम स्वतत्र है ; हम जैसे चाहे वस्त्र पहन सकती है। दोष पुरुषो की दृष्टि मे है ; हमारे वस्त्रो नही ! पर इन दोनो तर्को मे तो कभी भी समाप्त न होने वाला सघर्ष है, सुधार कहाँ है ? किसी दुष्कर्म—पीड़िता के लिए जीवन और जीवन का सम्मान कहाँ है ?

दो दिन पहले पुष्पा ने ऐसी ही एक टिप्पणी को पढ़ा था। दुष्कर्म की एक घटना के विषय मे फैल रहे समाचारो और जगह—जगह किये जा रहे उसके पक्ष मे आन्दोलनो की प्रतिक्रिया—स्वरूप वह टिप्पणी एक ख्यातिप्राप्त महिला ने दी थी — इस प्रकार की दुर्घटनाओ से बचने के लिए हमे अपने शरीर को ढककर रखना चाहिए। इस टिप्पणी को पढ़कर उसेक याद आया कि कुछ दिन पहले एक खाफ पचायत ने भी ऐसी दुर्घटनाओ को कम करने का उपाय बताया था कि लड़कियो के विवाह की आयु को कम कर देना चाहिए। लेकिन कितनी कम ? ...और लड़कियाँ कितने कपड़े पहने ?

पुष्पा के मन मे प्रश्नो की झड़ी लग गयी — आखिर एक पाँच—छः वर्ष की लड़की, जिसके साथ स्कूल को जाती हुई उसकी स्कूल—बस मे दुष्कर्म होता है, क्या वह पुरुषो को आकर्षित करने वाली भाव—भगिमा के कारण पुरुष की हवस का शिकार हुई थी या ऐसे कपड़े पहनने के कारण जिनमे से उसका शरीर किसी हवसी को आकर्षित कर रहा था अथवा उसका विवाह समय पर नही किया गया था। ऐसे समाचारो से प्रतिदिन समाचार—पत्र और टी0 वी0 चैनल भरे पड़े रहते है, जिनमे न केवल युवतियाँ बल्कि छोटी—छोटी अबोध बच्चियाँ अपने विश्वासपात्र सम्बन्धियो मे से किसी की, अपने विद्यालय के अध्यापक की अथवा स्कूल—बस के चालक—परिचालक की अमानवीय वृत्ति का शिकार होती है।

और सोचते—सोचते पुष्पा अपने अतीत की स्मृतियो मे खो गयी— जबकि वह मात्र आठ वर्ष की थी। उसका छोटा भाई प्रताप सात वर्ष का था। कहने को तो प्रताप उससे एक वर्ष छोटा था, किन्तु सदैव उसका ध्यान बड़े भाई की तरह रखता था। अपने बचपन मे आठ वर्ष की आयु मे घटी दुर्घटना को याद करके उसकी आँखो से आँसू टपकने लगे। और उस अमानवीय घटना के चित्र आँसुओ मे घुलकर उसकी आँखो के सामने ऐसे स्पष्ट तैरने लगे, जैसे कि वह आज ही उस वहशी की हवस का शिकार हुई है — उस दिन शाम के लगभग चार बजे थे। पुष्पा अपने भाई प्रताप के साथ स्कूल से लौट रही थी। उनके साथ के सभी बच्चे उनसे आगे निकल चुके थे और वे गाँव के बाहर कँटीली झड़बेरियो से बेर तोड़कर खाने लगे थे। स्कूल पुष्पा के गाँव की सीमा से सटा हुआ तथा पुष्पा की अपनी दलित लोगो की बस्ती से लगभग एक किलोमीटर दूर सवर्ण—बस्ती की ओर था। सर्दियो के दिनो मे उस समय इक्का—दुक्का लोग ही उस रास्ते पर जाते हुए दिखायी देते थे। फिर भी, उस रास्ते को सुनसान नही कहा जाता था।

