Azad Katha - 2 - 107 in Hindi Fiction Stories by Munshi Premchand books and stories PDF | आजाद-कथा - खंड 2 - 107

Featured Books
  • નિતુ - પ્રકરણ 64

    નિતુ : ૬૪(નવીન)નિતુ મનોમન સહજ ખુશ હતી, કારણ કે તેનો એક ડર ઓછ...

  • સંઘર્ષ - પ્રકરણ 20

    સિંહાસન સિરીઝ સિદ્ધાર્થ છાયા Disclaimer: સિંહાસન સિરીઝની તમા...

  • પિતા

    માઁ આપણને જન્મ આપે છે,આપણુ જતન કરે છે,પરિવાર નું ધ્યાન રાખે...

  • રહસ્ય,રહસ્ય અને રહસ્ય

    આપણને હંમેશા રહસ્ય ગમતું હોય છે કારણકે તેમાં એવું તત્વ હોય છ...

  • હાસ્યના લાભ

    હાસ્યના લાભ- રાકેશ ઠક્કર હાસ્યના લાભ જ લાભ છે. તેનાથી ક્યારે...

Categories
Share

आजाद-कथा - खंड 2 - 107

आजाद-कथा

(खंड - 2)

रतननाथ सरशार

अनुवाद - प्रेमचंद

प्रकरण - 107

मियाँ आजाद सैलानी तो थे ही, हुस्नआरा से मुलाकात करने के बदले कई दिन तक शहर में मटरगश्त करते रहे, गोया हुस्नआरा की याद ही नहीं रही। एक दिन सैर करते-करते वह एक बाग में पहुँचे और एक कुर्सी पर जा बैठे। एकाएक उनके कान में आवाज आई -

चले हम ऐ जुनूँ जब फस्ले गुल में सैर गुलशन को,एवज फूलों के पत्थर में भरा गुलचीं ने दामन को।समझ कर चाँद हमने यार तेरे रूए रौशन को;कहा बाले को हाला और महे नौ ताके गरदन को।जो वह तलवार खींचें तो मुकाबिल कर दूँ मैं दिल को;लड़ाऊँ दोस्त से अपने मैं उस पहलू के दुश्मन को।करूँ आहें तो मुँह को ढाँप कर वह शोख कहता है -हवा से कुछ नहीं है डर चिरागे जेर दामन को।तवाजा चाहते हो जाहिदो क्या बादःख्वारों से,कहीं झुकते भी देखा है भला शीशे की गर्दन को।

आजाद के कान खड़े हुए कि यह कौन गा रहा है। इतने में एक खिड़की खुली और एक चाँद सी सूरत उनके सामने खड़ी नजर आई। मगर इत्तिफाक से उसकी नजर इन पर नहीं पड़ी। उसने अपना रंगीन हाथ माथे पर रख कर किसी हमजोली को पुकारा, तो आजाद ने यह शेर पढ़ा -

हाथ रखता है वह बुत अपनी भौहों पर इस तरह;जैसे मेहराब पर अल्लाह लिखा होता है।

उस नाजनीन ने आवाज सुनते ही उन पर नजर डाली और दरीचा बंद कर लिया। दुपट्टे को जो हवा ने उड़ा दिया तो आधा खिड़की के इधर और आधा उधर। इस पर उस शोख ने झुँझला कर कहा, यह निगोड़ा दुपट्टा भी मेरा दुश्मन हुआ है।

आजाद - अल्लाह रे गजब, दुपट्टे पर भी गुस्सा आता है!

सनम - ऐ यह कौन बोला? लोगो, देखो तो, इस बाग में मरघट का मुर्दा कहाँ से आ गया?

सहेली - एक कहाँ, बहन, हाँ-हाँ, वह बैठा है, मैं तो डर गई।

सनम - अख्खाह, यह तो कोई सिड़ी सी मालूम होता है।

आजाद - या खुदा, यह आदमजाद हैं या कोहकाफ की परियाँ?

सनम - तुम यहाँ कहाँ से भटक के आ गए?

आजाद - भटकते कोई और होंगे हम तो अपनी मंजिल पर पहुँच गए।

सनम - मंजिल पर पहुँचना दिल्लगी नहीं है, अभी दिल्ली दूर है।

आजाद - यह कहाँ का दस्तूर है कि कोई जमीन पर हो, कोई आसमान पर? आप सवार, मैं पैदल, भला क्योंकर बने!

सनम - और सुनो, आप तो पेट से पाँव निकालने लगे, अब यहाँ से बोरियाँ बँधना उठाओ और चलता धंधा करो।

आजाद - इतना हुक्म दो कि करीब से दो-दो बातें कर लें।

सनम - वह काम क्यों करें जिसमें फसाद का डर है।

सहेली - ऐ बुला लो, भले आदमी मालूम होते हैं।(आजाद से) चले आइए साहब, चले आइए।

आजाद खुश-खुश उठे और कोठे पर जा पहुँचे।

सनम - वाह बहन, वाह, एक अजनबी को बुला लिया! तुम्हारी भी क्या बातें हैं।

आजाद - भई, हम भी आदमी हैं। आदमी को आदमी से इतना भागना न चाहिए।

सनम - हजरत, आपके भले ही के लिए कहती हूँ, यह बड़े जोखिम की जगह है। हाँ, अगर सिपाही आदमी हो तो तुम खुद ताड़ लोगे।

आजाद ने जो यह बातें सुनीं तो चक्कर में आए कि हिंदोस्तान से रूस तक हो आए और किसी ने चूँ तक न की, और यहाँ इस तरह की धमकी दी जाती है। सोचो कि अगर यह सुन कर यहाँ से भाग जाते है तो यह दोनों दिल में हँसेंगी और अगर ठहर जायँ तो आसार बुरे नजर आते हैं। बातों-बातों में उस नाजनीन से पूछा - यह क्या भेद है?

सनम - यह न पूछो भई, हमारा हाल बयान करने के काबिल नहीं।

आजाद - आखिर कुछ मालूम तो हो, तुम्हें यहाँ क्या तकलीफ है? मुझे तो कुछ दाल में काला जरूर मालूम होता है।

सनम - जनाब, यह जहन्नुम है और हमारी जैसी कितनी ही औरतें इस जहन्नुम में रहती हैं। यों कहिए कि हमीं से यह जहन्नुम आबाद है। एक कुंदन नामी बुढ़िया बरसों से यही पेशा करती है। खुदा जाने, इसने कितने घर तबाह किए। अगर मुझसे पूछो कि तेरे माँ-बाप कहाँ हैं, तो मैं क्या जवाब दूँ, मुझे इतना ही मालूम है कि एक बुढ़िया मुझे किसी गाँव से पकड़ लाई भी। मेरे माँ-बाप ने बहुत तलाश की, मगर इसने मुझे घर से निकलने न दिया। उस वक्त मेरा सिन चार-पाँच साल से ज्यादा न था।

आजाद - तो क्या यहाँ सब ऐसी ही जमा हैं?

सनम - यह जो मेरी सहेली हैं, किसी बड़े आदमी की बेटी हैं। कुंदन उनके यहाँ आने-जाने लगी और उन सबों से इस तरह की साँठ-गाँठ की कि औरतें इसे बुलाने लगीं। उनको क्या मालूम था कि कुंदन के यह हथकंडे हैं।

आजाद - भला कुंदन से मेरी मुलाकात हो तो उससे कैसी बातें करूँ!

सनम - वह इसका मौका ही न देगी कि तुम कहो। जो कुछ कहना होगा, वह खुद कह चलेगी। लेकिन जो तुमसे पूछे कि तुम यहाँ क्योंकर आए?

