आख़िरी वादारात का सन्नाटा गहरा चुका था। गाँव के उस छोटे से घर में एक बुढ़ी माँ चारपाई पर लेटी हुई थीं। उम्र का बोझ और बीमारियों ने उनके शरीर को निढाल कर दिया था। साँसें भारी-भारी चल रही थीं, लेकिन आँखों में अब भी वही उम्मीद झलक रही थी – अपने बेटे की एक झलक देखने की।बेटा, जिसे उन्होंने अपनी हथेलियों की लकीरों से बड़ा किया था, अब शहर में बस गया था। सपनों के पीछे भागते-भागते उसने माँ के आँचल की गर्माहट से दूरी बना ली थी। कभी वह हर शाम माँ की गोदी में सिर रखकर अपनी