Azad Katha - 2 - 88 in Hindi Fiction Stories by Munshi Premchand books and stories PDF | आजाद-कथा - खंड 2 - 88

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आजाद-कथा - खंड 2 - 88

आजाद-कथा

(खंड - 2)

रतननाथ सरशार

अनुवाद - प्रेमचंद

प्रकरण - 88

आध कोस चलने के बाद इन चोरों ने सुरैया बेगम को दो और चोरों के हवाले किया। इनमें एक का नाम बुधसिंह था, दूसरे का हुलास। यह दोनों डाकू दूर-दूर तक मशहूर थे, अच्छे-अच्छे डकैत उनके नाम सुन कर अपने कान पकड़ते थे। किसी आदमी की जान लेना उनके लिए दिल्लगी थी। सुरैया बेगम काँप रही थी कि देखें आबरू बचती है या नहीं। हुलास बोला, कहो बुद्धसिंह, अब क्या करना चाहिए?

बुद्धसिंह - अपनी तो यह मरजी है कि कोई मनचला मिल जाए तो उसी दम पटील डालो।

हुलास - मैं तो समझता हूँ, यह हमारे साथ रहे तो अच्छे-अच्छे शिकार फँसे। सुनो बेगम, हम डकैत हैं, बदमाश नहीं। हम तुम्हें किसी ऐसे जवान के हाथ बेचेंगे, जो तुम्हें अमीरजादी बना कर रखे। चुपचाप हमारे साथ चली आओ।

चलते चलते तीनों आमों के एक बाग में पहुँचे। दोनों डाकू तो चरस पीने लगे, सुरैया बेगम सोचने लगी - खुदा जाने, किसके हाथ बेचें, इससे तो यही अच्छा है कि कत्ल कर दें। इतने ही में दो आदमी बातें करते हुए निकले -

एक - मिर्जा जी, दो बदमाशों से यह शहर पाक हो गया। आजाद और शह-सवार। दोनों ही कालेपानी गए। अब दो मुड्ढा और बाकी हैं।

मिर्जा - वह दो कौन है?

पहला - वही हुलास और बुद्धसिंह। अरे, वह दोनों तो यहीं बैठे हुए हैं! क्यों यारो, चरस के दम उड़ रहे हैं? तुम लोगों के नाम वारंट जारी है।

हुलास - मीर साहब, आप भी बस वही रहे। पड़ोस में रहते हो, फिर भी वारंट से डराते हो? ऐसे-ऐसे कितने वारंट रोज ही जारी हुआ करते हैं। हमसे और पुलिस से तो जानी दुश्मनी है, मगर कसम खाके कहता हूँ कि अगर पचास आदम भी गिरफ्तार करने आएँ तो हमारी गर्द तक न पाए। हम दोनों एक पलटन के लिए काफी हैं। कहिए, आप लोग कहाँ जा रहे हैं?

मिर्जा - अजी, हम भी किसी शिकार ही के तलाश में निकले हैं।

जब मीर और मिर्जा चले गए तो दोनों चोर भी सुरैया बेगम को ले कर चले। इत्तिफाक से उसी वक्त एक सवार आ निकला। बुद्धसिंह ने साईस को तो मार गिराया और मुसाफिर से कहा, अगर आबरू के साथ घोड़ा नजर करो तो बेहतर है, नहीं तो तुम भी जमीन पर लोट रहे होगे। सवार बेचारा उतर पड़ा। हुलास ने तब सुरैया बेगम को घोड़े पर सवार किया और लगाम ले कर चलने लगा।

सुरैया बेगम दिल में सोचती थी कि इतनी ही उम्र में हमने क्या-क्या देखा। यह नौबत पहुँची है कि जान भी बचती दिखाई नहीं देती।

हुलास - बीबी, क्या सोचती जाती हो? कुछ गाना जानती हो तो गाओ। इस जंगल में मंगल हो।

बुद्धसिंह - इससे कहो कि कोई भजन गाए।

हुलास - इनको गजलें याद होंगी या ठुमरी-टप्पा। यह भजन क्या जानें!