आजाद - मैं कह दूँगा कि तुम्हारा नाम सुन कर आया।

सनम - हाँ, इस तरकीब से बच जाओगे। जो हमें देखता है, समझता है कि यह बड़ी खुशनसीब हैं। पहनने के लिए अच्छे से अच्छे कपड़े, खाने के लिए अच्छे से अच्छे खाने, रहने के लिए बड़ी से बड़ी हवेलियाँ, दिल बहलाव के लिए हमजोलियाँ सब कुछ हैं; मगर दिल को खुशी और चैन नहीं। बड़ी खुशनसीब वे औरतें हैं जो एक मियाँ के साथ तमाम उम्र काट देती हैं। मगर हम बदनसीब औरतों के ऐसे नसीब कहाँ? उस बुढ़िया को खुदा गारत करे जिसने हमें कहीं का न रखा।

आजाद - मुझे यह सुन कर बहुत अफसोस हुआ। मैंने तो यह समझा था कि यहाँ सब चैन ही चैन है, मगर अब मालूम हुआ कि मामला इसका उलटा है।

सनम - हजारों आदमियों से बातचीत होती है, मगर हमारे साथ शादी करने को कोई पतियाता ही नहीं। कुंदन से सब डरते हैं। शोहदे-लुच्चों की बात का एतबार क्या, दो-एक ने निकाह का वादा किया भी तो पूरा न किया।

यह कह कर वह नाजनीन रोने लगी।

आजाद ने समझाया कि दिल को ढारस दो और यहाँ से निकलने की हिकमत सोचो।

सनम - खुदा बड़ा कारसाज है, उसको काम करते देर नहीं लगती, मगर अपने गुनाहों को जब देखते हैं तो दिल गवाही नहीं देता कि हमें यहाँ से छुटकारा मिलेगा।

आजाद - मैं तो अपनी तरफ से जरूर कोशिश करूँगा।

सनम - तुम मर्दों की बात का एतबार करना फजूल है।

आजाद - वाह! क्या पाँचों उँगलियाँ बराबर होती हैं?

इतने में एक और हसीना आ कर खड़ी हो गई। इसका नाम नूरजान था। आजाद ने उससे कहा - तुम भी अपना कुछ हाल कहो। यहाँ कैसे आ फँसी?

नूर - मियाँ हमारा क्या हाल पूछते हो, हमें अपना हाल खुद ही नहीं मालूम। खुदा जाने, हिंदू के घर जन्म लिया या मुसलमान के घर पैदा हुई। इस मकान की मालिक एक बुढ़िया है, उसके कोटे का मंत्र नहीं, उसका यही पेशा है कि जिस तरह हो कमसिन और खूबसूरत लड़कियों को फुसला कर ले आए। सारा जमाना उसके हथकंडों को जानता है, मगर किसी से आज तक बंदोबस्त नहीं हो सका। अच्छे-अच्छे महाजन और व्यापारी उसके मकान पर माथा रगड़ते हें, बड़े-बड़े शरीफजादे उसका दम भरते हैं। शाहजादों तक के पास इसकी पहुँच हैं, सुनते थे कि बुरे काम का नतीजा बुरा होता है, मगर खुदा जाने, बुढ़िया को इन बुरे कामों की सजा क्यों नहीं मिलती? इस चुड़ैल ने खूब रुपए जमा किए हैं और इतना नाम कमाया है कि दूर-दूर तक मशहूर हो गई है।

आजाद - तुम सब की सब मिलकर भाग क्यों नहीं जातीं?

सनम - भाग जायँ तो फिर खायँ क्या, यह तो सोचो।

आजाद - इसने अपनी मक्कारी से इस कदर तुम सबको बेवकूफ बना रखा है।

सनम - बेवकूफ नहीं बनाया है, यह बात सही है, खाने भर का सहारा तो हो जाय।

आजाद - तुम्हारी आँख पर गफलत की पट्टी बाँध दी है। तुम इतना नहीं सोचतीं कि तुम्हारी बदौलत तो इसने इतना रुपया पैदा किया और तुम खाने को मुँहताज रहोगी? जो पसंद हो उसके साथ शादी कर लो और आराम से जिंदगी बसर करो।

सनम - यह सच है, मगर उसका रोब मारे डालता है।

आजाद - उफ् रे रोब, यह बुढ़िया भी देखने के काबिल है।

सनम - इस तरह की मीठी मीठी बातों करेगी कि तुम भी उसका कलमा पढ़ने लगोगे।

आजाद - अगर मुझे हुक्म दीजिए तो मैं कोशिश करूँ।

सनम - वाह, नेकी और पूछ-पूछ? आपका हमारे ऊपर बड़ा एहसान होगा। हमारी जिंदगी बरबाद हो रही है। हमें हर रोज गालियाँ देती है और हमारे माँ-बाप को कोसा करती है। गो उन्हें आँखों से नहीं देखा, मगर खून का जोश कहाँ जाय?

इस फिकरे से आजाद की आँखें भी डबडबा आईं, उन्होंने ठान ली कि इस बुढ़िया को जरूर सजा कराएँगे।

इतने में सहेली ने आ कर कहा - बुढ़िया आ गई है, धीरे-धीरे बातें करो।

आजाद ने सनम के कान में कुछ कह दिया और दोनों की दोनों चली गईं।

कुंदन - बेटा, आज एक और शिकार किया, मगर अभी बताएँगे नहीं। यह दरवाजे पर कौन खड़ा था?

सनम - कोई बहुत बड़े रईस हैं, आपसे मिलना चाहते हैं।

कुंदन ने फौरन आजाद को बुला भेजा और पूछा, किसके पास आए हो बेटा! क्या काम है?

आजाद - मैं खास आपके पास आया हूँ।

कुंदन - अच्छा बैठो। आजकल बे-फसल की बारिश से बड़ी तकलीफ होती है, अच्छी वह फसल कि हर चीज वक्त पर हो, बरसात हो तो मेंह बरसे, सर्दी के मौसम में सर्दी खूब हो और गर्मी में लू चले, मगर जहाँ कोई बात बे-मौसम की हुई और बीमारी पैदा हो गई।

आजाद - जी हाँ, कायदे की बात है।

कुंदन - और बेटा, हजार बात की एक बात है कि आदमी बुराई से बचे। आदमी को याद रखना चाहिए कि एक दिन उसको मुँह दिखाना है, जिसने उसे पैदा किया। बुरा आदमी किस मुँह से मुँह दिखाएगा?

आजाद - क्या अच्छी बात आपने कही है, है तो यही बात!

कुंदन - मैंने तमाम उम्र इसी में गुजारी कि लावारिस बच्चों की परवरिश करूँ, उनको खिलाऊँ-पिलाऊँ और अच्छी-अच्छी बातें सिखाऊँ। खुदा मुझे इसका बदला दे तो वाह-वाह, वरना और कुछ फायदा न सही, तो इतना फायदा तो है कि इन बेकसों की मेरी जात से परवरिश हुई।

आजाद - खुदा जरूर इसका सवाब देगा।

कुंदन - तुमने मेरा नाम किससे सुना?

आजाद - आपके नाम की खुशबू दूर-दूर तक फैली हुई है।

कुंदन - वाह, मैं तो कभी किसी से अपनी तारीफ ही नहीं करती। जो लड़कियाँ मैं पालती हूँ उनको बिलकुल अपने खास बेटों की तरह समझती हूँ। क्या मजाल कि जरा भी फर्क हो। जब देखा कि वह सयानी हुई तो उनको किसी अच्छे घर ब्याह दिया, मगर खूब देख-भालके। शादी मर्द और औरत की रजामंदी से होनी चाहिए।

आजाद - यही शादी के माने हैं।

कुंदन - तुम्हारी उम्र दराज हो बेटा, आदमी जो काम करे, अक्ल से, हर पहलू को देख-भालके।

आजाद - बगैर इसके मियाँ-बीवी में मुहब्बत नहीं हो सकती और यों जबरदस्ती की तो बात ही और है।

कुंदन - मेरा कायदा है कि जिस आदमी को पढ़ा-लिखा देखती हूँ उसके सिवा और किसी से नहीं ब्याहती और लड़की से पूछ लेती हूँ कि बेटा, अगर तुमको पसंद हो तो अच्छा, नहीं कुछ जबरदस्ती नहीं है।

यह कह कर उसने महरी को इशारा किया। आजाद ने इशारा करते तो देखा, मगर उनकी समझ में न आया कि इसके क्या माने हैं। महरी फौरन कोठे पर गई और थोड़ी ही देर में कोठे से गाने की आवाजें आने लगीं।

कुंदन - मैंने इन सबको गाना भी सिखाया है, गो यहाँ इसका रिवाज नहीं।

आजाद - तमाम दुनिया में औरतों को गाना-बजाना सिखाया जाता है।

कुंदन - हाँ, बस एक इस मुल्क में नहीं।

आजाद - यह तो तीन की आवाजें मालूम होती हैं, मगर इनमें से एक का गला बहुत साफ है।

कुंदन - एक तो उनका दिल बहलता है, दूसरे जो सुनता है, उसका भी दिल बहलता है।

आजाद - मगर आपने कुछ पढ़ाया भी है या नहीं?

