नवम्बर २०१८ की कविताएं
१.
पेड़ों की तरह उगते हैं हम,
घने भी होते जाते हैं,
धीरे-धीरे छायादार बनते हैं।
कालान्तर में आकाश की तरफ बढ़ते,
बहुत ऊँचे हो जाते हैं।
जड़ों से मजबूत हों तो,
किसी तूफान में टूटते नहीं,
हमारी शाखाएं लम्बी-चौड़ी हो
कभी काटी जाती हैं,
कभी सूख कर गिर जाती हैं
कभी कल्पवृक्ष बनी रहती हैं।
२.
उसने पूछा,
प्यार में कुछ शेष रह गया था,
उत्तर मिला
सब कुछ शेष रह गया था
कुछ भी सम्पूर्ण नहीं हुआ।
बातें जहाँ से आरम्भ कीं
कुछ कदम चलकर लड़खड़ायीं,
हाथ जहाँ तक बढ़ाया
वहीं रूक गया,
संवाद जहाँ टूटा
फिर जुड़ नहीं पाया।
आगे बताया
प्यार में सब कुछ गोलाकार घूमता है,
एक सुबह के बाद दूसरी सुबह आ जाती है,
एक शाम के बाद दूसरी शाम ढल जाती है,
एक दिन के बाद दूसरा दिन आ जाता है,
यह ऐसा सत्य है जो अधूरा रहता है।
३.
अद्भुत हो जाती जिन्दगी
एक सुन्दर गीत सुनकर,
एक सुन्दर कविता पढ़कर,
एक घना जंगल देखकर,
एक उछलते समुद्र का बदन छू कर,
एक पहाड़ का शरीर पोछकर।
कितनी गहरी पड़ताल है जिन्दगी-
जब उसे गीत बनाना हो
एक कविता की तह में ले जाना हो,
समुद्र के गहरे पानी के थपेड़ों में रोकना हो,
पहाड़ों के संदेशों के बीच पहुंचाना हो,
एक क्षण मधुरता में ले जाना हो,
दूसरे क्षण प्यार बनाना हो।
कितनी बड़ी खोज है जिन्दगी-
जब किसी गांव में रहना हो,
किसी शहर को पकड़ना हो,
पुलों से आर-पार हो जाना हो,
अनन्त आकाश के बारे में पूछना हो,
जन्म-मरण का रहस्य जानना हो।
४.
क्या तुम मेरी कविताएं पढ़ते हो?
जैसे बेटी, भारत की भाषा, प्यार करना चाहिए, प्रकृति आदि।
अब तुम मूँगफली लो और कुछ मुझे दो,
कुछ दूर तक साथ-साथ चल लो,
चाय की दुकान पर कुछ देर ठहर लो,
राष्ट्रीय विषयों को अन्तर्राष्ट्रीय बना दो,
इस सब के बीच अपना हाथ मेरे हाथ में दे दो,
हाथ को छूना भी जीवन को जीना जैसा है,
झंडे के रंग गिना कर, प्यार के एहसास लम्बा कर दो।
मेरी आँखों में आँखें डालो,
एहसासों को इस समय से आगे ले चलो,
बातों के लिए कुछ जगह बीच में छोड़ दो।
५.
लौट रही हैं मेरी यादें
शाम की चिड़ियों की तरह,
उठा हुआ है अभी तक उजाला
माँ की भाँति किसी को जगाने के लिए।
लोग आन्दोलन कर रहे हैं,
सड़क के लिए, पेड़ों के लिए,
पर्यावरण के लिए, रोजगार के लिए,
लगा उठा हुआ है अभी तक उजाला,
माँ की भाँति लोगों को जगाने के लिए।
६.
कविताएं महकती रहेंगी,
पहाड़ी वृक्षों की तरह,
समुद्री जीवों की भाँति तैरती रहेंगी,
या चीते की तरह छलांग लगा सकती हैं,
पक्षियों की तरह उड़ने का प्रयास कर सकती हैं,
मनुष्य अच्छा रहेगा या बुरा रहेगा,
कविताएं लिखी जायेंगी।
दुनिया केवल प्यार से नहीं चलती है,
कर्म भी चाहिए उत्तम,
या कहें महाभारत सा कुछ बनता बिगड़ता है यहाँ,
हमारे अन्दर का मनुष्य जब तक मरा न हो,
कविता-कहानी महकती रहेंगी।
बांबियों से निकलता मनुष्य
गुफाओं से निकलता मनुष्य,
महलों से निकलता मनुष्य,
झोपड़ियों से निकलता मनुष्य,
सभी को महक कभी भी मिल सकती है।
७.