सुरैया - नहीं मियाँ, हमें कुछ नहीं आता, हम बहू-बेटियाँ गाना क्या जानें।

इतने में किसी की आवाज आई। हुलास ने बुद्धसिंह से पूछा, यह किसकी आवाज आई?

बुद्धसिंह - अरे, कौन सा आदमी बोला था?

आवाज - जरा इधर तक आ जाओ। मैं मिर्जा हूँ, जरा सुन लो।

हुलास और बुद्धसिंह दोनों आवाज की तरफ चले, इधर-उधर देखा, कोई न मिला। सुरैया बेगम का कलेजा धड़कने लगा। मारे डर के आँखें बंद कर लीं और आहिस्ता-आहिस्ता दोनों को पुकारने लगीं। हाय! खुदा किसी को मुसीबत में न डाले। यह दोनों डाकू उसको बेचने की फिक्र में थे, और इसने मुसीबत के वक्त उन्हीं दोनों को पुकारा। वह आवाज की तरफ कान लगाए हुए चले तो देखा कि एक बूढ़ा आदमी घास पर पड़ा सिसक रहा है। इनको देख कर बोला, बाबा, मुझ फकीर को जरा सा पानी पिलाओ। बस, मैं पानी पी कर इस दुनिया से कूच कर जाऊँगा। फिर किसी को अपना मुँह न दिखाऊँगा।

हुलास ने उसे पानी पिलाया, पानी पी कर वह बोला, बाबा, खुदा तुम्हें इसका बदला दे। इसके एवज तुम्हें क्या दूँ। खैर, अगर दो घंटे भी जिंदा रहा तो अपना कुछ हाल तुमसे बयान करूँगा और तुम्हें कुछ दूँगा भी।

हुलास - आपके पास जो कुछ जमा-जथा हो वह हमको बता दीजिए।

बूढ़ा - कहा न कि दो घंटे भी जिंदा रहा तो सब बातें बता दूँगा। मैं सिपाही हूँ, लड़कपन से यही मेरा पेशा है।

हुलास - आपने तो एक किस्सा छेड़ दिया, मुझे खौफ है कि ऐसा न हो कि आपकी जान निकल जाय तो फिर वह रुपया वहीं का वहीं पड़ा रहे।

बूढ़ा (गा कर) - पहुँची न राहत हमसे किसी को...

हुलास - जनाब, आपको गाने को सूझती है और हम डर रहे हैं कि कहीं आप का दम न निकल जाय। रुपए बता दो, हम बड़ी धूमधाम से तुम्हारा तीजा करेंगे।

बुद्धसिंह - पानी और पिलवा दो तो फिर खूब ठंडा हो कर बताएगा।

बूढ़ा - मेरा एक लड़का है, दुनिया में ओर कोई नहीं। बस यही एक लड़का, जवान, खूबसूरत, घोड़े पर खूब सवार होता था।

सुरैया - फिर अब कहाँ है वह?

बूढ़ा - फौज में नौकर था। किसी बेगम पर आशिक हुआ, तब से पता नहीं। अगर इतना मालूम हो जाय कि उसकी जान निकल गई तो कब्र बनवा दूँ।

सुरैया - लंबे हें या ठिंगने?

बूढ़ा - लंबा है। चौड़ा सीना, ऊँची पेशानी, गोरा रंग।

सुरैया - हाय-हाय? क्या बताऊँ बड़े मियाँ, मेरा उनका बरसों साथ रहा है। मेरे साथ निकाह होने को था।

बूढ़ा - बेटा, जरी हमारे पास आ जाओ। कुछ उसका हाल बताओ। जिंदा तो है?