कुंदन - देखो बुलवाती हूँ, मगर बेटा नीयत साफ रखनी चाहिए।

उस ठगों की बुढ़िया ने सबसे पहले नूर को बुलाया। वह लजाती हुई आई और बुढ़िया के पास इस तरह गरदन झुकाके बैठी जैसे कोई शरमीली दुलहिन।

आजाद - ऐ साहब, सिर ऊँचा करके बैठो, यह क्या बात है?

कुंदन - बेटा, अच्छी तरह बैठो सिर उठा कर। (आजाद से) हमारी सब लड़कियाँ शरमीली और हयादार हैं।

आजाद - यह आप ऊपर क्या गा रही थीं? हम भी कुछ सुनें।

कुंदन - बेटी नूर, वही गजल गाओ।

नूर - अम्माँजान, हमें शर्म आती है।

कुंदन - कहती है, हमें शर्म आती है, शर्म की क्या बात है, हमारी खातिर से गाओ।

नूर - (कुंदन के कान में) अम्माँजान, हमसे न गाया जायगा।

आजाद - यह नई बात है -

अकड़ता है क्या देख-देख आईना,हसीं गरचे है तू पर इतना घमंड।

कुंदन - लो, इन्होंने गाके सुना दिया।

महरी - कहिए, हुजूर, दिल का परदा क्या कम है जो आप मारे शर्म के मुँह छिपाए हैं। ऐ बीवी, गरदन ऊँची करो, जिस दिन दुलहिन बनोगी, उस दिन इस तरह बैठना तो कुछ मुजायका नहीं है।

कुंदन - हाँ, बात तो यही है, और क्या?

आजाद - शुक्र है, आपने जरा गरदन तो उठाई -

बात सब ठीक-ठाक है, पर अभीकुछ सवालो-जवाब बाकी है।

कुंदन - (हँस कर) अब तुम जानो और यह जानें।

आजाद - ऐ साहब, इधर देखिए।

नूर - अम्माँजान, अब हम यहाँ से जाते हैं।

कुंदन ने चुटकी ले कर कहा - कुछ बोलो जिसमें इनका भी दिल खुश हो, कुछ जवाब दो, यह क्या बात है।

नूर - अम्माँजान, किसको जवाब दूँ? न जान, न पहचान।

कुंदन इन कामों में आठों गाँठ कुम्मैत, किसी बहाने से हट गई। नूर ने भी बनावट के साथ चाहा कि चली जाय, इस पर कुंदन ने डाँट बताई - हैं-हैं, यह क्या, भले मानस हैं या कोई नीच कौम? शरीफों से इतना डर! आखिर नूर शर्मा कर बैठ गई। उधर कुंदन नजर से गायब हुई, इधर महरी भी चंपत।

आजाद - यह बुढ़िया तो एक ही काइयाँ है।

नूर - अभी देखते जाओ, यह अपने नजदीक तुमको उम्र भर के लिए गुलाम बनाए लेती है, जो हमने पहले से इसका हाल न बयान कर दिया होता तो तुम भी चंग पर चढ़ जाते।

आजाद - भला यह क्या बात है कि तुम उसके सामने इतना शरमाती रहीं?

नूर - हमको जो सिखाया है वह करते हैं, क्या करें?

आजाद - अच्छा, उन दोनों को क्यों न बुलाया?

नूर - देखते जाओ, सबको बुलाएगी।

इतने में महरी पान, इलायची और इत्र लेकर आई।

आजाद - महरी साहब, यह क्या अंधेर है? आदमी आदमी से बोलता है या नहीं?

महरी - ऐ बीबी, तुमने क्या बोलने की कसम खा ली है? ले अब हमसे तो बहुत न उड़ो। खुदा झूठ न बोलाए तो बातचीत तक नौबत आ चुकी होगी और हमारे सामने घूँघट कर लेती हैं।

आजाद - गरदन तक तो ऊँची नहीं करतीं, बोलना-चालना कैसा, या तो बनती हैं या अम्माँजान से डरती हैं।

महरी - वाह-वाह, हुजूर वाह, भला यह काहे से जान पड़ा कि बनती हैं? क्या यह नहीं हो सकता कि आँखों की हया के सबब से लजाती हों?

आजाद - वाह, आँखें कहे देती हैं कि नीयत कुछ और है।

नूर - खुदा की सँवार झूठे पर।

महरी - शाबाश, बस यह इसी बात की मुंतजिर थीं। मैं तो समझे ही बैठी थी कि जब यह जबान खोलेंगी, फिर बंद ही कर छोड़ेंगी।

नूर - हमें भी कोई गँवार समझा है क्या?

आजाद - वल्लाह, इस वक्त इनका त्योरी चढ़ाना अजब लुत्फ देता है। इनके जौहर तो अब खुले। इनकी अम्माँजान कहाँ चली गईं? जरा उनको बुलवाइए तो!

महरी - हुजूर, उनका कायदा है कि अगर दो दिल मिल जाते हैं तो फिर निकाह पढ़वा देती हैं, मगर मर्द भलामानस हो, चार पैसे पैदा करता हो। आप पर तो कुछ बहुत ही मिहरबान नजर आती हैं कि दो बातें होते ही उठ गईं, वरना महीनों जाँच हुआ करती है, आपकी शक्ल-सूरत से रियासत बरसती है।

नूर - वाह, अच्छी फबती कही, बेशक रिसायत बरसती है!

यह कह नूर ने आहिस्ता-आहिस्ता गाना शुरू किया।

आजाद - मैं तो इनकी आवाज पर आशिक हूँ।

नूर - खुदा की शान, आप क्या और आपकी कदरदानी क्या!

आजाद - दिल में तो खुश हुई होंगी, क्यों महरी?

महरी - अब यह आप जानें और वह जानें, हमसे क्या?

एकाएक नूर उठ कर चली गई। आजाद और महरी के सिवा वहाँ कोई न रहा, तब महरी ने आजाद से कहा - हुजूर ने मुझे पहचाना नहीं, और मैं हुजूर को देखते ही पहचान गई, आप सुरैया बेगम के यहाँ आया-जाया करते थे।

आजाद - हाँ, अब याद आया, बेशक मैंने तुमको उनके यहाँ देखा था। कहो, मालूम है कि अब वह कहाँ हैं?

महरी - हुजूर, अब वह वहाँ हैं जहाँ चिड़िया भी नहीं जा सकती; मगर कुछ इनाम दीजिए तो दिखा दूँ। दूर से ही बात-चीत होगी। एक रईस आजाद नाम के थे, उन्हीं के इश्क में जोगिन हो गईं। जब मालूम हुआ कि आजाद ने हुस्नआरा से शादी कर ली तो मजबूर हो कर एक नवाब से निकाह पढ़वा लिया। आजाद ने यह बहुत बुरा किया। जो अपने ऊपर जान दे, उसके साथ ऐसी बेवफाई न करनी चाहिए।

आजाद - हमने सुना है कि आजाद उन्हें भठियारी समझ कर निकल भागे।

महरी - अगर आप कुछ दिलवाएँ तो मैं बीड़ा उठाती हूँ कि एक नजर अच्छी तरह दिखा दूँगी।

आजाद - मंजूर, मगर बेईमानी की सनद नहीं।

महरी - क्या मजाल, इनाम पीछे दीजिएगा, पहले एक कौड़ी भी न लूँगी।

महरी ने आजाद से यहाँ का सारा कच्चा चिट्ठा कह सुनाया - मियाँ, यह बुढ़िया जितनी ऊपर है, उतनी ही नीचे है, इसके काटे का मंत्र नहीं। पर आजाद को सुरैया बेगम की धुन थी। पूछा - भला उनका मकान हम देख सकते हैं?

महरी - जी हाँ, यह क्या सामने है।

आजाद - और यह जितनी यहाँ हैं, सब इसी फैशन की होंगी?

महरी - किसी को चुरा लाई है, किसी को मोल लिया है, बस कुछ पूछिए न?

इतने में किसी ने सीटी बजाई और महरी फौरन उधर चली गई। थोड़ी ही देर में कुंदन आई और कहा - ऐं, यहाँ तुम बैठे हो, तोबा तोबा, मगर लड़कियों को (महरी को पुकार कर) क्या करूँ, इतनी शरमीली हैं कि जिसकी कोई हद ही नहीं। ऐ, उनको बुलाओ, कहो, यहाँ आकर बैठें। यह क्या बात है? जैसे कोई काटे खाता है!

