Dahleez Ke Paar - 5 in Hindi Fiction Stories by Dr kavita Tyagi books and stories PDF | दहलीज़ के पार - 5

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दहलीज़ के पार - 5

दहलीज़ के पार

डॉ. कविता त्यागी

(5)

जब गरिमा की चेतना लौटी, तब उसने स्वय को अस्पताल मे बिस्तर पर पाया। उस समय उसके चेहरे पर भयमिश्रित चिन्ता की रेखाएँ स्पष्ट दिखायी दे रही थी और उसका मन अनेको सकल्प—विकल्पो से जूझ रहा था। उसने देखा कि उसके बिस्तर के आस—पास उसके परिवार के साथ उसके कॉलिज के अनेक छात्र—छात्राएँ खड़े है। उन सभी को देखकर वह स्वय को सतुलित करने का प्रयास करने लगी। कुछ ही समय पश्चात्‌ डॉक्टर ने आकर बताया कि गरिमा अब स्वस्थ है, इसलिए परिवार वाले अब उसे घर ले जा सकते है। डॉक्टर से सतोषजनक उत्तर सुनकर कॉलिज के छात्र—छात्राएँ दो—दो, तीन—तीन के समूह मे अस्पताल से बाहर चले गये थे, किन्तु विनय वही पर रहा। गरिमा के पिता ने विनय से कहा—

बेटा, डॉक्टर ने हमे बताया था कि तुम्ही हमारी बेटी को सही समय पर अस्पताल पहुँचाने वाले सज्जन और साहसी युवक हो ! हम तुम्हारे आभारी है कि तुमने हमारी बेटी की उस समय सहायता की, जबकि भीड़ धीरे—धीरे खिसकने लगी थी और किसी प्रकार भी स्थितियो के झगड़े मे या पुलिस के लफड़े मे पड़ने से बच रही थी।

नही, अकल ! यह तो हमारा कर्तव्य है कि हमारी आँखो के सामने कोई सहायता के लिए तड़प रहा है, तो हम उसकी सहायता करे ! और फिर गरिमा तो हमारे कॉलिज की एक मेधावी छात्रा है, फिर उसको अस्पताल कैसे न पहुँचाते भला !

हाँ, बेटा ऐसे समय पर ही मनुष्यता की परख होती है ! ये तुम्हारे सस्कार ही थे, वरना वे भी तो मनुष्य ही है जिन्होने हमारी बेटी को यह पीड़ा दी है। उनके अन्दर मनुष्यता नाम की कोई चीज है ही नही है। मनुष्य के रूप मे पशु है वे लोग ; हिसक पशु, जिन्हे दूसरो को पीड़ा देने मे आनन्द मिलता है।

जी हाँ, अकल ! ऐसे लोग ही समाज को दूषित करते है, इसलिए उन्हे कठोर से कठोर दड मिलना चाहिए !

हाँ...! हाँ अब तुम्हे भी जाना चाहिए बेटा ! तुम्हारा बहुत—बहुत धन्यवाद !

गरिमा के पिता ने विनय की बात को टालने का प्रयास किया। उसी समय एक पुलिस इस्पैक्टर ने आकर गरिमा के पिता से पूछा— आप इस केस की एफ. आई. आर. दर्ज करवा दीजिए ! किसी व्यक्ति पर शक है आपको ? कौन करा सकता है आपकी बेटी ऊपर तेजाबी हमला ?

यह तेजाबी हमला किसने किया है ? इसका उत्तर ढूँढना आपका काम है इस्पैक्टर साहब ! मै आपकी सहायता करने के लिए तैयार हूँ। विनय ने इस्पैक्टर से कहा।

आप कौन ? इस केस से आपका क्या सम्बन्ध है ? इस्पैक्टर ने विनय से पूछा। गरिमा के पिता अभी तक चुप थे, लेकिन विनय द्वारा इस्पैक्टर को दिये गये प्रस्ताव को वे अस्वीकार करते हुए बोले— दरोगा जी ! हम एफ. आई. आर. नही लिखाना चाहते है ! हमारी बेटी अब बिलकुल ठीक है, आप अपनी ड्‌यूटी कही और जाकर करे, तो ज्यादा अच्छा है, क्योकि हमे अपनी बेटी के सम्बन्ध मे कोई केस नही बनवाना है और न ही हमारी बेटी को पुलिस प्राटैक्शन की जरुरत है ! इस्पैक्टर के समक्ष अपनी विचाराभिव्यक्ति करने के पश्चात्‌ तुरन्त विनय की ओर घूमकर उन्होने कहा— बेटा, मैने अभी तुम्हे समझाया था, पर तुम्हे समझ मे नही आया ! तुमने आज जितनी उसकी सहायता की है, उसके लिए हम तुम्हारे आभारी है। अब तुम जाओ ! हम मध्यमवर्गीय समाज का हिस्सा है। एक ऐसे गाँव मे रहते है, जहाँ सुविधाएँ तो थोड़ी—बहुत मिलने लगी है, क्योकि यह गाँव शहर से सटा हुआ है, परन्तु सस्कृति अभी भी पुरानी—परम्परा आधारित ही है। हमारी बेटी को लेकर थाने—कचहरी मे कोई केस चले और एक अनजान लड़का हमारी बेटी की सहायता करे, इससे हमारी और हमारी बेटी का बदनामी होगी !

पर अपराधी को ऐसे ही नही छोड़ा जा सकता ! आज यदि उसे ऐसे ही किसी प्रकार की कार्यवाही किये बिना छोड़ दिया, तो कल वह किसी और गरिमा को अपना शिकार बनायेगा ! अकल, आप ऐसा मत कीजिए, प्लीज ! मै जानता हूँ कि एसिड कौन डाल सकता है गरिमा के ऊपर ! मै आपकी पूरी सहायता करुँगा !

