अप्रैल २०१८ की कविताएं:
१.
हम तो केवल मिलने यहाँ आये
शुद्ध मन से कहने कुछ आये
हम तो केवल झुकने यहाँ आये
पवित्र भूमि पर चलने हम आये।
हम प्यार के रिश्ते ले आये
शुद्ध हवा में हिलने हम आये
सुख की सीढ़ियां लेकर आये
हम तो तुमको पाने यहाँ आये।
हम गीत सा कुछ कहने आये
त्योहारों में रहने यहाँ आये,
अपनी कथा पढ़ने हम आये
हर नृत्य में नाचने हम आये।
आकाश पर लिखा देखने आये
धरती का हृदय भी छूने आये
नदियों की गरिमा ओढ़ने आये
हम तो आवाजों को पकड़ने आये।
२.
प्यार की कहानियां
सिलसिलेवार नहीं होती,
जिधर खिड़की खोलो उधर नहीं होती,
जिधर दरवाजा खटखटावो उधर नहीं खुलती,
वे धीरे धीरे उठी तूफानी हवा सी हैं
ठंड में नहीं कांपती,सुनी सुनायी जाती हैं,
प्यार की कहानियां मुट्ठी में नहीं होती
वे पवित्र तीर्थ हैं जो जनसंख्या के किनारे होती हैं।
३.
बिषय उबलेंगे
और वातावरण में फैल
कितनों को अपाहिज कर देंगे,
ये आन्दोलन नहीं, अराजकता है।
ओ मेरे देश, शुभ्र हो जा,
निकट रह , दूर निकल जा
स्वर्ण काल ढूंढ़ ले
पछाड़ न खा, आगे बढ़
खोयी पिपासा को जगा
ललाट पर लिख दे जय,
जय हो,
नित नयी प्रभा दे और ले
गौतम बुद्ध के साथ गीता का ज्ञान दे
दास प्रवृत्ति को धो दे
दिव्य चक्षु से देख
ओ मेरे देश, शुद्ध हो जा।
४.
मैंने तुमसे प्यार की बातें नहीं कीं
न कोई उपमा गढ़ी
न फसकों में उलझाया
न कहा-
पक्षी सुन्दर उड़ान भरते हैं
मछलियां झील में गाती हैं
सूरज बार बार तिलमिलाता है।
चन्द्रमा भी नहीं दिखाया
न बर्फ के बारे में कुछ बताया
न आकाश के नक्षत्रों को चुना
न किसानों के बिषय में कहा
न युद्धों की कहानी सुनायी,
न राजा-रानी के संदर्भ खोले,
न तुम्हारे कष्ट पूछे
न अपने कष्ट बताये।
मैं कच्ची पगडण्डी की तरह था
जिसमें बाद में चलना था,
या पाठ्यक्रम की भाँति
जिसे बर्ष भर पढ़ा जाना था।
५.
प्यार की नदी की कलकल सुनता हूँ,
यह गंगा है और भागीरथी भी कहलाती है।
तुमने हाथ आगे किया था धीरे से
मैंने हाथ बढ़ाया था अनजाने से।
बात युगों की थी जो क्षण में चुक गयी
पर वह आवाज बहुत दूर तक गयी थी।
लोग कहते हैं सपने तो सपने होते हैं,
लेकिन मैं सपनों के घोड़े दौड़ता यहाँ पहुँचा हूँ।
६.
उसने कहा," इनमें क्या रखा है, ईश्वर का ध्यान कर लो।"
ईश्वर ने कहा," मुझमें क्या रखा है, कुछ काम कर लो।"
काम ने कहा," मुझमें बहुत कुछ रखा है, पर कुछ आराम कर लो।"
आराम ने कहा," मुझमें क्या रखा है, सत्य का संधान कर लो।"
७.