सुरैया - हाँ, इतना तो मैं कह सकती हूँ कि जिंदा हैं।

बूढ़ा - अब वह है कहाँ? जरा देख लेता तो आरजू पूरी हो जाती।

हुलास - आपका सर दबा दूँ, तलुवे मलूँ, जो खिदमत कहिए करूँ।

बूढ़ा - नहीं, मौत का इलाज नहीं है। मैंने अपने लड़के को लड़ाई के फन खूब सिखाए थे। हर एक के साथ मुरौवत से पेश आता था। बस, इतना बता दो कि जिंदा है या मर गया?

सुरैया - जिंदा हैं और खुश हैं।

बूढ़ा - अब मैं अपनी सारी तकलीफें भूल गया। ख्याल भी नहीं कि कभी तकलीफ हुई थी।

ये बातें हो रही थीं कि पचास आदमियों ने आ कर इन लोगों को चारों तरफ से घेर लिया। दोनों डाकुओं की मुश्कें कस ली गईं। बुद्धसिंह मजबूत आदमी था। रस्सी तोड़ कर, तीन सिपाहियों को जख्मी किया और भाग कर झील में कूद पड़ा, किसी की हिम्मत न पड़ी कि झील में कूद कर उसे पकड़े। हुलास बँधा रह गया।

यह पुलिस का इंस्पेक्टर था।

सुरैया बेगम हैरान थीं कि यह क्या माजरा है। इन लोगों को डाकुओं की खबर कैसे मिल गई। चुपचाप खड़ी थी कि सिपाहियों ने उससे हँसी-दिल्लगी करनी शुरू की। एक बोला, वाह-वाह, यह तो कोई परी है भाई। दूसरा बोला, अगर ऐसी सूरत कोई दिखा दे तो महीने की तनख्वाह हार जाऊँ।

हुलास - सुनते हो जी, उस औरत से न बोलो, तुमको हमसे मतलब है या उससे।

इंस्पेक्टर - इसका जवाब तो यह है कि तेरे एक बीस लगाए और भूल जाय तो फिर से गिने। आँखें नीची कर, नहीं खोद के गाड़ दूँगा।

सुबह के वक्त शहर में दाखिल हुए तो सुरैया बेगम ने चादर से मुँह छिपा लिया। इस पर एक चौकीदार बोला, सत्तर चूहे खाके बिल्ली हज को चली! ओढ़नी मुँह पर ढाँपती है, हटाओ ओढ़नी।

सुरैया बेगम की आँखों से आँसू जारी हो गए। उसके दिल पर जो कुछ गुजरती थी, उसे कौन जान सकता है। रास्ते में तमाशाइयों में बातें होने लगीं!

रँगरेज - भई, यह दुपट्टा कितना अच्छा रँगा हुआ है!

नानबाई - कहाँ से आते हो जवानो? क्या कहीं डाका पड़ा था?

शेख जी - अरे यारो, यह नाजनीन कौन है? क्या मुखड़ा है, कसम खुदा की, ऐसी सूरत कभी न देखी थी। बस, यही जी चाहता है कि इससे निकाह पढ़वा लें। यह तो शब्बोजान से भी बढ़ कर है।

यह शेख जी वही वकील साहब थे जिनके यहाँ अल्लारक्खी शब्बोजान बन कर रही थी। सलारू भी साथ था। बोला, मियाँ, आँखों वाले तो बहुत देखे, मगर आपकी आँख निराली है।

वकील - क्यों बे बदमाश, फिर तूने गुस्ताखी की।

सलारू - जब कहेंगे, खरी कहेंगे। आप थाली के बैंगन हैं।

वकील साहब इस पर झल्ला कर दौड़े। सलारू भागा, आप मुँह के बल गिरे।

इस पर लोगों ने कहकहा मारा। सुरैया बेगम सोच रही थीं कि मैंने इस आदमी को कहीं देखा है, पर याद न आता था।