यहीं पास में ही मेरा देश है,
लगता है
गुलामी का प्रहरी है।
संविधान से लेकर शासन तक अंग्रेजी में चलता है।
एक वर्ग उसे दूह रहा है,
एक वर्ग उसमें रमा है,
एक वर्ग उसे ताक रहा है,
एक वर्ग निश्चेष्ट है,
एक वर्ग असहाय, आत्महत्या को विवश है।
मैं उसमें हूँ या नहीं पता नहीं,
राम,कृष्ण, बुद्ध के घर में दीमक लगा है,
यह संवत २०७५ की बात है।
८.
मिला रे मिला, मिला रे मिला, हमारी सियू को मिल गया,
एक तारा, एक चंदा, एक सूरज मिल गया,
एक सुबह,एक शाम, एक संसार मिल गया,
एक घोड़ा, एक हाथी,एक शेर मिल गया,
एक फूल,एक फल, एक बाग मिल गया,
एक खेत, एक खलिहान, एक खरगोश मिल गया,
मिला रे मिला, मिला रे मिला, हमारी सियू को मिल गया।(बच्चों की कविता)
९.
अब उड़ने को तैयार हूँ
मेरी छलांगों को मत देखना,
हिमालय तक पहुंचा हूँ
मेरी थकान को मत पूछना,
गंगा पर खड़ा हूँ
मेरी आस्था को मत रोकना।
भारत का नागरिक हूँ
मेरी भाषा मत पूछना,
मन ही मन गुनगुनाता हूँ
मेरी तलाशी मत ले लेना।
मैं चंचल एक राहगीर हूँ
मेरी मंजिल मत पूछना,
प्यार और ममता का संगम हूँ
मेरे विश्वासों को मत तोड़ना।
१०.
देशों में मेरा देश भारत,
वेदों में मेरा वेद भारत
शास्त्रों में मेरा शास्त्र भारत
अक्षरों में मेरा अक्षर भारत।
नदियों को जिसने पवित्र कहा
वृक्ष जहाँ पूजे जाते,
देवों में भी जीव जहाँ हैं
ज्ञान का सागर भारत।
कुछ रूक - रूक कर, कुछ ठहर- ठहर कर,
चलता जाता मेरा भारत,
कुछ मेरे मन का, कुछ तेरे मन का,
बनता जाता हमारा भारत।
जब रूठ गयीं सदियां सारी
रूखा -सूखा सा दिखता भारत,
कभी सोने की चिड़िया बन
उड़ा हुआ है मेरा भारत।
११.
चलो, चलें नगर में घूम आंए
हम राजा नहीं,
जो भेष बदलकर प्रजा की कुशल जानें,
पर प्रजा हैं नगर को जान सकते हैं,
आन्दोलनों का लेखा - जोखा रख सकते हैं,
सभ्यता और संस्कृति देख सकते हैं,
थोड़ा कूड़ा-कर्कट उठा सकते हैं,
कुछ लिख सकते हैं नगर के बारे में।
देश की दीवारों से जो झड़ता है
वही दुखद है,
क्योंकि देश की मिट्टी से पुताई करना हमेशा शेष रहता है,
चलो, नगर में घूम आंए।
१२.
बार-बार पहाड़ों पर उतर लें
गगनचुंबी न हों तो मध्यम ऊँचाई के,
संदेशों से भरे, आधे-अधूरे,
कभी बर्फ की याद दिलाती,
कभी बादलों की पताका फहराती
कल-कल करती नदियों की आलिंगन में बैठी,
झीलों को बाँधती, सोचती, समझाती।
पहाड़ लिख रहे हैं उन्हें लिखने दो
नदियां कुछ कह रही हैं उन्हें कहने दो,
राहें कुछ बता रही हैं,उन्हें बताने दो,
वृक्ष कुछ सोच रहे हैं, उन्हें सोचने दो,
पक्की सड़कें कहीं हों या न हों,
पगडण्डियां बहुत कुछ कहती रहती हैं।
१३.
सोचता हूँ
एक दिन के लिए मर जाऊं,
निम्न स्तर के
इन भाषणों को न सुनूं,
प्रदूषण से निपट लूँ,
झूठी बातों से मुँह मोड़ लूं।
मरकर एक उड़ान भरूं
हिमालय पर मडरा कर
ठंडी हवाओं में ठिठुर लूँ,
जब धूप निकले
अपने अस्तित्व को सेक लूँ।
मरना जब है ही
तो मन की आबोहवा साफ रखूं,
गुणों को धारण कर मरूं।
अंधेरे के लिए सूरज नहीं ला सकता हूँ,
पर एक दीया अवश्य जला सकता हूँ,
बहुत बड़ी संस्कृति नहीं बना सकता हूँ,
पर देश की भाषा लिख-बोल तो सकता हूँ।
सोचता हूँ
एक दिन के लिए मर जाऊं,
दुनिया के चाल-चलन को
प्यार की कुछ लकड़ियां दे दूँ।
१४.
