Betab hai lekhni meri, kuchh likhne ko in Hindi Poems by BISHNU DEO PRASAD books and stories PDF | बेताब है लेखनी मेरी,कुछ लिखने को

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बेताब है लेखनी मेरी,कुछ लिखने को

बेताब है लेखनी मेरी, कुछ लिखने को

विष्णु देव प्रसाद

मेरे पूज्यनीय--

  • पिताजी - श्री गणेश प्रसाद
  • माताजी - श्रीमती राधिका देवी
  • बड़ी माँ – स्व: कौशल्या देवी
  • के चरणों में सादर समर्पित \

    आभार

  • श्रीमती सुनीता देवी
  • अंजली प्रिया
  • वर्षा कुमारी
  • विशेष आभार

  • आकाश गौरव
  • कवि की कलम से

    प्रस्तुत काव्य संग्रह “बेताब है लेखनी मेरी, कुछ लिखने को

    ” मेरा पहला काव्य-संग्रह है |इस काव्य संग्रह में मैंने जीवन के हर एक पहलू तक पहुँचने का प्रयास किया है\ अधिकाँश रचनाएँ मेरे कॉलेज के दिनों में और बेरोज़गारी के क्षणों में लिखी गयी है\

    इस संग्रह में एक युवा रचनाकार की लेखनी की बेताबी कहीं अभिव्यक्त होती है तो कहीं समाज और देश की परिस्तिथियों का चित्रण, कहीं नैतिक मूल्यों में हो रहे पतन के प्रति आकुलता है तो कहीं प्रणय में डूबे हुए प्रेम रस की बारिश है\ कहीं एक बेरोजगार के मन की तड़पन है, तो कहीं “एक टयूशन टीचर” की अंतर्व्यथा की गहरी झलक \

    मेरा यह प्रथम काव्य संग्रह आपके हाथों में है\ इस काव्य संग्रह को आप तक पहुंचाने में जिन सभी महानुभावों का योगदान है, उनके प्रति मैं दिल से आभार व्यक्त करता हूँ \

    मैं अपने पुत्र “आकाश गौरव” को भी धन्यवाद देना चाहता हूँ जिसके अथक प्रयास से यह संग्रह आप सबों के समक्ष है \

    उम्मीद है यह काव्य-संग्रह आपको पसंद आएगा, आपके बहुमूल्य सुझावो की मुझे प्रतीक्षा रहेगी \\

    धन्यवाद

    विष्णु देव प्रसाद ‘विनू’

    सिमडेगा, झारखण्ड

    9304920350

    शुभकामनाएँ

    इनकी लेखनी में समाज के यथार्थ का चित्रण मिलता है \ गिरते नैतिक मुल्यों की ओर भी पाठकों का ध्यान इन्होने आकृष्ट किया है | प्रेमरस की इनकी कविताओं में कहीं विरह की वेदना है तो कहीं मिलन की बारिश \ इनकी कविताएं शबनम के बूँद की तरह दिल को सुकून देती है \ वास्तविकता से सराबोर इनकी रचनाओं में जीवन के हर एक पहलू का समावेश है \ “टयूशन टीचर” के मन की अंतर्व्यथा का चित्रण जिस खूबसूरती से इन्होने अपनी कविता में किया है, वह काबिल-ए-तारीफ़ है\ सभी रचनाएं एक से बढ़कर एक है और सीधे पाठकों के दिल में उतर जाती है\ इनके उज्जवल भविष्य के लिए शुभकामनाएं--

    ***

    1. बेताब है लेखनी मेरी कुछ लिखने को

    बेताब है लेखनी मेरी कुछ लिखने को,

    मचलती है स्याही मेरी

    बनकर लहू चमकने को

    किसी के सौंदर्य की कहानी नहीं

    किसी की इश्क की जुबानी नहीं

    हीर-राँझा की नहीं ---

    शिरी-फरहाद की नहीं ---

    याद करती है ये, रणचंडी लक्ष्मी बाई को

    नमन करती है ये, बाँकुरे कुंवर सिंह, वीर शिवाजी को

    आंसू बहाती है ये

    याद में ये वीर शहीदों की

    आदर्श फिर दुहराती है

    महान बलिदानों की

    मिट गया है आज देश से

    सत्य, प्रेम का नामो निशान

    मिट गया है आज हमारी

    जातीयता की पहचान

    दिव्य ज्योत जलाकर

    तम का बादल हटाना चाहती है

    त्याग, प्रेम और परोपकार का आदर्श ---

    फिर दुहराती है

    देश के वीरो सपूतो को नींद से जगाकर

    अंधेरो में नया उजाला

    भरना चाहती है

    देखना चाहती है

    खुश रंग अपनी धरा को

    बेताब है लेखनी मेरी, कुछ लिखने को \\

    ***

    2. कहाँ से शुरू करूं कविता

    समझ में नहीं आता, “कहाँ से शुरू करूं कविता”