मैने तुम्हे अभी—अभी कहा था न कि तुम यहाँ से चले जाओ ! गरिमा के पिता ने कठोर वाणी मे विनय से कहा।

अकल ! आप चाहते है कि मै यहाँ से चला जाऊँ, तो मै चला जाऊँगा, किन्तु आप अपनी बेटी को न्याय दिलाने के लिए उस अपराधी को सजा जरूर दिलवाइये ! यह आपसे मेरी प्रार्थना है ! विनय अपनी बात कह ही रहा था, तभी एक नर्स ने एक पत्र लाकर इस्पैक्टर को दिया और बताया कि एक लड़के ने वह पत्र गरिमा के लिए दिया है। इस्पैक्टर ने वह पत्र पढ़ा और गरिमा के पिता की ओर बढ़ा दिया। पत्र मे लिखा था— डियर स्वीट—गर्ल, मै तुम्हे दर्द नही देना चाहता था, परन्तु तुमने मुझे विवश कर दिया था ऐसा कदम उठाने को ! यह सिर्फ सकेत है! तुम यदि मेरी नही हो सकती हो, तो मै तुम्हे किसी और की भी नही होने दूँगा !

इस्पैक्टर ने पत्र पढ़कर गरिमा के पिता की ओर बढ़ाते हुए नर्स से पूछा— कहाँ है वह लड़का ? आप उसे पहचान सकती है ?

हाँ, मै पहचान सकती हूँ ! वह लड़का पत्र देकर तुरन्त बाहर चला गया !

नर्स का उत्तर सुनकर इस्पैक्टर ने पुनः गरिमा के पिता की ओर देखा और एक मिनट रुककर इस आशा से कि पत्र पढ़कर कुछ सकारात्मक उत्तर मिलेगा, उसने कहा— अब क्या विचार है ? एफ.आई. आर. लिखानी है ? आप अब चुप बैठे, तो वह भविष्य मे चुप नही बैठेगा ! भविष्य मे वह इससे बड़ी दुर्घटना को अजाम देने की हिम्मत करेगा !

मै कह चुका हूँ कि मुझे कोई रिपोर्ट नही लिखानी है ! आप जा सकते है !

गरिमा के पिता का दो—टूक उत्तर सुनकर इस्पैक्टर ने ऐसी मुद्रा मे देखा, जैसे कह रहा हो कि जब पीड़ित शिकायत ही नही करेगा, तो हम क्या कर सकते है उसने गरिमा के पिता से कहा— जैसी आपकी मरजी ! इसके बाद वह तेज कदमो से चलता हुआ अस्पताल से बाहर निकल गया।

विनय इस्पैक्टर के जाने के बाद भी कुछ समय तक वहाँ खड़ा रहा। वह कुछ समय तक असमजस मे खड़ा रहा, तत्पश्चात्‌ गरिमा के पिता से बोला— अकल, मै गरिमा से मिल सकता हूँ ?

नही ! तुम एक अच्छे घर के लड़के दिखते हो ! तुम्हे अपने घर चले जाना चाहिए, हमारी और अपने घरवालो की इज्जत को ध्यान मे रखते हुए !

विनय प्रत्युत्तर मे कुछ नही कह सका। वह वहाँ से लौटकर घर की ओर चल पड़ा और स्वतः ही बड़बड़ाने लगा — यह कैसा समाज है ! अपनी बेटी को न्याय दिलाने और एक अपराधी को सजा दिलाने मे भी इन्हे बदनामी का डर सता रहा है !

इस्पैक्टर के जाने के पश्चात्‌ विनय भी चला गया। तब गरिमा के पिता ने राहत—भरी साँस लेते हुए डॉक्टर से गरिमा को घर ले जाने की अनुमति माँगी। डॉक्टर ने कुछ सावधानियाँ बरतने का निर्देश देते हुए गरिमा को घर ले जाने की अनुमति दे दी। घर पर आकर गरिमा ने अपने परिवार से कहा— मेरी इसमे कोई गलती नही थी। अवश्य ही मेरे ऊपर एसिड डालने वाला आनन्द है !

लेकिन, अब तो वह बहुत दिन से शान्त था ? उसने तुम्हारा पीछा करना भी बन्द कर दिया था ? गरिमा के पिता ने प्रश्नसूचक मुद्रा मे कहा।

हाँ ! शायद वह हमे धोखा देने का प्रयास कर रहा था ! विनय नाम के लड़के के साथ मित्रता है तुम्हारी ? गरिमा की ओर क्रोध से देखते हुए उसके पिता ने कठोर वाणी मे तथा असतुष्टि की मुद्रा मे कहा और वह पत्र उसकी ओर बढ़ा दिया, जो अस्पताल मे नर्स ने दिया था। गरिमा ने वह पत्र पढ़ा, तो हतप्रभ हो गयी। वह समझ नही पा रही थी कि पिता को क्या और कैसे बताए, जिससे उसके पिता सतुष्ट हो जाएँ। पत्र पढ़कर वह इतना अवश्य ही समझ गयी थी कि पत्र मे आनन्द का सकेत विनय की ओर हो सकता है, क्योकि विनय ही वह लड़का था, जो उसके लिए सुरक्षा घेरा बना हुआ था और जिसे तोड़ने मे आनन्द स्वय को विवश अनुभव करता था। जब से विनय ने अपनी मित्र—मडली के साथ मिलकर गरिमा के लिए तथा कॉलिज की कई अन्य मेधावी छात्राओ के लिए वह सुरक्षा घेरा तैयार किया था, जिसमे उसकी मित्र—मडली प्रायः उन छात्राओ से थोड़ी दूर किन्तु इर्द—गिर्द रहती थी, तब से आनन्द ने गरिमा को छेड़ना तथा उसका पीछा करना बन्द कर दिया था। विनय के समक्ष इस बात को खुलने से पहले तो आनन्द उसके घर तक आ पहुँचा था, गरिमा यह जानती थी !

गरिमा यह भी समझ चुकी थी कि उसके पिता उस पत्र मे लिखित प्रकरण को पढ़कर क्रोधित हो गये है और उस पर सदेह कर रहे है। अतः उसने सयत और विनम्र लहजे मे कहा—

पिताजी ! विनय मेरा मित्र नही है ! वह तो एक अच्छा स्टूडैट है कॉलिज का, जो सभी की सहायता करता है। बस, इससे अधिक उसके साथ मेरा कोई सम्बन्ध नही है ! वह मेरी कक्षा का ही लड़का है और लड़कियो से मित्रता नही करता है, बस, उनकी सहायता करता है !