दोनो बहन—भाई झड़बेरियो से बेर खाते हुए खेलते—कूदते जब सवर्णो की बस्ती के निकट पहुँचे, उन्हे एक पन्द्रह—सोलह वर्ष का लड़का मुस्कराता हुआ दिखायी दिया। पुष्पा और प्रताप उस किशोर नामक लड़के को भली भाँति पहचानते थे। पुष्पा के परिवार का उस किशोर के परिवार मे प्रायः आना—जाना लगा रहता था। पुष्पा के पिता गरीब मजदूर थे और किशोर के पिता सम्पन्न किसान थे। गाँव—बस्ती के अन्तिम छोर पर लगभग तीन—चार बीघे मे ऊँची चारदीवारी से घिरा हुआ मकान किशोर के पिता का था, जिसमे प्रायः गाय—भैस, बैल आदि बाँधकर एल.एम.सी. की जमीन पर कब्जा किया गया था। किशोर अपने उसी मकान के दरवाजे पर खड़ा था। पुष्पा को देखकर किशोर ने अपनी पेट की जेब मे हाथ डालकर कुछ टॉफियाँ (मिठाई की गोलियाँ) निकाली और पुष्पा तथा प्रताप की ओर हाथ फैला दिया। प्रताप ने पुष्पा की ओर देखा। पुष्पा ने भी प्रताप की ओर देखा और सकेत से दोनो ने टॉफी न लेने का निर्णय किया। तभी किशोर ने पुष्पा से कहा —

अरी तेरे माँ—बाबा तो हमारे इसी घर मे आये है। हमारे काम के चलते तेरे माँ और बाबा अपने घर मे ताला डालकर आ गये थे। तुम दोनो को बताने के लिए ही मै यहाँ खड़ा हूँ, आओ, भीतर आ जाओ !

पुष्पा और प्रताप ने किशोर की बातो पर विश्वास करके चारदीवारी के अन्दर प्रवेश किया, तो किशोर ने पुनः प्रताप से कहा— छोटू, स्कूल के पास के मैदान मे जो लड़के खेल रहे है, उनमे मेरा दोस्त राजू भी खेल रहा होगा, जा तू उसे बुलाकर ला !

इसके लिए मै तुझे ये सारी टॉफी दे दूँगा !

यह कहकर किशोर ने प्रताप को मुट्‌ठी—भर टॉफी दी और प्रताप वापिस स्कूल की ओर चल दिया। प्रताप अभी चारदीवारी से बाहर निकला ही था कि उसे अपनी बहन पुष्पा के रोने की आवाज सुनायी दी। वह तुरन्त लौटकर आया। उसने देखा कि जहाँ से उसकी बहन के रोने की आवाज आ रही है, उस कमरे का दरवाजा बन्द है। उसने दरवाजा खटखटाया ; रो रोकर चिल्लाया, किन्तु अन्दर से दरवाजा नही खुला। सात वर्ष के प्रताप के मस्तिष्क मे किसी अनिष्ट की आशका होने लगी। वह शीघ्रता से घर की ओर दौड़ा। रोते—चिल्लाते हुए वह घर पहुँचा और अपने माँ—बाबा को सारी स्थिति की जानकारी दी। माँ के चित्त मे भी अनिष्ट की आशका अपना आधिपत्य जमा चुकी थी। अतः रोते—पीटते उस स्थान पर आये, जहाँ प्रताप ने अपनी बहन पुष्पा को रोते हुए सुना—देखा था।

प्रताप की माँ को रोते—चीखते देखकर गाँव के अन्य कई स्त्री—पुरुष भी उनके साथ हो लिए थे। जब उन्होने उस कमरे की ओर दृष्टि डाली, तो देखा कि कमरे का दरवाजा खुला है। पुष्पा अब धरती पर पड़ी सिसक रही थी, उसमे रोने की सामर्थ्य शेष नही रह गयी थी। उसके अग क्षत—विक्षत तथा शरीर लहूलुहान था। उसके अपरिपक्व शरीर पर पहने हुए कपड़े अब चिथड़ो का रूप धारण कर चुके थे और शरीर नन्ही कली की तरह कुचला जाने के कारण देखने वालो के हृदय मे अनेक कठोर—कोमल भावो को उत्पन्न कर रहा था। कुछ लोगो की आँखो मे पानी और मुँह मे उल्टी आ रही थी।

