कश्मकश

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रात का सन्नाटा पूरे शहर को ढक चुका था। घड़ी की सुइयाँ बारह बजा रही थीं, लेकिन अन्वी की आँखों में नींद का नामोनिशान नहीं था। कमरे की मेज़ पर मेडिकल की मोटी किताबें खुली पड़ी थीं—एनाटॉमी, फिज़ियोलॉजी, बायोकैमिस्ट्री। पन्नों पर लिखे शब्द धुंधले पड़ते जा रहे थे।उसकी नज़रें बार-बार कमरे के कोने में रखे सफ़ेद कैनवास पर चली जातीं, जो कई हफ़्तों से अधूरा पड़ा था। ब्रश सूखा पड़ा था, रंगों की डिब्बियाँ धूल जमा चुकी थीं। दिल बार-बार कहता—"ब्रश उठाओ, अपनी आत्मा को उड़ान दो।" मगर दिमाग़ कहता—"नहीं! पापा का सपना टूट जाएगा।"यही उसकी सबसे बड़ी कश्मकश थी—ज़िम्मेदारी