अपनी सौम्य प्रकृति और मधुर वाणी से अपने पिता को गरिमा यह विश्वास दिलाने मे सफल हो गयी कि विनय के साथ उसकी मित्रता ने मर्यादा की सीमा पार नही की है, जिससे उन्हे किसी प्रकार की सामाजिक बदनामी झेलनी पड़े। पिता को अपनी बेटी पर विश्वास होता है, गरिमा के पिता को भी था। अब प्रश्न आगे का था कि गरिमा की बी. एस. सी. की पढ़ाई कैसे पूरी करायी जाए ? गरिमा के अन्तः मे भय बैठ चुका था, और उसका परिवार भी किसी प्रकार का जोखिम नही लेना चाहता था। अन्त मे यही निर्णय लिया गया कि गरिमा की बी. एस. सी. की परीक्षा न दिलावायी जाए और आगे की पढा़ई ओपन यूनीवर्सिटी से अथवा प्राइवेट करायी जाए। गरिमा इस निर्णय से प्रसन्न नही थी, किन्तु उसके पास कोई अन्य विकल्प नही था, इसलिए वह सहमत हो गयी।

गरिमा की सुरक्षा को देखते हुए तथा अपने परिवार की मान—मर्यादा पर विचार करते हुए गरिमा को परीक्षा देने से रोक दिया गया। गरिमा को इसमे अधिक आपत्ति नही हुई थी, क्योकि वह इस निर्णय को परिस्थिति के प्रेशर के रूप मे देख रही थी। वह अनुभव कर रही थी कि उसके पिता समाज के विरुद्ध जाकर भी उसे उसकी इच्छानुसार पढ़ना चाहते थे, किन्तु बेटी की सुरक्षा को दाँव पर लगाकर एक पिता अपनी बेटी को कॉलिज नही भेज सकता है ! अपनी परिस्थितियो को समझते हुए उसने पिता के इस आदेश को शिरोधार्य कर लिया, जिसमे पिता ने कहा था कि वह घर की चारदीवारी के अन्दर ही सुरक्षित है, इसलिए उसका घर से बाहर न निकलना ही उचित है। घर के अन्दर ही अन्दर रहकर कभी—कभी उसका दम घुटने लगता था, किन्तु उसने अपनी पुस्तको को ही अपना मित्र बना लिया। वह समय—समय पर अपनी आवश्यकतानुसार पुस्तके मँगा लेती थी और उनसे ही अपने समय का सदुपयोग करने लगी।

गरिमा की उस वर्ष की परीक्षा छूट चुकी थी, परन्तु वह अपने अध्ययन मे अब भी उतनी ही व्यस्त रहती थी, जितना कि अपने कॉलिज जाने के समय मे रहती थी। हाँ, इतना अन्तर अवश्य था कि अब उसने अपनी पढ़ाई के विषय बदल दिये थे। उसकी परिस्थितियाँ उसे नियमित कक्षाओ मे जाने की अनुमति नही दे रही थी, अतः उसने निश्चय किया था कि वह बी. एस. सी. के स्थान पर बी. ए. समाजशास्त्र अथवा मनोविज्ञान मे करेगी। इन्ही विषयो की पुस्तके वह आजकल पढ़ती रहती थी, ताकि उन विषयो को वह भली—भाँति समझ सके, क्योकि अब से पहले वह विज्ञान वर्ग की पुस्तके पढ़ने मे ही अधिक रुचि लेती थी।

गरिमा को तेजाबी हमले का शिकार हुए चार—पाँच महीने बीत चुके थे। अब तक उसके सभी सहपाठी स्नातक द्वितीय वर्ष मे प्रवेश करके अपनी पढ़ाई आरम्भ कर चुके थे, किन्तु गरिमा व्यक्तिगत छात्रा के रूप मे अब भी प्रथम वर्ष की पढ़ाई करने के लिए विवश थी, उसे इस बात का दुख था। फिर भी, उसने आशा की डोरी को नही छोड़ा और समाजकार्य मे अपना जीवन सँवारने का लक्ष्य निर्धारित किया। अपने इसी लक्ष्य को पूरा करने के लिए गरिमा अध्ययनरत रहती थी।

उन्ही दिनो पड़ोस मे एक विवाह—समारोह था। गरिमा अध्ययन कर रही थी और उसका पूरा परिवार विवाह—समारोह मे सम्मिलित होने के लिए जाने की तैयारी कर रहा था। गरिमा की माँ चाहती थी कि गरिमा भी उनके साथ चले और विवाह—समारोह मे सम्मिलित हो, किन्तु वह जाना नही चाहती थी। गरिमा की माँ असमजस की अवस्था मे निर्णय नही ले पा रही थी कि बेटी को घर पर अकेली छोड़कर चली जाए या स्वय भी घर पर बेटी के पास रुके। गरिमा की माँ अभी तक कोई निर्णय नही ले पा रही थी कि तभी गरिमा की मौसी आ गयी। उन सभी ने गरिमा की मौसी को भी विवाह मे सम्मिलित होने के लिए कहा, किन्तु मौसी ने मना कर दिया और घर पर ही रहने की इच्छा व्यक्त की। उनकी इच्छा जानकर गरिमा और उसकी माँ अत्यन्त प्रसन्न हो गयी, क्योकि उनकी दुविधा समाप्त हो गयी थी और मौसी के आने से उनकी समस्या का समाधान हो चुका था।

गरिमा अपनी कान्ता मौसी के आने से अत्यधिक प्रसन्न थी। एक तो कान्ता मौसी उसको बहुत स्नेह करती थी, दूसरा, आज विवाह—समारोह मे जाने से इन्कार करके उन्होने गरिमा के हृदय पर पड़े बोझ को अनायास ही दूर कर दिया। मौसी के आने से पहले गरिमा तनावग्रस्त थी, क्योकि आज पहला अवसर था, जब वह परिवार के किसी कार्यक्रम मे बाधा के रूप मे स्वय को देख रही थी। वह अनुभव कर रही थी कि माँ उसको घर पर अकेली छोड़कर जाने की इच्छुक नही है और वह स्वय विवाह—समारोह मे जाने मे प्रसन्नता का अनुभव नही कर रही है। ऐसी स्थिति मे वह माँ के साथ विवाह मे सम्मिलित हो जाए अथवा माँ को भी घर पर अपने साथ रोक ले, यह निर्णय लेना उसे कठिन प्रतीत हो रहा था।

