बरसात की बूंदें धीरे-धीरे मिट्टी पर गिर रही थीं। हवा में भीगती मिट्टी की खुशबू किसी पुराने गीत जैसी लग रही थी। छोटे से कस्बे की पुरानी डाकघर की इमारत अब आधी जर्जर हो चुकी थी। ईंटों की दीवारों में दरारें पड़ चुकी थीं, लेकिन भीतर बैठा बूढ़ा डाकिया रमेश आज भी अपने काम में तल्लीन था।रमेश इस डाकघर में चालीस साल से काम कर रहा था। अब तो चिट्ठियों का दौर भी लगभग खत्म हो चुका था। सब कुछ मोबाइल और इंटरनेट पर सिमट गया था। लोग कहते, "अब डाकघर की ज़रूरत किसे है?"लेकिन रमेश के लिए हर चिट्ठी