बचपन की आख़िरी चिट्ठी(एक हिस्सा, पर पूरी कहानी)हमारा पहला दिन था प्लेस्कूल का।मैं नीली फ्रॉक में थी, नैना पीले में।मैं रो रही थी क्योंकि मम्मी चली गई थीं, और नैना ने बिना कुछ कहे अपना छोटा-सा हाथ मेरे गाल पर रख दिया।“रो मत, मैं हूँ ना,” उसने कहा था।उस दिन से हम दो नहीं, एक हो गए थे।अंशिका और नैना।दो नाम, एक साँस।हम साथ-साथ बड़े हुए।एक ही बेंच, एक ही टिफिन, एक ही पानी की बोतल।अगर मेरे पास चॉकलेट थी तो आधी नैना की, अगर उसके पास आम का अचार था तो पूरा मेरा।टीचर गुस्सा करतीं, “तुम दोनों अलग-अलग बैठो!”हम