यथावश्यकता पुष्पा को तुरन्त डॉक्टर के पास ले जाया गया। शीघ्र ही प्राथमिक उपचार मिलने के कारण डॉक्टर ने उसे मौत के मुँह से निकाल लिया, किन्तु स्त्री बनने से पूर्व ही उसका स्त्रीत्व भग हो चुका था। इस पीड़ा से पुष्पा की माँ बार—बार अचेत हो रही थी। पुष्पा के पिता अर्धविक्षिप्त—सी अवस्था मे मौन थे। पुष्पा के अन्य सम्बन्धियो और परिचितो ने पुलिस मे रिपोर्ट दर्ज कराने का प्रयास किया किन्तु असफल रहे। उस विषम समय मे जब गाँव के कुछ प्रभावशाली लोग उनके साथ खड़े हुए, तब रिपोर्ट दर्ज हुई और पुलिस कार्यवाही आगे बढ़ी। किशोर के परिवार वाले, जो अभी तक निष्क्रिय रहकर सवेदनाहीनता की सीमा को पार कर चुके थे, अब पुलिस की क्रियाशीलता से उनकी चिन्ता बढ़ने लगी और साथ—साथ क्रियाशीलता भी।

पुष्पा अस्पताल मे दर्द से कराह रही थी और उसके माता—पिता उसकी पीड़ा को अनुभव करके उसके भाग्य पर आँसू बहा रहे थे। ठीक उसी समय उसके परिवार वाले किशोर को सुरक्षा—कवच प्रदान कर रहे थे। अपनी क्रियाशीलता के रूप मे उन्होने पुलिस का मुँह बन्द करने और कानून के हाथ बाँधने के लिए पुलिस की जेब भरनी आरम्भ कर दी थी। पुलिस के सुझाव पर उन्होने पुष्पा के परिवार के समक्ष पुष्पा के इलाज के लिए खर्चा देने का प्रस्ताव भी रखा। पुष्पा के परिवार ने इस प्रस्ताव को स्वीकार नही किया।

पुष्पा का परिवार किशोर को उसके किये का दड दिलाना चाहता था, परन्तु यह काम टेढ़ी खीर था। पुलिस की जेबे भरी जा चुकी थी। पुलिस ने फरार हुए किशोर को पकड़ने का प्रयास तो दूर, पुष्पा के साथ किये गये दुष्कर्म की फाइल आगे ही नही बढ़ायी। पुलिस बार—बार पुष्पा के परिवार पर दबाब बना रही कि वे किशोर के परिवार से समझौता कर ले। बेबस लाचार पुष्पा, उसकी पीड़ा, मान—अपमान और भावी जीवन मे कदम—कदम पर मिलने वाले तिरस्कार के विषय मे सोचने—विचारने, अनुभव करने का अवकाश न पुलिस को था, न ही किशोर के परिवार वालो को। ऐसा प्रतीत होता था कि उनके अन्तर की मानवीय सवेदनाएँ पूर्णरूप से मृत हो चुकी है।

एक ओर किशोर के परिवार की समाजिक प्रतिष्ठा आर्थिक शक्ति थी, दूसरी ओर अबोध बच्ची पुष्पा और उसके परिवार की पीड़ा। गाँव के प्रतिष्ठित व्यक्ति पुष्पा के पिता पूरनमल से मिलने के लिए आने लगे। आने वाले प्रतिष्ठित व्यक्तियो मे से कुछ सहानभूति का मरहम लगाते हुए किशोर के पिता के साथ समझौता करने का परामर्श देकर लाभ की लम्बी सूची पूरनमल के समक्ष प्रस्तुत करते थे, तो कुछ अपनी बेटी के साथ क्रूर—दुष्कर्म करने वालो को कठोर दण्ड दिलाने की माँग पर अटल रहने के लिए प्रोत्साहित करते थे। इतना ही नही, किशोर के परिवार के विरुद्ध खड़े रहने के लिए वे कुछ व्यक्ति आर्थिक सहायता करने के लिए भी तत्पर थे। परन्तु उनकी इस सहायता का उद्‌देश्य पुष्पा को न्याय दिलाना नही था, पुष्पा और उसका परिवार तो उनके क्षुद्र स्वाथोर् की पूर्ति का मोहरा—भर थे, जिसे पूरनमल भली—भाँति समझते थे।

गाँव—समाज मे अपनी दलित—स्थिति से भली—भाँति परिचित पूरनमल ने पर्याप्त विचार—मथन करने के बाद निश्चय किया कि वह किशोर के परिवार के विरुद्ध केस वापिस लेगे और प्रतिपक्ष से समझौता करेगे। किन्तु पुष्पा की माँ ने अपनी बेटी को न्याय दिलाने के लिए कमर कस ली थी। अतः उसने घोषणा की कि वह किशोर को दण्ड दिलाने के लिए कोर्ट जाने से पीछे नही हटेगी।