अभी-अभी मैं जूझ रहा था
अभी-अभी मैं नाच रहा हूँ,
कितने कदम गिन आया हूँ
कितने कदम छूट गये हैं।
कहाँ-कहाँ से टूटा हूँ
कहाँ-कहाँ से जुड़ा हुआ हूँ,
कब आँधी आयेगी
कब आँधी रूक जायेगी।
अभी-अभी मैं जूझ रहा था
अभी-अभी मैं नाच रहा हूँ,
अभी- अभी सुबह थी
अभी- अभी शाम है।
१५.
कुछ वृक्ष मेरे अन्दर हैं
कुछ नदियां मेरे अन्दर हैं,
कुछ पहाड़ मुझमें खड़े हैं
कुछ तीर्थ मेरे अन्दर हैं,
कुछ सागर मुझमें छलकते हैं,
जो भी मेरे अन्दर हैं,मैं वही हूँ।
कुछ प्यार मुझमें सजता है
कुछ गाँव मुझमें रहते हैं,
कुछ शहर मुझमें बसते हैं
कुछ राहें मुझमें बनती हैं,
कुछ गीत मुझमें रहते हैं
कुछ संगीत मुझमें बजता है,
जो भी मेरे अन्दर हैं,मैं वही हूँ।
कुछ विद्यालय मुझमें बने हुए हैं
कुछ विद्या मेरे अन्दर है,
कुछ शान्ति मुझमें तैरती है,
कुछ सदियां मेरे अन्दर हैं,
कुछ मनुष्य मुझमें ठहरे हैं
जो भी मेरे अन्दर हैं,मैं वही हूँ।
१६.
कुछ दुनिया हो मेरे मन की
कुछ दुनिया हो तेरे मन की,
कुछ बर्फ गिरे तेरे मन की
कुछ बर्फ गिरे मेरे मन की।
कुछ ऋतुएं आयें मेरे मन की
कुछ ऋतुएं आयें तेरे मन की,
कुछ गुनगुनाहट हो मेरे मन की
कुछ गुनगुनाहट हो तेरे मन की।
कुछ जीवन हो मेरे मन का
कुछ जीवन हो तेरे मन का,
कुछ मुस्कान आये मेरे मन की
कुछ मुस्कान आये तेरे मन की।
कुछ बर्फ पिघले तेरे मन की
कुछ बर्फ पिघले मेरे मन की,
कुछ धूप निकले मेरे मन की
कुछ धूप निकले तेरे मन की।
१७.
जब तक रहूँ, जागता रहूँ,
अपने को मापने का प्रयास करूँ,
"अहं ब्रह्मास्मि" न भी कहूं
तो "अहं मनुष्यास्मि" कह सकूं।
मेरे पास जो जड़ी-बूटी हैं
उन्हें बांटता जाऊँ,
भले लोगों का उदय को
नक्षत्र उदय सा मान लूँ।
जब तक रहूँ, भोजन करता रहूँ,
अन्न को देवतुल्य मानूं,
दया के बीजों को रोपता
अपने सत्य को थोड़ा बढ़ाता रहूं।
मरना ही है तो झूठी सांस क्यों भरूं,
चाल को शिकारी की तरह क्यों दबाऊं,
कृष्ण की तरह तीर की प्रतीक्षा करूं
और लिखे वचनों को सत्य होने दूँ।
१८.
जब तक रहूँ, जागता रहूँ,
अपने को मापने का प्रयास करूँ,
"अहं ब्रह्मास्मि" न भी कहूं
तो "अहं मनुष्यास्मि" कह सकूं।
मेरे पास जो जड़ी-बूटी हैं
उन्हें बांटता जाऊँ,
भले लोगों के उदय को
नक्षत्र उदय सा मान लूँ।
जब तक रहूँ, भोजन करता रहूँ,
अन्न को देवतुल्य मानूं,
दया के बीजों को रोपता
अपने सत्य को थोड़ा बढ़ाता रहूं।
मरना ही है तो झूठी सांस क्यों भरूं,
चाल को शिकारी की तरह क्यों दबाऊं,
कृष्ण की तरह तीर की प्रतीक्षा करूं
और लिखे वचनों को सत्य होने दूँ।
१९.
