Rangbhumi - 22 in Hindi Fiction Stories by Munshi Premchand books and stories PDF | रंगभूमि अध्याय 22

Featured Books
  • નિતુ - પ્રકરણ 64

    નિતુ : ૬૪(નવીન)નિતુ મનોમન સહજ ખુશ હતી, કારણ કે તેનો એક ડર ઓછ...

  • સંઘર્ષ - પ્રકરણ 20

    સિંહાસન સિરીઝ સિદ્ધાર્થ છાયા Disclaimer: સિંહાસન સિરીઝની તમા...

  • પિતા

    માઁ આપણને જન્મ આપે છે,આપણુ જતન કરે છે,પરિવાર નું ધ્યાન રાખે...

  • રહસ્ય,રહસ્ય અને રહસ્ય

    આપણને હંમેશા રહસ્ય ગમતું હોય છે કારણકે તેમાં એવું તત્વ હોય છ...

  • હાસ્યના લાભ

    હાસ્યના લાભ- રાકેશ ઠક્કર હાસ્યના લાભ જ લાભ છે. તેનાથી ક્યારે...

Categories
Share

रंगभूमि अध्याय 22

रंगभूमि

प्रेमचंद

अध्याय 22

सैयद ताहिर अली को पूरी आशा थी कि जब सिगरेट का कारखाना बनना शुरू हो जाएगा, तो मेरी कुछ-न-कुछ तरक्की हो जाएगी। मि. सेवक ने उन्हें इसका वचन दिया था। इस आशा के सिवा उन्हें अब तक ऋणों को चुकाने का कोई उपाय न नजर आता था, जो दिनों-दिन बरसात की घास के समान बढ़ते जाते थे। वह स्वयं बड़ी किफायत से रहते थे। ईद के अतिरिक्त कदाचित् और कभी दूधा उनके कंठ के नीचे न जाता था। मिठाई उनके लिए हराम थी। पान-तम्बाकू का उन्हें शौक ही न था। किंतु वह खुद चाहे कितने ही किफायत करें, घरवालों की जरूरत में काट-कपट करना न्याय-विरुध्द समझते थे। जैनब औैर रकिया अपने लड़कों के लिए दूधा लेना आवश्यक समझती थीं। कहतीं-यही तो लड़कों के खाने-पीने की उम्र है, इसी उम्र में तो उनकी हव्यिाँ चौड़ी-चकली होती हैं, दिल और दिमाग बढ़ते हैं। इस उम्र में लड़को को मुकब्बी खाना न मिले, तो उनकी सारी जिंदगी बरबाद हो जाती है।

लड़कों के विषय में यह कथन सत्य हो या नहीं; पर पान-तम्बाकू के विषय में ताहिर अली की विमाताएँ जिस युक्ति का प्रतिपादन करती थीं, उसकी सत्यता स्वयंसिध्द थी-स्त्रिायों का इनके बगैर निबाह ही नहीं हो सकता। कोई देखे तो कहे, क्या इनके यहाँ पान तक मयस्सर नहीं, यही तो अब शराफत की एक निशानी रह गई है, मामाएँ नहीं, खवासें नहीं, तो क्या पान से भी गए। मर्दों को पान की ऐसी जरूरत नहीं। उन्हें हाकिमों से मिलना-जुलना पड़ता है, पराई बंदगी करते हैं, उन्हें पान की क्या जरूरत!

विपत्तिा यह थी कि माहिर और जाबिर तो मिठाइयाँ खाकर ऊपर से दूधा पीते और साबिर और नसीमा खड़े मुँह ताका करते। जैनब बेगम कहतीं-इनके गुड़ के बाप कोल्हू ही, खुदा के फजल से जिंदा हैं। सबको खिलाकर खिलाएँ, तभी खिलाना कहलाए। सब कुछ तो उन्हीं की मुट्ठी में है, जो चाहें खिलाएँ, जैसे चाहें रखें; कोई हाथ पकड़नेवाला है?

