Azad Katha - 2 - 93 in Hindi Fiction Stories by Munshi Premchand books and stories PDF | आजाद-कथा - खंड 2 - 93

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आजाद-कथा - खंड 2 - 93

आजाद-कथा

(खंड - 2)

रतननाथ सरशार

अनुवाद - प्रेमचंद

प्रकरण - 93

सुरैया बेगम के यहाँ वही धमाचौकड़ी मची थी। परियों का झुरमुट, हसीनों का जमघट, आपस की चुहल और हँसी से मकान गुलजार बना हुआ था। मजे-मजे की बातें हो रही थीं कि महरी ने आ कर कहा - हुजूर, रामनगर से असगर मियाँ की बीवी आई हैं। अभी-अभी बहली से उतरी हैं। जानी बेगम ने पूछा - असगर मियाँ कौन हैं? कोई देहाती भाई हैं? इस पर हशमत बहू ने कहा, बहन वह कोई हों। अब तो हमारे मेहमान हैं। फीरीजा बेगम बोलीं - हाँ-हाँ तमीज से बात करो, मगर वह जो आई है, उनको नाम क्या है? महरी ने आहिस्ता से कहा - फैजन। इस पर दो-तीन बेगमों ने एक दूसरे की तरफ देखा।

हशमत बहू - वाह, क्या प्यारा नाम है। फैजन, कोई मिरासिन हैं क्या?

सुरैया बेगम - तुम आज लड़वाओगी। जानी बेगम कौन सा अच्छा नाम है।

फीरोजा - देहात के तो यही नाम हैं, कोई जैनब है, कोई जीनत, कोई फैजन।

सुरैया बेगम - फैजन बड़ी अच्छी औरत है। न किसी के लेने में, न देने में।

इतने में बी फैजन तशरीफ लाई और मुसकिरा कर बोलीं - मुबारक हो!

यहाँ जितनी बेगमें बैठी थीं सब मुँह फेर-फेर कर मुसकिराईं। बी फैजन के पहनावे से ही देहातीपन बरसता था।

फैजन - बहन, आज ही बरात आएगी न, कौन-कौन रस्म हुई? हम तो पहले ही आते, मगर हमारे देवर की तबियत अच्छी न थी।

फीरोजा - बहन, तुम्हारा नाम क्या है?

फैजन - फैजन।

फीरोजा - और तुम्हारे मियाँ का नाम?

फैजन - हमारे यहाँ मियाँ का नाम नहीं लेते। तुम अपने मियाँ का नाम बताओ!

फीरोजा बेगम ने तड़ से कहा - असगर मियाँ। इस पर वह फर्मायशी कह कह पड़ा कि दूर तक आवाज गई। फैजन दंग हो गईं और दिल ही दिल में सोचने लगीं कि इस शहर की औरतें बड़ी ढीठ है। मैं इनसे पेश न पाऊँगी।

हशमत बहू - तो असगर मियाँ बी फैजन के मियाँ हैं। या तुम्हारे मियाँ, पहले इसका फैसला हो जाय।

फीरोजा - ऐ है, इतना भी न समझीं, पहले इनसे निकाह हुआ था, फिर हमसे हुआ और अब असगर मियाँ के दो महल हैं, एक तो ये बेगम, दूसरे हम।

इस पर फिर कहकहा पड़ा, फैजन के रहे-सहे हवास भी गायब हो गए। अब इतनी हिम्मत भी न थी कि जबान खोल सकें। जानी बेगम ने कहा - क्यों फैजन बहन, तुम्हारे यहाँ कौन-कौन रस्में होती हैं? हमारे यहाँ तो दूल्हा लड़की के घर जा कर देख आता है, बस फिर बात तै हो जाती है।

फैजन - क्या यहाँ मियाँ पहले ही देख लेते हैं? हमारे यहाँ तो नव बरस भी ऐसा न हो।

फीरोजा - यह नव बरस क्या, क्या यह भी कोई टोटका है? नव बरस की कैद मुई कैसी!

फैजन - बहन, हम मुई-टुई क्या जानें।

यह सुन कर हमजोलियाँ और भी हँसीं।

फीरोजा - यह महरी मुई-टुई कहाँ चली गई? एक भी मुई-टुई दिखाई नहीं देती।

हशमत बहू - हमका मालूम है, मगर हम न बताउब!

फीरोजा - अरे मुई-टुई पंखिया कहाँ गायब हो गई?