यह लोग और आगे चले तो तरह-तरह की अफवाहें उड़ने लगीं। एक मुहल्ले में यह खबर उड़ी कि दरिया से एक घोड़मुँहा आदमी निकाला गया है। उसी के साथ एक परी भी निकली है। दो-तीन मुहल्लों में यह अफवाह उड़ी कि एक औरत अपने घर से जेवर ले कर भाग गई थी, अब पकड़ी गई है। नौ बजते-बजते यह लोग थाने में जा पहुँचे। हुलास और सुरैया बेगम हवालात में बंद कर दिए गए। रात को तरह-तरह के ख्वाब दिखाई दिए। पहले देखा कि उसका बूढ़ा शौहर कब्र से गर्दन निकाल कर कहता है, सुरैया, वह कैसी बुरी घड़ी थी, जब तेरे साथ निकाह किया और अपने खानदान की इज्जत खाक में मिलाई। फिर दूसरा ख्वाब देखा कि आजाद एक दरख्त के साये में लेटे और सो गए। एक साँप उनके सिरहाने आ बैठा और काटना ही चाहता था कि सुरैया बेगम की आँख खुल गई।

सबेरे उठ कर बैठी कि एक सिपाही ने आ कर कहा, तुम्हारे भाई तुमसे मिलने आए हैं। सुरैया बेगम ने सोचा, मेरा भाई तो कोई पैदा ही नहीं हुआ था, यह कौन भाई बन बैठा? सोची; शायद कोई दूर के रिश्तेदार होंगे, बुला लिया। जब वह आया तो उसे देख कर सुरैया बेगम के होश उड़ गए। यह वही वकील साहब थे। आपने आते ही आते कहा, बहन, खैर तो है, यह क्या, हुआ क्या? हमसे बयान तो करो। कुछ दौड़-धूप करें? हुक्काम से मिल कर कोई सबील निकालें।

सुरैया - मियाँ, मेरी तकदीर में यही लिखा था, तो तुम क्या करोगे और कोई क्या करेगा?

वकील - खैर, अब उन बातों का जिक्र ही क्या। सच कहता हूँ शब्बोजान, तुम्हारी याद दिल से कभी नहीं उतरी, मगर अफसोस कि तुमने मेरी मुहब्बत की कदर न की। जिस दिन तुम मेरे घर से निकल भागीं, मुझे ऐसा मालूम हुआ कि बदन से जान निकल गई। अब तुम घबराओ नहीं। हम तुम्हारी तरफ से पैरवी करेंगे। तुम जानती ही हो कि हम कैसे मशहूर वकील हैं और कैसे-कैसे मुकदमे बात की बात में जीत लेते हैं।

सुरैया - इस वक्त आप आ गए, इससे दिल को बड़ी तसकीन हुई। तुम्हारे घर से निकली तो पहिले एक मुसीबत में फँस गई, बारे खुदा-खुदा करके उससे नजात पाई और कुछ दौलत भी हाथ आई तो तुम्हारे ही महल्ले में मकान लिया और बेगमों की तरह रहने लगी।

वकील - अरे, वह सुरैया बेगम आप ही थीं?

सुरैया - हाँ, मैं ही थी।

वकील - अफसोस, इतने करीब रह कर भी कभी मुझे न बुलाया। मगर वह आपकी दौलत क्या हुई और यहाँ हवालात में क्योंकर आईं?

सुरैया - हुआ क्या, दो बार चोरी हो गई, ऊपर से थानेदार भी दुश्मन हो गया। आखिर हम अपनी महरी को ले कर चल दिए। एक गाँव में रहने लगी, मगर वहाँ भी चोरी हुई और डाकुओं के फंदे में फँसी।

इतने ही में एक थानेदार ने आ कर वकील साहब से कहा, अब आप तशरीफ ले जाइए। वक्त खतम हो गया। सुरैया बेगम ने इस थानेदार को देखा, तो पहचान गई। यह वही आदमी था जिसके पास एक बार वह आजाद पर रपट करने गई थी। बोली - क्यों साहब, पहचाना? अब क्यों पहचानिएगा?