कान्ता के निर्णय से प्रसन्न होकर गरिमा की माँ विवाह—समारोह मे सम्मिलित होने के लिए चली गयी और वहाँ पर निश्चिन्त होकर सभी रस्मो मे प्रतिभाग किया। अपनी छोटी बहन कान्ता को बेटी के साथ घर पर छोड़कर उन्हे किसी बात की चिन्ता नही रह गयी थी। दूसरी ओर गरिमा भी मौसी का साथ पाकर प्रसन्न, निश्चिन्त थी। उसने मौसी के लिए भोजन बनाया और दोनो ने साथ बैठकर खाया। भोजन करने के पश्चात्‌ कान्ता मौसी ने गरिमा से कहा कि वह बहुत थक गयी है, इसलिए सोना चाहती है। मौसी की इच्छानुसार गरिमा ने उन्हे माँ के कमरे मे सुला दिया और स्वय उन्ही के कमरे मे बैठकर अध्ययन करने लगी। अध्ययन करते—करते उसको ऐसा प्रतीत हुआ कि कमरे के बाहर कोई है ! इस बात का विचार आते ही वह भय से काँपने लगी। उसके मन मे अनेक प्रकार के विचार उठने लगे—

बाहर का दरवाजा बन्द है, अन्दर से ताला लगा हुआ है। किसी ने दरवाजा तो खटखटाया भी नही था, फिर घर के अन्दर कोई कैसे प्रवेश कर सकता है ? किसी व्यक्ति ने छत से कूदकर तो प्रवेश नही किया है ? अब मै क्या करूँ ? मुझे क्या करना चाहिए ? क्या मौसी को जगा देना चाहिए? मौसी बहुत थकी हुई है !

मौसी गहरी नीद मे सो रही थी और गरिमा भय से काँप रही थी। साथ ही मनोमस्तिष्क मे अनेक प्रकार के प्रश्न होते हुए भी जिज्ञासा थी कि एक बार कमरे से बाहर निकलकर देखे और अपने भ्रम को दूर करे। अपने कमरे के बाहर की स्थिति को जानने की इच्छा के वशीभूत होकर गरिमा काँपते हुए कमरे से बाहर निकली। कमरे से बाहर निकलते हुए उसने एक बार पलटकर अपनी मौसी की ओर देखा, जैसे पूछ रही थी— कि मै कमरे से बाहर अकेली जाकर कोई भूल तो नही कर रही हूँ ? किन्तु गहरी निद्रा मे डूबी हुई मौसी न तो गरिमा का भयभीत चेहरा देख सकती थी और न ही उसके चेहरे के भाव—प्रश्न पढ़ सकती थी, गरिमा यह भली प्रकार जानती थी। अतः वह पुनः पलटी और कमरे से बाहर निकल गयी।

कमरे से बाहर निकलकर गरिमा ने चारो ओर देखा, किन्तु उसे कही कोई दिखायी नही पड़ा। वह मौन होकर साँस रोके कमरे के बाहर ही कुछ क्षणो तक खड़ी रही और सावधानीपूर्वक किसी अज्ञान आहट की प्रतीक्षा करने लगी। कुछ क्षणोपरान्त गरिमा अन्दर जाने के लिए मुड़ी। मुड़ते हुए अचानक गरिमा की दृष्टि एक परछाई पर पड़ी। परछाई मे मानव—आकृति देखकर वह चौक पड़ी और उसके मुँह से चीख निकली— कौन है वहाँ ? गरिमा के मुख से निकले हुए शब्द कोई भी स्पष्ट नही सुन सकता था। उसके मुख से निसृत ध्वनि चीख ही प्रतीत होती थी। पता नही, उस चीख को सुनकर या गरिमा के हृदय की पुकार सुनकर उसी समय गरिमा की मौसी की नीद टूटी और वह उठकर कमरे से बाहर की ओर दौड़ी, जिधर से चीखने की आवाज आयी थी।

कान्ता मौसी ने कमरे के बाहर चारो ओर दृष्टि डाली, पर उन्हे कही भी कुछ दिखायी नही दिया। उन्होने ऊँची आवाज मे गरिमा को पुकारा— गरिमा ! गरिमा ! अरी कहाँ चली गयी, बेटी ! कही से किसी प्रकार की प्रतिक्रिया न पाकर मौसी की चिन्ता बढ़ गयी। उन्होने बाथरूम मे जाकर देखा। वहाँ पर भी गरिमा नही थी। उसके बाद वे बाहर के दरवाजे की ओर बढ़ी। दरवाजे पर उन्होने देखा कि ताला वैसा ही लगा हुआ था, जैसा उन्होने सोने से पहले लगाया था। उन्होने सीढ़ियो का ओर देखा, वहाँ पर अँधेरा था। मौसी गरिमा को ढ़ूँढ़ने के लिए अँधेरे मे ही सीढ़ियो पर चढ़ने लगी। अन्तिम सीढ़ी पर चढ़कर हाथो से टटोलकर मौसी ने देखा कि सीढ़ियो के छत पर खुलने वाले दरवाजे पर भी ताला लगा हुआ था। अब मौसी की चिन्ता और बढ़ गयी। मन मे बार—बार एक ही प्रश्न उठ रहा था— कहाँ चली गयी है गरिमा ? अभी—अभी ही तो पाँच—सात मिनट के लिए नीद की झपकी आयी थी। मुझे ऐसा क्यो लगा था कि गरिमा चीख रही है ?