    गैरों की दास्ताँ लिखूं या करूं अपनों का बयां

    खेलतें है हैं आँखमिचोली की तरह आशा और निराशा

    समझ में नहीं आता, कहाँ से शुरू करूं कविता

    हवाला की भी धूम मची है घोटालों की है अलग चर्चा

    अफीम, चरस और जुवा से वाकिफ़ है देश का बच्चा बच्चा

    कहीं डायरिया, कहीं अतिसार तो कहीं कालाजार है

    पशुचारे को खाकर फिर भी मस्त हमारी सरकार है

    कश्मीर जल रही है, सुनसान पड़ी है हर सरिता

    समझ में नही आता कहाँ से शुरू करूं कविता \

    नवजवान बेकार हैं बढ़ रही है आबादी

    पैसा कमाने की धुन में बन रहें हैं, रोज दस बच्चे आतंकवादी

    सागर सूखी है, बादलों में भी जल नहीं

    पत्थर उग आयें हैं खेतों में, वीरान पड़ी हर क्यारी है \

    बीमार सारे अस्पताल हैं, डाक्टर भी बेकार हैं

    विष भी बिकने लगे अब तो प्यालों में

    मौत की खुली यहाँ दुकान है \

    फरियाद पेश करें किसे हम अपनी

    बंद है आज, न्याय का हर दरवाजा

    शर्म तो आती है कहने में मगर क्या करें ---

    अंधेर नगरी चौपट राजा \

    पूछता हूँ तन्हाई में कभी – कभी खुद से मै

    कहाँ गये राम कहाँ गयी माता सीता

    समझ में नहीं आता, ’’कहाँ से शुरू करूं कविता’’ ||

    ***

    3. कविता

    कविता......?

    कोरे शब्दों का समूह मात्र नहीं है

    जीवन के इस नीरस दौड़ में

    छिपे सत्य की अनुकृतियाँ हैं \

    भीम सी भीषण गर्जना करती

    भीष्म की प्रतिज्ञा सी अविचल

    मृत्यु शैय्या पर लेटे

    विश्व विध्वंश का तांडव देखती

    युगों की ‘महाभारत’ है \

    हुसैन की बन शहादत

    कर्बला के खुनी मंजर का

    इतिहास दोहराती

    अतीत की स्मृतियाँ हैं

    नहीं....! नहीं, कविता कोरे शब्दों का समूह नहीं है

    बेबस शिशु, अबला ललना, निरीह मानव की

    अंतर्व्यथा को मर्मान्तक शब्दों में पिरोती

    चिलचिलाती जेठ की तपती दोपहरी में

    कृषक, मजदूर के श्रम की

    शाश्वत संवेदना की अभिव्यक्ति है

    या फिर---

    वातानुकूलित कमरों के मखमली सेज में

    रमणियों के सौंदर्य का रसपान करती,

    इक्कीसवीं सदी का दर्पण है

    मुर्दों की जान है, हर अँधेरे का रोशन दान है

    ये कविता....!

    ***

    4. सब कुछ होता अगर.....

    लता पुष्पों के

    हार से अलंकृत

    शानदार एक बंगला होता

    रंगीन टीवी, फ्रीज, कहीं पर

    तो कहीं पर

    चमकदार कार होता

    मखमल की सेज होती

    कमरा भी

    वातानुकुलित होता

    पावों में कीमती कालीन

    ऊपर संगमरमर का छत होता

    कीमती सूट के साथ में

    जूता भी पोलिशदार होता

    ये भी होता, वो भी होता—

    बाहों में बाहे डाल

    खिलखिलाता जहाँ का एक नूर होता

    सुरमई शाम की रंगीनियों में -- वाह! वाह!

    क्या – क्या न होता

    सब कुछ होता, सब कुछ होता

    अगर मैं “बेरोजगार” न होता \\

    ***

    5. प्रगति

    कुर्सी पर बैठकर

    उन्होनें----

    क्या खूब न्याय फरमाया है

    अँधेरे में धकेलकर

    देश को

    हमें ---

    इक्कीसवी शदी की ओर

    बढाया है \\

    ***

    6. डिवीज़न

    इम्तहान शब्द का अर्थ

    आज बदल गया है

    चीट पुर्जों के बल पर

    डिवीज़न बनाकर

    छात्रों ने---

    क्या खूब नाम कमाया है ||

    ***

    7. इम्तिहान

    ऐ खुदा! तूने मेरे साथ कैसी ये नाइंसाफी की है

    दिल पे जख्म मगर होंठो पे हंसी दी है

    मेरे खताओं की क्या इतनी बड़ी सजा है

    अमावास में लिपटी पूनम की हर रात है

    कब तक, आखिर कब तक

    मुझसे रूठे रहोगे ऐ रब

    कहते हैं “गम-ऐ-दौर” का तू ही साथी है

    मरकर भी फक्र रहेगा ---

    ज़िन्दगी के सफ़र में शाम का आलम आये न आये

    मगर ‘अहल-ऐ-सुबह’ कायम रहे

    करमनवाज़ यही करम काफी है

    अपने जज्बातों से हर रोज़ जंग होती है

    तमन्ना भी दिल की हर रोज़

    जागती और सो जाती है

    क्या कहूँ, कैसे बयां करूँ---

    मैं अपने जुल्मों सितम के अफसानों का

    अरमानों की अर्थी में कफन भी तंग होती है

    सवाल मेरी रहबरी का नहीं रहगुज़र का है

    परवरदिगार – -

    क्या तेरे इम्तेहान का कोई और दौर भी बाकी है \\

    ***

    8. टयूशन-टीचर

    मुहं लटकाए जब भी किसी बेबस,

    बेरोजगार टयूशन टीचर को मैं देखता हूँ

    तो दिल में उसके लिए सहानुभूति की एक लहर सी जाग उठती है

    उसकी उदासी, बेबसी और मायूसी को मै बखूबी समझ सकता हूँ

    क्यूंकि मैं भी उसकी तरह एक टयूशन टीचर हूँ \

    इस घर से उस घर जब टयूशन के लिए मैं जाता हूँ

    और रात गए थककर जब वापस घर को आता हूँ

    तो आत्मा खुद से विद्रोह कर उठती है

    छोड़ दे ये टयूशन-“दिल से” ये आवाज़ निकलती है

    पर अपनी बेरोज़गारी की बात आती है

    एक ग्रेजुएट के मन को टयूशन की आस भाती है

    इसी उधेड़-बुन में नहीं जा सका कल टयूशन

    सर दर्द से रहा था कराह बुरी तरह

    जाते ही बच्चे की मम्मी ने दूसरे दिन जिरह किया

    मुझसे किसी जज की तरह---

    “कल क्यूँ नहीं आये आप?”