यह सुनते ही सनम छम-छम करती हुई आई। आजाद ने देखा तो होश उड़ गए, इस मरतबा गजब का निखार था। आजाद अपने दिल में सोचे कि यह सूरत और यह पेशा! ठान ली कि किसी मौके पर जिले के हाकिम को जरूर लाएँगे और उनसे कहेंगे कि खुदा के लिए इन परियों को इस मक्कार औरत से बचाओ।

कुंदन ने सनम के हाथ में एक पंखा दे दिया और झेलने को कहा। फिर आजाद से बोली - अगर किसी चीज की जरूरत हो तो बयान कर दो।

आजाद - इस वक्त दिल वह मजे लूट रहा है जो बयान के बाहर है।

कुंदन - मेरे यहाँ सफाई का बहुत इंतजाम है।

आजाद - आपके कहने की जरूरत नहीं।

कुंदन - यह जितनी हैं सब एक से एक बढ़ी हुई हैं।

आजाद - इनके शौहर भी इन्हीं के से हों तो बात है।

कुंदन - इसमें किसी के सिखाने की जरूरत नहीं। मैं इनके लिए ऐसे लोगों को चुनूँगी जिनका कहीं सानी न हो। इनको खिलाया, पिलाया, गाना सिखाया, अब इन पर जुल्म कैसे बरदाश्त करूँगी?

आजाद - और तो और, मगर इनको तो आपने खूब ही सिखाया।

कुंदन - अपना-अपना दिल है, मेरी निगाह में तो सब बराबर, आप दो-चार दिन यहाँ रहें, अगर इनकी तबीयत ने मंजूर किया तो इनके साथ आपका निकाह कर दूँगी, बस अब तो खुश हुए।

महरी - वह शर्तें तो बता दीजिए!

कुंदन - खबरदार, बीच में न बोल उठा करो, समझीं?

महरी - हाँ हुजूर, खता हुई।

आजाद - फिर अब तो शर्ते बयान ही कर दीजिए न।

कुंदन - इतमीनान के साथ बयान करूँगी।

आजाद - (सनम से) तुमने तो हमें अपना गुलाम ही बना लिया।

सनम ने कोई जवाब न दिया।

आजाद - अब इनसे क्या कोई बात करे -

गवारा नहीं है जिन्हें बात करना,सुनेंगे वह काहे को किस्सा हमारा।

कुंदन - ऐ हाँ, यह तुममें क्या ऐब है? बातें करो बेटा!

सनम - अम्माँजान, कोई बात हो तो क्या मुजायका और यों ख्वाहमख्वाह एक अजनबी से बातें करना कौन सी दानाई है।

कुंदन - खुदा को गवाह करके कहती हूँ कि यह सबकी सब बड़ी शरमीली हैं।

आजाद को इस वक्त याद आया कि एक दोस्त से मिलने जाना है, इसलिए कुंदन से रुखसत माँगी और कहा कि आज माफ कीजिए, कल हाजिर होऊँगा, मगर अकेले आऊँ, या दोस्तों को भी साथ लेता आऊँ? कुंदन ने खाना खाने के लिए बहुत जिद की मगर आजाद ने न माना।

आजाद ने अभी बाग के बाहर भी कदम नहीं रखा था कि महरी दौड़ी आई और कहा - हुजूर को बीबी बुलाती हैं। आजाद अंदर गए तो क्या देखते हैं कि कुंदन के पास सनम और उसकी सहेली के सिवा एक और कामिनी बैठी हुई है जो आन-बान में उन दोनों से बढ़ कर है।

कुंदन - यह एक जगह गई हुई थीं, अभी डोली से उतरी हैं। मैंने कहा, तुमको जरी दिखा दूँ कि मेरा घर सचमुच परिस्तान है, मगर बदी करीब नहीं आने पाती।

आजाद - बेशक, बदी का यहाँ जिक्र ही क्या है?

कुंदन - सबसे मिल जुल के चलना और किसी का दिल न दुखाना मेरा उसूल है, मुझे आज तक किसी ने किसी से लड़ते न देखा होगा।

आजाद - यह तो सबों से बढ़-चढ़ कर हैं।

कुंदन - बेटा, सभी घर गृहस्थ की बहू-बेटियाँ हैं, कहीं आए न जाएँ, न किसी से हँसी, न दिल्लगी।

आजाद - बेशक, हमें आपके यहाँ का करीना बहुत पसंद आया।

कुंदन - बोलो बेटा, मुँह से कुछ बोलो, देखो, एक शरीफ आदमी बैठे हैं और तुम न बोलती हो न चालती हो।

परी - क्या करूँ, आप ही आप बकूँ?

कुंदन - हाँ यह भी ठीक है, वह तुम्हारी तरफ मुँह करके बात-चीत करें तब बोलो। लीजिए साहब, अब तो आप ही का कुसूर ठहरा।

आजाद - भला सुनिए तो, मेहमानों की खातिरदारी भी कोई चीज है या नहीं?

कुंदन - हाँ, यह भी ठीक है, अब बताओ बेटा?

परी - अम्माँजान, हम तो सबके मेहमान हैं, हमारी जगह सबके दिल में है, हम भला किसी की खातिरदारी क्यों करें?

कुंदन - अब फर्माइए हजरत, जवाब पाया।

आजाद - वह जवाब पाया कि लाजवाब हो गया। खैर साहब, खातिरदारी न सही, कुछ गुस्सा ही कीजिए।

परी - उसके लिए भी किस्मत चाहिए।

मियाँ आजाद बडे बोलक्कड़ थे, मगर इस वक्त सिट्टी-पिट्टी भूल गए।

कुंदन - अब कुछ कहिए, चुप क्यों बैठे हैं?

परी - अम्माँजान, आपकी तालीम ऐसी-वैसी नहीं है कि हम बंद रहें।

कुंदन - मगर मियाँ साहब की कलई खुल गई। अरे कुछ तो फर्माइए हजरत -

कुछ तो कहिए कि लोग कहते हैं-आज 'गालिब' गजलसरा न हुआ।

आजाद - आप शेर भी कहती हैं?

नूर - ऐ वाह, ऐसे घबड़ाए कि 'गालिब' का तखल्लुस मौजूद है और आप पूछते हैं कि आप शेर भी कहती हैं?

परी - आदमी में हवास ही हवास तो है, और है क्या?

सनम - हम जो गरदन झुकाए बैठे थे तो आप बहुत शेर थे, मगर अब होश उड़े हुए हैं।

सहेली - तुम पर रीझे हुए हैं बहन, देखती हो, किन आँखों से घूर रहे हैं।

परी - ऐ हटो भी, एड़ी-चोटी पर कुरबान कर दूँ।

आजाद - या खुदा, अब हम ऐसे गए गुजरे हो गए?

परी - और आप अपने को समझे क्या हैं!

कुंदन - यह हम न मानेंगे, हँसी-दिल्लगी और बात है, मगर यह भी लाख दो लाख में एक हैं।

परी - अब अम्माँजान कब तक तारीफ किया करेंगी।

आजाद - फिर जो तारीफ के काबिल होता है उसकी तारीफ होती ही है।

नूर - उँह-उॅँह, घर की पुटकी बासी साग।

आजाद - जलन होगी कि इनकी तारीफ क्यों की।

नूर - यहाँ तारीफ की परवा नहीं।

कुंदन - यह तो खूब कही, अब इसका जवाब दीजिए।

आजाद - हसीनों को किसी की तारीफ कब पसंद आती है?

नूर - भला खैर, आप इस काबिल तो हुए कि आपके हुस्न से लोगों के दिल में जलन होने लगी।

कुंदन - (सनम से) तुमने इनको कुछ सुनाया नहीं बेटा?

सनम - हम क्या कुछ इनके नौकर हैं?

