उड़ान (1)

तीस साल की दिव्या, श्वेत साड़ी में लिपटी एक ऐसी लड़की, जिसके कदमों में घुंघरू थे, पर कंधों पर सालों से एक अदृश्य बोझ।घर में उसका नाम अब एक गाली की तरह बोला जाता।सुबह सात बजे माँ की चीख गलियारे में गूंजती—'दिव्या, अभी तक सो रही है? सारा दिन किताबें लिए बैठी रहेगी!'नौ बजे भाभी की तीखी आवाज—'दिव्या ने फिर बर्तन नहीं छुए। मैं ही नौकरानी हूँ क्या?'रात दस बजे खाने की मेज पर भाई का ठंडा ताना—'दीदी की अब शादी कर दो, कम-से-कम घर से एक सफेद हाथी तो हटेगा।'पिताजी चुप। बस पेंशन की पर्ची देखते हुए आह भरते।