गांव धवलपुर की हवा में एक अजीब सी सड़ांध फैली थी। ऐसा लग रहा था जैसे धरती के नीचे कोई पुराना जख्म सड़ रहा हो। हवा ठंडी नहीं थी, लेकिन उसमें एक अजीब भारीपन था—जैसे कोई अदृश्य ताकत हर सांस के साथ शरीर में उतर रही हो। अमावस्या की रात थी। आसमान काले कोहरे से ढँका था, चाँद कहीं नहीं था, और तारों ने मानो अपनी आँखें मूँद ली थीं। हर घर के बाहर नींबू-मिर्ची टांगी गई थी, तुलसी पर घी का दीपक जल रहा था और गांव वाले अपने घरों के भीतर दरवाज़े बंद करके बैठ गए थे। बच्चों को खाट के नीचे छुपा दिया गया था, और बुजुर्ग बुदबुदा रहे थे, "आज मत निकलिए... आज फिर उसकी भूख जागेगी..."
पिशाचनी का श्राप - 1
गांव धवलपुर की हवा में एक अजीब सी सड़ांध फैली थी। ऐसा लग रहा था जैसे धरती के नीचे पुराना जख्म सड़ रहा हो। हवा ठंडी नहीं थी, लेकिन उसमें एक अजीब भारीपन था—जैसे कोई अदृश्य ताकत हर सांस के साथ शरीर में उतर रही हो। अमावस्या की रात थी। आसमान काले कोहरे से ढँका था, चाँद कहीं नहीं था, और तारों ने मानो अपनी आँखें मूँद ली थीं। हर घर के बाहर नींबू-मिर्ची टांगी गई थी, तुलसी पर घी का दीपक जल रहा था और गांव वाले अपने घरों के भीतर दरवाज़े बंद करके बैठ गए थे। बच्चों ...Read More