एक था ठुनठुनिया

(47)
  • 118.5k
  • 7
  • 58.8k

एक था ठुनठुनिया। बड़ा ही नटखट, बड़ा ही हँसोड़। हर वक्त हँसता-खिलखिलाता रहता। इस कारण माँ का तो वह लाड़ला था ही, गाँव गुलजारपुर में भी सभी उसे प्यार करते थे। गाँव में सभी आकर ठुनठुनिया की माँ गोमती से उसकी बड़ाई करते, तो पुलककर गोमती हँस पड़ती। उस हँसी में अंदर की खुशी छलछला रही होती। वह झट ठुनठुनिया को प्यार से गोदी में लेकर चूम लेती और कहती, “बस, यही तो मेरा सहारा है। नहीं तो भला किसके लिए जी रही हूँ मैं!” गोमती के पति दिलावर को गुजरे चार बरस हो गए थे। तब से एक भी दिन ऐसा न गया होगा, जब उसने मन ही मन दिलावर को याद न किया हो। वह धीरे से होंठों में बुदबुदाकर कहा करती थी, “देखा, हमारा बेटा ठुनठुनिया अब बड़ा हो गया है! यह तुम्हारा और मेरा नाम ऊँचा करेगा।...” ठुनठुनिया अभी केवल पाँच बरस का हुआ था, पर गाँव में हर जगह उसकी चर्चा थी। जाने कहाँ-कहाँ वह पहुँच जाता और अपनी गोल-मटोल शक्ल और भोली-भाली बातों से सबको लुभा लेता। सब गोमती के पास आकर ठुनठुनिया की तारीफ करते तो उसे लगता, अब जरूर मेरे कष्ट भरे दिन कट जाएँगे!

Full Novel

1

एक था ठुनठुनिया - 1

प्रकाश मनु 1 सच...पगला, बिल्कुल पगला है तू! ........................ एक था ठुनठुनिया। बड़ा ही नटखट, बड़ा ही हँसोड़। हर हँसता-खिलखिलाता रहता। इस कारण माँ का तो वह लाड़ला था ही, गाँव गुलजारपुर में भी सभी उसे प्यार करते थे। गाँव में सभी आकर ठुनठुनिया की माँ गोमती से उसकी बड़ाई करते, तो पुलककर गोमती हँस पड़ती। उस हँसी में अंदर की खुशी छलछला रही होती। वह झट ठुनठुनिया को प्यार से गोदी में लेकर चूम लेती और कहती, “बस, यही तो मेरा सहारा है। नहीं तो भला किसके लिए जी रही हूँ मैं!” गोमती के पति दिलावर को गुजरे ...Read More

2

एक था ठुनठुनिया - 2

2 मेले में हाथी ................. ठुनठुनिया अभी छोटा ही था कि एक दिन माँ के साथ होली का मेला गया। गुलजारपुर में होली के अगले दिन खूब बड़ा मेला लगता था, जिसमें आसपास के कई गाँवों के लोग आते थे। पास के शहर रायगढ़ के लोग भी आ जाते थे। सब बड़े प्रेम से एक-दूसरे से गले मिलते। साल भर जिनसे मिलने को तरस जाते थे, वे सब इस मेले में मिल जाते थे। इसलिए सब उमंग से भरकर इस मेले में आते थे। ठुनठुनिया अपनी माँ के साथ मेले में घूम रहा था कि तभी शोर मचा, “गजराज ...Read More

3

एक था ठुनठुनिया - 3

3 आहा रे, मालपूए! एक बार ठुनठुनिया पड़ोस के गाँव केकापुर में अपने दोस्त गंगू से मिलने गया। गंगू को देखकर उछल पड़ा। माँ से बोला, “माँ-माँ, देखो तो, ठुनठुनिया आया है, ठुनठुनिया!” गंगू की माँ भी ठुनठुनिया को देखकर बहुत खुश हुई। वह मालपूए बना रही थी। बोली, “दोनों दोस्त मिलकर खाओ।...अभी गरमागरम हैं, झटपट खा लो, देर न करो।” ठुनठुनिया ने पहले कभी मालपूए न खाए थे। उसने घी में तर मीठे-मीठे मालपूए खाए, तो उसे इतने अच्छे लगे कि एक-एक कर पाँच मालपूए खा गया। गंगू बोला, “तू कहे तो अंदर अम्माँ से और लेकर आऊँ?” ...Read More