    ऐसे में तो हो जायेगा बच्चा ख़राब

    मैंने भी झल्लाकर कहा,

    क्या मर गए इस बच्चे के माँ-बाप

    जो हो जायेगा यह बच्चा ख़राब

    माँ-बाप के नाम पर आप लोग अभिशाप हैं

    जो बच्चा को ख़राब होने का देते श्राप हैं

    अरे ----! अरे---!

    मेरी भी तो कुछ “पर्सनल लाइफ” है

    घर में के एक बच्चा और “ब्यूटीफुल वाइफ” है

    फिर पढ़ाने बैठता हूँ पर मूड तो है “ऑफ”

    बच्चा क्या पढ़ेगा- वो तो पहले से ही है “फ्लॉप”

    मैंने बच्चे से पूछा--- कहाँ है दिखाओ कल का घर काम ?

    संज़िन्दगी से बच्चे ने कहा-

    कल तो बहुत बिजी रहा मैं दिन तमाम \

    इंडिया-पकिस्तान का क्रिकेट मैच टीवी में आ रहा था

    पढने बैठा तो सिर्फ धोनी, कोहली का चौका, छक्का याद आ रहा था

    शाम को पिक्चर जाने की हुई बात

    और मम्मी-पापा के झगड़ों में ही हो गई आधी रात

    लगा लिया मैंने भी चेहरे में एक विलेन का मास्क

    इसलिए नहीं कर पाया होम टास्क \

    बट! सॉरी सर – आगे से करूँगा मैं सारा टास्क !

    मैंने डपटकर कहा- शर्म नहीं आती जो करते हो इस तरह बात

    नही समझते, तुम अपने आप के साथ कर रहे हो कितना विश्वासघात

    उठकर चल देता हूँ मैं क्यूंकि – मेरा स्वाभिमान जाग उठता है

    आग दिलों-दिमाग में लगती है

    पर धुआं जिगर से निकलता है

    नज़र जेब पर जाती है, तो वह खाली है

    मुझसे तो अच्छा कोई गुंडा मवाली है

    कुरता तो अपना पहले से ही तंग है

    नसीबां क्या बदलेगा जब बदनसीबी संग है

    महीने भर की मेहनत-मसक्कत से

    एक कपड़ा भी नहीं हो पाता है

    इससे तो किसी कुएं में डूबकर मर जाना अच्छा होता है \

    पर, पर अपने बूढ़े माँ-बाप की ‘अस्मत’ का ख्याल आता है

    बाट जोहते बेसब्र बीवी-बच्चों का सवाल आता है

    अब अपने जज्बातों को मैंने कुचल डाला है

    इसलिए फिर से- टयूशन पढ़ाने का फैसला कर डाला है

    सोचता हूँ, शायद कुदरत का बनाया हुआ मैं कोई ‘कैरीकेचर’ हूँ

    इसलिए--

    इस जन्म में – एक टयूशन टीचर हूँ \\

    ***

    9. अब तो आ जाओ

    ऊषा के प्रथम स्पर्श का होता नित जिसको हर्ष

    धन्य है वो धरती हमारी धन्य हमारा भारतवर्ष

    आजाद, सुभाष, भगत, जैसे सिंह तेरी संतान

    ताज सर का बना हिमालय करता नित तेरा गुणगान

    सहकर सीने पर असंख्य घाव बचाई जिन्होंने माँ की लाज

    गाँधी, नेहरु, तिलक, के त्याग पर होता हमें आज भी है नाज़

    समय बदला, लोग बदले, बदली दुनिया सारी

    दानवता के पास में जकड़ी सिसक रही जननी हमारी

    सारा परिवार कराह, कराह रही भारतमाता

    कराह रहा सम्पूर्ण देश तबाह तू है

    ऐ जन्मदाता !

    दसों दिशाएं गरज रही, बिलख रही अबला-ललना

    चिंघाड़ रही गंगा-यमुना कहाँ हो ऐ बुद्ध-महावीर

    अन्याय का तांडव धरा में हो रहा

    अब तो आ जाओ

    हे शूरवीर \\

    ***

    10. तन्हाई

    गम तेरा जब हद से गुजर जाता है

    बन कर अफसाना कागज़ पे बिखर जाता है

    दिल को कैसा ये रोग लगा

    तेरी यादों में खोये रहते हैं

    इस चाहत का मतलब न हम समझ पाए

    कभी हँसते तो कभी रोते हैं \

    तुम क्या जानो

    अरे तुम क्या जानो

    दिल पे मेरे क्या गुज़रती है

    कभी करार को कभी बेकरारी छाई रहती है \

    तन्हाईयाँ डसती हैं

    पागल दिल मचल मचल उठता है

    हम रातों को उठ-उठ कर रोते है

    जब सारा आलम सोता है \

    कोशिश तो बहुत की थी तुम्हे भूलने की

    मगर ओ दिलरुबा

    करीब तुम और आ गये

    तुम ही हो मेरी जाने-जां

    सच कहता हूँ “ओ मेरे साजन “

    तू ही तो है “ मेरे जीवन का दर्पण”