वे दोनों दिन-भर बकरी की तरह पान चबाया करतीं, कुल्सूम को भोजन के पश्चात् एक बीड़ा भी मुश्किल से मिलता था। अपनी इन जरूरतों के लिए ताहिर अली से पूछने या चादर देखकर पाँव फैलाने की जरूरत न थी।

प्रात:काल था। चमड़े की खरीद हो रही थी। सैकड़ों चमार बैठे चिलम पी रहे थे। यही एक समय था, जब ताहिर अली को अपने गौरव का कुछ आनंद मिलता था। इस वक्त उन्हें अपने महत्तव का हलका-सा नशा हो जाता था। एक चमार द्वार पर झाड़ू लगाता, एक उनका तख्त साफ करता, एक पानी भरता। किसी को साग-भाजी लाने के लिए बाजार भेज देते और किसी से लकड़ी चिराते। इतने आदमियों को अपनी सेवा में तत्पर देखकर उन्हें मालूम होता था कि मैं भी कुछ हूँ। उधार जैनब और रकिया परदे में बैठी पानदान का खर्च वसूल करतीं। साहब ने ताहिर अली को दस्तूरी लेने से मना किया था, स्त्रिायों को पान-पत्तो का खर्च लेने का निषेधा न किया था। इस आमदनी से दोनों ने अपने-अपने लिए गहने बनवा लिए थे। ताहिर अली इस रकम का हिसाब लेना छोटी बात समझते थे।

इसी समय जगधार आकर बोला-मुंसीजी, हिसाब कब तक चुकता कीजिएगा? मैं कोई लखपती थोड़े ही हूँ कि रोज मिठाइयाँ देता जाऊँ, चाहे दाम मिलें या न मिलें। आप जैसे दो-चार गाहक और मिल जाएँ, तो मेरा दिवाला ही निकल जाए। लाइए, रुपये दिलवाइए, अब हीला-हवाला न कीजिए, गाँव-मुहल्ले की बहुत मुरौवत कर चुका। मेरे सिर भी तो महाजन का लहना-तगादा है। यह देखिए कागद, हिसाब कर दीजिए।

देनदारों के लिए हिसाब का कागज यमराज का परवाना है। वे उसकी ओर ताकने का साहस नहीं कर सकते। हिसाब देखने का मतलब है,रुपये अदा करना। देनदार ने हिसाब का चिट्ठा हाथ में लिया और पानेवाले का हृदय आशा से विकसित हुआ। हिसाब का परत हाथ में लेकर फिर कोई हीला नहीं किया जा सकता। यही कारण है कि देनदारों को खाली हाथ हिसाब देखने का साहस नहीं होता।

ताहिर अली ने बड़ी नम्रता से कहा-भई, हिसाब सब मालूम है, अब बहुत जल्द तुम्हारा बकाया साफ़ हो जाएगा। दो-चार दिन और सब्र करो।

जगधार-कहाँ तक सबर करूँ साहब? दो-चार दिन करते-करते तो महीनों हो गए। मिठाइयाँ खाते बखत तो मीठी मालूम होती हैं, दाम देते क्यों कड़घवा लगता है?

ताहिर-बिरादर, आजकल ज़रा तंग हो गया हूँ, मगर अब जल्द कारखाने का काम शुरू होगा, मेरी भी तरक्की होगी। बस, तुम्हारी एक-एक कौड़ी चुका दूँगा।

जगधार-ना साहब, आज तो मैं रुपये लेकर ही जाऊँगा। महाजन के रुपये न दूँगा, तो आज मुझे छटाँक-भर भी सौदा न मिलेगा। भगवान् जानते हैं, जो मेरे घर में टका भी हो। यह समझिए कि आप मेरा नहीं, अपना दे रहे हैं। आपसे झूठ बोलता होऊँ, तो जवानी काम न आए,रात बाल-बच्चे भूखे ही सो रहे। सारे मुहल्ले में सदा लगाई, किसी ने चार आने पैसे न दिए।

चमारों के चौधारी को जगधार पर दया आ गई। ताहिर अली से बोला-मुंशीजी, मेरा पावना इन्हीं को दे दीजिए, मुझे दो-चार दिन में दीजिएगा।

ताहिर-जगधार, मैं खुदा को गवाह करके कहता हूँ, मेरे पास रुपये नहीं हैं, खुदा के लिए दो-चार दिन ठहर जाओ।

जगधार-मुंसीजी, झूठ बोलना गाय खाना है, महाजन के रुपये आज न पहँचे, तो कहीं का नहीं रहूँगा।

ताहिर अली ने घर में आकर कुल्सूम से कहा-मिठाईवाला सिर पर सवार है, किसी तरह टलता ही नहीं। क्या करूँ, रोकड़ में से दस रुपये निकालकर दे दूँ?