4

एक था ठुनठुनिया - 4

4 जंगल में बाँसुरी ठुनठुनिया के घर के आगे से एक बाँसुरी बजाने वाला निकला। बाँसुरी पर इतनी प्यारी-प्यारी धुनें वह निकाल रहा था कि ठुनठुनिया तो पूरी तरह उसमें खो गया। वह सुनता रहा, सुनता रहा और फिर जैसे ही बाँसुरी वाला चलने को हुआ, ठुनठुनिया माँ के पास जाकर बोला, “माँ, ओ माँ, मुझे एक बाँसुरी तो खरीद दे!” माँ से पैसे लेकर ठुनठुनिया ने बाँसुरी वाले से चार आने की बाँसुरी खरीदी और बड़ी अधीरता से बजाने की कोशिश करने लगा। उसने बाँसुरी को होंठों के पास रखा। फिर उसमें जोर से फूँक मारकर बार-बार उँगलियाँ ...Read More

5

एक था ठुनठुनिया - 5

5 आया...आया एक भालू! एक दिन ठुनठुनिया जंगल में घूम रहा था कि उसे एक अनोखी चीज दिखाई दी। जाकर देखा, वह काले रंग का एक मुखौटा था जिस पर काले-काले डरावने बाल थे। ठुनठुनिया को बड़ी हैरानी हुई, जंगल में भला यह मुखौटा कौन छोड़ गया? क्या किसी नाटक-कंपनी के लोग यहाँ से गुजरे थे और गलती से इसे यहाँ छोड़ गए। या फिर जंगल का कोई जानवर इसे शहर से उठा लाया और यहाँ छोड़कर चला गया? जो भी हो, चीज तो बड़ी मजेदार है! ठुनठुनिया ने उस मुखौटे को उठाया और अपने चेहरे पर पहनकर देखा। ...Read More

6

एक था ठुनठुनिया - 6

6 चाँदनी रात में नाच जाने कितने दिनों तक गुलजारपुर में उस जंगली भालू की चर्चा चलती रही, जो हुए गाँव की चौपाल पर आया था और वहाँ से रामदीन चाचा के घर की ओर गया। आखिर में सबकी सिट्टी-पिट्टी गुम करता हुआ, वह गायब हो गया। “गायब होने से पहले उसने बड़ा जबरदस्त नाच दिखाया था। और हाँ, उसके पैरों में चाँदी के बड़े-बड़े और खूबसूरत छल्ले भी थे, जो बिजली की तरह चम-चम-चम चमक रहे थे! अजीब-सी डरावनी छन-छन-छन और टंकार हो रही थी...!” गाँव के मुखिया ने कसम खाकर यह बात कही थी। यों किसी-किसी का ...Read More

7

एक था ठुनठुनिया - 7

7 कंचों का चैंपियन ठुनठुनिया गाँव के कई बच्चों को कंचे खेलते देखा करता था। इनमें सबसे खास था कंचे खेलने में नीलू इतना होशियार था कि खेल शुरू होने पर देखते ही देखते सबके कंचे उसकी जेब में आ जाते थे। इसलिए बच्चे उसके साथ खेलने से कतराते थे। कहते थे, “ना-ना भाई, तू तो जादूगर है। पक्का जादूगर...! हमारे सारे कंचे पता नहीं कैसे देखते ही देखते तेरी जेब में चले जाते हैं?” ठुनठुनिया बड़े अचरज से नीलू को कंचे खेलते देखकर मन ही मन सोचता था, ‘काश, मैं भी नीलू की तरह होशियार होता!’ पर उसके ...Read More

8

एक था ठुनठुनिया - 8

8 निम्मा गिलहरी से दोस्ती गुलजारपुर में तालाब के किनारे एक बड़ा-सा बरगद का पेड़ था। ठुनठुनिया को वह लगता था। उसी के नीचे बैठकर वह देर तक बाँसुरी बजाया करता था। बाँसुरी बजाते हुए ठुनठुनिया अपनी सुध-बुध खो देता था। उसकी आँखें बंद हो जातीं और दिल में रस और आनंद का झरना फूट पड़ता। बाँसुरी बजाते-बजाते कितनी देर हो गई, खुद उसे पता नहीं चलता था। चमकीली आँखों वाली एक निक्कू सी गिलहरी बड़े ध्यान से ठुनठुनिया की बाँसुरी सुना करती थी। वह उसके पास आकर बैठ जाती और गोल-गोल कंचे जैसी चमकती आँखों से अपनी खुशी ...Read More