चलो, समय के सागर में, क्षणों को गुदगुदा लें,
जो गरीब नहीं, अमीर हैं।
देश में अभी गुजर बसर होती तो है
और देखने को हिमालय सा पर्वत भी है।
वे कहते हैं देश मजबूत हो रहा है
सड़कों के सारे गड्डे भरे जा रहे हैं।
जनसंख्या का सैलाब है, हो हल्ला बहुत है,
गांव से खबर आयी है
कल ही बाघ ने बारह बकरियों को मारा है।
बकरियां बेखौफ चर रही थीं,
उन्हें क्या पता बाघ घात लगाये बैठा था।
८.
बहुत समय से शिक्षा की चर्चा है,
सबको पता है शिक्षा में बहुत बड़े दाग हैं।
जंगल बहुत कट चुका है,
पता चला है ठेकेदार बहुत धनवान बन चुका है।
मधुर हो गयी हैं यादें तुम्हारी तरह
मन उलझता नहीं पहले की तरह,
अब कहूँ तो क्या कहूँ
दिल में फिर भूकंप सा कुछ उठा ही नहीं।
बहुत बार मन में धुंध सी लगती है,
तब गुजरा समय नजदीक दिखता है।
कहानी कितनी सच होती है, पता नहीं,
जिन्दगी में जो होता है, सच होता है।
९.
बहुत बर्षों तक समय ने हमें छुपाये रखा,
लेकिन जिन्दगी की बातचीत ने दीप सा जलाये रखा।
हर दिन आकाश को देखता हूँ,
वहीं एक शान्त जगह का अनुमान लगाता हूँ।
छोड़ दी जिन्दगी समय के प्रवाह में,
ठहरी मिली आगे वह, बुढ़ापे के आगोश में।
१०.
मैंने प्यार के लिए बहुत जगह बनायी,
लेकिन भूख इतनी थी कि वह भर नहीं पायी।
कैसे कहें कि हमने प्यार नहीं किया,
वह आकाश, वह स्थान सब तो साक्षी हैं।
हम बहुत शोर नहीं कर पाते हैं,
क्योंकि हमारी माँगें बहुत शान्त हैं।
जब तक हूँ, आसमान के नीचे हूँ
देखता हूँ,ऊपर की दुआएं, नीचे आती हैं।
११.
मैंने उसे गांव -शहर दोनों जगह देखा,
कभी सीधा, कभी टेड़ा उसका अंदाज था।
घर - बाहर कहीं ईश्वर दिखा नहीं,
लेकिन लगा वह हमेशा छायादार है
१२.
ये हवा कहाँ से आती है
जब भी बहती है, ठंडी होती है।
प्यार हमारे पास आया और उड़ गया
हमें पता नहीं चला,कब उलटफेर हुआ।
जो अपने देश में है, और देशों में नहीं,
हिमालय से गंगा यहीं निकलती है,
फिर बहते- बहते दसियों तीर्थ बना जाती है।
पत्थर में भगवान यहीं बसाये जाते हैं,
फिर करोड़ों हाथ उधर को जुड़ जाते हैं।
१३.
आज एक व्यक्ति बता रहा था-" इस शहर में एक संत थे, पहुँचे हुए।उस समय शहर के चारों ओर शासक ने दीवार देने की सोची, शहर की रक्षा प्रणाली को सुदृढ़ बनाने के लिए।अलग-अलग स्थानों पर दरवाजे रखे गये।दीवार बनाते समय संत का आश्रम दीवार की परिधि में आ रहा था। दिन- रात दीवार खड़ी की जाती थी।संत रात को सुई से गुदड़ी सिलते थे और सुबह धागे को गुदड़ी से खींच लेते थे। जैसे ही वे धागा खींचते, दीवार धड़ाधड़ गिर जाती थी। शासक परेशान हो गया था, यह सब देखकर। लोगों ने उसे संत के बारे में बताया। उसने अपना एक गुप्तचर संत के आश्रम में भेजा। गुप्तचर संत का शिष्य बन गया। एक दिन वह संत से बोला," गुरुवर, मैं आपका एक चमत्कार देखना चाहता हूँ।" संत बोले," क्या चाहते हो?" वह बोला आप इतने छोटे बन जाओ कि इस लोटे में बैठ जाओ। संत ने अपना शरीर छोटा कर दिया और लोटे में बैठ गये। ज्यों ही वे लोटे में बैठे गुप्तचर ने लोटे का मुँह बंद कर दिया। और लोटे को लेकर शासक के पास ले गया। लोटे को खोलते ही संत बाहर निकले। शासक ने कहा," साधु महाराज,आप हमारी सहायता करें।मैं आपके आश्रम को कोई नुकसान नहीं पहुँचाऊँगा।और आपके नाम से ही यह क्षेत्र जाना जायेगा।" संत ने निवेदन मान लिया और ततपश्चात दीवार का निर्माण शहर के चारों ओर पूरा किया गया।
कहानी सुनने में मुझे आनन्द आ रहा था और वे सुनाते हुए अभिभूत हो रहे थे। हम दोनों में कोई नहीं जानता था कि यथार्थ क्या रहा होगा?