हशमत बहू - जिस मुई-टुई को गर्मी मालूम हो वह ढूँढ़ ले।

इतने में जुलूस सजा और दुलहिन के हाथ दूल्हा के लिए सेहरा गया। चाँदी की खुशनुमा किश्तियों में फूलों के हार, बुद्धियाँ और जड़ाऊ सेहरा। इसके बाद डोमिनियों का गाना होने लगा। फैजन ने कहा - हमने तो यहाँ की बड़ी तारीफ सुनी है। इस पर एक बूढ़ी औरत ने पोपले मुँह से कहा - ऐ हुजूर, अब तो नाम ही नाम है, नहीं तो हमारे लड़कपन में डोमिनियों का मुहल्ला बड़ी रौनक पर था। यह महबूबन जो सामने बैठी हैं, इनकी दादी का वह दौर दौरा था कि अच्छे-अच्छे शाहजादे सिर टेक कर आते थे। एक बार बादशाह तक उनके यहाँ आए थे। हाथी वहाँ तक नहीं जा सकता था। हुक्म दिया कि मकान गिरा दिए जायँ और चौगुना रुपया मालिकों को दिया जाय। एक बूढ़ी औरत जिसकी भवें तक सफेद थीं, हाथी की सूँड़ पकड़ कर खड़ी हो गई और कहा - मैं हाथी को आगे न बढ़ने दूँगी। मेरे बुजुर्गों की हड्डियाँ खोदके फेंक दी गईं। यह मकान मेरे बुजुर्गों की हड्डी है। बादशाह ने उसके बुजुर्गों के नाम से खैरात खाना जारी कर दिया। जब बादशाह का घोड़ा महबूबन की दादी के मकान पर पहुँचा, तो दस-बारह हजार आदमी गली में खड़े थे। मगर वाह री जहूरन! इतना सब कुछ होते भी गरूर छू न गया था। बरसात के दिन थे, बादशाह ने कहा - जहूरन, जब जाने कि मेंह बरसा दो। मुसकिरा कर कहा - हुजूर, लौंडी एक अदना सी डोमिनी है, मगर खुदा के नजदीक कुछ मुश्किल नहीं है। यह कह कर तान ली -

'आयो बदरा कारे-कारे रही बिजली चमक मोरे आँगन में'

बस पच्छिम तरफ के झूमती हुई घटा उठी। स्याही छलकने लगी। जहूरन को खुदा बक्शे, फिर तान लगाई और मूसलाधार मेंह बरसने लगा, ऐसा बरसा कि दरिया बढ़ गया और तालाब से दरिया तक पानी ही पानी नजर आता था? जब तो यहाँ कि डोमिनियाँ मशहूर हैं। और अब तो खुदा का नाम है। इतनी डोमिनियाँ बैठी हैं कोई गाए तो?

खुदारा जल्द ले आ कर खबर तू ऐ मेरे ईसा;तेरे बीमार का अब कोई दम में दम निकलता है।नसीहत दोस्तो करते हो पर इतना तो बतलाओ,कहीं आया हुआ दिल भी सँभाले से सँभलता है।

महबूबन - बड़ी गलेबाज हैं आप, और क्यों न हो, किनकी-किनकी आँखें देखी हैं। हम क्या जानें।

हैदरी - हम लोगों के गले इसी सिन में काम नहीं करते, जब इनकी उम्र को पहुँचेंगे तो खुदा जाने क्या हाल होगा।

बुढ़िया कब्र में एक पाँव लटकाए बैठी थी। सिर हिलता था, लठिया टेक के चलती थीं, मगर तबीयत ऐसी रंगीन की जवानों को मात करती थी। सबेरे उबटन न मले तो चैन न आए। पट्टियाँ जरूर जमाती थी, तो बहुत ही खुशमिजाज और हँस-मुख थी, मगर जहाँ किसी ने इसको बूढ़ी कहा, बस, फिर अपने आपे में नहीं रहती थी। फीरोजा ने छेड़ने के लिए कहा - तुमने जो जमाना देखा है वह हम लोगों को कहाँ नसीब होगा। कोई सौ बरस का सिन होगा, क्यों?

बुढ़िया ने पोपले मुँह से कहा - अब इसका मैं क्या जवाब दूँ, बूढ़ी मैं काहे से हो गई, बालों पर नजला गिरा, सफेद हो गए, इससे कोई बूढ़ा हो जाता है!