कुल्सूम ने चिढ़कर कहा-जिसके दाम आते हैं, वह सिर पर सवार होगा ही! अम्माँजान से क्यों नहीं माँगते? मेरे बच्चों को तो मिठाई मिली नहीं; जिन्होंने उचक-उचककर खाया-खिलाया है, वे दाम देने की बेर क्यों भीगी बिल्ली बनी बैठी हुई हैं?

ताहिर-इसी मारे तो मैं तुमसे बात कहता नहीं। रोकड़ से ले लेने में क्या हरज है? तनख्वाह मिलते ही जमा कर दूँगा।

कुल्सूम-खुदा के लिए कहीं यह गजब न करना। रोकड़ को काला साँप समझो। कहीं आज ही साहब रकम की जाँच करने लगे तो?

ताहिर-अजी नहीं, साहब को इतनी फुरसत कहाँ कि रोकड़ मिलाते रहें!

कुल्सूम-मैं अमानत की रकम छूने को न कहूँगी। ऐसा ही है, तो नसीमा का तौक उतारकर कहीं गिरो रख दो, और तो मेरे किए कुछ नहीं हो सकता।

ताहिर अली को दु:ख तो बहुत हुआ; पर करते क्या। नसीमा का तौक निकालते थे, और रोते थे। कुल्सूम उसे प्यार करती थी और फुसलाकर कहती थी, तुम्हें नया तौक बनवाने जा रहे हैं। नसीमा फूली न समाती थी कि मुझे नया तौक मिलेगा।

तौक माल में लिए हुए ताहिर अली बाहर निकले, और जगधार को अलग ले जाकर बोले-भई, इसे ले जाओ, कहीं गिरो रखकर अपना काम चलाओ। घर में रुपये नहीं हैं।

जगधार-उधाार सौदा बेचना पाप है, पर करूँ क्या, नगद बेचने लगूँ, तो घूमता ही रह जाऊँ।

यह कहकर उसने सकुचाते हुए तौक ले लिया और पछताता हुआ चला गया। कोई दूसरा आदमी अपने ग्राहक को इतना दिक करके रुपये न वसूल करता। उसे लड़की पर दया आ ही जाती, जो मुस्कराकर कह रही थी, मेरा तौक कब बनाकर लाओगे? परंतु जगधार गृहस्थी के असह्य भार के कारण उससे कहीं असज्जन बनने पर मजबूर था, जितना वह वास्तव में था।

जगधार को गए आधा घंटा भी न गुजरा था कि बजरंगी त्योरियाँ बदले हुए आकर बोला-मुंशीजी, रुपये देने हों, तो दीजिए, नहीं तो कह दीजिए, बाबा, हमसे नहीं हो सकता; बस, हम सबर कर लें। समझ लेंगे कि एक गाय नहीं लगीं रोज-रोज दौड़ाते क्यों हैं?

ताहिर-बिरादर, जैसे इतने दिनों तक सब्र किया है, थोड़े दिन और करो। खुदा ने चाहा, तो अबकी तुम्हारी एक पाई भी न रहेगी।

बजरंगी-ऐसे वादे तो आप बीसों बार कर चुके हैं।

ताहिर-अबकी पक्का वादा करता हूँ।

बजरंगी-तो किस दिन हिसाब कीजिएगा?

ताहिर अली असमंजस में पड़ गए, कौन-सा दिन बतलाएँ। देनदारों को हिसाब के दिन का उतना ही भय होता है, जितना पापियों को। वे'दो-चार', 'बहुत जल्द', 'आज-कल में' आदि अनिश्चयात्मक शब्दों की आड़ लिया करते हैं। ऐसे वादे पूरे किए जाने के लिए नहीं, केवल पानेवालों को टालने के लिए किए जाते हैं। ताहिर अली स्वभाव से खरे आदमी थे। तकाजों से उन्हें बड़ा कष्ट होता था। वह तकाजों से उतना ही डरते थे, जितना शैतान से। उन्हें दूर से देखते ही उनके प्राण-पखेरू छटपटाने लगते थे। कई मिनट तक सोचते रहे, क्या जवाब दूँ, खर्च का यह हाल है, और तरक्की के लिए कहता हूँ, तो कोरा जवाब मिलता है। आखिरकार बोले-दिन कौन-सा बताऊँ, चार-छ: दिन में जब आ जाओगे, उसी दिन हिसाब हो जाएगा।