अपने ही प्रश्नो मे उलझी हुई मौसी गरिमा ! गरिमा ! पुकारती हुई नीचे उतर आयी। नीचे उतरकर जब वे अन्तिम सीढ़ी पर पहुँची, उन्हे गरिमा के कराहने की आवाज सुनायी पड़ी। आवाज घर के ही एक दूसरे कमरे से आ रही थी, जो घर के मुख्य द्वार की ओर था। मौसी ने वहाँ जाकर देखा, बाहर का दरवाजा खुला हुआ था और वही मुख्य द्वार के पास बने हुए कमरे के द्वार पर गरिमा रक्तरजित अवस्था मे पड़ी हुई तड़प रही थी। मौसी समझ नही पा रही थी कि क्या करे ? गरिमा को तुरन्त उपचार की आवश्यकता थी। उसकी गम्भीर दशा को देखकर मौसी घबरा उठी। उस समय मौसी अकेली इतनी सक्षम नही थी कि गरिमा को किसी प्रकार का प्राथमिक उपचार दे सके। वे उस गम्भीर दशा मे गरिमा को अकेली छोड़कर उसकी माँ तथा परिवार के अन्य लोगो को बुलाने के लिए जाना भी उचित नही मानती थी। कुछ समय तक वे गरिमा के पास बैठकर किकर्तव्यविमूढ़—सी रोती रही— बिटिया, क्या हुआ ? कुछ तो बता मुझे ! परन्तु गरिमा मौसी की किसी बात का उत्तर नही दे पा रही थी। वह तड़पते—तड़पते बस एक ही शब्द बार—बार कह रही थी— माँ ! माँ ! माँ ! माँ !

गरिमा की तड़प देखकर मौसी उठी और अतिशीघ्र विवाह—समारोह मे जाकर उसके परिवार को बुलाकर ले आयी। गरिमा की माँ ने आकर बेटी को देखा, तो रोती हुई स्वय को ही दोषी सिद्ध करने लगी— मेरी ही गलती है ! मै अपनी बेटी को घर पर छोड़कर नही जाती, तो इसकी ऐसी हालत नही होती !

अब तक गरिमा अचेत हो चुकी थी। उसके पिता ने देखा कि गरिमा की गर्दन पर तथा कई अन्य स्थानो पर धारदार हथियार चाकू आदि से प्रहार किये गये थे। शायद अधिक रक्त बहने से ही गरिमा अचेत हो गयी थी, यह सोचकर उन्होने रक्त का बहाव रोकने के लिए प्राथमिक उपचार किया और तुरन्त ही उसको डॉक्टर के पास लेकर चल दिये। घर से निकलते ही उन्होने परस्पर विचार—विमर्श करना आरम्भ कर दिया था कि गरिमा का इलाज किस डॉक्टर के यहाँ कराना है ? इस प्रश्न के उत्तर मे सभी का एक ही मत था कि गरिमा का इलाज ऐसी जगह कराना अधिक उचित है, जो कान्ता मौसी के निकटस्थ हो, ताकि गाँव मे किसी को इस घटना के विषय मे कुछ ज्ञात न हो सके। कान्ता मौसी का घर वजीराबाद मे था और गरिमा का घर सिहानी गाजियाबाद मे था। गाजियाबाद से वजीराबाद की दूरी तय करने मे कम—से कम एक घटे का समय लगना आवश्यक था, फिर भी गरिमा का परिवार बदनामी के भय से उसका इलाज गाजियाबाद मे कराने के लिए तैयार नही था।

लगभग एक घटा पश्चात्‌ गरिमा को डॉक्टर के यहाँ पहुँचाया जा सका। अत्यधिक रक्त—स्राव होने के कारण उसके शरीर मे रक्त का अभाव हो गया था, इसलिए उसे रक्त की आवश्यकता थी। गरिमा का ब्लड—ग्रुप उसकी माँ के ब्लड—ग्रुप से मैच करता था। अतः यह समस्या शीघ्र ही सुलझ गयी और सुबह होने से पहले ही गरिमा को होश आ गया। होश आते ही गरिमा ने बताया— रात मे जब मै कमरे से बाहर निकल कर जानने का प्रयास कर रही थी कि मैने जो आहट सुनी थी, वह किसकी थी, तभी घर के एक कोने मे छिपा हुआ आनन्द निकल कर बाहर आया। उसे देखकर मेरी चीख निकल पड़ी, तो मौसी की नीद टूट गयी थी। आनन्द ने जब देखा कि मौसी जाग रही है, तब उसने मुझे पकड़ कर मेरा मुँह हाथ से बलपूर्वक बन्द कर दिया और मुझे खीचकर पुनः उसी कोने मे ले गया, जहाँ वह पहले से छिपा हुआ था। जब मौसी सीढ़ियो से चढ़कर छत पर जा रही थी, उस समय वह मुझे खीचकर मुख्य द्वार की ओर ले जा रहा था, परन्तु मौसी शीघ्र ही वापिस लौट आयी थी। मौसी को देखकर वह घबरा गया था, इसलिए उसने मुझे कमरे के अन्दर खीचने का प्रयास किया। मै अपनी पूरी शक्ति से उसका विरोध करते—करते थक चुकी थी और चीखने का प्रयास कर रही थी। मेरे निरन्तर विरोध करने और चीखने के प्रयास से तथा मौसी द्वारा मुझे सारे घर मे ढूँढने से वह समझ गया था कि अब वह पकड़ा जायेगाा। वह शायद इससे भी अधिक कुछ करना चाहता था, इसलिए उसने झुँझलाहट भरे शब्दो मे कहा था—

मै तुझे मारना नही चाहता था। ज्यादा दर्द भी नही देना चाहता था, पर तुझे दया दिखाना ठीक नही है। इतना कहकर उसने अपनी जेब से चाकू निकाला और मेरे ऊपर एक के बाद एक कई वार कर दिये। मुझे घायल करके उसे विश्वास था कि अब मै बच नही सकूँगी। स्वय को पकड़े जाने के ड़र से वह वहाँ रुककर मेरे मरने की प्रतीक्षा नही कर सकता था, इसलिए चलते—चलते उसने मेरे ऊपर एक—दो वार और किये। इसके बाद वह अत्यन्त शीघ्रता से बाहर की ओर दौड़ा। जब तक मौसी मेरे पास आयी, तब तक वह घर से बाहर जा चुका था। माँ ! मै चाहती हूँ कि उसको अपने अपराध की ऐसी सजा मिले, जिससे वह भविष्य मे किसी लड़की को पीड़ा पहुँचाने का विचार भी अपने मन मे न कर सके। उसकी सजा को देखकर ऐसे अन्य लड़के भी समझ जाएँ कि किसी लड़की के जीवन मे दखल देने पर और उसे चोट पहुँचाने पर उसका स्वय का जीवन भी नरक बन सकता है।