आजाद - खुदा के लिए कोई फड़कती हुई गजल गाओ; बल्कि अगर कुंदन साहब का हुक्म हो तो सब मिल कर गाएँ।

सनम - हुक्म, हुक्म तो हम बादशाह-वजीर का न मानेंगे।

परी - अब इसी बात पर जो कोई गाए।

कुंदन - अच्छा, हुक्म कहा तो क्या गुनाह किया, कितनी ढीठ लड़कियाँ हैं कि नाक पर मक्खी नहीं बैठने देतीं।

सनम - अच्छा बहन, आओ, मिल-मिल कर गाएँ -

ऐ इश्के कमर दिल का जलाना नहीं अच्छा।

परी - यह कहाँ से बूढ़ी गजल निकाली? यह गजल गाओ -

गया यार आफत पड़ी इस शहर पर;उदासी बरसने लगी बाम व दर पर।सबा ने भरी दिन को एक आप ठंडी;कयामत हुई या दिले नौहागर पर।मेरे भावे गुलशन को आतश लगी है;नजर क्या पड़े खाक गुलहाय तर पर।कोई देव था या कि जिन था वह काफिर;मुझे गुस्सा आता है पिछले पहर पर।

एकाएक किसी ने बाहर से आवाज दी। कुंदन ने दरवाजे पर जा कर कहा - कौन साहब हैं?

सिपाही - दारोगा जी आए हैं, दरवाजा खोल दो।

कुंदन - ऐ तो यहाँ किसके पास तशरीफ लाए हैं?

सिपाही - कुंदन कुटनी के यहाँ आए हैं। यही मकान है या और?

दूसरा सिपाही - हाँ-हाँ, जी, यही है, हमसे पूछो।

इधर कुंदन पुलिसवालों से बातें करती थी, उधर आजाद तीनों औरतों के साथ बाग में चले गए और दरवाजा बंद कर दिया।

आजाद - यह माजरा क्या है भई?

सनम - दौड़ आई है मियाँ, दरवाजा, बंद करने से क्या होगा, कोई तदबीर ऐसी बताओ कि इस घर से निकल भागें।

परी - हमें यहाँ एक दम का रहना पसंद नहीं।

आजाद - किसी के साथ शादी क्यों नहीं कर लेती?

नूर - ऐ है! यह क्या गजब करते हो, आहिस्ता से बोलो।

आजाद - आखिर यह दौड़ क्यों आई है, हम भी तो सुनें।

सनम - कल एक भलेमानस आए थे। उनके पास एक सोने की घड़ी, सोने की जंजीर, एक बेग, पाँच आशर्फियाँ और कुछ रुपए थे। यह भाँप गई। उसको शराब पिला कर सारी चीजें उड़ा दीं। सुबह को जब उसने अपनी चीजों की तलाश की तो धमकाया कि टर्राओगे तो पुलिस को इत्तला कर दूँगी। वह बेचारा सीधा-सादा आदमी, चुपचाप चला गया और दारोगा से शिकायत की, अब वह दौड़ आई है।

आजाद - अच्छा! यह हथकंडे हैं।

सनम - कुछ पूछो न, जान अजाब में है।

नूर - अब खुदा ही जाने, किस-किस का नाश वह करेगी, क्या आग लगाएगी।

सनम - अजी, वह किसी से दबनेवाली नहीं है।

परी - वह न दबेंगी साहब तक से, यह दारोगा लिए फिरती हैं!

सनम - जरी सुनो तो क्या हो रहा है।

आजाद ने दरवाजे के पास से कान लगा कर सुना तो मालूम हुआ कि बीबी कुंदन पुलिसवालों से बहर कर रही हैं कि तुम मेरे घर भर की तलाशी लो। मगर याद रखना, कल ही तो नालिश करूँगीं। मुझे अकेली औरत समझके धमका लिया है। मैं अदालत चढ़ूँगी। लेना एक न देना दो, उस पर यह अंधेर! मैं साहब से कहूँगी कि इसकी नियत खराब है, यह रिआया को दिक करता है और पराई बहू-बेटी को ताकता है।

सनम - सुनती हो, कैसा डाँट रही है पुलिसवालों को।

परी - चुपचाप, ऐसा न हो, सब इधर आ जायँ।

उधर कुंदन ने मुसाफिर को कोसना शुरू किया - अल्लाह करे, इस अठवारे में इसका जनाजा निकले। मुए ने आके मेरी जान अजाब में कर दी। मैंने तो गरीब मुसाफिर समझ कर टिका लिया था। मुआ उलटा लिए पड़ता है।

मुसाफिर - दारोगा जी, इस औरत ने सैकड़ों का माल मारा है।

सिपाही - हुजूर, यह पहले गुलाम हुसैन के पुल पर रहती थी। वहाँ एक अहीरिन की लड़की को फुसला कर घर लाई और उसी दिन मकान बदल दिया। अहीर ने थाने पर रपट लिखवाई। हम जो जाते हैं तो मकान में ताला पड़ा हुआ, बहुत तलाश की, पता न मिला। खुदा जाने, लड़की किसी के हाथ बेच डाली या मर गई।

कुंदन - हाँ-हाँ, बेच डाली, यही तो हमारा पेशा है।

दारोगा - (मुसाफिर से) क्यों हजरत, जब आपको मालूम था कि यह कुटनी है तो आप इसके यहाँ टिके क्यों?

मुसाफिर - बेधा था, और क्या, दो-ढाई सौ पर पानी फिर गया, मगर शुक्र है कि मार नहीं डाला।

कुंदन - जी हाँ, साफ बच गए।

दारोगा - (कुंदन से) तू जरा भी नहीं शरमाती?

कुंदन - शरमाऊँ क्यों? क्या चोरी की है?

दारोगा - बस, खैरियत इसी में है कि इनका माल इनके हवाले कर दो।

कुंदन - देखिए, अब किसी दूसरे घर का डाका डालूँ तो इनके रुपए मिलें।

सिपाही - हुजूर, इसे पकड़ के थाने ले चलिए, इस तरह यह न मानेगी?

कुंदन - थाने मैं क्यों जाऊँ? क्या इज्जत बेचनी है! यह न समझना कि अकेली है। अभी अपने दामाद को बुला दूँ तो आँखें खुल जायँ।

यह सुनते ही आजाद के होश उड़ गए। बोले, इस मुरदार को सूझी क्या।

महरी - जरा दरवाजा खोलिए।

आजाद - खुदा की मार तुझ पर।

कुंदन - ऐ बेटा, जरी इधर आओ। मर्द की सूरत देख कर शायद यह लोग इतना जुल्म न करें।

दारोगा - अख्खाह, क्या तोप साथ है? हम सरकारी आदमी और तुम्हारे दामाद से दब जायँ! अब तो बताओ, इनके रुपए मिलेंगे या नहीं?

कुंदन एक सिपाही को अलग ले गई और कहा - मैं इसी वक्त दारोगा जी को इस शर्त पर सत्तर रुपए देती हूँ कि वह इस मामले को दबा दें। अगर तुम यह काम पूरा कर दो तो दस रुपया तुम्हें भी दूँगी।

दारोगा ने देखा कि यह मक्कार औरत झाँसा देना चाहती है तो उसे साथ ले कर थाने चले गए।

आजाद - बड़ी बला इस वक्त टली। औरत क्या, सचमुच बला है।

सनम - आपको अभी इससे कहाँ साबिका पड़ा है।

आजाद - मैं तो इतने ही में ऊब उठा।

सनम - अभी यह न समझना कि बला टल गई हम सब बाँधे जायँगे।

आजाद - जरा इस शरारत को तो देखो कि मुझे थानेदार से लड़वाए देती थी।

सनम - खुश तो न होंगे कि दामाद बना दिया।

आजाद - हम ऐसी सास से बाज आए।

सनम - इस गली से कोई आदमी बिना लुटे नहीं जा सकता। एक औरत को तो इसने जहर दिलवा दिया था।

नूर - पड़ोसिन से कोई जा कर कह दे कि तुम अपनी लड़की का क्यों सत्यानाश करती हो। जो कुछ रूखा-सूखा अल्लाह दे वह खाओ और पड़ी रहो।

महरी - हाँ और क्या, ऐसे पोलाव से दाल-दलिया ही अच्छी।

सनम - बस जाके बुला लाओ तो यह समझा दें हीले से।

महरी जा कर पड़ोसिन को बुला लाई। आजाद ने कहा - तुम्हारी पड़ोसिन को तो सिपाही ले गए। अब यह मकान हमें सौंप गई हैं। पड़ोसिन ने हँस कर कहा - मियाँ, उनको सिपाही ले जा कर क्या करेंगे? आज गई हैं, कल छूट आएँगी?