बजरंगी-मुंशीजी, मुझसे उड़नघाइयाँ न बताइए। मुझे भी सभी तरह के ग्राहकों से काम पड़ता है। अगर दस दिन में आऊँगा, तो आप कहेंगे,इतनी देर क्यों की, अब रुपये खर्च हो गए। चार-पाँच दिन में आऊँगा, तो आप कहेंगे, अभी तो रुपये मिले ही नहीं। इसलिए मुझे कोई दिन बता दीजिए, जिसमें मेरा भी हरज न हो और आपको भी सुबीता हो।

ताहिर-दिन बता देने में मुझे कोई उज्र न होता, लेकिन बात यह है कि मेरी तनख्वाह मिलने की कोई तारीख मुकर्रर नहीं है; दो-चार दिनों का हेर-फेर हो जाता है। एक हफ्ते के बाद किसी लड़के को भी भेज दोगे, तो रुपये मिल जाएँगे।

बजरंगी-अच्छी बात है, आप ही का कहना सही। अगर अबकी वादाखिलाफी कीजिएगा, तो फिर माँगने न आऊँगा।

बजरंगी चला गया, तो ताहिर अली डींग मारने लगे-तुम लोग समझते होगे, ये लोग इतनी-इतनी तलब पाते हैं, घर में बटोरकर रखते होंगे,और यहाँ खर्च का यह हाल है कि आधाा महीना भी नहीं खत्म होता और रुपये उड़ जाते हैं। शराफत रोग है, और कुछ नहीं।

एक चमार ने कहा-हुजूर, बड़े आदमियों का खर्च भी बड़ा होता है। आप ही लोगों की बदौलत तो गरीबोें की गुजर होती है। घोड़े की लात घोड़ा ही सह सकता है।

ताहिर-अजी, सिर्फ पान में इतना खर्च हो जाता है कि उतने में दो आदमियों का अच्छी तरह गुजर हो सकता है।

चमार-हुजूर, देखते नहीं हैं, बड़े आदमियों की बड़ी बात होती है।

ताहिर अली के ऑंसू अच्छी तरह न पुँछने पाए थे कि सामने से ठाकुरदीन आता हुआ दिखाई दिया। बेचारे पहले ही से कोई बहाना सोचने लगे। इतने में उसने आकर सलाम किया और बोला-मुंशीजी, कारखाने में कब से हाथ लगेगा?

ताहिर-मसाला जमा हो रहा है। अभी इंजीनियर ने नक्शा नहीं बनाया है, इसी वजह से देर हो रही है।

ठाकुरदीन-इंजीनियर ने भी कुछ लिया होगा? बड़ी बेईमान जात है हुजूर, मैंने भी कुछ दिन ठेकेदारी की है; जो कमाता था, इंजीनियरों को खिला देता था। आखिर घबराकर छोड़ बैठा। इंजीनियर के भाई डॉक्टर होते हैं। रोगी चाहे मरता हो, पर फीस लिए बिना बात न सुनेंगे। फीस के नाम से रिआयत भी करोगे, तो गाड़ी के किराए और दवा के दाम में कस लेंगे, (हिसाब का परत दिखाकर) जरा इधार भी एक निगाह हो जाए।

ताहिर-सब मालूम है, तुमने गलत थोड़े ही लिखा होगा।

ठाकुरदीन-हुजूर, ईमान है, तो सब कुछ है। साथ कोई न जाएगा। तो मुझे क्या हुकुम होता है?

ताहिर-दो-चार दिन की मुहलत दो।

ठाकुरदीन-जैसी आपकी मरजी। हुजूर, चोरी हो जाने से लाचार हो गया, नहीं तो दो-चार रुपयों की कौन बात थी। उस चोरी में तबाह हो गया। घर में फूटा लोटा तक न बचा। दाने को मुहताज हो गया हुजूर! चोरों को ऑंखों के सामने भागते देखा, उनके पीछे दौड़ा। पागलखाने तक दौड़ता चला गया। ऍंधोरी रात थी, ऊँच-खाल कुछ न सूझता था। एक गढ़े में गिर पड़ा। फिर उठा। माल बड़ा प्यारा होता है। लेकिन चोर निकल गए थे। थाने में इत्ताला की, थानेदारों की खुशामद की। मुदा गई हुई लच्छमी कहीं लौटती हैं। तो कब आऊँ?