    हमदम हो तुम मेरे

    हमनवां भी तुम हो

    हमसफ़र न तेरे सिवा कोई दूसरा

    दिलरुबा भी तुम ही हो \\

    ***

    11. रु – ब – रु

    हर तरफ तन्हाई थीं

    दिल में तेरी यादों की, अंगड़ाई थी

    शायद फिजां में तेरे बदन की खुशबू फैली थी

    तभी तो महकती बयारों में,

    इन हंसी वादियों में

    दिल मदहोश था \

    गगन में चमकी एक ‘बिजुरी’ थी

    हवाओं में घूमी एक ‘रागिनी’ थी

    तेरे केशु लहराए थे हवा में

    तभी तो काली घटा घनघोर थी \

    सुरमई रंगीन शाम की

    हर शय खुद एक ‘ग़ज़ल’ थी

    मचल कर रह जाते थे अरमान मेरे

    करीब आकर जब कभी तो दूर जाती थी \

    आँखों में हया थी तेरी

    होंठो पे लाज की सुर्खी थी,

    अधरों पे तेरी

    एक दिलकश मुस्कान लहराई थी

    देख मुझे पलकें उठाकर तू

    जब फिर से पलके गिरायीं थी \

    जाम छलक रहे थे आँखों से तेरी

    ‘नूर’ बरसता तेरा चेहरा था

    अरमान मचल रहे थे मेरे

    बिन पिए मैं मदहोश था

    चमन में रजनीगंधा खिल उठे

    शाम की सुरभि भी महक उठी

    लाज की एक लाली लहराई थी

    तेरे गुलाबी गालों में

    होंठों पे इकरार लिए

    चाहत का भी इज़हार लिए

    वफ़ा के मौजों में डूबे जब---

    तू मेरे “रु- ब- रु” थी \\

    ***

    12. वक़्त-वक़्त की बात

    कल महफ़िल में था, खुशियाँ मेरे दामन में थीं

    शोखियाँ छलकती थीं आँखों से मेरी

    अदाएं भी अलमस्त थीं

    बहारें मेरी हमसफ़र थीं

    नसीबां भी संगदिल न था

    हर शाम कव्वाली मेरी, हर रात दिवाली थी \

    मस्ती का एक झोकां था मैं

    जादू मेरे इशारों में थीं

    दामन में न समाते थे मेरे

    ऐसी खुशियाँ की बारात थीं

    आज---

    ‘तनहा’ हूँ मैं, दूर मुझसे हर रंगीनी है

    खुशियाँ भी बोझ है आज तो, ऐसी मेरी लाचारी है

    रिश्तों की गहरातीं कैसी ये खाई है

    सगे भाई का दुश्मन बना आज हर भाई है

    डगमगा रही है अभी ‘कश्ती’ मेरी, जबकि ‘सागर’ काफी दूर है

    कहाँ मेरे होंठो की लाली, कहाँ चेहरे का नूर है

    देखकर मुझे देखती नहीं दुनिया

    जैसे मैं कोई ‘गुनहगार’ हूँ

    बात समझ में जब आई तब एहसास हुआ कि

    मैं तो एक ‘बेरोजगार’ हूँ \

    नियति के प्रहार से तिलमिलाया

    सुबह-ओ-शाम हूँ \\

    ऐ दुनिया वालों ---

    आँखों में मोहब्बत की ऐनक चढ़ाकर देखो

    मैं भी तुम्हारी तरह एक इंसान हूँ

    कल कुछ और था, आज कुछ और हूँ

    क्यूंकि ----‘विनु’