9

एक था ठुनठुनिया - 9

9 नाम का चक्कर अब तो सब ओर ठुनठुनिया का नाम फैल गया। सिर्फ गुलजारपुर में ही नहीं, आसपास गाँवों में भी उसके नाम के चर्चे होने लगे। सब कहते, “भाई, ठुनठुनिया तो सबसे अलग है।...ठुनठुनिया जैसा तो कोई नहीं!” पर कुछ लोग ठुनठुनिया को खामखा छेड़ते भी रहते थे। वे कहते, “ठुनठुनिया, ओ ठुनठुनिया! जरा बता तो, तेरे नाम का मतलब क्या है?” “मतलब क्या है...? अजी, ठुनठुनिया माने ठुनठुनिया!” ठुनठुनिया अपने सहज अंदाज में ठुमककर कहता। “यह तो कोई बात नहीं हुई। ठुनठुनिया का तो कोई मतलब हमने सुना नहीं। इतना अजीब नाम तो किसी का नहीं ...Read More

10

एक था ठुनठुनिया - 10

10 स्कूल में दाखिला ठुनठुनिया का नाम तो चारों ओर फैल रहा था, पर उसकी शरारतें और नटखटपन भी जा रहा था। ठुनठुनिया की माँ गोमती कभी-कभी सोचती, ‘क्या मेरा बेटा अनपढ़ ही रह जाएगा? तब तो जिंदगी-भर ढंग का खाने-पहनने को भी मोहताज रहेगा। एक ही मेरा बेटा है। थोड़ा पढ़-लिखकर कोई ठीक-ठाक काम पा जाए, तो मुझे चैन पड़े। कम से कम तब गुजर-बसर की तो मुश्किल न होगी।’ आखिर एक दिन ठुनठुनिया की माँ उसे लेकर गुलजारपुर के विद्यादेवी स्कूल में गई। स्कूल के हैडमास्टर थे सदाशिव लाल। ठुनठुनिया की माँ ने उनके पास जाकर कहा, ...Read More

11

एक था ठुनठुनिया - 11

11 क्लास में पहला दिन स्कूल में दाखिला लेने के बाद ठुनठुनिया अगले दिन पहली कक्षा में पढ़ने गया। मास्टर अयोध्या बाबू हिंदी पढ़ा रहे थे। ठुनठुनिया कक्षा में जाकर सबसे पीछे बैठ गया और अपनी किताब खोल ली, पर उसकी समझ में नहीं आ रहा था कि मास्टर जी क्या पढ़ा रहे हैं? पढ़ाते-पढ़ाते मास्टर जी का ध्यान ठुनठुनिया की ओर गया, तो उन्होंने उसकी ओर उँगली उठाकर पूछा, “क्या नाम है तुम्हारा?” “जी, ठुनठुनिया...!” ठुनठुनिया ने खड़े होकर बड़े अदब से बताया। “ठुनठुनिया! यह तो अजीब नाम है!” मास्टर अयोध्या प्रसाद कुछ सोच में पड़ गए। फिर ...Read More

12

एक था ठुनठुनिया - 12

12 मास्टर जी...चूहा! मास्टर अयोध्या बाबू की शाबाशी ने सचमुच काम किया। अब ठुनठुनिया ने थोड़ा-थोड़ा पढ़ाई में मन शुरू किया। हालाँकि अब भी उसका ध्यान पढ़ाई से ज्यादा दूसरी चीजों पर रहता था। मास्टर अयोध्या बाबू ठुनठुनिया को बड़े प्यार से समझाकर पढ़ाते। अ-आ, इ-ई...के बाद क-ख-ग...सब उन्होंने समझाया, याद कराया। किताब में एक-एक शब्द बोल-बोलकर पढ़ना सिखाया, फिर भी ठुनठुनिया हिंदी की किताब पढ़ने बैठता तो उसका ज्यादा ध्यान चित्रों पर ही रहता था। चित्र थे भी गजब के। और एक से एक सुंदर। चूहा, बिल्ली, गधा, हाथी, भालू, हिरन, हंस, बगुला, पतंग, पेड़, गिलहरी, गुलाब...जैसे ये ...Read More