अपनी बेटी की दशा को देखकर गरिमा की माँ की आँखो से निरन्तर आँसू बह रहे थे और होठो से ईश्वर की प्रार्थना के लिए अनेक शब्द निकल रहे थे कि परमात्मा ने उनकी बेटी के प्राण तो बचा लिए है, शीघ्र ही उसको स्वस्थ भी कर दे। बेटी के मुँह से कही गयी आन्नद की निर्दयता, धूर्तता और दरिदगी की कहानी सुनकर उन्हे क्रोध आ रहा था। उसके अकरणीय कर्म का दड दिलाने के लिए गरिमा के प्रस्ताव ने माँ के क्रोध को जैसे एक दिशा प्रदान कर दी थी। उस प्रस्ताव को सहमति देने की मुद्रा मे माँ ने अपनी गर्दन हिला दी और बेटी को सात्वना देती हुई पति की ओर देखने लगी। गरिमा के पिता ने माँ—बेटी को एक मत देखकर अपना कोई स्पष्ट सकेत न देते हुए बस इतना ही कहा— उसको सजा दिलाने से जरुरी है कि तू जल्दी—से—जल्दी ठीक होकर घर पहुँच जाए !

मै तो ठीक हो ही जाऊँगी, पर उसके विरुद्ध हमे पुलिस—थाने मे जाकर अभी ही शिकायत लिखा देनी चाहिए !

बेटी, तू अपने स्वास्थ्य की चिन्ता कर, बस ! बाकी सब कुछ हम पर छोड़ दे, क्या करना है और कब करना है। समझ गयी न ! पिता का उत्तर सुनकर गरिमा चुप हो गयी और आशा भरी दृष्टि से अपनी माँ की ओर देखने लगी। माँ ने सकेत से ही उसे आश्वस्त करते हुए विश्राम करने के लिए कहा। गरिमा की दवाई देने का समय हो चुका था, इसलिए एक नर्स आयी और उसको इजेक्शन आदि देने लगी। गरिमा ने चोट मे असह्य पीड़ा होने की बात कही, तो नर्स ने एक दर्द निवारक इजैक्शन और दे दिया। दवाई लेकर गरिमा को नीद आने लगी और कुछ ही समय मे वह सो गयी। गरिमा के सोने के बाद पूरे परिवार ने कार्यक्रम बनाया कि अस्पताल मे केवल गरिमा के पिता ही रहेगे, शेष सभी घर वापिस लौट जाएँगे। गरिमा की माँ अपनी बेटी को अस्पताल मे छोड़ कर नही जाना चाहती थी। वे अपनी बेटी के पास रहना चाहती थी, लेकिन गरिमा के पिता इस बात के लिए सहमत नही थे। वे नही चाहते थे कि गाँव किसी को गरिमा के घायल होने की सूचना भी मिले। उनका तर्क था कि यदि गरिमा की माँ गरिमा के साथ रहेगी, तो पड़ोस के लोग सदेह करेगे और भाँति—भाँति के प्रश्न पूछेगे। उन्होने योजना बनायी कि गाँव—पड़ोस मे किसी के पूछने पर यह बताया जाए कि गरिमा के मौसाजी—कान्ता मौसी के पति का स्वास्थ्य अचानक बिगड़ने के कारण रात मे ही कान्ता के साथ जाना पड़ा। तथा मौसी जी की सहायता के लिए गरिमा को उन्ही के साथ छोड़ना आवश्यक था। यह योजना सभी को अच्छी लगी— गरिमा के स्वास्थ्य की दृष्टि से भी और गाँव की बदनामी से बचने की भी।

गरिमा को गहरी नीद मे छोड़कर उसकी माँ अपने घर वापिस लौट आयी। नीद से जागने पर जब गरिमा ने अपनी माँ के विषय मे पूछा, तो उसे इतना ही बताया गया कि घर मे किसी एक का रहना आवश्यक है और उसके साथ अभी इस दशा मे पिता का रहना अपेक्षाकृत अधिक उचित है, इसलिए इस समय माँ को घर भेज दिया है, शाम को वे पुनः बेटी के पास आ जाएँगी। पिता के उत्तर से गरिमा सतुष्ट हो गयी और शाम होने की प्रतीक्षा करने लगी। शाम होने से पहले ही गरिमा ने अनेक बार माँ के आने के विषय मे पूछा। बार—बार माँ के विषय मे गरिमा के द्वारा पूछे जाने पर पिता ने उसकी माँ को बुलवा लिया। गरिमा के स्वास्थ्य मे सुधार हो रहा था, इसलिए उसको अस्पताल मे छोड़कर गाँव मे अपने घर आना उसके पिता के लिए अनुचित नही था। धीरे—धीरे गरिमा स्वस्थ होने लगी थी। उसकी माँ रात मे अक्सर उसके साथ रहती थी और सुबह होने पर अपने घर लौट आती थी। दिन मे गरिमा के पिता अस्पताल मे उसके साथ रहते थे। कान्ता मौसी तो दिन—रात अस्पताल मे रहती थी। वे तो गरिमा से अलग एक क्षण के लिए भी नही होती थी। मौसी के साथ रहने से गरिमा को माँ की कमी भी नही अखरती थी। गरिमा की माँ को भी घर लौटकर बेटी की अधिक चिन्ता नही सताती थी, क्योकि उनकी बहन कान्ता ने उन्हे आश्वासन दिया था कि वह एक पल के लिए भी गरिमा को अकेली नही छोड़ेगी। कान्ता अभी तक स्वय को क्षमा नही कर सकी थी, और अभी तक गरिमा की इस दशा के लिए स्वय को दोषी मान रही थी। वे बार—बार ग्लानि से भरकर पश्चाताप्‌ करते हुए कहने लगती थी—

बेटी, मुझे माफ कर दे ! उस रात मुझे नीद की झपकी नही लगी होती, तो तू आज यहाँ इस अस्पताल मे ना पड़ी होती !