    ये तो “वक़्त-वक़्त की बात” है

    इन्सान नामित इस छह फूटे पुतले से तो अच्छी

    कुत्तों की जात है \\

    ***

    13. दूर है मंजिल पथरीला है रास्ता

    सभ्यता के इस दौर में वाह री असभ्यता

    गायब है आज के दौर में अमन का फरिस्ता

    मौत का तांडव है और रंजिशों का है बोलबाला

    हमाम में सभी नंगे हैं, हर एक का मुंह है काला

    आतंकवाद के बादल काले, डंस रहें हैं देश को हौले हौले

    कहीं उग्रवादी, कहीं लालखंडी तो कहीं माओवादी की भरमार है

    सिंध और कश्मीर की वादियों में ---

    सगे भाई का दुश्मन बना हर एक भाई है

    टीपू की तलवार कहाँ, कहाँ कुंवर सिंह की हुँकार है

    तू ही बता ऐ गाँधी तेरा रामराज्य कहाँ है

    बुरी नहीं थी ऐसी आजादी से तो गुलामी और दासता

    इक्कीसवी सदी में सारा जग है

    फिर भी ---

    मंजिल है दूर पथरीला है रास्ता \

    ***

    14. प्रियतम कब हमारे घर आओगे

    प्रियतम, कब हमारे घर आओगे

    कब हमारे आँगन में

    गुलाब बन खिल जाओगे

    आस लगाये बैठी हूँ, मैं हर पल तेरे इंतज़ार में

    कि आकर मेरे अधरों को कब

    अधरों से अपनी छू जाओगे \

    कितने सावन बीत गए दिन भी बीते बहार के

    वेदना का स्वर है, गीतों में भी मल्हार के

    खोये हुए साजन मेरे, अब भी तुम किस संसार में

    की जाने कब मेरी साँसों को साँसे अपनी दे जाओगे

    बाजुओं के पाश में मेरी घनेरी केशुओं के आगोश में,

    कब चुपके से चेहरे छुपाकर स्पर्श अपना दे जाओगे

    प्रियतम, कब हमारे घर आओगे \\

    पुरवैया के झोंके संग दिल उठे तुझे पुकार रे

    सजल नैनन बरस पड़े हैं जैसे रिमझिम फुहार रे

    बैरी पपीहा पहुचां नहीं क्या ले के मेरा सन्देश रे

    छोड़ के आ जाओ ‘परदेशी’

    जुल्मी अब ये परदेश रे

    दिल की तनहाइयों में, मेरे गीतों की गहराईयों में

    कब मधुर ‘रागिनी’ बनकर

    प्रिय तुम समां जाओगे

    नदी किनारे रेत में, पीले सरसों के खेत में

    कब आकर मेरे पलकों को

    हौले से — तुम छू जाओगे \

    प्रियतम, -- कब हमारे घर आओगे \

    सेज सजा रखे हैं मैंने,

    चंपा, चमेली, गुलबहार के

    बाहों का हार पह्नाउंगी, मैं स्वागत में सरकार के

    चंदा-चकोरी के इस मुलाकात में,

    मादक – उन्मादक सपनो की रात में

    अबके बरस भी फिर से

    क्या तुम हमें रुलाओगे

    ‘ओ अजनबी’ इस देश में, अपनों के वेश में

    कब आकर मुझको मुझ ही से चुराओगे

    प्रियतम, कब हमारे घर आओगे \\

    ***

    15. अबके सावन में मधुवन की छटा निराली

    महके वृन्दावन धाम

    ढोल, मृदंग बज उठे हैं,

    होंठो में “पी” का नाम

    संगम की अभिलाषा है

    हर तरण-तारण में

    घर वापस आये हैं

    प्रियतम --अबके सावन में \

    पर्वतों के झुकते बादल,

    उस पर ये इन्द्रधनुषी शाम

    काँधों पे केशुंओं को लहराओ सजनी

    इन मेघों का क्या काम

    हिलोर उठे हैं प्रीत के

    इस चंचल मन के सागर में

    घर वापस आयें है प्रियतम

    अबके सावन में \

    चल गोकुल में रास रचाएं

    बन जाओ तुम घनश्याम

    मैं भी राधा बन जाऊं

    हो जाऊं फिर बदनाम

    मन मयूर नाच उठे हैं आनन्-फानन में

    घर वापस आये है प्रियतम

    अबके सावन में \\

    ***

    16. ज़माना बदल गया

    ज़माना बदल गया, इंसान बदल गया

    इशारे पर इसके ज़मी आसमा बदल गया

    पाकर वरद हस्त दानवता के,

    मानवता बदल गयी\\

    पंचुहकर चाँद में,

    धरा नभ में बदल गयी\\

    आज-- क्षुधातुर जीव दावा नल में झुलस गया

    अधुरा बचा कार्य-- जठराग्नि का आमंत्रण समझ

    बड़नावल ने पूरा किया \\

    रहा क्या---

    महंगाई, बेरोज़गारी, भ्रष्टाचार

    बनकर मार्तंड जग को

    झुलसा गया

    पौरुष, त्याग, परोपकार

    हा---

    दिवास्वपन

    आँखों से निर्भर ----?

    मवाद हैं फोड़ो से बह निकले

    युगों के लिए तिरस्कार

    आद्योपांत बह निकले

    गूंजती है आवाज़ चतुर्दिक नभ –अम्बर में

    रहा नहीं कोई आर्यपुत्र जग के बवंडर में

    चीखता हिन्द, रोता हिमालय, तड़पता बादल

    अविकल----

    ज़माना बदल गया\\

    ***

    17. असमानता

    चिलचिलाती धूप और तपती दोपहरी

    शुष्क, निशब्द खेतों की क्यारी

    मरघट भी प्यासा पनघट भी प्यासी

    दिन दोपहर सारी रात उदासी

    सड़कों में खेतों में बनके मोम

    लहू हैं झरते और ---

    वातानुकूलित कमरों में, शीतलता का मधुर सुख भोगते

    वो मखमल की सेज पर, दस वर्ष सोते रह जाते हैं

    असमानता के इस महान युग में, समानता का दंभ

    है इंतजार मुझको, कब होगा ---

    इक्कीसवी सदी का आरम्भ \\

    {(1997 में लिखी हुई कविता) (बीसवी सदी)}

    ***

    18. एक नज़र हमें भी

    गलियों में, चौराहों में, किसी सभा या संस्था में

    आज हमारा शाशन है

    तिरंगा को हम नहीं जानते

    सतरंगा हमारा झंडा है

    यह झंडा ऊँचा है, ऊँचा रहेगा

    यही हमारी नारा है \

    कितने संघर्ष किये हैं हमने

    तब ये नेमत पाई है

    कितनी कुरबानियां दी हैं

    तब हमारी बारी आई है \

    हमारा है एक अलग तंत्र

    सबसे अनोखा, सबसे निराला

    लोकतंत्र- नहीं, राजतन्त्र- नहीं !