13

एक था ठुनठुनिया - 13

13 कहाँ गया खाना? ठुनठुनिया जब स्कूल जाने के लिए घर से निकलता, तो उसकी माँ दोपहर में खाने लिए या तो उसे अचार-रोटी देती या फिर केला-अमरूद। कभी-कभी मूँगफली या लाई-चने भी देती। आधी छुट्टी होने पर जो कुछ माँ टिफन में रख देती, उसे खाकर ठुनठुनिया झट खेलने चला जाता। क्लास के दूसरे बच्चे भी ज्यादातर यही करते थे। पर क्लास में एक अमीर बच्चा था मनमोहन।...एकदम साहबजादा! वह सेठ दुलारेलाल का बेटा था। स्कूल में आधी छुट्टी में खाने के लिए वह घर से रोज नए-नए पकवान लेकर आता था। फिर एक-एक चीज निकालकर सबको दिखाकर ...Read More

14

एक था ठुनठुनिया - 14

14 आह, वे फुँदने! सर्दियाँ आईं तो ठुनठुनिया ने माँ से कहा, “माँ...माँ, मेरे लिए एक बढ़िया-सी टोपी बुन सुंदर-सुंदर फुँदनों वाली टोपी। स्कूल जाता हूँ तो रास्ते में बड़ी सर्दी लगती है। टोपी पहनकर अच्छा लगेगा।” गोमती ने बेटे के लिए सुंदर-सी टोपी बुन दी, चार फुँदनों वाली। ठुनठुनिया ने पहनकर शीशे में देखा तो उछल पड़ा, सचमुच अनोखी थी टोपी। टोपी पहनकर ठुनठुनिया सारे दिन नाचता फिरा। अगले दिन टोपी पहनकर स्कूल गया, तो सोच रहा था, सब इसकी खूब तारीफ करेंगे। पर ठुनठुनिया की टोपी देखकर मनमोहन और सुबोध को बड़ी जलन हुई। हमेशा वे ही ...Read More

15

एक था ठुनठुनिया - 15

15 मोटेराम पंडित जी इसके कुछ बाद की बात है।...सर्दियाँ कुछ और बढ़ गई थीं। दाँत किट-किट कर पहाड़ा थे। खासकर सुबह और शाम के समय तो बर्फीली हवाएँ हड्डियों तक में धँसने लगतीं। और कवि लोग रजाई में घुसकर काँपते हाथों में कलम पकड़कर कविता लिखना शुरू करते, “आह जाड़ा, हाय जाड़ा!” ऐसे ही बर्फीले जाड़े के दिन थे। एक बार ठुनठुनिया रात को घूमकर घर वापस आ रहा था। तभी अचानक गाँव के बाहर वाले तालाब के पास उसे जोर की ‘धम्म्...मss!’ की आवाज सुनाई दी। और इसके साथ ही, “बचाओs, बचाओss...!” ठुनठुनिया दौड़कर तालाब के पास ...Read More

16

एक था ठुनठुनिया - 16

16 खजाना बोल पड़ा एक बार की बात, ठुनठुनिया रात में गहरी नींद सो रहा था। तभी माँ की आई, “ठुनठुनिया, ओ ठुनठुनिया! लगता है, अपनी छत पर चोर आ गए हैं।” सुनते ही ठुनठुनिया चौंका। झट उसकी नींद खुल गई। उसने ध्यान से छत से आ रही आवाजों को सुना। उसे अब कोई संदेह न रहा कि छत पर चोर ही हैं। घर में और तो कुछ सामान न था। हाँ, पर माँ के बरसों पुराने सोने के गहने तो थे। चोर उन्हीं को चुराने आए थे। अब क्या किया जाए? ठुनठुनिया ने झट अपना दिमाग लगाया तो ...Read More

17

एक था ठुनठुनिया - 17

17 उड़ी, उड़ी रे पतंग ठुनठुनिया को सबसे मुश्किल काम लगता था पतंग उड़ाना। उसे आसमान में उड़ती हुई पतंगें देखना जितना अच्छा लगता था, उतनी ही परेशानी होती थी खुद पतंग उड़ाने में। जब भी वह हुचकी, पतंग-डोरी लेकर जोश से भरकर मैदान में पहुँचता तो या तो पतंग उससे उड़ती ही नहीं थीह या फिर उड़ाते-उड़ाते वह फट जाती थी। ठुनठुनिया उदास हो जाता था। सोचता, शायद मैं पतंग उड़ाना कभी न सीख पाऊँगा। एक दिन ठुनठुनिया ने मन को पक्का कर लिया, चाहे जो हो, पतंग उड़ाना तो सीखना ही है। उसने माँ से दो रुपए ...Read More