इतने में एक आदमी ने दरवाज पर हाथ मारा। महरी ने दरवाजा खोला तो एक बूढ़े मियाँ दिखाई दिए। पूछा - बी कुंदन कहाँ हैं?

महरी ने कहा - उनको थाने के लोग ले गए।

सनम - एक सिरे से इतने मुकदमे, एक, दो, तीन।

नूर - हर रोज एक नया पंछी फाँसती है।

बूढ़े मियाँ - बस, अब प्याला भर गया।

सनम - रोज तो यही सुनती हूँ कि प्याला भर गया।

बूढ़े मियाँ - अब मौका पाके तुम सब कहीं चल क्यों नहीं देती हो? अब इस वक्त तो वह नहीं है।

सनम - जायँ तो बे सोचे-समझे कहाँ जायँ।

आजाद - बस इसी इत्तिफाक को हम लोग किस्मत कहते हैं और इसी का नाम अकबाल है।

बूढ़े मियाँ - जी हाँ, आप तो नए आए हैं, यह औरत खुदा जाने, कितने घर तबाह कर चुकी है। पुलिस में भी गिरफ्तार हुई। मजिस्ट्रेटी भी गई। सब कुछ हुआ, सजा पाई, मगर कोई नहीं पूछता। मैं तो यहाँ तक कहता हूँ कि इनमें से जिसका जी चाहे, मेरे साथ चली चले। किसी शरीफ के साथ निकाह पढ़वा दूँगा, मगर कोई राजी नहीं होती।

एकाएक किसी ने फिर दरवाजे पर आवाज दी, महरी ने दरवाजा खोला तो मम्मन और गुलबाज अंदर दाखिल हुए। दोनों ढाँटे बाँधे हुए थे। महरी उन्हें इशारे से बुला कर बाग में ले गई।

मम्मन - कुंदन कहाँ हैं?

महरी - वह तो आज बड़ी मुसीबत में फँस गई। पुलिसवाले पकड़ ले गए।

मम्मन - हम तो आज और ही मनसूबे बाँध कर आए थे। वह जो महाजन गली में रहते हैं, उनकी बहू अजमेर से आई है।

महरी - हाँ, मेरा जाना हुआ है। बहुत से रुपए लाई है।

गुलबाज - महाजन गंगा नहाने गया है। परसों तक आ जाएगा। हमने कई आदमियों से कह दिया था। सब के सब आते होंगे।

मम्मन - कुंदन नहीं हैं, न सही! हम अपने काम से क्यों गाफिल रहें। आओ एक-आध चक्कर लगाएँ।

इतने में बाग के दरवाजे की तरफ सीटी की आवाज आई। गुलबाज ने दरवाजा खोल दिया और बोला - कौन है, दिलवर?

दिलवर - बस अब देर न करो। वक्त जाता है भाई।

गुलबाज - अरे यार, आज तो मामला हुच गया।

दिलवर - ऐ, ऐसा न कहो। दो लाख नकद रखा हुआ है। इसमें एक भी कम हो, तो जो जुर्माना कहो दूँ।

मम्मन - अच्छा, तो कहीं भागा जाता है?

दिलवर - यह क्या जरूरी है कि कुंदन जरूरी ही हो।

मम्मन - भाईजान, एक कुंदन के न होने से कहीं यार लोग चूकते हैं? और भी कई सबव हैं।

दिलवर - ऐसे मामले में इतनी सुस्ती!

मम्मन - यह सारा कुसूर गुलबाज का है। चंडूखाने में पड़े छींटे उड़ाया किए, और सारा खेल बिगाड़ दिया।

दिलवर - आज तक इस मामले में ऐसे लौंडे नहीं बने थे। वह दिन याद है कि जब जहूरन की गली में छुरी चली थी?

गुलबाज - मैं उन दिन कहाँ था?

दिलवर - हाँ, तुम तो मुर्शिदाबाद चले गए थे। और यहाँ जहूरन ने हमें इत्तला दी कि सुल्तान मिरजा चल बसे। सुल्तान मिरजा के महल्ले में सब मोटे रुपएवाले, मगर उनके मारे किसी की हिम्मत न पड़ती थी कि उनके महल्ले में जाय।

मम्मन - वह तो इस फन का उस्ताद था।

दिलवर - बस जनाब, इधर सुल्तान मिरजा मरे, उधर जहूरन ने हमें बुलवाया। हम लोग जा पहुँचे। अब सुनिए कि जिस तरफ जाते हैं, कोई गा रहा है, कोई घर ऐसा नहीं, जहाँ रोशनी और जाग न हो।

मम्मन - किसी ने पहले से मुहल्लेवालों को होशियार कर दिया होगा।

दिलवर - जी हाँ, सुनते तो जाइए। पीछे खुला न। हुआ यह कि जिस वक्त हम लोगों ने जहूरन के दरवाजे पर आवाज दी, तो उनकी मामा ने पड़ोस के मकान में कंकरी फेंकी। उस पड़ोसी ने दूसरे मकान में। इस तरह महल्ले भर में खबर हो गई।

यहाँ तो ये बातें हो रही थीं, उधर बूढ़े मियाँ और आजाद में कुंदन को सजा दिलाने के लिए सलाहें होती थीं -

आजाद - जिन-जिन लड़कियों को इसने चोरी से बेच लिया है, उन सबों का पता लगाइए।

बूढ़े मियाँ - अजी, एक-दो हों, तो पता लगाऊँ। यहाँ तो शुमार ही नहीं।

आजाद - मैं आज ही हाकिम जिला से इसका जिक्र करूँगा।

इन लोगों से रुखसत हो कर आजाद मजिस्ट्रेट के बँगले पर आए। पहले अपने कमरे में जा कर मुँह-हाथ धोया, और कपड़े बदल कर उस कमरे में गए, जहाँ साहब मेहमानों के साथ डिनर खाने बैठे थे। अभी खाना चुना ही जा रहा था कि आजाद कमरे में दाखिल हुए। आप शाम को आने का वादा करके गए थे। 9 बजे पहुँचे तो सबने मिल कर कहकहा लगाया।

मेम - क्यों साहब, आपके यहाँ अब शाम हुई?

साहब - बड़ी देर से आपका इंतजार था।

मीडा - कहीं शादी तो नहीं तय कर आए?

साहब - हाँ, देर होने से तो हम सबको यही शक हुआ था।

मेम - जब तक आप देर की वजह न बताएँगे, यह शक न दूर होगा। आप लोगों में तो चार शादियाँ हो सकती हैं।

क्लारिसा - आप चुप क्यों हैं, कोई बहाना सोच रहे हैं?

आजाद - अब मैं क्या बयान करूँ। यहाँ तो सब लाल-बुझक्कड़ ही बैठे हैं। कोई चेहरे से ताड़ जाता है, कोई आँखों से पहचान लेता है; मगर इस वक्त मैं जहाँ था, वहाँ खुदा किसी को न ले जाय।

साहब - जुवारियों का अड्डा तो नहीं था?

आजाद- नहीं वह और ही मामला था। इतमीनान से कहूँगा।

लोग खाना खाने लगे। साहब के बहुत जोर देने पर भी आजाद ने शराब न पी। खाना हो जाने पर लेड़ियों ने गाना शुरू किया और साहब भी शरीक हुए। उसके बाद उन्होंने आजाद से कुछ गाने को कहा -

आजाद - आपको इसमें क्या लुत्फ आएगा?

मेम - नहीं, हम हिंदुस्तानी गाना पसंद करते हैं, मगर जो समझ में आए। आजाद ने बहुत हीला किया, मगर साहब ने एक न माना। आखिर मजबूर हो कर यह गजल गाई -

जान से जाती हैं क्या-क्या हसरतें;काश वह भी दिल में आना छोड़ दे।'दाग' से मेरे जहन्नुम को मिसाल;तू भी वायज दिल जलाना छोड़ दे।परदे की कुछ हद भी है परदानशीं;खुलके मिल बस मुँह छिपाना छोड़ दे।

मेम - हम कुछ-कुछ समझे। वह जहन्नुम का शेर अच्छा है।

साहब - हम तो कुछ नहीं समझे। मगर कानों को अच्छा मालूम हुआ।

दूसरे दिन आजाद तड़के कुंदन के मकान पर पहुँचे और महरी से बोले - क्यों भाई, तुम सुरैया बेगम को किसी तरह दिखा सकती हो?

महरी - भला मैं कैसे दिखा दूँ? अब तो मेरी वहाँ पहुँच ही नहीं!