शाम से आधी रात तक यही कैफियत, यही मजाक, यही चहल-पहल रही। नई दुलहिन गोरी-गोरी गरदन झुकाए, प्यारा-प्यारा मुखड़ा छिपाए, अदब और हया के साथ चुप-चाप बैठी थी, हमजोलियाँ चुपके-चुपके छेड़ती जाती थीं। आधी रात के वक्त दुलहिन को बेसन मल-मल कर नहलाया गया। हिना का इत्र, सुहाग, केवड़ा और गुलाब बदन से मला गया। इसके बाद जोड़ा पहनाया गया! हरे बाफते का पैजामा, सूहे की कुरती, सूहे की ओढ़नी, बसंती रंग का काश्मीरी दुशाला ओढ़ाया गया। भावजों ने मेढ़ियाँ गूँथी थीं, अब जेवर पहनाने बैठीं। सोने के पाजेब, छागल के कड़े दसों पोरों में छल्ले, हाथों में चूहेदंत्तियाँ, जड़ाऊ कंगन, सोने के कड़े, गले में मोतियों का हार, कानों में करनफूल और बाले, सिर पर छपका और सीसफूल माँग में मोतियों की लड़ी देख कर नजर का पाँव फिसला जाता था। जवाहिरात की चमक-दमक से गुमान होता था कि जमीन पर चाँद निकल आया।

जानी बेगम - चौथी के दिन और ठाट होंगे, आज क्या है।

फैजन - आज कुछ हई नहीं। ऐसा महकौवा इत्र कभी नहीं सूँघा।

इस पर सब खिलखिला कर हँस पड़ीं।

हशमत बहू - बी फैजन की बातों से दिल की कली खिल जाती है।

फीरोजा - कैसी कुछ, और चंचल कैसी हैं, रग-रग में शोखी है।

जानी बेगम - बहन फैजन, हम तुम्हारे मियाँ के साथ निकाह पढ़वा लें, बुरा तो न मानोगी?

फीरोजा - दो दिल राजी तो क्या करेगा काजी।

हशमत बहू - बहन, तुम्हारी आँखों का पानी बिलकुल ढल गया। हया भून खाई।

महरी - हुजूर, यही तो दिन हँसी-मजाक के हैं। जब हम इन सिनों थे तो हमारी भी यही कैफियत थी।

इतने में एक हमजोली ने आ कर कहा - फीरोजा बेगम, वह आई हैं मुबारक महल। उनके सामने जरी ऐसी बातें न करना, वह बड़ी नाजुक मिजाज हैं। इतनी बेलिहाजी अच्छी नहीं होती।

फीरोजा - तो तुम जाके अदब से बैठों। तुम्हारा वजीफा आज से बँध जायगा।

मुबारक महल आईं और सबसे गले मिल कर सुरैया बेगम के पास जा बैठीं।

मुबारक महल - हमने सुरैया बेगम को आज ही देखा, खुदा मुबारक करे।

फीरोजा - ऐ सुरैया बेगम, जरी गरदन ऊँची करो, वाह यह तो और झुकी जाती हैं। हम तो सीना तानके बैठे थे, क्या किसी का डरा पड़ा है।

हशमत - तुम तो अँधेर करती हो, नई दुलहिन कहीं अकड़ कर बैठती हैं?

महरी - ऐ हाँ हुजूर, दुलहिन कहीं तन कर बैठती है! क्या कुछ नई रीति है।

फीरोजा - अच्छा साहब, यो ही सही, जरी और झुक जाओ।

एकाएक बाजे की आवाज आई। दूल्हा के यहाँ से दुलहिन को सेहरा बड़े ठाट से आ रहा था। जब सेहरा अंदर आया तो सुरैया बेगम की माँ ने कहा, अब इस वक्त कोई छींके-मीकें नहीं। सेहरा अंदर आता है।

सेहरा अंदर आया। दूल्हा के बहनोई ने साली के सिर पर सेहरा बाँधा और सास से नेग माँगा।

सास - हाँ-हाँ, बाँध लो, इस वक्त तुम्हारा हक है।

बहनोई - इन चकमों में न आऊँगा। लाइए, नेग लाइए।

हशमत - हाँ, बेझगड़े न मानना दूल्हा भाई।

बहनोई - मान चुका, तोड़ों के मुँह खोलिए। अब देर न कीजिए।

सुरैया बेगम की माँ ने पाँच अशर्फियाँ दीं। वह तो ले कर बाहर गए। इधर दूल्हा के यहाँ की ओढ़नी दुलहिन को ओढ़ाई गई। पायजामे में नाड़े की इक्कीस गिरहें दी गई। परदा डाला गया। दुलहिन एक पलंग पर बैठी। फूलों के तौक और बद्धियाँ पहनाई गईं। फूलों का तुर्रा बाँध गया। अब बरात के आने का इंतजार था।

फीरोजा- क्यों बहन फैजन, सच कहना, इस वक्त दुलहिन पर कैसा जोबन है?

फैजन - वह तो यों ही खूबसूरत हैं!

