जब विश्वास ही गुनहा बन जाए

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यह कहानी एक ऐसे नायक की है जिसने जवानी की दहलीज़ पर कदम रखते ही अतीत के धोखों से जूझकर खुद को संभालना सीखा है। वह अपने सपनों की ओर बढ़ रहा है, लेकिन नियति उसके सामने एक नया मायाजाल बुन देती है। इस मायाजाल की केंद्रबिंदु है नायिका—जो ऊपर से भोली-भाली और मासूम लगती है, लेकिन भीतर इतनी चतुर और रहस्यमयी है कि उसके असली चेहरे को समझ पाना चाणक्य तक के लिए कठिन हो। नायक, जो अभी भी भावनाओं में सीधा और सच्चा है, दोस्ती को कृष्ण-अर्जुन और कृष्ण-सुदामा जैसी पवित्रता मानता है, और नायिका पर अपना संपूर्ण विश्वास और समर्पण अर्पित कर देता है।

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जब विश्वास ही गुनाह बन जाए - 1

अध्याय 1 : प्रस्तावना – टूटा हुआ अतीत, नए सपनों की शुरुआत वह समय अर्जुन की ज़िंदगी का नया मोड़ था जब वह गांव की मिट्टी से निकलकर वह भोपाल जैसे बड़े शहर में MBA की पढ़ाई करने आया था। गाँव की सादगी और भोपाल की चकाचौंध में ज़मीन-आसमान का अंतर था, जहा गाव मे अनजाने से भी अपनत्व का भाव आता था वही शहर मे अपने भी पराए से हो जाते है । ...Read More

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जब विश्वास ही गुनाह बन जाए - सारांश

यह सिर्फ़ एक प्रेम-कहानी नहीं, बल्कि भरोसे के टूटने, दोस्ती के बिकने और इंसानी चालों के खेल का रहस्यमय है।प्रमुख पात्रअर्जुन (नायक) – भावनाओं में सच्चा, सपनों को पाने के लिए संघर्षरत।स्मिता (नायिका) – बाहर से मासूम, भीतर रहस्यमयी और चतुर।राकेश (नायक का मित्र) – हाल ही में प्रेमीका द्वारा त्यागा हुआ, परंतु चालाक।विक्रम (नायिका का तथाकथित भाई/दोस्त) –गीता और प्रीति (राकेश की सहेलियाँ) – कहानी में भावनात्मक उतार-चढ़ाव लाने वाली सहायक पात्र।मिस मेघा (गुरु/मार्गदर्शिका) – अर्जुन को सही रास्ता दिखाने वाली प्रकाशस्तंभ।अध्यायों का खाका (Index/Contents)1. प्रस्तावना – टूटा हुआ अतीत, नए सपनों की शुरुआत2.पहली मुलाक़ात – मासूम चेहरा, ...Read More

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जब विश्वास ही गुनाह बन जाए - 2

अध्याय 2 : पहली मुलाक़ात – मासूम चेहरा अर्जुन ने अपने के कुछ साल आत्मचिंतन और एकांत में बिताए थे। गाँव की मिट्टी और शहर की चकाचौंध से दूर, वह किताबों और ईश्वर के सान्निध्य में रहा। उस एकांत ने उसे भीतर से मज़बूत तो किया, लेकिन मन पर पड़े घाव अभी भी हरे थे। उसे लगता कि लोग केवल अपने स्वार्थ के लिए पास आते हैं, और इसी सोच ने उसे दूसरों से दूर कर दिया।पर जीवन की धारा कभी स्थिर नहीं रहती। अब उसके सामने नई मंज़िल थी—दिल्ली जाकर ...Read More

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जब विश्वास ही गुनाह बन जाए - 3

अध्याय 3: दोस्ती की नींव – विश्वास की डोरसमय का पहिया अपनी गति से आगे बढ़ता रहा और दिल्ली भागदौड़ भरी जिंदगी में अर्जुन और स्मिता की दुनिया सिमटकर एक-दूसरे में सिमटने लगी थी। लाइब्रेरी की चौखट पर शुरू हुई एक साधारण-सी बातचीत अब रोज़ाना की आदत बन गई थी। किताबों, नोट्स और सपनों की बातें करते-करते अर्जुन और स्मिता की दोस्ती की एक मजबूत नींव पड़ चुकी थी। अर्जुन, जो खुद को इस बड़े शहर की भीड़ में अकेला और गुमशुदा महसूस करता था, अब उसके चेहरे ...Read More

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जब विश्वास ही गुनाह बन जाए - 4

अध्याय 4: प्रेम की आहट – अनजाने एहसास दोनों बीच की दोस्ती, जो कुछ समय पहले एक गलतफहमी की वजह से टूटने की कगार पर थी, अब एक बार फिर से जीवंत हो उठी थी। इस बार यह दोस्ती पहले से कहीं ज़्यादा गहरी थी, क्योंकि इसकी नींव विश्वास और एक-दूसरे के लिए सच्ची परवाह पर टिकी थी। अब उनकी मुलाकातें केवल एक-दूसरे को 'हाय' या 'बाय' कहने तक सीमित नहीं थीं, बल्कि उनमें एक गहरा अपनापन और सुकून घुलने लगा था। जैसे ही शाम ढलती, वे दोनों अनजाने ...Read More