18

एक था ठुनठुनिया - 18

18 नए दोस्तों के साथ नौका-यात्रा अगले दिन मनमोहन शाम के समय छिद्दूमल की बगिया में सुबोध से मिला, वह वाकई एक बदला हुआ मनमोहन था। उसने मन ही मन कुछ गुन-सुन करते हुए सुबोध से कहा, “वाकई ठुनठुनिया में है कुछ-न-कुछ बात!” “कैसी बात, कौन-सी बात?...मैं भी तो सुनूँ।” सुबोध को हैरानी हुई। वह पहली बार मनमोहन से ठुनठुनिया की तारीफ सुन रहा था। “बस, जादू ही समझो...!” अब के मनमोहन ने जरा और खुलकर कहा। “अरे! कुछ बता न, पूरी बात क्या है?” सुबोध थेड़ा चिढ़ गया। तब मनमोहन ने कल की पूरी घटना बता दी। फिर ...Read More

19

एक था ठुनठुनिया - 19

19 रहस्यमय गुफा नौका-यात्रा करते चारों मित्र नदी के दूसरे किनारे पर पहुँचे, तो एक क्षण के लिए सहम सचमुच सब ओर सन्नाटा पसरा हुआ था—एक अजब तरह की सुनसान शांति।...पत्ता भी हिले तो आवाज हो! ऐसा चुप-चुप...चुप-चुप...चुप-चुप सन्नाटा। “मैं तो आज तक कभी इधर नहीं आया।” ठुनठुनिया ने गौर से इधर-उधर देखते हुए कहा। “हाँ...और मैं भी!” मीतू बोला, “देखो तो, कितना सन्नाटा है। डर-सा लग रहा है। दूर-दूर तक कोई आदमी नहीं...!” “हम जंगल के बारे में सुना करते थे। असली जंगल तो यह है, पहाड़ी चट्टानों के बीच!” मनमोहन ने उन विशालकाय घने पेड़ों की ओर ...Read More

20

एक था ठुनठुनिया - 20

20 रग्घू खिलौने वाला ठुनठुनिया की तारीफ तो सब ओर से हो रही थी, पर उसकी एक मुश्किल भी पढ़ाई में उसका मन नहीं लगता था। पढ़ाई के अलावा बाकी सब चीजें अच्छी लगती थीं। इधर-उधर घूमना-घामना, खेल-कूद, ड्राइंग, गपशप, किस्से-कहानी हर चीज में उसे मजा आता था। बस, पढ़ाई के नाम पर उसकी जान सूखती थी। माँ कभी-कभी आजिज आकर कहती, “बेटा, पढ़-लिख लेता तो तेरा जीवन सुधर जाता। मुझे भी चैन पड़ता।” ठुनठुनिया हँसते हुए जवाब देता, “माँ, पढ़ाई खाली किताबों से थोड़े ही होती है। मैं तो जीवन की खुली पाठशाला में पढ़ना चाहता हूँ। वहाँ ...Read More

21

एक था ठुनठुनिया - 21

21 नाच-नाच री कठपुतली एक दिन ठुनठुनिया रग्घू खिलौने वाले के यहाँ से घर आ रहा था कि रास्ते एक जगह उसे उसे भीड़ दिखाई पड़ी। पास जाकर उसने पूछा तो किसी ने बताया, “अरे भई, अभी यहाँ कठपुतली का खेल होगा। जयपुर का जाना-माना कठपुतली वाला मानिकलाल जो आया है। ऐसे प्यारे ढंग से कठपुतलियाँ नचाता है कि आँखें बँध जाती हैं। जादू-सा हो जाता है।...” सुनकर ठुनठुनिया अचंभे में पड़ गया। कई साल पहले एक बार उसने कठपुतली का खेल देखा था। उसकी हलकी-सी याद थी। सोचने लगा, ‘क्यों न आज जमकर कठपुतली के खेल का आनंद ...Read More