१४.
ओ आकाश, तू इतना ही नीला रहना,
कोई गोरा हो या काला तू अपना रंग मत बदलना।
अच्छे दिनों में सपने भी अच्छे आते हैं,
बोझ कितना भी हो, हँसते-खेलते उठा लेते हैं।
तू इतने गौर से मुझे मत देखा कर,
हमारा साथ शाश्वत नहीं क्षण दो क्षण का है।
मेरे गांव में जब सड़क आयी,
तो एक नया लोकगीत साथ लायी।
१५.
हिमालय को देखा तो मुँह से निकला,
ये हिम का नहीं, हमारा घर है।
अब गाँव का घराट नाचता नहीं,
देखो, मेरा गाँव इतना बदल गया है।
प्यार क्या होता है न मैं समझता था न तुम,
लेकिन वह लड़की समझती थी जो बगल की पगडण्डियों से गुजरती थी।
१६.
ईश्वर के आसमान को कई कई बार देखा,
जहाँ भी रहता हूँ, वहीं वह दिखता है।
मेरे से पहले और मेरे बाद भी आकाश है,
मेरे गांव, शहर, देश, दुनिया का यही खुलापन है।
सभी व्यापार आकाश के नीचे होते हैं,
और सत्य भी आकाश के नीचे जमा होता है।
मेरे देश को अपना नाम बता देना,
अच्छी पहिचान के लिए पूरा पता दे देना।
१७.
अबतक मैं प्यार नहीं कर पाया तो क्या कर पाया रे,
वृक्ष सा नहीं फल पाया तो क्या फल पाया रे,
सत्य तक न पहुंच सका तो कहाँ पहुंच पाया रे,
राह सही नहीं ढूंढ़ पाया तो क्या खोज सका हूँ रे,
सौंदर्य साथ नहीं रख पाया तो क्या लिये चल रहा हूँ रे,
मिट्टी अपनी भूल गया तो क्या याद में रखे हूँ रे,
सत्य नहीं मेरी बातों में तो क्या किसको बताता हूँ रे,
१८.
मेरे देश के पहाड़ो ऐसे ही जगना
जैसे सदियों से जगते आये हो,
मेरे देश के नदियो ऐसे ही बहना
जैसे सदियों से बहती आयी हो,
मेरे देश के वृक्षो ऐसे ही उगना
जैसे सदियों से उगते आये हो,
मेरे देश की हवा ऐसे ही बहना
जैसे युगों से बहती आयी हो,
मेरा देश की ऋतुओं ऐसे ही बदलना
जैसे सदियों से खिलती आयी हो,
राहो फैल जाओ दूर दूर तक
मेरे देश की रचना बन जाओ।
१९.
मेरे देश की कविता नयी नहीं है
हिमगिरि से निकल चुकी है,
गंगा में नहा चुकी है,
फूल-फूल पर घूम रही है,
वृक्ष-वृक्ष पर डोल रही है।
नदियों से सुनो तो कल -कल में है
क्षण से पूछो तो घुमड़ रही है
जन-जन से कहो तो चहक रही है,
मेरे देश की बातें स्वच्छ हो रही हैं।
२०.