थानेदार - अलारक्खी, खुदा को गवाह रख कर कहता हूँ कि इस वक्त मारे खुशी के रोना आता है। मैं तो बिलकुल मायूस हो गया था। मुझे अब भी तुम्हारी वैसी ही मुहब्बत है जो पहिले थी।

रात के वक्त थानेदार ने हवालात में आ कर उसे जगाया और आहिस्ता से कान में कहा, बहुत अच्छा मौका है, चलो, भाग चलें। मैंने चौकीदारों को मिला लिया है।

सुरैया बेगम ने थानेदार को समझाया कि कहीं पकड़ न लिए जायँ। मगर जब वह न माना, तो वह उसके साथ चलने पर तैयार हो गई। बाहर आ कर थानेदार ने सुरैया बेगम को मर्दाना कपड़े पहिनाए ओर गाड़ी पर सवार कराके चला। जब दो कोस निकल गए तो सबेरा हुआ। थानेदार ने गाड़ी से दरी निकाली और आराम से लेट कर हुक्का पीने लगे कि एक मुसाफिर सवार ने आक पूछा - क्यों भाई मुसाफिर हिंदू हो या मुसलमान? मुसलमान हो तो हुक्का पिलाओ।

थानेदार ने खातिर से बैठाया। लेकिन जब मुसाफिर के चेहरे पर गौर से नजर डाली तो कुछ शक हुआ। कहा - जनाब, मेरे दिल में आपकी तरफ से एक शक पैदा हुआ है। कहिए अर्ज करूँ, कहिए खामोश रहूँ? आप ही तो जबलपुर में एक सौदागर के यहाँ मुंशी थे। वहाँ आपने दो हजार रुपए का गबन किया और साल भर की सजा पाई। कहिए, गलत कहता हूँ?

मुसाफिर - जनाब, आपको धोखा हुआ है, यहाँ खानदानी रईस है। गबन पर लानत भेजते हैं।

थानेदार - यह चकमे किसी और को दीजिएगा। दाई से पेट नहीं छिपता।

मुसाफिर - अच्छा, मान लीजिए, आप ही का कहना दुरुस्त है। भला हम फँस जायँ तो आपको क्या मिले?

थानेदार - पाँच सौ रुपए नकद, तरक्की और नेकनामी अलग!

मुसाफिर - बस! हमसे एक हजार ले लीजिए, अभी-अभी गिना लीजिए। लेकिन गिरफ्तार करने का इरादा हो तो मेरे हाथ में भी तलवार है।

थानेदार - हजरत, यह रकम बहुत थोड़ी है, हमें जँचती नहीं।

मुसाफिर - आखिर दो ही हजार तो मेरे हाथ लगे थे। उसका आधा आपको नजर करता हूँ! मगर गुस्ताखी माफ हो, तो मैं भी कुछ कहूँ! मुझे आपके इन दोस्त पर कुछ शक होता है। कहिए, कैसा भाँपा?

थानेदार ने देखा कि पर्दा खुल गया तो झगड़ा बढ़ाना मुनाबिस न समझा। डरे, कहीं जा कर अफसरों से जड़ दे, तो रास्ते ही में धर लिए जायँ। बोले, हजरत, अब आपको अख्तियार है, हमारी लाज अब आपके हाथ है।