आजाद - खुदा गवाह है, फकत एक नजर भर देखना चाहता हूँ।

महरी - खैर, अब आप कहते ही हैं तो कोशिश करूँगी। और आज ही शाम को यहीं चले आइएगा।

आजाद - खुदा तुमको सलामत रखे, बड़ा काम निकलेगा।

महरी - ऐ मियाँ, मैं लौंडी हूँ। तब भी तुम्हारा ही नमक खाती थी, और अब भी...।

आजाद - अच्छा, इतना बता दो कि किस तरकीब से मिलूँगा?

महरी - यहाँ एक शाह साहब रहते हैं। सुरैया बेगम उनकी मुरीद हैं। उनके मियाँ ने भी हुक्म दे दिया है कि जब उनका जी चाहे, शाह साहब के यहाँ जायँ। शाह जी का सिन कोई दो सौ बरस का होगा। और हुजूर, जो वह कह देते हैं, वही होता है। क्या मजाल जो फरक पड़े।

आजाद - हाँ साहब, फकीर हैं, नहीं तो दुनिया कायम कैसे है!

महरी - मैं शाह जी को एक और जगह भेज दूँगी। आप उनकी जगह जाके बैठ जाइएगा। शाह साहब की तरफ कोई आँख उठा कर नहीं देख सकता।

इसलिए आपको यह खौफ भी नहीं है कि सुरैया बेगम पहचान जाएँगी।

आजाद - बड़ा एहसान होगा। उम्र भर न भूलूँगा। अच्छा, तो शाम को आऊँगा।

शाम को आजाद कुंदन के घर पहुँच गए। महरी ने कहा - लीजिए, मुबारक हो। सब यामला चौकस है।

आजाद - जहाँ तुम हो, वहाँ किस बात की कमी। तुमसे आज मुलाकात हुई थी? हमारा जिक्र तो नहीं आया? हमसे नाराज तो नहीं हैं?

महरी - ऐ हुजूर, अब तक रोती हैं। अकसर फरमाती हैं कि जब आजाद सुनेंगे कि उसने एक अमीर के साथ निकाह कर लिया, तो अपने दिल में क्या कहेंगे?

शाह साहब शहर के बाहर एक इमली के पेड़ के नीचे रहते थे। महरी आजाद को वहाँ ले गई और दरख्त के नीचेवाली कोठरी में बैठा कर बोली - आप यहीं बैठिए, बेगम साहब अब आती ही होंगी। जब वह आँख बंद करके नजर दिखाएँ तो ले लीजिएगा। फिर आपमें और उनमें खुद ही बाते होंगी।

आजाद - ऐसा न हो कि मुझे देख कर डर जायँ।

महरी - जी नहीं, दिल की मजबूत हैं। वनों-जंगलों में फिर आई हैं।

इतने में किसी आदमी के गाने की आवाज आई।

बुते-जालिम नहीं सुनता किसी की;

गरीबों का खुदा फरियाद-रस है।

आजाद - यह इस वक्त इस वीराने में कौन गा रहा है?

महरी - सिड़ी है। खबर पाई होगी कि आज यहाँ आनेवाली हैं।

आजाद - बाबा साहब को इसका हाल मालूम है या नहीं?

महरी - सभी जानते हैं। दिन-रात यों ही बका करता है; और कोई काम ही नहीं।

आजाद - भला यह तो बताओ कि सुरैया बेगम के साथ कौन-कौन होगा?

महरी - दो-एक महरियाँ होंगी, मौलाई बेगम होंगी और दस-बारह सिपाही।

आजाद - महरियाँ अंदर साथ आएँगी या बाहर ही रहेंगी?

महरी - इस कमरे में कोई नहीं आ सकता।

इतने में सुरैया बेगम की सवारी दरवाजे पर आ पहुँची। आजाद का दिल धक-धक करता था। कुछ तो इस बात की खुशी थी कि मुद्दत के बाद अलारक्खी को देखेंगे और कुछ इस बात का खयाल कि कहीं परदा न खुल जाय।

आजाद - जरा देखो, पालकी से उतरीं या नहीं।

महरी - बाग में टहल रही हैं। मौलाई बेगम भी हैं। चलके दीवार के पास खड़े हो कर आड़ से देखिए।

आजाद - डर मालूम होता है कि कहीं देख न लें।

आखिर आजाद से न रहा गया। महरी के साथ आड़ में खड़े हुए तो देखा कि बाग में कई औरतें चमन की सैर कर रही हैं।

महरी - जो जरा भी इनको मालूम हो जाय कि आजाद खड़े देख रहे हैं तो खुदा जाने, दिल का क्या हाल हो।

आजाद - पुकारूँ? बेअख्तियार जी चाहता है कि पुकारूँ।

इतने में बेगम दीवार के पास आईं और बैठ कर बातें करने लगीं।

सुरैया - इस वक्त तो गाना सुनने को जी चाहता है।

मौलाई - देखिए, यह सौदाई क्या गा रहा है।

सुरैया - अरे! इस मुए को अब तक मौत न आई? इसे कौन मेरे आने की खबर दे दिया करता है। शाह जी से कहूँगी कि इसको मौत आए।

मौलाई - ऐ नहीं, काहे को मौत आए बेचारे को। मगर आवाज अच्छी है।

सुरैया - आग लगे इसकी आवाज को।

इतने में जोर से पानी बरसने लगा। सब की सब इधर-उधर दौड़ने लगीं। आखिर एक माली ने कहा कि हुजूर, सामने का बँगला खाली कर दिया है, उसमें बैठिए। सब की सब उस बँगले में गईं। जब कुछ देर तक बादल न खुला तो सुरैया बेगम ने कहा - भई, अब तो कुछ खाने को जी चाहता है।

ममोला नाम की एक महरी उनके साथ थी। बोली - शाह जी के यहाँ से कुछ लाऊँ? मगर फकीरों के पास दाल-रोटी के सिवा और क्या होगा।

सुरैया - जाओ, जो कुछ मिले, ले आओ। ऐसा न हो कि वहाँ कोई बेतुकी बात कहने लगो।

महरी ने दुपट्टे को लपेट कर ऊपर से डोली का परदा ओढ़ा। दूसरी महरी ने मशालची को हुक्म दिया कि मशाल जला। आगे-आगे मशालची, पीछे-पीछे दोनों महरियाँ दरवाजे पर आईं और आवाज दी। आजाद और महरी ने समझा कि बेगम साहब आ गईं, मगर दरवाजा खोला तो देखा कि महरियाँ हैं।

महरी - आओ, आओ। क्या बेगम साहब बाग ही में हैं?

ममोला - जी हाँ। मगर एक काम कीजिए। शाह साहब के पास भेजा है। यह बताओ कि इस वक्त कुछ खाने को है?

महरी ने शाह जी के बावरचीखाने से चार मोटी-मोटी रोटियाँ और एक प्याला मसूर की दाल का ला कर रख दिया। दोनों महरियाँ खाना ले कर बँगले में पहुँचीं तो सुरैया बेगम ने पूछा - कहो, बेटा कि बेटी?

ममोला - हुजूर, फकीरों के दरबार से भला कोई खाली हाथ आता है? लीजिए, वह मोटे-मोटे टिक्कड़ हैं।

मौलाई - इस वक्त यही गनीमत हैं।

ममोला - बेगम साहब आपसे एक अरज है।

सुरैया - क्या है, कहो तुम्हारी बातों से हमें उलझन होती हैं।

ममोला - हुजूर, जब हम खाना लेके आते थे तो देखा कि बाग के दरवाजे पर एक बेकस, बेगुनाह, बेचारा दबका दबकाया खड़ा भीग रहा है।

सुरैया - फिर तुमने वही पाजीपने की ली न! चलो हटो सामने से।

मौलाई - बहन, खुदा के लिए इतना कह दो कि जहाँ सिपाही बैठे हैं, वहीं उसे भी बुला लें।

सुरैया - फिर मुझसे क्या कहती हो?

सिपाहियों ने दीवाने को बुला कर बैठा लिया। उसने यहाँ आते ही तान लगाई -

पसे फिना हमें गरदूँ सताएगा फिर क्या,मिटे हुए को यह जालिम मिटाएगा फिर क्या?जईफ नालादिल उसका हिला नहीं सकता,यह जाके अर्श का पाया हिलाएगा फिर क्या?शरीक जो न हुआ एक दम को फूलों में,वह फूल आके लेहद के उठाएगा फिर क्या?खुदा को मानो न बिस्मिल को अपने जबह करो,तड़प के सैर वह तुमको दिखाएगा फिर क्या?

