विरोधापभाष कम होता प्रतीत नहीं हो रहा था, बल्कि बढ़ता ही जा रहा था। बाहर का विरोधाभाष होता तो स्नेहा उन बातों पर बिल्कूल भी ध्यान नहीं देती और खुद को एक कमरे में बंद करके अपने काम में लग जाती। यह विरोधाभाष तो स्नेहा के मन का था। मन का ही एक पक्ष स्वीकृती प्रदान कर रहा था और मन का ही एक पक्ष विरोध उत्पन्न कर रहा था। दुविधा की स्थिती में जीना कितना दुष्कर होता है, यह बात तो सबको पता है। क्षण में बुना जाला बड़ी देर में टुटता है।स्नेहा ने दो बार फोन कट