जहाँ से खुद को पाया - 2

PART–2‎‎‎‎दिल्ली की सुबह गाँव की सुबह जैसी नहीं होती। यहाँ सूरज निकलने से पहले ही शोर शुरू हो जाता है। हॉर्न, भीड़, भागते कदम और बेचैन चेहरे। ‎रेलवे स्टेशन के एक कोने में बैठा सयुग आँखें मलते हुए उठा। रात भर नींद और जागने के बीच झूलता रहा था।‎‎ ज़मीन सख़्त थी, शरीर दुख रहा था, लेकिन उससे ज़्यादा दर्द मन में था।‎‎उसने आसपास देखा। कोई अख़बार बिछाकर सो रहा था, कोई अपना बैग सीने से लगाए बैठा था, कोई बिना किसी चिंता के चाय पी रहा था।‎ सब अपनी-अपनी लड़ाइयों में उलझे थे। यहाँ किसी को किसी से फ़र्क नहीं