गाँव के किनारे खड़ी पुरानी हवेली को लोग “खामोश हवेली” कहते थे। दशकों से वहाँ कोई नहीं रहता था। दीवारों पर उगी काई, टूटी खिड़कियाँ और जंग लगे गेट देखकर लगता था मानो हवेली साँस ले रही हो। गाँव के बच्चे भी वहाँ पास जाने से डरते थे। बुजुर्ग कहते थे—“वहाँ रात को कोई औरत रोती है, कभी चीखती है, कभी गुनगुनाती है।”अर्जुन, शहर का एक युवा पत्रकार, अपने अख़बार के लिए “भूतहा जगहों का सच” नाम से एक विशेष रिपोर्ट बना रहा था। जब उसने खामोश हवेली के बारे में सुना तो उसकी जिज्ञासा बढ़ गई। गाँव वालों ने