22

एक था ठुनठुनिया - 22

22 फिर एक दिन सचमुच ये ऐसे दिन थे जिनके बारे में कहा जाता है कि वे पंख लगाकर हैं। मानिकलाल कठपुतली वाले के साथ रहते हुए ठुनठुनिया भी मानो सपनों की दुनिया में उड़ा जा रहा था। यों तो मानिकलाल का पहले भी खूब नाम था, पर ठुनठुनिया के साथ आ जाने पर तो उसकी कठपुतलियों में जैसे जान ही पड़ गई। अब तो उसकी कठपुतलियाँ नाचती थीं, तो सचमुच की कलाकार लगती थीं। दूर-दूर से उसे कठपुतलियों का खेल दिखाने के लिए न्योते मिल रहे थे। बड़े-बड़े लोग उसे बुलाते और मुँह माँगे पैसे देने को तैयार ...Read More

23

एक था ठुनठुनिया - 23

23 घर आया बेटा जिस समय मास्टर अयोध्या बाबू ठुनठुनिया का हाथ पकड़े हुए घर आए, गोमती की हालत थी। पिछले सात-आठ दिन से उसे बुखार आ रहा था, जो उतरने का नाम न लेता था। अब तो कमजोरी और चक्कर आने के कारण उसका उठना-बैठना भी मुहाल था। बस, चारपाई पर पड़ी रहती थी सारे-सारे दिन। थोड़ी-थोड़ी देर बाद पानी मुँह में डाल लेती। अभी दो-तीन रोज पहले डॉक्टर से दवाई तो लाई थी, पर खाने का मन ही न होता था। एकाध पुड़िया खाई, बाकी दवाई उसके सिरहाने पड़ी थी। शरीर से ज्यादा पीड़ा और कष्ट उसके ...Read More

24

एक था ठुनठुनिया - 24

24 बदल गई राह बस, उसी दिन से ठुनठुनिया का जीवन बदल गया। गोमती की तबीयत तो ठुनठुनिया को आँखों के आगे देखते ही ठीक होनी शुरू हो गई थी। और दूसरे-तीसरे दिन वह बिल्कुल ठीक हो गई। पर ठुनठुनिया के भीतर जो उथल-पुथल मच गई थी, वह क्या इतनी जल्दी ठीक हो सकती थी! ठुनठुनिया को लगता, माँ की इस हालत के लिए वही जिम्मेदार है। उसे इस तरह माँ को अकेला छोड़कर नहीं जाना चाहिए था। फिर पढ़ाई-लिखाई भी जरूरी है। उसके बगैर काम नहीं चलेगा—यह बात भी उसके भीतर बैठने लगी। “माँ, चिंता न कर। अब ...Read More

25

एक था ठुनठुनिया - 25

25 स्कूल का वार्षिक उत्सव धीरे-धीरे समय आगे बढ़ा। ठुनठुनिया अब बारहवीं कक्षा में था और बड़ी तेजी से की परीक्षा की तैयारी में जुटा था। अब वह पहले वाला ठुनठुनिया नहीं रह गया था। उसमें गजब का आत्मविश्वास आ गया था। उसने तय कर लिया था कि ‘मंजिल पाकर दिखानी है। तभी मेरी माँ को सुख-शांति मिलेगी। जीवन-भर इसने इतने कष्ट झेले, कम-से-कम अब तो कुछ सुख के दिन देख ले।’ इसी बीच एक दिन हैडमास्टर साहब ने ठुनठुनिया को बुलाया। कहा, “ठुनठुनिया, अगले महीने स्कूल का सालाना फंक्शन होना है। मुख्य अतिथि होंगे कुमार साहब! वे यहाँ ...Read More

26

एक था ठुनठुनिया - 26 - अंतिम भाग

26 हाँ, रे ठुनठुनिया...! ठुनठुनिया बारहवीं की परीक्ष देकर कुमार साहब के पास पहुँचा तो उसका दिन धुक-धुक कर था। उसके मन में अजब-सा संकोच था। वह सोच रहा था, ‘फंक्शन की बात कुछ और है। पता नहीं, कुमार साहब अब मुझे पहचानेंगे भी कि नहीं?’ पर कुमार साहब तो जैसे उसी का इंतजार कर रहे थे। उसे पास बैठाकर चाय पिलाई और फिर अपने साथ ले जाकर पूरी फैक्टरी में घुमाया। फैक्टरी की एक-एक मशीन और उनके काम के बारे में बड़े विस्तार से बताया। आज की दुनिया में डिजाइनिंग के नए-नए तरीकों के बारे में बताया, जिसमें ...Read More