ताहिर-तुम्हारे आने की जरूरत नहीं, मैं खुद भिजवा दूँगा।

ठाकुरदीन-जैसी आपकी खुशी, मुझे कोई उजर नहीं है। मुझे तगादा करते आप ही सरम आती है। कोई भलामानुस हाथ में पैसे रहते हुए टालमटोल नहीं करता, फौरन निकालकर फेंक देता है। आज जरा पान लेने जाना था, इसीलिए चला आया था। सब न हो सके, तो थोड़ा-बहुत दे दीजिए। किसी तरह काम न चला, तब आपके पास आया। आदमी पहचानता हूँ हुजूर, पर मौका ऐसा ही आ पड़ा है।

ठाकुरदीन की विनम्रता और प्रफुल्लित सहृदयता ने ताहिर अली को मुग्धा कर दिया। तुरंत संदूक खोला और पाँच रुपये निकालकर उसके सामने रख दिए। ठाकुरदीन ने रुपये उठाए नहीं, एक क्षण कुछ विचार करता रहा, तब बोला-ये आपके रुपये हैं कि सरकारी रोकड़ के हैं?

ताहिर-तुम ले जाओ, तुम्हें आम खाने से मतलब कि पेड़ गिनने से?

ठाकुरदीन-नहीं मुंशीजी, यह न होगा। अपने रुपये हों, तो दीजिए, मालिक की रोकड़ हो, तो रहने दीजिए; फिर आकर ले जाऊँगा। आपके चार पैसे खाता हूँ, तो आपको ऑंखों से देखकर गढ़े में न गिरने दूँगा। बुरा मानिए, तो मान जाइए, इसकी चिंता नहीं, साफ बात करने के लिए बदनाम हूँ, आपके रुपये यों अलल्ले-तलल्ले खर्च होंगे, तो एक दिन आप धाोखा खाएँगे। सराफत ठाटबाट बढ़ने में नहीं है, अपनी आबरू बचाने में है।

ताहिर अली ने सजल नयन होकर कहा-रुपये लेते जाओ।

ठाकुरदीन उठ खड़ा हुआ और बोला-जब आपके पास हों, तब देना।

अब तक तो ताहिर अली को कारखाने के बनने की उम्मीद थी। इधार आमदनी बढ़ी, उधार मैंने रुपये दिए; लेकिन जब मि. क्लार्क ने अनिश्चित समय तक के लिए कारखाने का काम बंद करवा दिया, तब ताहिर अली का अपने लेनदारों को समझाना मुश्किल हो गया। लेनदारों ने ज्यादा तंग करना शुरू किया। ताहिर अली बहुत चिंतित रहने लगे, बुध्दि कुछ काम न करती थी। कुल्सूम कहती थी-ऊपर का खर्च सब बंद कर दिया जाए। दूधा, पान और मिठाइयों के बिना आदमी को कोई तकलीफ नहीं हो सकती। ऐसे कितने आदमी हैं जिन्हें इस जमाने में ये चीजें मयस्सर हैं? और की क्या कहूँ, मेरे ही लड़के तरसते हैं। मैं पहले भी समझा चुकी हूँ और अब फिर समझाती हूँ कि जिनके लिए तुम अपना खून और पसीना एक कर रहे हो, वे तुम्हारी बात भी न पूछेंगे। पर निकलते ही साफ उड़ न जाएँ, तो कहना। अभी से रुख देख रही हूँ। औरों को सूद पर रुपये दिए जाते हैं, जेवर बनवाए जाते हैं; लेकिन घर के खर्च को कभी कुछ माँगो, तो टका-सा जवाब मिलता है, मेरे पास कहाँ। तुम्हारे ऊपर इन्हें कुछ तो रहम आना चाहिए। आज दूधा, मिठाइयाँ बंद कर दो, तो घर में रहना मुश्किल हो जाए।

तीसरा पहर था। ताहिर अली बरामदे में उदास बैठे हुए थे। सहसा भैरों आकर बैठ गया, और बोला-क्यों मुंशीजी, क्या सचमुच अब यहाँ कारखाना न बनेगा?