हम प्यार में बहुत दूर तक हो आये,
तुमसे कहें या न कहें बहुत से विकल्प तलाश आये।
अँधेरे में सबको ठोकर लगती है,
पर उजाले में लगी ठोकर विशेष होती है।
कहानी में एक-दो घटनाएं होती हैं,
जिन्दगी में दुर्घटनाएं बहुत होती हैं।
२१.
मैं किस्सा अपना भी कहूंगा तुम्हारा भी,
जो अच्छा न लगे उसे इतिहास कह देना।
मैंने तेरी बातों का कोई हिसाब नहीं रखता,
लोग कहते हैं, ईश्वर के यहाँ ऐसा नहीं होता।
बर्षों बाद लगा फिर एक बार प्यार दोहरा देता,
कह- सुन कर फिर जोर की हँस लेता।
मेरे मन की बातें अब भी होती हैं,
मनभावन पुराने गीत अब भी बजते हैं।
२२.
अब सपने में ही गाँव जाना होता है
कल सपने में गाँव गया था
अपने खेत में गेहूँ बो रहा था,
हल चलाते समय
हल का फल रूक गया था,
जैसे राजा जनक के साथ हुआ था।
धूप बहुत थी
बैलों को छाया में खड़ा कर
पानी पी रहा था,
खोयी वस्तु को खेत में खोज रहा था,
घर से आये खाने को उतावला था,
आखिर पेट की भूख मन की भूख से तेज होती है।
फिर एकाएक गेहूँ पक गये
और बंदर खेत में आ धमके,
मेरी लाठी छोटी थी
अतः उन तक पहुँच नहीं रही थी।
ओह, मेरा पहाड़ी गाँव
कितना बेबस हो चुका है,
घराट पर मिले लोग
बूढ़े हो चुके हैं,
घराट बंद हो चुके हैं,
ओहो, मेरा गांव कितना बदल गया है।
अचानक मैं अपनी प्रेम कहानी पर आता हूँ,
जिसे मेरे और उसके अलावा सब जानते हैं।
चाय के लिए बैठा हूँ
देश-विदेश की राजनीति उड़कर आने लगी है,
तूफान बनने लगे हैं
जो चाय की गिलास से उठ
चाय की गिलास में खत्म हो जाते हैं।
गाँव पंचायत बैठ गयी है
शराब के ठेकेदार शराब लाये हैं,
बोतलों का टकराव सुनायी दे रहा है
शराब खुली है, स्वतंत्र है,
प्रधान पीकर लुढ़क चुका है,
पंचायत में सन्नाटा है
खबर है इस साल पिछले साल से अधिक शराब बिकी है,
गालियां भी अधिक दी गयी हैं,
फिर भी सपने में संगीत सुनायी दे रहा है,
क्योंकि मेरा देश बदल रहा है।
२३.
आधी सदी का सूरज मुझमें है
उतना ही पुराना गाँव
उससे थोड़ा कम शहर
उतनी ही पुरानी सड़कें,पगडण्डियां।
आधी सदी के पेड़-पौधे
उतनी ही नयी नदियां, पहाड़
उतना ही नया प्यार, पसरे हुए हैं।
आकाश पहले जैसा ही दिखता है
लेकिन धरती बदल रही है
आदमी का आदमी से मन भर रहा है,
पर्यावरण के छेद, चर्चा में हैं
ओहो, हमारी पीढ़ी चकित है
कि कितने जीव विलुप्त हो रहे हैं,
समुद्र में कचरे के पहाड़ खड़े हो गये हैं,
कौन मर रहा है, किसे पता है?
हम इधर नये गीत-संगीत से
जन्मदिन मना रहे हैं।
२४.