मुसाफिर - मेरी तरफ से आप इतमीनान रखिए।

दोनों आदमियों में दोस्ती हो गई। थोड़ी देर के बाद तीनों यहाँ से रवाना हुए, शाम होते-होते एक नदी के किनारे एक गाँव में पहुँचे। वहाँ एक साफ-सुथरा मकान अपने लिए ठीक किया और जमींदार से कहा कि अगर कोई आदमी हमें पूछे तो कहना, हमें नहीं मालूम। तीनों दिन भर के थके थे, खाने-पीने की भी सुध न रही। सोए तो सबेरा हो गया। सुबह के वक्त थानेदार साहब बाहर आए तो देखा कि जमींदार उनके इंतजार में खड़ा है। इनको देखते ही बोला, जनाब, आपने तो उठते-उठते नौ बजा दिए। एक अजनबी आदमी यहाँ आपकी तलाश में आया है। वरदी तो नहीं पहिने है, हाँ, सिर पर पगड़ी बाँधे है। पंजाबी मालूम होता है। मुझे तो बहुत डर लग रहा है कि न जाने क्या आफत आए।

थानेदार - किसी बहाने से हमको अपने मकान पर ले चलो और ऐसी जगह बैठाओ, जहाँ से हम सुन सकें कि क्या बातें करता है।

जमींदार - चलिए, मगर आपका चलना अच्छा नहीं। अंदर ही बैठिए, अगर कोई खटके की बात होगी तो आपको इत्तला दूँगा।

थानेदार - जनाब, मैंने पुलिस में नौकरी की है; चलने का डर आपको होगा। मैं अभी दाढ़ी हज्जाम की नजर करता हूँ और मूँछें करतवा डालता हूँ। चलिए, छुट्टी हुई।

सुरैया बेगम ने समझाया कि कहीं फँस गए तो कहीं के न रहोगे। आप भी जाओगे और मुझे भी ले डूबोगे। मगर थानेदार साहब ने एक न सुनी। फौरन नाई को बुलाया, दाढ़ी मुड़वाई, स्याह किनारे को धाती पहनी, अँगरखा डाटा, काली मंदिल सर पर रखी और आधे हिंदू और आधे मुसलमान बने हुए जमींदार के पास जा पहुँचे। सलाम-बंदगी के बाद बातें होने लगीं। थानेदार ने अपना नाम शेख बुद्दू बतलाया और घर बंगाल में। जमींदार के पास एक पंजाबी भी बैठा हुआ था। समझ गए कि यही हजरत हमें गिरफ्तार करने आए हैं! नाम पूछा तो उसने बतलाया शेरसिंह।

थानेदार - आप तो पंजाब के रहने वाले होंगे?

शेरसिंह - जी हाँ, हम खास अंबरसर में रहते हैं।

थानेदार - आप कहाँ नौकर हैं?

शेरसिंह - हम जमींदार हैं। अंबरसर के पास हमारा इलाका है, उसको हमारा भाई देखता है, हम घूमते रहते हैं। आप यहाँ किसर गरज से आए हैं? और टिके आप कहाँ हैं?

थानेदार - इसी गाँव में मैं भी ठहरा हूँ। अगर तकलीफ न हो तो हमारे साथ घर तक चलिए।

थानेदार उनको ले कर डेरे पर आए। सुरैया बेगम दौड़ कर छिपने को थीं; मगर थानेदार ने मना किया और कहा कि यह मेरे भाई हैं। इनसे पर्दा करना फुजूल है!

शेरसिंह - यह आपकी कौन है?

थानेदार - जी, मेरे घर पड़ गई हैं?

सुरैया बेगम - ऐ हटो भी, क्या वाहियात बातें करते हो। हजरत, यह मेरे भाई हैं। इस पर शेरसिंह ने कहकहा लगाया और थानेदार झेंपे।

शेरसिंह - मुए पर सौ दुर्रे और गधे की सवारी। बस, अब मैं यहाँ से भाग जाऊँगा और उम्र भर तुम्हारी सूरत न देखूँगा। खुदा तुझसे समझे।

थानेदार - सुनो भाईजान, यह फकत चकमा था। हम आजमाते थे कि देखें, तुम कौल के कहाँ तक सच्चे हो। अब हम साफ कहते हैं कि हम कातिल नहीं हैं, लेकिन मुजरिम हैं। अब कहिए।

शेरसिंह - अजी, जब इतने बड़े जुर्म की सजा न दी तो अब क्या खौफ है! क्या कहीं से माल मार लाए हो?

