वक़्त का पहिया

वक़्त का पहियालेखक: विजय शर्मा एरीमार्च २०२०। दिल्ली की मेट्रो में खड़ा था मैं, कान में ईयरफ़ोन, आँखें बंद। गाना बज रहा था—“दिल है कि मानता नहीं…”—औँचक-औँचक कर। अचानक स्पीकर से आवाज़ आई: “जनता कर्फ्यू। घर पर रहें। शाम पाँच बजे ताली बजाएँ।” मैंने आँखें घुमाईं। फिर वही पुराना ड्रामा। मेट्रो स्टेशन से बाहर निकला तो हवा में कुछ अजीब था। सड़कें ख़ाली। दुकानें बंद। आसमान नीला—वो नीला जो बचपन में किताबों में देखा था, जब पापा मुझे छत पर ले जाकर कहते, “देख विजय, ये तारे तेरे सपनों जैसे चमकते हैं।” लेकिन अब वो तारे कहीं खो गए थे,