मौसी की आँखो मे पश्चाताप्‌ के आँसू देखकर गरिमा तुरन्त कह उठती— मौसी जी, आप नही होती, तो सम्भव है कि मै आज जीवित ही नही होती ! शायद उसको पता था कि मै घर मे अकेली हूँ। उसने जब हमारे पूरे परिवार को विवाह समारोह मे देखा होगा, तभी वह हमारे घर मे घुसा होगा ! आपको घर मे देखकर ही वह मुझे चाकू मारकर छोड़ गया, वरना ईश्वर ही जाने मेरे साथ क्या होता ! मौसी जी, आपने मुझे बचा लिया!

गरिमा के आत्मीयतापूर्ण शब्दो से मौसी के हृदय की ग्लानि कुछ कम हो जाती थी। उसकी देखरेख करना वह अपना कर्तव्य मानती थी। मौसी के स्नेहपूर्ण व्यवहार और देखरेख से गरिमा तीव्र गति से स्वस्थ हो रही थी। वह दिन भी शीघ्र ही आ गया, जब वह पूर्ण रूप से स्वस्थ हो गयी और डॉक्टर ने उसको घर जाने की अनुमति प्रदान कर दी। गरिमा अपने घर जाने के लिए उत्सुक थी। वह अस्पताल मे रहकर ऊब का अनुभव करती थी, इसलिए वह प्रतिदिन पूछती रहती थी कि घर लौटने का दिन कब आयेगा ? इस दिन की प्रतीक्षा वह बड़ी बेसब्री से कर रही थी।

अन्त मे जब वह दिन आया, जिस दिन वह अपने घर लौट सकती थी, अचानक अपने पिता के निर्णय से वह अवाक्‌ रह गयी। उसे पिता के निर्णय ने केवल उसे आश्चर्य मे ही नही डाला, बल्कि उसकी सम्पूर्ण आशाओ पर तथा प्रसन्नताओ पर पानी फेर दिया। उसको आशा थी कि अस्पताल से स्वस्थ होकर जब वह घर लौट जायेगी, तब उसके पिता उसको न्याय दिलाने की पहल करेगे और इस कार्य के लिए पुलिस की सहायता लेगे तथ कोर्ट की शरण भी लेगे। किन्तु, उसके पिता का आदेश था कि वह घर नही जायेगी, बल्कि अपनी मौसी के साथ उनके घर पर रहेगी। उनका यह भी निर्णय था वे न्याय पाने के लिए न कोर्ट जायेगे, न ही पुलिस मे कोई रिपोर्ट दर्ज कराएँगे।

पिता का निर्णय सुनकर गरिमा की आँखो मे आँसू भर आये। कुछ क्षणो तक वह निर्निमेष पिता की ओर देखती रही, जैसे कह रही हो कि वह उनके निर्णय से सतुष्ट नही है। पिता की आँखो मे निर्णय के प्रति दृढ़ता देखकर वह रुँधे गले से विवशतार्ण मुद्रा मे बोली—

माँ क्या मुझे न्याय नही मिलना चाहिए ? उस दरिदे को दड नही मिलना चाहिए, जिसने मेरे सारे सपनो को मिट्‌टी मे मिला दिया है ? जिसने मुझे कॉलिज छोड़ने के लिए विवश कर दिया ? जिसके कारण मै एक बार पहले भी अस्पताल जा चुकी हूँ और आज बारह दिन मे अस्पताल से घर लौट रही हूँ ? माँ ! आप समझाइये ना पिताजी को ! इस दिन पिताजी ने कहा था कि पहले मै स्वस्थ हो जाऊँ.... ! मौसी जी मुझसे कहती थी कि मेरे स्वस्थ होने के बाद आप उसको सजा दिलाने के लिए कुछ न कुछ अवश्य करेगे ! लेकिन... ! कहते—कहते गरिमा फफक पड़ी।

गरिमा की शिकायत सुनकर और उसके हृदय की तड़प देखकर, उसके पिता की आँखो मे भी आँसू छलकने लगे। उन्होने आँखे मलते हुए गरिमा की ओर देखा। अब उनकी मुद्रा कठोर नही रह गयी थी। कुछ क्षण तक देखते रहने के पश्चात्‌ एक पिता की विवशता व्यक्त करते हुए बोले— जानता हूँ, मेरी बेटी को न्याय मिलना चाहिए और उसके अपराधी को कठोर—से—कठोर दड मिलना चाहिए ! पर क्या कोर्ट मे जाकर मेरी बेटी को न्याय मिल जायेगा ? पुलिस उसके अपराधी को दड दिलवायेगी ? मुझे इसमे सन्देह है ! न मुझे कोर्ट पर विश्वास है, न पुलिस पर ! कोर्ट और पुलिस मेरी बेटी को बदनाम करने मे सहयोग कर सकती है, उसे न्याय नही दिला सकती !

नही पिताजी ! आप ऐसा नही कह सकते है ! गरिमा ने व्यथित होकर कहा।

मै ऐसा कह सकता हूँ ! अपनी बड़ी बेटी को न्याय दिलाने के लिए मैने पुलिस पर भी भरोसा किया था, कोर्ट पर भी ! पर क्या हुआ ? न मेरी बेटी को न्याय मिला, न उस हत्यारे को दड मिला ! पुलिस ने उस हत्यारे को पकड़ा और रिश्वत लेकर छोड़ दिया। उसे दड दिलाने के लिए मैने कोर्ट की शरण ली, तो वह जमानत पर छूट गया, और आज तक बाहर घूम रहा है। बताओ मै क्या करूँ ?

अपने पिता की बात सुनकर गरिमा की व्यथा बढ़ गयी। उसकी आँखो मे अपनी बड़ी बहन प्रिया के स्मृति—चित्र उभरने लगे और वह अतीत मे खो गयी। कुछ क्षण तक उसके पिता भी अतीत मे विचरते रहे। तत्पश्चात्‌ वे पुनः बोले—

बेटी, पुलिस से न्याय की गुहार लगाएँगे, तो वह बार—बार घर आयेगी। तुझे भी कोर्ट थाना जाना पड़ेगा ! मेरे विचार से अब तेरा कोर्ट और थाने मे जाना तुझे न्याय तो क्या दिलायेगा, उल्टे तेरे विवाह मे बाधा जरूर डाल देगा। अभी तक इस घटना के विषय मे किसी को कुछ ज्ञात नही है। यदि हमने थाने मे रिपोर्ट लिखाई और कोर्ट मे न्याय माँगने के लिए गये, तो गाँव—समाज मे और सारी बिरादरी मे हुई—अनहुई बाते फैलेगी, तब तुम्हे अच्छा घर—वर मिलना भी मुश्किल हो जायेगा !