मरने तक बातचीत होती रहेगी
कभी इस कोने में, कभी उस कोने में,
कभी प्यार की, कभी प्रस्थान की।
जैसे वृक्ष सूखने तक छाया देता है
बातें भी छायादार होती हैं,
नदी सूखने तक पानी देती है
बातें भी पानी की तरह बहाव लिए होती हैं,
जैसे सूरज गर्मी व उजाला देता है
बातें भी गर्मी और उजाला देती हैं,
हवा नमी लिए चलती है
बातें भी वैसे ही चलती रहती हैं,
आग धधकती रहती है
बातें भी आग सी धधकती हैं,
फूल सुगंध के साथ सौंदर्य भी रखते हैं,
बातें भी सुगंध और सौंदर्य लिये होती हैं,
तो बातें मरने तक चलती रहेंगी।
२४.
बीस की उम्र भी कितनी अल्हड़ होती थी,
जब हम बिना सोचे झील में पत्थर मार देते थे,
नदियों को बिना आशंका पार कर लेते थे,
घनी, कटीली पगडण्डियों में
बिना सोचे चले जाते थे।
पेड़ों पर पत्थर मार
जो दो- चार फल गिरते थे,
उसी में संतुष्ट हो जाते थे।
ऐसा प्यार हो जाता था,
जो उबड़-खाबड़ रास्तों पर चल लेता था,
हाथ में आया हाथ देरतक छूटता नहीं था।
आसमान पर गढ़ी दृष्टि
बहुत लम्बी हो जाती थी,
बाढ़ को सहज मान लेते थे
चढ़ाई को दिनचर्या समझ लेते थे,
दुनिया का चित्र मुट्ठी में होता था।
२५.
अब बच्चों को मासिक परीक्षा देनी है,
सरकार एकदम सामने है,
छोटा राज्य है इसलिए शिक्षा पर मार अधिक है।
पहले छमाही और वार्षिक परीक्षा होती थी
खूब खेलते थे, अपनी भाषा में पढ़ते थे,
खेतों में काम किया करते थे
माँ-बाप का हाथ बँटाते थे
आखिर, हाथ का काम, पेट का काम है।
चूहा दौड़ तब कम थी
पशुधन पर भी ममता थी,
झोले हल्के होते थे
पर मन को भरे रहते थे।
वोट की बात है, राष्ट्र चूल्हे पर है
अंग्रेज और अंग्रेजी की कोई लड़ाई नहीं है।
अब झोले से कबीर नहीं निकलेगा
भारत से भारतवर्ष नहीं चमकेगा,
मेरा देश छोटा है, अतः अपनी भाषा से डरता है।
२६.
समय उसे राह न बताये
जो नदियों को आहत कर जाये
या जंगल को क्षति पहुंचाये
जो इतिहास की सुगंध न पहिचाने
या अतीत की दुर्गंध न जाने,
समय उसे राह न बताये।
२७.
भूख लगना अच्छा होता है
चलने की भूख,
ज्ञान की भूख
जैसी गौतम बुद्ध को थी,
प्यार की भूख
जैसी मीरा को थी,
मुर्दों को कहाँ भूख लगती है।
२८.
एक समय मेरे अन्दर भी है
जो चलता भी है
ठहर भी जाता है
ऋतु बदलता है
वसंत और पतझड़ लाता है।
बाढ़ उसमें है, बर्फ गिराता है
अन्न उगाता है
धूप का सेवन करता है
दीर्घ बनाता
मुझे तैराक बना, किनारे तक लाता है,
प्यार की टूटी जड़ों को फिर रोपता है
फूल, फल,पत्तियों के सा बड़ा सा वृक्ष बन छायादार लगता है,
वह एक उर्जा है
जो अन्दर को टटोलता
कभी चलता कभी ठहर जाता है।
२९.
गांव, शहर और घर
जैसे हमारे साथ- साथ हमारी परिच्छायां होती हैं,
वैसे ही गांव,शहर,घर की तस्वीरें जुड़ी होती हैं।
गांव से क्या कहें वह याद बन गया है,
हमारी मिट्टी का ऐसा स्वभाव हो गया है।
दूर से उसे देख दिल में हलचल होती है,
पास आने पर उससे बात नहीं होती है।
महेश रौतेला