थानेदार - भाई, माफ करो तो बता दें। सुनिए, हम वही थानेदार हैं जिसकी तलाश में तुम निकले हो। और यह वही बेड़िन हैं। अब चाहे बाँध ले चलो, चाहे दोस्ती का हक अदा करो।

शेरसिंह - ओफ! बड़ा झाँसा दिया। मुझे तो हैरत है कि तुमसे मेरे पास आया क्यों कर गया। मैं पंजाब से खास इसी काम के लिए बुलवाया गया था। यहाँ दो दिन से तुम्हें भी देख रहा हूँ और बेड़िन से नोंक-झोंक भी हो रही है। मगर टाँय-टाँय-फिस।

सुरैया - हुजूर, ले जरा मुँह सम्हाल कर बात कीजिए। बेड़िन कोई और होगी। बेड़िन की सूरत नहीं देखी!

थानेदार - यह बेगम हैं। खुदा की कसम। सुरैया बेगम नाम है।

शेरसिंह - वह तो बातचीत से जाहिर है। अच्छा बेगम साहब, बुरा न मानो तो एक बत कहूँ। अगर अपनी और इनकी रिहाई चाहती हो, तो इनको इस्तीफा दो और हमसे वादा करो।

थानेदार - इनको राजी कीजिए। हमसे क्या वास्ता। हमको तो अपनी जान प्यारी है।

सुरैया - ऐ वाह! अच्छे मिले। तुम थानेदारी क्या करते थे! अच्छा, दिल्लगी तो हो चुकी। अब मतलब की बात कहो। हम दोनों भागें, तो भाग के जायँ कहाँ? और भागे तो रहें कहाँ?

शेरसिंह - एक काम करो। हमको वापस जाने दो। हम वहाँ जा कर आयँ-बायँ-सायँ उड़ा देंगे। इसके बाद आ कर तुमको पंजाब ले जायँगे।

थानेदार - अच्छा तो है। हम सब मिल कर पंजाब चलेंगे।

सुरैया - तुम जाओ, हम तो न जायँगे। और सुनिए, वाह!

थानेदार - हमारी बात मानिए। आप घर-घर तहकीकात कीजिए और दो दिन तक यहाँ टिके रहिए और वहाँ जा कर कहिए कि मुलजिम तराई की तरफ निकल गया।

शेरसिंह - हाँ, सलाह तो अच्छी है। तो आप यहाँ रहें, मैं जाता हूँ।

शेरसिंह ने दिन भर सारे कस्बे में तहकीकात की। जमींदारों को बुला कर खूब डाँट-फटकार सुनाई। शाम को आ कर थानेदार के साथ खाना खाया और सदर को रवाना हुए। जब शेरसिंह चले गए तो थानेदार साहब बोले - दुनिया में रह कर अगर चालाकी न करें तो दम भर गुजारा न हो। दुनिया में आठों गाँठ कुम्मैत हो तब काम चले।

सुरैया - वाह! आदमी को नेक होना चाहिए, न कि चालाक।

थानेदार - नेकी से कुछ नहीं होता, चालाकी बड़ी चीज है। अगर हम शेरसिंह से चालाकी न करते तो उनसे गला कैसे छूटता।

दूसरे दिन थानेदार साहब भी रवाना हुए। दिन भर चलने के बाद गाड़ीवान से कहा - भाई, यहाँ से मीरडीह कितनी दूर है?

गाड़ीवान ने कहा - हुजूर यही मीरडीह है।

थानेदार - यहाँ हम किसके मकान में टिकेंगे?