फीरोजा - बरात बड़े धूम से आयगी, हमने चाहा था कि मुन्ने मियाँ के यहाँ से बरात का ठाट देखें।

हशमत बहू - ऐ तो बरात यहीं से क्यों न देखो। महरी, जा के देखो, चिकें सब दुरुस्त हैं ना।

महरी - हुजूर, सब सामान लैस है।

फीरोजा बेगम उस कमरे की तरफ चलीं जहाँ से बरात देखने का बंदोबस्त था। लेकिन जब कमरे में गईं और नीचे झाँक के देखा तो सहम कर बोलीं, ओफ्फोह, इतना ऊँचा कमरा, मैं तो मारे डर के गिर पड़ी होती। जानी बेगम ने जब सुना कि वह डर गईं तो आड़ें हाथों लिया - हमने सुना, आप इस वक्त सहम गईं, वाह!

फीरोजा - खुदा गवाह है, दिल्लगी न करो, मेरे होश ठिकाने नहीं।

जानी बेगम - चलो, बस ज्यादा मुँह न खुलवाओ।

फीरोजा - अच्छा, जाके झाँको तो मालूम हो।

हशमत बहू - हम भी चलते हैं। हम भी झाँकेंगे।

महरी - न बीबी, मैं झाँकने को न कहूँगी। एक बार का जिक्र सुनो कि मैं ताजबीबी का रोजा देखने गई। अल्लाह री तैयारी, रोजा क्या सचमुच बिहिश्त है। फिरंगी तक जब आते हैं तो मारे रोब के टोपी उतार लेते हैं। मेरे साथ एक बेगम भी थीं, जब रोजे के फाटक पर पहुँचे तो मुजाविर बाहर चले गए। मालियों को हुक्म हुआ कि पीठ फेर कर काम करें, गँवारों से परदा क्या।

फीरोजा - उहँ, परदा दिल का।

हशमत - फिर मुजाविरों को क्यों हटाया?

महरी - वह आदमी हैं और माली जानवर, भला इन मजदूरों से कौन परदा करता है। अच्छा, यह तो बताओ कि दुलहिन को कहाँ से बरात दिखाओगी?

हशमत - हमारे यहाँ की दुलहिनें बरात नहीं देखा करतीं।

फीरोजा - वाह, क्या अनोखी दुलहिन हैं!

जानी बेगम - जिस दिन तुम दुलहिन बनी थीं, उस दिन बरात देखी होगी।

फीरोजा - हाँ-हाँ, न देखना क्या माने। हमने अम्माँजान से कहा कि हमको दूल्हा दिखा दो, नहीं हम शादी न करेंगे। उन्होंने कहा, अच्छा झरोखे से बरात देखो, हमने देखी। हमारे मियाँ घोड़े पर अकड़े बैठे थे। एक फूल उनके सिर पर मारा।

हशमत - क्यों नहीं, शाबाश, क्या कहना!

जानी बेगम - फूल नाहक मारा, एक जूता खींच मारा होता।

फीरोजा - खूब याद दिलाया, अब सही।

जानी बेगम - अच्छा महरी, तुमने उन बेगम साहब का जिक्र छेड़ा था जिनके साथ ताजबीबी का रोजा देखने गई थी। फिर क्या हुआ?

महरी - हाँ, खूब याद आया। हम लोग एक बुर्ज पर चढ़ गए, मैं क्या कहूँ हुजूर, कम से कम होंगे तो कोई सात-आठ सौ जीने होंगे।

फीरोजा - ओफ्फोह, इतना झूठ, अच्छा फिर क्या हुआ, कहती जाओ।

महरी - खैर, दम ले-ले के फिर चढ़े, जब धुर पर पहुँचे तो दम नहीं बाकी रहा कि जरा हिल भी सकें। बेगम साहब ने ऊपर से नीचे को झाँका तो गश आ गया, धम से गिरीं।

हशमत बहू - हाय-हाय! मरीं कि बची?

महरी - बच जाने की एक ही कही। हड्डी-पसली चूर हो गई।

फीरोजा - मैंने कहा तो किसी को यकीन नहीं आया। अल्लाह जानता है, इतने ऊँचे पर से जो सड़क देखी होश उड़ गए।

जानी बेगम - जाने दो भई, अब उसका जिक न करो, चलो दुलहिन के पास बैठो।

खबरें आने लगीं कि आज तक इस शहर में ऐसी बरात किसी ने नहीं देखी थी। एक नई बात यह है कि गोरों का बाजा है। हजारों आदमी गोरों का बाजा सुनने आए हैं। छतें फटी पड़ती हैं, एक-एक कमरा चौक में आज दो-दो अशर्फियाँ किराए पर नहीं मिलता। सुना कि बरात के साथ नई रोशनी है जिसकी गैस लाइट बालते हैं।

फीरोजा - उस रोशनी और इस रोशनी में क्या फर्क है?

महरी - ऐ हुजूर, जमीन ओर आसमान का फर्क है। यह मालूम होता है कि दिन है।

***