    नाम दिया है इसको हमने “भ्रष्टतंत्र”

    जितना विकास हमने किया

    किसी और ने किया नही

    जितनी प्रशंसा हमारी हुई

    किसी और की हुई नहीं

    सभ्य विश्व के हर कोने में

    आज हमारा नाम है

    यकीं नहीं तो खुद आकर देखो

    की हमारा दावा झूठ है

    फिर भी हम बदनाम हैं

    हमारा कोई वाद नही, कोई विवाद हम में नहीं

    कोई भेद हम में नहीं, कभी कोई मतभेद नहीं

    लोकतंत्र की माला जपने वाले

    सामंता और स्वतंत्रा के पक्षाघर

    आज हमारे तंत्र में हैं

    सुरक्षित हैं, सुशोभित हैं

    हम उनमे हैं, वे हममे में हैं

    राष्ट्र हममे प्रवाहित है, हम उनमे समाहित हैं

    धर्म, संप्रदाय और जाति का भेद हम नहीं जानते

    किसी सिद्धांत या नियम को हम नहीं मानते

    लम्बे-चौड़े वायदे और नए-नए कायदे—

    समानता, स्वंतत्रता, लोकतंत्र, समाजवाद

    हम कुछ नहीं जानते \

    हमारा एक ही नारा है—

    अपनी देखो, अपनी सोचो

    गैरों से हमे क्या लेना है

    जेब अपनी कभी खाली न हो

    बस यही हमें सबसे प्यारा है

    हमें डर है तो बस उनसे

    जो अपने आपको देश भक्त कहकर

    हमारा अधिकार हमसे छिनने की

    हर संभव कोशिश में लगे रहते हैं

    फिर भी हमारी हिम्मत देखो, कि —

    हम उनसे आगे खड़े है

    हर कदम में उनसे आगे बढे हैं, चढे हैं

    देखकर वे भी हमारी हिम्मत

    वाह! वाह! कर उठते हैं

    आखिर--- आखिर---!