गाड़ीवान - हुजूर, आदमी भेज दिया गया है।

यह कह कर उसने नंदा-नंदा पुकारा। बड़ी देर बाद नंदा आया और गाड़ी को एक टीले की तरफ ले चला। वहीं एक मकान में उसने दोनों आदमियों को उतारा और तहखाने में ले गया।

थानेदार - क्या कुछ नीयत खोटी है भई?

सुरैया - हम तो इसमें न जाते के। अल्लाह रे अँधेरा!

नंदा - आप चलें तो सही।

थानेदार ने तलवार म्यान से खींच ली और सुरैया बेगम के साथ चले।

थानेदार - अरे नंदा, रोशनदान तो जरा खोल दे जाके।

नंदा - अजी, क्या जाने, किस वक्त के बंद पड़े हैं।

सुरैया - है-है! खुदा जाने, कितने बरसों से यहाँ चिराग नहीं जला। यह जीने तो खत्म ही होने नहीं आते।

नंदा - कोई एक सौ दस जीने हैं।

सुरैया - उफ! बस अब मैं मर गई।

नंदा - अब नगिचाय आए। कोई पचीस ठो और हैं।

बड़ी मुश्किलों से जीने तय हुए। मगर तहखाने में पहुँचे तो ऐसी ठंडक मिली कि गुलाबी जाड़े का मजा आया। दो पलंग बिछे हुए थे। दोनों आराम से बैठे। खाना भी पहले से एक बावर्ची ने पका रखा था। दोनों ने खाना खाया और आराम करने लगे। यह मकान चारों तरफ पहाड़ों से ढका था। बाहर निकलने पर पहाड़ों की काली-काली चोटियाँ नजर आती थीं। उन पर हिरन कुलेलें भरते थे। थानेदार ने कहा - बहुत मुकामों की सैर की है, मगर ऐसी जगह कभी देखने में नहीं आई थी। बस, इसी जगह हमारा और तुम्हारा निकाह होना चाहिये।

सुरैया - भई, सुनो, बुरा मानने की बात नहीं। मैंने दिल में ठान ली है कि किसी से निकाह न करूँगी। दिल का सौदा सिर्फ एक बार होता है। अब तो उसी के नाम पर बैठी हूँ। किसी और के साथ निकाह करने की तरफ तबियत मायल नहीं होती।

थानेदार - आखिर वह कौन साहब हैं। जिन पर आपका दिल आया है? मैं भी तो सुनूँ।

सुरैया - तुम नाहक बिगड़ते हो। तुमने मेरे साथ जो सलूक किए हैं, उनका एहसान मेरे सिर पर हैं; लेकिन यह दिल दूसरे को हो चुका है।

थानेदार - अगर यह बात थी तो मेरी नौकरी क्यों ली? मुझे क्यों मुसीबत में गिरफ्तार किया? पहले ही सोची होती। अब से बेहतर है, तुम अपनी राह लो, मैं अपनी राह लूँ।

सुरैया - यह तुमने लाख रुपए की बात कही। चलिए, सस्ते छूटे।

थानेदार - तुम न होगी तो क्या जिंदगी न होगी?

सुरैया - और तुम न होगे तो क्या सबेरा न होगा?

थानेदार - नौकरी की नौकरी गई और मतलब का मतलब न निकला -

गैर आँखें सेंके उस बुत से दिले मुजतर जले,

बाये बेदर्दी कोई तापे किसी का घर जले।

सुरैया - आँखें सेंकवाने वालियाँ और होती हैं।

थानेदार - इतने दिनों से दुनिया में आवारा फिरती हो और कहती हो; हम नेक। वाह री नेकी!

सुरैया - तुमसे नेकी की सनद तो नहीं माँगती?

थानेदार - अब इस वक्त तुम्हारी सूरत देखने को जी नहीं चाहता!

सुरैया - अच्छा, आप अलग रहें। हमारी सूरत न देखिए, बस छुट्टी हुई।

थानेदार - हमको मलाल यह है कि नौकरी मुफ्त गई।

सुरैया - मजबूरी!!

***