बचपन का उधार अब भी पड़ा हुआ है,
खेतों में गेहूँ खड़ी दिख रही है
सरसों के पौधे सजे हुए हैं
खर- पतवार को सब बीन रहे हैं।
कहानियां रामायण-महाभारत से आ रही हैं,
प्यार की लम्बी पेंगें भुल भुलैया सी चलती हैं
पगडण्डियां अपनी जगह बनी हुई हैं,
विद्यालय की घंटी सुर में बजती है,
खेलों की आदत टहलने जा रही है।
धान की बालियां झुकी हुई हैं,
चिड़िया कुछ रटती इधर-उधर टहल रही है,
मेरी परिच्छाई में बहुत अन्तर नहीं है,
वह सुबह से दोपहर तक घटती है,
फिर दोपहर से शाम तक बढ़ती है।
बचपन का उधार अब भी शेष है,
नदी की कल-कल में वह गूँज सुनायी देती है,
माँ बाट जोहती दूर दिखती है,
पिता की सोच अब भी उधेड़बुन करती है,
सपनों की धूल उड़ती है घर पर,
बचपन की मिट्टी अब तक लिपी पुती है मन पर।
२०.
थोड़ा बचपन की ओर:
बचपन में सार बहुत है
शास्त्र बहुत हैं, ग्रंथ बहुत हैं
कहने को कथा बहुत है।
व्यस्त बहुत मन वहीं कहीं है
अपने खोजे खेल बहुत हैं,
समय अपना दोस्त बड़ा है
दौड़ों का कोई अन्त नहीं है,
प्यासी जगह में प्यार बहुत है
बचपन में साथ बहुत है।
मन में छिपी आवाज नहीं है,
गहरे कोई राज नहीं हैं,
झंडा अपना ऊँचा बहुत है
देश का सम्मान बड़ा है।
छिपी हुई कोई बात नहीं है
सपनों की कोई भूख नहीं है,
चलते हैं सब घोड़े अपने,
किसी दौड़ में हार नहीं है।
अपनी छोटी बात बड़ी है
चलने की हर राह सुगम है,
मन में आबादी कम है
बहरे -अंधे विश्वास नहीं हैं।
२१.
बचपन में सुबह बहुत हैं
कहने को नाम बहुत हैं,
बढ़ने वाले वृक्षों पर
फल-फूलों की बाढ़ बहुत है।
लिखी हुई कोई बात नहीं है
ईश्वर की आवाज विविध है,
चलने की धुन बड़ी है
तुतलाने में भी प्यार अद्भुत है।
बूढ़ा, बच्चा वहाँ होता है,
मिट्टी गौरव यहाँ लगती है,
खुली पाठशाला में दीवार नहीं हैं
बचपन में कोई श्मशान नहीं है।
आती-जाती हँसी मिली है
शब्दों में विराम नहीं है,
शिक्षा की मुहर लगी है,
दिन होने का इंतजार नहीं है।
रूखा-सूखा सब अच्छा है
जीवन का दबाव नहीं है,
आँसू-हँसी साथ,साथ हैं
देखो,बचपन में ज्ञान बहुत है।
२२.
वर्षों बाद मैंने प्यार की कथा
आकाश में देखी,
टिमटिमाते हुए ,इधर-उधर खिसकती।
दोस्तों के साथ छत्त पर निकल
आधे-अधूरी कथा को
बार-बार आरम्भ करता
धारावाहिक की तरह अगली रात में ले जाता,
दोस्तों में उत्सुकता थी।
कहानी बढ़ते जा रही थी बेल की तरह,
मन को टटोलते हुए, कुछ सुकून होता था,
आधी रात की हवाओं में
प्यार के आख्यान खुलते बंद होते
नींद से लिपट जाते थे।
सुबह होते ही प्यार का पक्षी
एक उड़ान भर
क्षितिज से पार सरक जाता था।
रेलगाड़ी की खिड़की के पास बैठा
सैकड़ों मील दूर की सोचता
दोस्तों से विदा का हाथ हिलता
अस्त होना नहीं चाहता था।
दोस्त सोचते थे
नयी कहानी लेकर आऊंगा,
पुरानी बातों पर नये जिल्द लगा
उन्हें कुछ नया बताऊंगा।
आखिर, जिन्दगी नया से और नया चाहती है,
शहर को देखा,
लोग बहुत थे, इमारतों की भरमार थी,
पर नायक अकेला था शेर की तरह,
जंगल दूर-दूर तक नहीं था,
एक खालीपन इधर से उधर दौड़ रहा था।
कविता की किताब की धूल झाड़
दो-चार पंक्तियां पढ़,
लौट गया नायक सूरज की तरह।
लगा फिर रेलगाड़ी को ले जानी होगी खोयी कहानी,
पूरब से पश्चिम और गढ़ना होगा अगला नया पर्व।
२३.
हम साथ साथ बैठे थे,
पता नहीं क्या हुआ
कि प्यार होने लगा।
वह (आत्मा)अपनी बात बताने लगी
और मैं अपनी सुधबुध खोने लगा।
प्यार के पैर नहीं थे
फिर भी वह मुझ तक पहुंच गया।
* महेश रौतेला