गरिमा निर्निमेष पिता को देख—सुन रही थी और उनकी कही हुई एक—एक बात पर विचार कर रही थी। पिता एक क्षण के लिए रुककर पुनः बोले—

बेटी, मेरे लिए तेरा भविष्य ; तेरा सुख ही सर्वप्रथम है। उस नर—भेड़िये को दड दिलाना मै भी चाहता हूँ, लेकिन तेरे जीवन की सुख—शान्ति को दाँव पर लगाकर नही ! तू जानती ह, यह समाज कैसा है ? जो लोग न्याय की दुहाई देगे और तुझे निर्दोष बताएँगे, वे लोग ही तेरी योग्यता को भूलकर तेरा हाथ थामने के प्रश्न पर दूर भागने लगेगे ! यह समाज हादसा की शिकार बेटियो का ईमानदारी से साथ नही निभाता है ! इसलिए जब तक कोई योग्य वर नही मिल जाता, तू अपनी मौसी के साथ सुरक्षित रह सकती है। उस भेड़िये को सजा कानून नही दे सकता, मै दूँगा ! हाँ, मै दूँगा, पर तेरा विवाह करने के बाद, जब तू अपना घर—ससार बसा लेगी, तब !

तो क्या आप कानून अपने हाथ मे लेगे ?

इसकी चिन्ता तू अभी मत कर !

नही, पिताजी ! आप ऐसा कुछ नही करेगे! आप चाहते है कि मै मौसी जी के साथ रहूँ, तो मै वही रहूँगी ! आप कुछ भी अनुचित कार्य मत करना ! एक अपराधी कब तक सुरक्षित रह सकता है ? अपराध करना उसकी प्रवृत्ति है। हम उसको दड नही दिलाएँगे, तो कोई और दिला देगा। सब आपकी तरह सोचने वाले नही होते है। जब किसी अड़ियल आदमी से टकरायेगा, तब सारी गुन्डागर्दी निकल जायेगी।

गरिमा ने प्रकटतः अपने पिता का निर्णय स्वीकार कर लिया था, किन्तु उसके हृदय मे अब भी असतोष का ज्वार उठ रहा था। उसने जो बाते अपने पिता से कही थी, वह स्वय उन बातो से सहमत नही थी। वह सोच रही थी— मेरे ऊपर उसने एसिड डाला है! घर मे घुसकर मुझे घायल कर दिया! मौसी जी घर मे उस समय नही होती, तो न जाने मेरे साथ क्या करता; मेरा अपहरण करके ले जाता! कृकृकृ मेरे साथ इतना कुछ होने पर मेरे पिता मुझे न्याय दिलाने की पहल नही कर सकते है; उन्हे चुप रहने मे मेरा भविश्य सुरक्षित और सुखी दिखायी देता है! कौन ऐसे दरिदो का दड दिलवाने के लिए आगे आयेगा ? सभी पिता ऐसे ही तो होते है, जैसे मेरे पिता है ! सभी पिता चुप बैठने मे ही अपनी बेटी के भविष्य को सुरक्षित मानते है ! पर मै क्या कर सकती हूँ ? अपने परिवार का विरोध भी तो नही कर सकती! प्रिवार के सहयोग के बिना मेरी शक्ति ही क्या है ?

अपने इन्ही विचारो के साथ गरिमा अस्पताल से अपनी मौसी के घर आ गयी। घर मे भी वह इसी प्रकार के विचारो मे दिन—रात डूबी रहती थी— मेरे पिता मेरे लिए योग्य वर की तलाश करने लगे है। मै अभी विवाह करना नही चाहती, लेकिन विवाह करने के अतिरिक्त मै क्या कर सकती हूँ ? मेरे जीवन मे अब बचा ही क्या है ? मेरा कॉलिज तो पहले ही छूट चुका था अब घर भी छूट गया। वैसे तो लड़कियो को अपना घर विवाह के पश्चात्‌ ही छोड़ना पड़ता है, जब वे पति के घर जाती है। किन्तु मेरे भाग्य की विडम्बना यह है कि विवाह से पहले ही अपनी माँ से दूर मौसी के घर रहने के लिए विवश हूँ। ऐसा नही है कि मुझे अपनी मौसी से कोई शिकायत है या पहले कभी मौसी के घर नही आयी हूँ। मेरी मौसी मुझे बहुत स्नेह से रखती और उसी स्नेह—डोर से मै इस प्रकार बँधी हुई हूँ कि विद्यालय की छुटि्‌टयाँ होने पर मै प्रायः मौसी के घर आ जाती थी। किन्तु उस समय मै अपनी इच्छा से वहाँ आती थी, मुझ पर किसी प्रकार की बाध्यता नही होती थी। अब वहाँ रहने के लिए मै अपनी परिस्थितियो से विवश हूँ !

अपनी परिस्थितियो की विषमता पर विचार करती हुई गरिमा प्रतिक्षण व्यथा मे डूबी रहती थी, फिर भी अपनी मौसी के सामने सदैव सामान्य रहने का प्रयास करती थी। मौसी गरिमा की इस द्विधा—दशा को भली—भाँति समझती थी, इसलिए भिन्न—भिन्न विषयो पर बाते करके उसका मन बहलाने का प्रयत्न करती थी, परन्तु गरिमा पर उनकी बातो का सकारत्मक प्रभाव दिखायी नही पड़ता था। उसके चेहरे से स्पष्ट पता चलता था कि वह केवल दूसरो को दिखाने के लिए मुस्कराते हुए सामान्य व्यवहार करने का प्रयास कर रही है,

जबकि उसके मनोमस्तिष्क मे कोई तूफान चल रहा है।

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