आजाद-कथा
(खंड - 2)
रतननाथ सरशार
अनुवाद - प्रेमचंद
प्रकरण - 112 (अंत)
प्रिय पाठक, शास्त्रानुसार नायक और नायिका के संयोग के साथ ही कथा का अंत हो जाता है। इसलिए हम भी अब लेखनी को विश्राम देते हैं। पर कदाचित कुछ पाठकों को यह जानने की इच्छा होगी कि ख्वाजा साहब का क्या हाल हुआ और मिस मीडा और मिस क्लारिसा पर क्या बीती। इन तीनों पात्रों के सिवा हमारे विचार में तो और कोई ऐसा पात्र नहीं है जिसके विषय में कुछ कहना बाकी रह गया हो। अच्छा सुनिए। मियाँ खोजी मरते दम तक आजाद के वफादार दोस्त बने रहे। अफीम की डिबिया और करौली की धुन ने कभी उनका साथ न छोड़ा। मिस मीडा औ मिस क्लारिसा ने उर्दू और हिंदी पढ़ी और दोनो थियासोफिस्ट हो गईं। दोनों ही ने स्त्रियों की सेवा करना ही अपने जीवन का उद्देश्य बना लिया। क्लारिसा तो कलकत्ता की तरफ चली गईं, मीडा बंबई से लौट कर आजाद से मिलने आईं तो आजाद ने हँस कर कहा - अब तो थियासोफिस्ट हैं आप?
मीडा - जी हाँ, खुदा का शुक्र है कि मुझे उसने हिदायत की।
आजाद - तो यह कहिए कि अब आप पर खुदा का नूर नाजिल हुआ। इस मजहब में कौन-कौन आलिम शरीक हैं?
मीडा - अफसोस है आजाद, कि तुम थियासोफी से बिलकुल वाकिफ नहीं हो। इसमें बड़े-बड़े नामी आलिम और फिलासफर शरीक हैं, जिनके नाम के इस वक्त दुनिया में झंडे गड़े हुए हैं। यूरोप के अकसर आलिमों का झुकाव इसी तरफ है।
आजाद - हमने सुना है कि थियासोफी वाले रूह से बातें करते हैं। मुझे तो यह शोबदेबाजी मालूम होती है।
मीडा - तुम इसे शोबदेबाजी समझते हो?
आजाद - शोबदा नहीं तो और क्या है, मदारियों का खेल?
मीडा - अगर इसका नाम शोबदा है तो न्यूटन और हरशेल भी बड़े शोबदेबाज थे?
आजाद - वाह, कहाँ न्यूटन और कहाँ थियासोफी। हमने सुना है कि थियासोफिस्ट लोग गैब का हाल बता देते हैं। बंबई में बैठे हुए अमेरिकावालों से बिना किसी वसीले के बातें करते हैं। यहाँ तक सुना है कि एक साहब जो थियासोफिस्टों में बहुत ऊँचा दरजा रखते हैं वह डाक से खत न भेज कर जादू से भेजते हैं। वह खत लिख कर मेज पर रख देते हैं और जिन लोग उठा कर पहुँचा देते हैं।
मीडा - तो इसमें ताज्जुब की कौन बात है? जो लोग लिखना-पढ़ना नहीं जानते वह दो आदमियों को हरफों से बातें करते देख कर जरूर दिल में सोचेंगे कि जादूगर हैं। जिस तरह आपको ताज्जुब होता है कि मेज पर रखा हुआ खत पते पर कैसे पहुँच गया उसी तरह उन जंगली आदमियों को हैरत होती है कि दो आदमी चुप-चाप खड़े हैं, न बोलते हैं, न चालते हैं, और लकीरों से बातें कर लेते हैं। अफ्रीका के हबशियों से कहा जाय कि एक मिनट में हम लाखों मील पर बैठे हुए आदमियों के पास खबरें भेज सकते हैं तो वे कभी न मानेंगे। उनकी समझ में न आएगा कि तार के खटखटाने से कैसे इतनी दूर खबरें पहुँच जाती हैं। इसी तरह तुम लोग थियासोफी की करामात को शोबदा समझते हो।
आजाद - तुम मेस्मेरिज्म को मानती हो?
मीडा - मैं समझती हूँ, जिसे जरा भी समझ होगी वह इससे इनकार नहीं कर सकता।
आजाद - खुदा तुमको सीधे रास्ते पर लाए, बस और क्या कहूँ।
मीडा - मुझे तो सीधे रास्ते पर लाया। अब मेरी दुआ है कि खुदा तुमको भी सीधे ढर्रे पर लगाए।
आजाद - आखिर इस मजहब में नई कौन सी बात है।
मीडा - समझाते-समझाते थक गई मगर तुमने मजहब कहना न छोड़ा।
आजाद - खता हुई, मुआफ करना, लेकिन मुझे तो यकीन नहीं आता कि बिना किसी वसीले के एक दूसरे के दिल का हाल क्योंकर मालूम हो सकता है। मैंने सुना कि मैडम व्लेवेट्स्की खतों को बगैर खोले पढ़ लेती हैं।
मीडा - हाँ-हाँ, पढ़ लेती हैं, एक नहीं हजारों बार मैंने अपनी आँखों देखा है और खुदा ने चाहा तो कुछ दिनों में मैं भी वही करके दिखा दूँगी।
आजाद - खुदा करे, वह दिन जल्द आए। मैं बराबर दुआ करूँगा।
यह बातें हो रही थीं कि बैरा ने अंदर आ कर एक कार्ड दिया। आजाद ने कार्ड देख कर बैरा से कहा - नवाब साहब को दीवानखाने में बैठाओ, हम अभी आते हैं।
मीडा ने पूछा - कौन नवाब साहब हैं?
आजाद - मिरजा हुमायूँ फर के छोटे भाई हैं, जिनके साथ सिपहआरा की शादी हुई है।
मीडा - तो यों कहिए कि आपके साढ़ हैं। तो फिर जाइए। मैं भी उनसे मिलूँगी।
आजाद - मैं उन्हीं यहीं लाऊँगा।
यह कहते हुए आजाद दीवानखाने की तरफ चले गए।
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