    हम भी तो अपने अधिकारों के लिए लड़े हैं

    इसलिए, आज---

    हम भी तो कुछ हैं \\

    ***

    19. कभी –- कभी

    दिल में एक लहर सी उठती है कभी-कभी

    हवाएँ जब तेरा पैगाम सुनती हैं मुझे कभी-कभी

    दिल मदहोश हो जाता है

    बहार आ जाती है सूनी राहों में

    महफ़िल मेरी सज जाती है

    यादों में जब मेरे तुम आती हो कभी-कभी \

    हवा थम गयी थी,

    बहार रुक गयी थी

    खुशगंवार इस मौसम में

    सारा आलम मदहोश था

    फिजां में जब तेरी

    खुशबू फैली थी अभी-अभी

    यकीं नहीं आता, ये तेरी आँखे हैं या कोई मयखाना

    जुल्फें हैं ये तेरी हैं कोई बादल आवारा

    जाम छलकती है जब तेरी आँखों से

    दो घूँट पीकर इसे मैं भी तो बन जाता हूँ

    शराबी कभी-कभी \

    दिल को दे ताजगी, रूह को दे सुकूं

    हर नजारों में वह दम कहाँ

    एक तेरा ही तो रूप देता है दिल को तसल्ली

    ख्वाबों में जब तुम मेरे आती हो कभी-कभी

    हवाएं जब तेरा पैगाम सुनती हैं कभी-कभी \\

    ***

    20. कैसी ये प्यास है

    ये खामोश मंजर और उफ़ ये तन्हाईयां

    ये शाम-ऐ-गम और चढ़ती-उतरती बीती यादों की परछाईयां

    रह-रह कर उठती है दिल में आज फिर एक मीठी चुभन,

    उफ़! कैसी ये प्यास है कैसा ये तड़पन \

    याद करो वह लम्हा जब हम तुम पहली बार मिले थे

    दिल में अरमानों के न जाने कितने फूल खिले थे

    पल पल बढ़ती जाती सीने की ये धड़कन

    उफ़! कैसी ये प्यास है कैसा ये तड़पन \

    वो छुपकर बातें करना और हौले-हौले मुस्कुराना

    हथेलियाँ में चेहरा छुपाकर वो तेरा शर्माना

    याद है मुझे अब भी तेरा वो समर्पण

    उफ़! कैसी ये प्यास है कैसा ये तड़पन \

    अधरों में तेरी कैसी खुमारी छा जाती थी

    जेठ की दोपहरी मे भी मुझसे मिलने जब तुम नंगे पांव चली आती थी

    प्रेम की बारिश में भीगा तेरा वो महकता तन मन

    उफ़! कैसी ये प्यास है कैसी ये तड़पन \

    ***

    21. अधूरा सा लगता है अब ये सफ़र

    पतझड़ का मौसम और वीरान ये गुलशन

    मुरझाये बेल और उजड़ा उजड़ा सा चमन

    खामोश धड़कन और सूनी-सूनी सी ये डगर

    तुम्हारे बिना अधूरा सा लगता है अब ये सफ़र \

    बरसों बीत गए जब हम तुम अजनबी थे

    मिलन से पहले के वो पल कितने हसीं थे

    तुम भी तो हंस पड़ते थे मुझे देख-देखकर

    तुम्हारे बिना अधूरा सा लगता है अब ये सफ़र \

    छुप-छुप कर बातें करना कितना अच्छा लगता था

    जीवन का हर सपना कितना सच्चा लगता था

    बदहवास साँसे और चाहत भरी तेरी नज़रों का असर

    तुम्हारे बिना अधूरा सा लगता है अब ये सफ़र \

    एक पल की जुदाई में कैसे बावले हो जाते थे

    सीने से लगाकर तस्वीर को कभी हँसते तो कभी रोते थे

    मैं भी तो आ जाता था तुमसे मिलने घर से भाग-भागकर

    तुम्हारे बिना अधूरा सा लगता है अब ये सफ़र \

    गोद में सर रखकर तेरी सो लेने को जी चाहता है

    बाजुओं के आगोश में जकड़कर तुझे रो लेने का जी चाहता है

    होंठो को चूम लेता तू जो होती यहीं कहीं अगर

    तुम्हारे बिना अधूरा सा लगता है अब ये मेरा सफ़र ||

    ***

    22. सहमे-सहमे से हैं हम

    आज-कल तन्हा और कुछ परेशां से हैं हम

    खौफ़जदा और कुछ सहमे-सहमे से हैं हम

    जख्मों को अपना दिखाना भी नहीं है मुमकिन

    कि अपने ही हाथों अपना घर जलाये बैठे है हम \

    हर मोड़ पर मिलता है कांटो का ही गुलदस्ता

    कुछ इस तरह अंधेरों को दामन में समेटे हुए है हम \

    आज कल कुछ परेशां और तन्हा-तन्हा से हैं हम

    कतराए हुए से रहते हैं आज-कल अपने ही लोग

    खुशियों को उनकी चुराकर जैसे बैठे हुए हैं हम \

    घूरती हैं हर पल मुझे दुनिया की सुलगती आँखे

    नकाब लगाकर इसलिए, गलियों में आज-कल चलते हैं हम

    खौफ़जदा और कुछ सहमे-सहमे से हैं हम

    सफ़र ज़िन्दगी का नहीं था आसां

    आग के दरिया में चलकर यहाँ तक पहुंचे है हम

    जब कभी उठती है अपने जख्मों की टीस

    नज़रें बचाकर चुपके से आंसुओं को अपनी पी जाते हैं हम

    आजकल तन्हा और कुछ परेशां से हैं हम

    खौफ़जदा और कुछ सहमे-सहमे से हैं हम \\

    ***

    23. प्यार का बुखार

    आज-कल फिजां में बहार है, मौसम भी खुशगंवार है

    हर गली-कुंचा, क़स्बा-शहर, स्कूल और कॉलेज में

    चढ़ा प्यार का बुखार है \

    फैशन का ज़माना है, बदला-बदला हुआ हर फ़साना है

    हर जवां लबों पे आज “मैडोना” और “जैक्सन” का तराना है

    “निगोडे-इश्क” ने आज क्या-क्या नहीं किया है

    कपड़ो को तंग और गालों को बदरंग किया है

    ये इश्क का भूत भी सर पे लोगों का कुछ इस तरह सवार है

    जिसे देखो वही कहता ‘कहो न प्यार है’

    प्यार का मौसम है इसलिए हर रंग सदाबहार है

    लवेरिया वायरस के प्रकोप से फैला फिर एक नया कालाजार है

    लोग पहले कितने नादान थे वर्षो करते प्यार का इन्तजार थे

    पर विज्ञान का ज़माना है आज समय ‘फ़ास्ट’ हो गया है

    अब फुर्सत किसे है इंतज़ार का युग ‘लास्ट’ हो गया है

    आज तो पहली ही नज़र में “कुछ-कुछ होता है”

    प्यार जाग उठता है मगर जज्बात सोता है

    शर्म आती है कहने में मगर क्या करे --“होता है- होता है”