पुष्पा की माँ की घोषणा की सूचना मिलते ही किशोर के सगे—सम्बन्धियो की शक्तियाँ उफनने लगी। उसी रात कुछ युवको ने पूरनमल के घर मे बलपूर्वक घुसकर तोड़फोड़ की और चाकू—गँडासे तथा लाठी—डडो से परिवार के सभी लोगो को गम्भीर रूप से घायल कर दिया। उन युवको ने जाते समय पूरनमल को चेतावनी दी कि यदि अपने बेटे प्रताप को जीवित रखना चाहता है तो पुलिस से कुछ भी शिकायत किये बिना पुष्पा से सम्बन्धित केस वापिस ले ले।

अगले दिन अकरणीय—अमानवीय दुष्कृत्य करने वाले नर—भेड़िये जीत गये। और पीड़ित पुष्पा तथा उसका परिवार हार गया। घायल अवस्था मे ही पुष्पा के पिता ने किशोर के परिवार के साथ थाने मे जाकर गवाहो के समक्ष समझौता—पत्र पर हस्ताक्षर करके अपना केस वापिस ले लिया। केस वापिस लेने के पश्चात्‌ पुष्पा के माता—पिता का न्याय—व्यवस्था के प्रति विश्वास खो चुका था। उस गाँव मे रहना अब उनके लिए सहज नही रह गया था। अतः पुष्पा का परिवार अपने पैतृक गाँव को छोड़कर तत्काल शहर मे आ गया और मजदूरी करके जीवन—यापन करने लगा था।

घटो तक पुष्पा अपने अतीत मे खोयी रही। एक लम्बी यात्रा अपने अतीत से वर्तमान तक पूरी करने के पश्चात्‌ उसकी दृष्टि पुनः उसी चित्र और उसके शीर्षक पर चली गयी, जहाँ से उसकी विचार—शृखला आरम्भ हुई थी और धीरे—धीरे उसके अतीत से जुड़ गयी थी। वर्तमान मे लौट आने के पश्चात्‌ उस चित्र पर दृष्टि डाले हुए अनायास ही उसके होठ बड़बड़ाये —

पढ़के तो देख लूँ, आज किस अभागी के जीवन मे अँधेरा छाया है ! यह कहते—कहते पुष्पा शीर्षक के नीचे लिखे समाचार को विस्तार से पढ़ने लगी। समाचार की दो—तीन पक्तियाँ पढ़ते ही पुष्पा की आँखे फैलती चली गयी। वह सामान्य से अधिक गति से समाचार को पढ़ने लगी। एक ओर वह समाचार को पढ़कर शीघ्रातिशीघ्र उससे सम्बन्धित आधिकारिक जानकारी प्राप्त करना चाहती थी, तो दूसरी ओर उसको विश्वास नही हो रहा था कि जो हादसा समाचार—पत्र मे लिखा है, उसके गाँव का हो सकता है। गाँव के प्रति उसका आस्थामय मन कह रहा था — समाचार—पत्रो मे छपने वाली सभी बाते सत्य नही होती है। परन्तु, तभी उसके हृदय के किसी कोने से एक आवाज आयी थी — सत्य क्यो नही हो सकता यह समाचार ? अवश्य ही सत्य हो सकती है यह घटना ! इस दुनिया मे सब कुछ हो सकता है, पुष्पा ! जो तेरे साथ हुआ था, क्या उस पर कोई सरलता से विश्वास कर सकता था ? पर क्या वह सत्य नही था ?

पुष्पा अपनी ससुराल के सभी व्यक्तियो से परिचित नही थी। परन्तु कुछ परिवारो के विषय मे वह बहुत कुछ जानती थी। गाँव के नाम से तथा प्रशान्त के नाम से उसने अनुमान लगाया था कि सम्भवतः यह प्रशान्त वही है, जिसके बड़े भाई की पत्नी गरिमा है। अनुमान तो अनुमान ही था। सत्य जानने के लिए गाँव के किसी व्यक्ति से भेट करना आवश्यक था। उसे याद आया कि इस समाचार को पढ़ने से पहले, जब वह अपने अकेलेपन से ऊबकर उदास थी, तब वह गाँव जाकर गरिमा से भेट करने के विषय मे सोच रही थी। अब उसने अपने उस विचार को दृढता प्रदान करते हुए गाँव मे जाने की पूरी योजना बना डाली और जाने की तैयारी करने लगी।

***