सुरैया - देखा न। यह कंबख्त बे गुल मचाए कभी न रहेगा।

मौलाई - बस यही तो इसमें ऐब है। मगर गजल भी ढूँढ़ के अपने ही मतलब की कही है।

सुरैया - कंबख्त बदनाम करता फिरता है।

दोनों बेगमों ने हाथ धोया। उस वक्त वहाँ मसूर की दाल और रोटी पोलाव और कोरमे को मात करती थी। उस पर माली ने कैथे की चटनी तैयार कराके महरी के हाथ भेजवा दी। इस वक्त इस चटनी ने वह मजा दिया कि कोई सुरैया बेगम की जबान से सुने।

मौलाई - माली ने इनाम का काम किया है इस वक्त।

सुरैया - इसमें क्या शक। पाँच रुपए इनाम दे दो।

जब खुदा खुदा करके मेंह थमा और चाँदनी निखरी तो सुरैया बेगम ने महरी भेजी कि शाह जी का हुक्म हो तो हम हाजिर हों। वहाँ महरी ने कहा - हाँ, शौक से आएँ; पूछने की क्या जरूरत है।

सुरैया बेगम ने आँखें बंद कीं और शाह जी के पास गईं। आजाद ने उन्हें देखा तो दिल का अजब हाल हुआ। एक ठंडी साँस निकल आई। सुरैया बेगम घबराईं कि आज शाह साहब ठंडी साँसें क्यों ले रहे हैं। आँखें खोल दीं तो सामने आजाद को बैठे देखा। पहले तो समझीं कि आँखों ने धोखा दिया, मगर करीब से गौर करके देखा तो शक दूर हो गया।

उधर आजाद की जबान भी बंद हो गई। लाख चाहा कि दिल का हाल कह सुनाएँ, मगर जबान खोलना मुहाल हो गया। दोनों ने थोड़ी देर तक एक दूसरे को प्यार और हसरत की नजर से देखा, मगर बातें करने की हिम्मत न पड़ी। हाँ, आँखों पर दोनों में से किसी को अख्तियार न था। दोनों की आँखों से टप-टप आँसू गिर रहे थे। एकाएक सुरैया बेगम वहाँ से उठ कर बाहर चली आईं।

ममोला ने पूछा - बेगम साहब, आज इतनी जल्दी क्यों की?

सुरैया - यों ही।

मौलाई - आँखों में आँसू क्यों हैं? शाह साहब से क्या बातें हुई?

सुरैया - कुछ, नहीं बहन, शाह साहब क्या कहते, जी ही तो है।

मौलाई - हाँ, मगर खुशी और रंज के लिए कोई सबब भी तो होता है।

सुरैया - बहन, हमसे इस वक्त सबब न पूछो। बड़ी लंबी कहानी है।

मौलाई - अच्छा, कुछ करत-ब्योंत करके कह दो।

सुरैया - बहन, बात सारी यह है कि इस वक्त शाह जी तक ने हमसे चाल की। जो कुछ हमने इस वक्त देखा, उसके देखने की तमन्ना बरसों से थी, मगर अब आँखें फेर-फेरके देखने के सिवा और क्या है?

मौलाई - (सुरैया के गले में हाथ डाल कर) क्या, आजाद मिल गए क्या?

सुरैया - चुप-चुप! कोई सुन न ले।

मौलाई - आजाद इस वक्त कहाँ से आ गए! हमें भी दिखला दो।

सुरैया - रोकता कौन है। जाके देख लो।

मौलाई बेगम चलीं तो सुरैया बेगम ने इनका हाथ पकड़ लिया और कहा - खबरदार, मेरी तरफ से कोई पैगाम न कहना।

मौलाई बेगम कुछ हिचकती, कुछ झिझकती आ कर आजाद से बोलीं - शाह जी कभी और भी इस तरफ आए थे?

आजाद - हम फकीरों को कहीं आने-जाने से क्या सरोकार। जिधर मौज हुई चल दिए। दिन को सफर, रात को खुदा की याद। हाँ, गम है तो यह कि खुदा को पाएँ।

मौलाई - सुनो शाह जी, आपकी फकीरी को हम खूब जानते हैं। यह सब काँटे आप ही के बोए हुए हैं। और अब आप फकीर बन कर यहाँ आए हैं। यह बतलाइए कि आपने उन्हें जो इतना परेशान किया तो किस लिए? इससे आपका क्या मतलब था?

आजाद - साफ-साफ तो यह है कि हम उनसे फकत दो-दो बातें करना चाहते हैं।

मौलाई - वाह, जब आँखें चार हुईं तब तो कुछ बोले नहीं; और वह बातें हुईं भी तो नतीजा क्या? उनके मिजाज को तो आप जानते हैं। एक बार जिसकी हो गईं, उसकी हो गईं।

आजाद - अच्छा, एक नजर तो दिखा दो।

मौलाई - अब यह मुमकिन नहीं। क्यों मुफ्त में अपनी जान को हलाकान करोगे।

आजाद - तो बिलकुल हाथ धो डालें? अच्छा चलिए, बाग में जरा दूर ही से दिल के फफोले फोड़ें।

मौलाई - वाह-वाह! जब बाग में हों भी।

आजाद - अच्छा साहब, लीजिए, सब्र करके बैठे जाते हैं।

मौलाई - मैं जा कर कहती हूँ, मगर उम्मेद नहीं कि मानें।

यह कह कर मौलाई बेगम उठीं और सुरैया बेगम के पास आ कर बोलीं - बहन, अल्लाह जानता है, कितना खूबसूरत जवान है।

सुरैया - हमारा जिक्र भी आया था? कुछ कहते थे?

मौलाई - तुम्हारे सिवा और जिक्र ही किसका था? बेचारे बहुत रोते थे। हमारी एक बात इस वक्त मानोगी? कहूँ?

सुरैया - कुछ मालूम तो हो, क्या कहोगी?

मौलाई - पहले कौल दो, फिर कहेंगे; यों नहीं।

सुरैया - वाह! बे-समझे-बूझे कौल कैसे दे दूँ?

मौलाई - हमारी इतनी खातिर भी न करोगी बहन!

सुरैया - अब क्या जानें, तुम क्या ऊल-जलूल बात कहो।

मौलाई - हम कोई ऐसी बात न कहेंगे जिससे नुकसान हो।

सुरैया - जो बात तुम्हारे दिल में है वह मेरे नाखून में है।

मौलाई - क्या कहना है। आप ऐसी ही हैं।

सुरैया - अच्छा, और सब तों मानेंगे सिवा एक बात के।

मौलाई - वह एक बात कौन सी है, हम सुन तो लें।

सुरैया - जिस तरह तुम छिपाती हो उसी तरह हम भी छिपाते हैं।

मौलाई - अल्लाह को गवाह करके कहती हूँ, रो रहा है। मुझसे हाथ जोड़ कर कहा है कि जिस तरह मुमकिन हो, मुझसे मिला दो। मैं इतना ही चाहता हूँ कि नजर भर कर देख लूँ।

सुरैया - क्या मजाल, ख्वाब तक में सूरत न दिखाऊँ।

मौलाई - मुझे बड़ा तरस आता है।

सुरैया - दुनिया का भी तो खयाल है।

मौलाई - दुनिया से हमें क्या काम? यहाँ ऐसा कौन आता-जाता है। डर काहे का है, चलके जरा देख लो, उसका अरमान तो निकल जाय।

सुरैया - ना, मुमकिन नहीं। अब यहाँ से चलोगी भी या नहीं?

मौलाई - हम तो तब तक न चलेंगे, जब तक तुम हमारा कहना न मानोगी।

सुरैया - सुनो मौलाई बेगम, हर काम का कोई न कोई नतीजा होता है। इसका नतीजा तुम क्या सोची हो?

मौलाई - उनका दिल खुश होगा। इस वक्त वह आपे में नहीं हैं, मगर जब इस मामले पर गौर करेंगे तो उन्हें जरूर रंज होगा।

दोनों बेगम पालकियों पर बैठ कर रवाना हुई। आजाद ने मकान की दीवार से सुरैया बेगम को देखा और ठंडी साँस ली।

***