    हर कोई बहती गंगा में हाथ धोता है \

    अरे प्यार तो आँखों की भाषा है, इसका इज़हार बेकार है

    पर मेरी इन बातों को आज कोई नहीं करता स्वीकार है

    बड़े-बड़े नगरों में तो बाकायदा फल-फूल रहा, यह नया व्यापार है

    हर गली-कूचा, क़स्बा-शहर स्कूल-कॉलेज में

    चढ़ा प्यार का बुखार है \\

    ***

    24. हमारा हिन्दुस्तान

    स्वतंत्रता प्राप्ति से लेकर अब तक

    देश का हो रहा विकास निरंतर है

    देशवासियों की स्थिति में आया

    फिर भी नहीं कुछ अंतर है \

    हैवानियत चढ़ा परवान और मौत का बढ़ा सामान

    महज कागज़ी पुलिंदो में सिमटा

    इक्कीसवी शदी का ऐलान

    कल-कारखाने बढ़े पर मैली है आज गंगा

    अमन का नाम नहीं कही झगड़ा तो कहीं दंगा

    देश की आधी आबादी है आज -- भूखी और नंगी

    तरक्की नि:संदेह हुई पर हर ओर तंगी ही तंगी

    वोटों की राजनीति में किया कुछ इस तरह प्रहार

    सावन के महीने में भी देश का ज़र्रा-ज़र्रा रेगिस्तान

    सिर्फ थोथी दलीलों से अब क्या होगा ---

    जब अपने ही मुल्क के हर कोने में

    आज एक नया पाकिस्तान \

    जीने की है होड़

    इसलिए महंगाई भी है कमरतोड़

    क्या होगा आगे जब अभी देश की आबादी है 121 करोड़

    क्या पाया हमने आज़ादी के इन 70 वर्षो में

    देश तो खुद ही डूब गया

    आज विश्व बैंक के कर्जो में

    गौरवानिब्त हैं, कहते हैं फिर भी

    महान हमारा हिन्दुस्तान

    पर एक सवाल खुद से क्या वाकई यही है

    हमारे पुरखों का हिन्दुस्तान \\

    ***

    25. असर कर जायेगा

    जख्म अभी हरा है, दवा असर कर जायेगा

    थोड़ी सी हवा दे दो, शोला भड़क जायेगा \

    क्यों डरते हो मुक्कदर से अपने बुजदिल

    बाजुओं में गर जोर है तो हर पासा पलट जायेगा

    थोड़ी सी हवा दे दो, शोला भड़क जायेगा \

    आग पर चलने वाले अंगारों से नही डरते

    और सूरमाँ कभी जंग की परवाह नही करते

    अंजाम की बात क्यूँ करते हो फ़िज़ूल

    सर पर गर कफ़न हो तो मौत का भी रास्ता बदल जायेगा

    थोड़ी सी हवा दे दो, शोला भड़क जायेगा \

    ***

    26. शायद मैं भी जवान हो गया

    पार्क में एक दिन—एक प्रेमी युगल को तफरीर करते देख

    मेरे जज्बातों में कोहराम मच गया, एक मीठा सा एहसास हुआ दिल में

    कि शायद मैं भी अब जवान हो गया \

    अरे ये उम्र तो प्यार करने की होती है

    बाप-दादों की दौलत को लुटाने की होती है

    यही सोचकर अगले सुबह निकल पड़ा घर से

    लेकर मैं ऊपर वाले का नाम

    की मिल जाएगी कोई हसीं लड़की

    और बन जायेगा मेरा बिगड़ा काम \

    मेरी दुआ कुबूल हुई - एक लड़की मुझसे टकरा गयी

    आँखे चार हुई- मुझे देखकर वो शर्मा गई

    उसकी “बाईं-आँख” दब गयी,

    मैंने सोचा की बात बन गयी

    मेरे इरादों को लेकिन शायद वो भांप गयी

    इसलिए मेरे बात करने से पहले ही वह घर भाग गयी \

    एक दिन उसके बाप ने मुझे अपने घर बुलवाया

    खुशी में मैंने दोस्तों को दावत दी और नया ड्रेस सिलवाया

    मैंने सोचा की मेरी तो लाटरी खुल गयी

    लड़की शायद शादी के लिए मुझसे घर में अड़ गयी

    सज-धज कर उसके घर पहुंचा –

    पता चला की उसका बाप एक पुलिसवाला था

    शक्ल से तो लगता बिलकुल एक तमाशे वाला था \

    एक झापड़ मेरे गालों में रशीद कर,

    कड़कती आवाज़ में तोंद सहलाते हुए बोला

    उठाकर हवालात में बंद कर दूंगा,

    जवानी की सारी हवा निकाल दूंगा

    अरे तुम्हारे जैसे कितने मजनू आये और चले गए

    किसी की दांत टूटी और कई फूटे सर लेकर भाग गए

    मैंने कहा- आपकी लड़की ने ही पहले मुझे आँख मारा था

    बाद में तब मैंने फूल सा अपना नाज़ुक दिल हारा था

    लड़की के बाप ने कहा –

    तुम जैसो को समझाते- समझाते मैं बदहाल हो चुका हूँ

    और --

    अपनी लड़की का इलाज़ कराते-कराते कंगाल हो चुका हूँ

    अरे! मैं कैसे बताऊँ ---

    कैसे बताऊँ तुम्हे कि

    मेरी लड़की की बाईं आँख भेंगी है, इसलिए बार-बार दब जाती है

    लेकिन तुम्हारे जैसा हर कोई यही सोचता है

    कि बात बन जाती है \\

    ***

    कवि का संक्षिप्त परिचय

    नाम– विष्णु देव प्रसाद ‘विनू’

    जन्मतिथि- 12/02/1974

    शिक्षा- M.A. (HISTORY), L.L.B

    झारखण्ड के सिमडेगा जिला के अंतर्गत रानीकुदर गाँव में जन्मे ‘विनू’ की प्रारंभिक शिक्षा-दीक्षा गाँव के ही सरकारी स्कूल में हुई | ग्रेजुएशन तक की शिक्षा इन्होने बीस किलोमीटर की प्रतिदिन साइकिल से दूरी तय कर सिमडेगा से पूरी की| बचपन से ही मेधावी ‘विनू’ जी की रूचि स्कूली जीवन से ही साहित्य के क्षेत्र में थी| स्कूल और कॉलेज में आयोजित होने वाले वाद-विवाद और काव्य पाठ प्रतियोगिता में इन्होने हमेशा प्रथम स्थान प्राप्त किया| इनकी कई रचनाएं इनके कॉलेज जीवन के दिनों में ही प्रकाशित हो चुकी थी|

    वर्तमान में सरकारी शिक्षक के पद पर कार्यरत “विष्णु देव” जी हमेशा से साहित्यिक कार्यक्रमों में हिस्सा लेते रहे हैं| साहित्य साधना में इनकी धर्मपत्नी श्रीमती “सुनीता देवी” का भी सहयोग रहता है| साहित्य के अतिरिक्त इन्हें गायन और अभिनय में भी गहरी रूचि है|

    E-mail - bishnudeo0@gmail.com

    Contact- 9304920350

    Address- Ashirwad Bhawan, niche bazaar simdega

    JHARKHAND 835223

    ***