ताहिर-बनेगा क्यों नहीं, अभी थोड़े दिनों के लिए रुक गया है।

भैरों-मुझे तो बड़ी आशा थी कि कारखाना बन गया, तो मेरा बिकरी-बट्टा बढ़ जाएगा; दूकान पर बिक्री बिल्कुल मंदी है। मैं चाहता हूँ कि यहाँ सबेरे थोड़ी देर बैठा करूँ। आप मंजूर कर लें, तो अच्छा हो। मेरी थोड़ी-बहुत बिकरी हो जाएगी। आपको भी पान खाने के लिए कुछ नजर कर दिया करूँगा।

किसी और समय ताहिर अली ने भैरों को डाँट बताई होती। ताड़ी की दूकान खोलने की आज्ञा देना उनके धार्म-विरुध्द था। पर इस समय रुपये की चिंता ने उन्हें असमंजस में डाल दिया। इससे पहले भी धानाभाव के कारण उनके कर्म और सिध्दांतों में कई बार संग्राम हो चुका था,और प्रत्येक अवसर पर उन्हें सिध्दांतों ही का खून करना पड़ा था। आज वही संग्राम हुआ और फिर सिध्दांतों ने परिस्थितियों के सामने सिर झुका दिया। सोचने लगे-क्या करूँ? इसमें मेरा क्या कसूर? मैं किसी बेजा खर्च के लिए शरा को नहीं तोड़ रहा हूँ, हालत ने मुझे बेबस कर दिया है। कुछ झेंपते हुए बोले-यहाँ ताड़ी की बिकरी न होगी।

भैरों-हुजूर, बिकरी तो ताड़ी की महक से होगी। नसेबाजों की ऐसी आदत होती है कि न देखें, तो चाहे बरसों न पिएँ, पर नसा सामने देखकर उनसे नहीं रहा जाता।

ताहिर-मगर साहब के हुक्म के बगैर मैं कैसे इजाजत दे सकता हूँ?

भैरों-आपकी जैसी मरजी! मेरी समझ में तो साहब से पूछने की जरूरत ही नहीं। मैं कौन यहाँ दूकान रखूँगा। सबेरे एक घड़ा लाऊँगा, घड़ी-भर में बेचकर अपनी राह लूँगा। उन्हें खबर ही न होगी कि यहाँ कोई ताड़ी बेचता है।

ताहिर-नमकहरामी सिखाते हो, क्यों?

भैरों-हुजूर, इसमें नमकहरामी काहे की, अपने दाँव-घात पर कौन नहीं लेता?

सौदा पट गया। भैरों एकमुश्त 15 रुपये देने को राजी हो गया। जाकर सुभागी से बोला-देख, सौदा कर आया न! तू कहती थी, वह कभी न मानेंगे, इसलाम हैं, उनके यहाँ ताड़ी-सराब मना है, पर मैंने कह न दिया था कि इसलाम हो, चाहे बाम्हन हो, धारम-करम किसी में नहीं रह गया। रुपये पर सभी लपक पड़ते हैं। ये मियाँ लोग बाहर ही से उजले कपड़े पहने दिखाई देते हैं। घर में भूनी भाँग नहीं होती। मियाँ ने पहले तो दिखाने के लिए इधार-उधार किया, फिर 15 रुपये में राजी हो गए। पंद्रह रुपये तो पंद्रह दिन में सीधो हो जाएँगे।

सुभागी पहले घर की मालकिन बनना चाहती थी, इसलिए रोज डंडे खाती थी। अब वह घर-भर की दासी बनकर मालकिन बनी हुई है। रुपये-पैसे उसी के हाथ में रहते हैं। सास, जो उसकी सूरत से जलती थी, दिन में सौ-सौ बार उसे आशीर्वाद देती है। सुभागी ने चटपट रुपये निकालकर भैरों को दिए। शायद दो बिछुड़े हुए मित्रा इस तरह टूटकर गले न मिलते होंगे, जैसे ताहिर अली इन रुपयों पर टूटे। रकम छोटी थी इसके बदले में उन्हें अपने धार्म की हत्या करनी पड़ी थी। लेनदार अपने-अपने रुपये ले गए। ताहिर अली के सिर का बोझ हलका हुआ, मगर उन्हें बहुत रात तक नींद न आई। आत्मा की आयु दीर्घ होती है। उसका गला कट जाए, पर प्राण नहीं निकलते।